Saturday, March 22, 2014

सुंदर लेखन की विकास यात्रा

Vikas Prabha cover

कवि और आलोचक विजय कुमार आईडीबीआई बैंक में विकास प्रभा पत्रिका निकालते थे। विषय च‍यन साहित्‍य संस्‍कृति के अछूते पहलुओं को छूने वाला होता और साज-सज्‍जा अत्‍यंत कलात्‍मक। हर अंक कड़ी मेहनत और प्रेम से निकालते। पाठकों और साहित्‍य-समाज में इस पत्रिका को बड़ा आदर मिलता था। अगर इसके सारे अंकों पर नजर डाली जाए तो ये विजय कुमार की संपादन क्षमता के विचारोत्‍तेजक और चित्‍ताकर्षक उदाहरण सिद्ध होंगे। आईडीबीआई के अपने अल्‍प सेवाकाल में, और बाद में भी मुझे भी पत्रिका से जुड़ने का मौका मिला है। कुछ दिन पहले पत्रिका का सौवां अंक मिला जिसमें पिछले अंकों की चुनी हुई सामग्री दी गई है। विजय जी ने सुलेखन यानी कैलीग्राफी और लिपियों पर एक अंक निकाला था जिसका आवरण ऊपर दिया गया है। इसमें मेरा यह लेख था। यह उनके मार्गदर्शन में में मैंने बड़ा मजा लेकर लिखा था। उन्‍होंने साथ में कई दुर्लभ चित्र भी छापे थे। यह लेख सौवें अंक में शामिल किया गया है। यहां दिए गए चित्र पुराने अंक से ही लिए गए हैं जो आईडीबाआई के मित्रों ने सहर्ष मुझे फिर से भेज दिया।      

 
Vikas Prabha cover 1titleआपने अक्सर देखा होगा और शायद ध्यान भी दिया होगा कि जन्म कुंडलियों, पुराने दस्तावेजों, शिलालेखों, प्राचीन पांडुलिपियों आदि को बड़े कलात्मक ढंग से लिखा जाता है. असल में यह लेखन इतना आकर्षक होता है कि नजर अनायास उनकी ओर खिंची चली जाती है. ध्यान लगाने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता. इस लालित्यपूर्ण कलात्मक सुलेखन की दुनिया भर में, लंबी परंपरा रही है. 'कैलिग्राफी' के नाम से प्रसिद्ध इस लेखन शैली को कला का दर्जा हासिल है. सुलेखन के विविध रुप विश्व की लगभग हर भाषा में मिलते हैं. इसकी शुरुआत लिपियों के विकास के साथ हुई. यानी जब भाषा को लिखित रुप में अभिव्यक्त किया जाने लगा तो उसे सुरक्षित रखने की जरुरत महसूस हुई.   लिखा हुआ दस्तावेज लंबे समय तक सुरक्षित रह सके, इसके लिए ऐसे माध्यम ढूंढे गए जो जल्दी नष्ट न हों. दस्तावेज के साथ साथ लिपिकार या लेखक की अलग पहचान बनी रह सके इसलिए लेखकों ने लेखन पर निजी छाप छोडी. निजत्व और वैशिष्ट्य बनाए रखने के लिए कल्पना और कलात्मकता का सहारा लिया. कैलिग्राफी तत्कालीन सभ्यता के प्रतिबिंब की तरह हमारे सामने अवतरित होती है. कैलिग्राफी के माध्यम से धार्मिक साहित्य, प्रशासन, राज्यसत्ता, साहित्य आदि की विकास यात्रा की विभिन्न छवियां भले ही प्रच्छन्न रुप से साकार होती हों, लेकिन अलग-अलग समाजों की सौंदर्य दृष्टि और अभिरुचियों की जानकारी हमें स्पष्ट रुप से मिलती है.
भूमध्य सागर के पूर्वी किनारे पर सामी (अरबी-यहूदी) लोगों ने ईसा से 2 सहस्त्राब्दियां पहले वर्णमाला लेखन के प्रयोग किए. वर्णों के ये चिह्रन मिट्टी के ठीकरों या पत्यरों पर कुरेदे गए हैं. इनमें से कुछ सुंदरता के अद्भुत नमूने माने जाते हें. यूनान में 8 वीं शताब्दी से पहले प्रचलित यूनानी वर्णमाला एक कलश पर खुदी हुई मिली है. यह कलश एथेन्स में पुरस्कार स्वरुप दिया गया था. प्राचीन यूनानी प्रथम गीतकार आर्किलोकस जो ई.पू. 7वीं सदी में हुआ, के समय में साहित्य का सुलेखन शुरु हुआ. साहित्यिक रचनाएं तो नष्ट हो गईं, कांसे या संगमरमर पर उकेरे गए या फूलदानों पर लिखे गए पाठ बचे रह गए. ये ई.पू. चौथी सदी के हैं. इन्हीं प्रमाणों से पता चलता है कि यूनानी लोग कैसे लिखते थे. मकदूनिया में इस तरह के प्राचीनतम उदाहरण की खोज सन् 1962 में हुई. लेखन का यह रूप कार्बन में बदल चुके श्रीपत्र के डण्ठलों से बने कागज (पेपीरस) पर मिला है, मिस्रवासी इस कागज का इस्तेमाल पांडुलिपि के रूप में करते थे. 

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फोनिशिया का सुन्दर अभिलेख
सामी लोगों ने अपनी बोलियों के आधार पर 22 चिन्हों वाली वर्णमाला बनाई थी. ई.पू.1000 तक लेखन में उसका प्रयोग भी शुरु कर दिया था. सामी लोगों ने, जो भूमध्य सागर के तट के आसपास रहते थे. आपसी व्यापार के जरिए फोनीशियाई भाषा के कई वर्ण यूनानियों को दिए, यह भाषा अब विलुप्त हो गई है. साइप्रस में ईसा से 8000 साल पहले का कांसे का एक कटोरा मिला है. जिस पर फोनीशिया का सुंदर अभिलेख है. इसे बौल औफ लेबनान कहा जाता है. ऐसा माना जाता है कि पुरानी हिब्रू भाषा ई.पू. पहली सहस्त्राब्दी में विद्यमान थी. समेरियाइयों के तेरहवीं शताब्दी के दस्तावेजों में पुरानी हिब्रू के वर्णाक्षर सुरक्षित हैं. ई.पू. छठी शताब्दी में इजराइलियों के निर्वासन के कारण हिब्रू भाषा का काफी नुकसान हुआ. उनकी वापसी के बाद आरमियाई प्रमुख भाषा बन गई और कलम से लिख हुए दस्तावेज तैयार किए जाने लगे.
आरमियाई भाषा भूमध्य सागर के पूर्वी किनारे से पूर्व, दक्षिण और उत्तर की तरफ फैली. भाषा राजनैतिक शक्ति के आधार पर नहीं फैली. बल्कि इसके विस्तार का एक कारण था भाषा और लिपि की क्षमता और दूसरा कारण खुद आरमियाई लोग थे. ईसा मसीह के जन्म से पहले की सहस्त्राब्दी में आरमियाई व्यापार और घुमकडी़ के लिए प्रसिद्ध थे. उन्हीं के साथ भाषा दूर दूर तक फैली. भारतीय या संस्कृत सुलेखन परंपरा का संबंध भी आरमियाई लेखन पद्धति से बताया जाता है. संस्कृत को भारोपीय परिवार की भाषा तो माना ही जाता है. यह लेखन सबसे पहले तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक के शिलालेखों में मिलता है. इसके बाद खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपि का विकास हुआ. खरोष्ठी लिपि ई.पू. तीसरी सदी से ईसा के बाद चौथी सदी तक उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में प्रयुक्त होती रही. मध्य एशिया में यह आठवीं सदी तक प्रचलित रही. 

दुनिया की लगभग सभी भाषाएं वर्णमालाओं पर आधारित हैं. लेकिन पूर्वी एशियां या चीन, जापान और कोरिया की भाषाएं वर्णमाला पर आधारित नहीं है. ये भाषाएं विभिन्न आकारों की रेखाओं से बनती हैं. प्राचीन चीनी भाषा के लिखित शब्द मिस्त्र की चित्रलिपि की तरह चित्रात्मक थे. ये चित्र मिस्त्री लेखन के यथार्थपरक चित्रों की तरह नहीं होते थे. यहां बिंब को सरल बनाया जाता था और अर्थ का सुझाव दिया जाता था. इन चित्रों की संरचना बदलती भी रहती थी. आरंभिक चीनी भावचित्र बड़े जानवरों की स्कंध अस्थियों पर और कच्छप-कवचों पर उकेरे गए हैं. यह चिया-कु-वेन या अस्थि-एवं-कवच लिपि ई.पू. 1766 ई.से 11232 ई के दौरान प्रचलित थी. कहा जाता है लेखन के ये विचार प्रथम आविष्कारक त्जांग-चेह ने पशुओं के पदचिन्हों और पक्षियों के पदचिन्हों और पक्षियों के पंजों के निशानों से प्राप्त किए. चित्रों के आकार प्रकृति के दूसरे रुपों से भी ग्रहण किए गए. चित्र उकेरने के लिए सरल और बहुत कम रेखाओं का प्रयोग किया गया. जाहिर है पहले संज्ञाओं को चित्रकिंत किया गया होगा. क्रियाओं भावनाओं आदि के भावसूचक चित्र बाद में खोजे गए होंगे. चित्रात्मकता की वजह से चीनी लिपि बहुत आकर्षक है जैसे हिरण का भावाकंन करते समय कुछ सरल रेखाओं से उसके सींग, अपेक्षाकृत बड़ी आंख और टांगे बनाई जाती हैं. शायद सींगों और आंख से ही हिरण का अर्थ संप्रेषित होता है. हिरण के दो चित्रों को अगर साथ साथ बना दिया जाए तो उसका अर्थ होता है सुंदर या सुदुरता और यदि इन दो हिरणों के ऊपर एक और हिरण बना दिया जाए तो उसका अर्थ हो जाता है सुरदरा या अपरिष्कृत. इतना ही नहीं इसका अर्थ अंहकारी या दंभी भी हो सकता है.

कांस्य लिपि का विकास
अस्थि-एवं-कवच लिपि के बाद चीन में कांस्य लिपि का विकास हुआ. खाना पकाने के लिए और पूर्वजों की पूजा के विशेष आयोजनों में मदिरा के लिए कांसे के बर्तनों का प्रयोग शुरु हुआ. ये आयोजन इतने पवित्र माने जाते थे कि इनके लिए कांसे के सर्वोत्तम प्रकार के बर्तन विशेष रुप से ढाले गए, उन पर शब्द उकेरे जाते थे. चूंकि आयोजन पवित्र थे बर्तन विशेष थे इसलिए इन शब्दों को भी अलंकरणों की तरह उत्कीर्ण किया जाता था. कैलिग्राफी की यह शैली चिन-वेन या वृहद्-मुद्रा लिपि कहलाती थी. कैलिग्राफी के विकास में धर्म की भूमिका चीन में ही नहीं. यूनान में भी महत्वपूर्ण रही है. जैसे पहले श्रीपत्र के डंठलों और चमडे से बने कागजों को जोडकर गोलाकार लपेटा जाता था. बाद में कागजों को तहाकर पांडुलिपि बनाने की प्रथा शुरु हुई. लपेटे हुए कागज यहूदी धर्म से जुडे थे तो ईसाइयों ने खास कर न्यू-टेस्टामेंट की प्रतियों को नए रुप में यानी तहा कर रखना शुरु किया. दूसरी सदी का साहित्य भी इसी रुप में मिलता है. चौथी शताब्दी तक तो यह प्रमुख शैली ही बन गई.
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पूर्वी ईसाई जगत कई मत थे जिसके कारण सीरियाई भाषा और लिपि पूर्वी और पश्चिमी शाखाओं में बंट गई. पश्चिमी शाखा सेरटा कहलाई और इसमें से जेकोबाइट और मेल्काइट भाषाओं का विकास हुआ. सेरटा के लेखन में एक तरह की ऊर्जस्विता के दर्शन होते हैं. वर्ण आपस में इस तरह गुंथे होते हैं कि वर्णों के तल में एक सीधी और आडी यानी होरिजोन्टल रेखा बनती चलती है. इसी की पूर्वज प्राचीन हिब्रू भाषा में ऐसा नहीं होता था. जबकि आधुनिक सीरियाई भाषा में यह विशेषता विद्यमान है. पूर्वी सीरियाई लिपि नेस्टोरियाई कहलाई. ईसाई गिरजों की नेस्टोरियाई शाखा फारस में फली फूली और व्यापारी रास्तों से एशिया में दूर दूर तक फैली. अरबी कैलिग्राफ का विकास सातवीं-आठवीं सदी में हुआ. मुसलमानों का विश्वास है कि कुरान पैगम्बर मुहम्मद तक प्रधान देवदूत जिबराइल के जरिए पहुंची. इसके अर्थ ही नहीं शब्दों को भी इश्वर-प्रेरित माना जाता है. इसलिए हमेशा कुरान का पाठ मूल अरबी में ही किया जाता है. ईश्वर के शब्दों को अगर इतना सम्मान मिलेगा तो जाहिर है उन शब्दों को लिखने वाले लोग कम महत्वपूर्ण कलाकार नहीं होंगे. 

धर्म जिस तरह लोक जीवन में दखलअंदाजी करता है. राज्य सत्ता भी जन-जीवन को तोडती मरोड़ती रहती है. बाकी कलाओं की तरह यह अन्तप्र्रक्रिया कैलिग्राफी में भी प्रतिबिंबित होती है. चीन में आस्थि-एवं-कवच लिपि के बाद जब कांस्य लिपि का कारण उसे दस साल की सजा हुई. उसने जेल में भी इस लिपि पर केनत की और भविष्य के कैलिग्राफरों के लिए नए रास्ते खोल दिए. इसके बाद चेन शू यानी विधिवत् शैली (रेगुलर स्टाइल) का विकास हुआ. लगभग 2000 सालों से चीनी लोग आज भी इसी शैली का प्रयोग कर रहे हें. दस्तावेजों, किताबों आदि में इसी का इस्तेमाल होता है. जो लोग सिविल सर्विस की परीक्षा पास करना चाहते थे. उन्हें यह शैली सीखनी पड़ती थी. सातवीं सदी से चली आ रही इस परंपरा को 1905 में समाप्त किया गया. इस लिपि की विशेषता यह है कि लेखक अपनी इच्छा से इसे आकार दे सकता है. इससे समस्याएं तो खड़ी होती हैं पर देखने वाले के सामने अमूर्त सौंदर्य के ढेरों डिजाइन मूर्त हो उठते हैं.

लिखने में प्रवाह
वांग ह्सि चिह्रन ने विधिवत् शैली के महानूतम उदाहरण ही पेश नहीं किए. एक शब्द से दूसरे शबद तक जाने के लिए ब्रश की गति को आसान और तनाव मुक्त भी बनाया. यह ग्रास या तृण शैली कहलाई. जिस तरह यूनानी या अरबी में लेखन के प्रवाह के साथ शबद आपस में जुडते चलते हैं. उसी तरह तृण शैली में शब्द एक दूसरे से करीबी रिश्ता बनाते हैं. चीनी भाषा ऊपर से नीचे की ओर लिखी जाती है और तृण शैली में ब्रश के बहाव से ऐसा लगता है मानो हवा ने घास को एक खास अंदाज में अस्त व्यस्त कर दिया है. प्रकृति से प्रेरित चीनी कैलिग्राफी के लिए स्याही का पत्थर, अच्छा कागज या रेशम और ब्रश की जरुरत होती है. इसे कला का उन्नत रुप माना जाता है. इसकी दो प्रमुख विषेषताएं हैं. ब्रश के प्रत्येक स्ट्रोक में एकरुपता और संरचना में एक गत्यात्मक संतुलन. अंग्रेजी में जिस तरह वर्ण जोडते चले जाने का अभ्यस्त लेखन हम करते हैं. प्राचीन यूनानी कैलिग्राफी में पहले ऐसा नही था. केवल बड़े अक्षर (कैपिटल) ही लिखे जाते थे. प्लैटो ने लेखन में गति की बात कही है यानी तब प्रवाह विकसित होना शुरु हो गया था. धीरे धीरे बडे और छोटे अक्षरों का मिश्रण शुरु हुआ. ईसा से 99 साल पहले के एक ऋण करार में बडे अक्षरों और प्रवाही लेखन का सुमेल नजर आता है. सातवीं और आठवीं शताब्दी में दस्तावेजों के लिए यह शैली स्थापित हो गई. वर्णाक्षर दांयी तरफ झुकने भी लगे.Vikas Prabha cover 4-1

कागज और समय की बचत के लिए रोजमर्रा का लेखन छोटे यानी स्मौल अक्षरों में शुरु हुआ. वैसे छोटे अक्षरों का प्राचीनतम उदाहरण 835 ई. के धर्मोपदेशों के लिखन में मिलता है. 11वीं और 12वीं सदी में बडे अक्षरों का प्रयोग केवल प्रार्थना-पुस्तकों में होता था. जिन्हें गिरजों के मंद प्रकाश में पढ़ा जाता था. इस समय की कैलिग्राफी की तीन शैलियां मानी जाती हैं. अनगढ़ से दिखने वाले, कोणिक और ऐंठे हुए वर्ण, जिनमें गिरजों के कुछ पाठ लिखे गए है. दूसरी यानी सादी, साफ और कामकाजी शैली में प्राचीन लेखकों जैसे सोफोक्लीज, एरिस्टोफेन्स की रचनाएं लिखी गई हैं. तीसरी शैली बड़ी कलात्मक बल्कि बनावटी सी है. इन शैली में इम्पिरियल लाइब्रेरी या अमीर लोगों के लिए किताबें लिखी गई हैं. चौदहवीं शताब्दी के खत्म होते होते इतालवी विद्वानों ने यूनानी सीखनी शुरु कर दी थी. इसके साथ लेखन परंपरा भी इटली तक गई. फ्रेंच रौयल ग्रीक टाईप बनाने के लिए यूनानी विद्वानों एंजल्स वर्जीसियस की शैली को आदर्श मान गया था. इसका असर आज तक विद्यमान है. पुरानी रोमन कैलिग्राफी के लिए पेन का अगला हिस्सा चौड़ा होता था और उेस इस तरह चलाया जाता था कि तिरछी लाईन चौड़ी होकर उभरें. एक एक वर्ण लिखने के लिए हाथ कई बार उठाना पड़ता था. अरबी भाषा के लिपिकार कलम को आगे से तिरछा काटते थे. गोथिक शैली में पेन तिरछा पकड़ा जाता था. फिर यहां भी पेन के अगने हिस्से को तिरछा काटा जाने लगा. इससे अक्षर की चौड़ाई बढ़ जाती थे. 11वीं और 12वीं सदी में जर्मनी, फ्रांस और इंग्लैड में लिपि का और विकास हुआ और इसके मोड़ कोणों में बदल गए. 13वीं, 14वीं सदी में लेखन का आकार छोटा हुआ. 

छापेखाने ने कैलिग्राफी को पीछे धकेला है. पर इससे उसका महत्व भी बढ़ गया है. हालिंकि सुलेखन को सुरक्षित रखने के प्रयास पहले भी हुए हैं. आठवी-नौवीं सदी में रोम के सम्राट ने लेखन कक्ष यानी स्क्रिष्टोरियन बनवाए. 14वीं सदी के इतालवी कवि पेटरार्क ने भी पांडुलिपियों की प्रतिलियां बनाने का आंदोलन शुरु किया. 19वीं सदी के अंत में यांत्रिक जीवन के विरुद्ध कलात्मक विद्रोह के तहत फिर से कैलिग्राफी पर ध्यान दिया गया. इसे बचाने के लिए कई आंदोलन चले. कला विद्यालयों में इसे पढ़ाया भी जाने लगा. अभी भी महत्वपूर्ण दस्तावेजों, सनदों, प्रमाणपत्रों में इस खुशनवीसी या सुलेखन कला के नयनाभिराम दर्शन हो जाते हैं. अतीत की सौंदर्याभिरुचियां बचपन के दौस्त की तरह साथ रह सकती हैं. कैलिग्राफी भी सभ्यता के बचपन की याद दिलाती है और दोस्त की तरह हमारे पास आती है. तकनालौजी के जंजाल में उलझे संसार के बीच सुंदर अक्षरों, में लिख कुछ शब्द हमेशा हमें मेहनत, लगन और सुंदरता की याद दिलाते रहेंगे.
(जनवरी - मार्च 1993)

Saturday, March 8, 2014

ऑनलाईन कुल्लू पहुँचे अनूप सेठी


Sunday, February 23, 2014

ब्लेड की धार पर

                                                                             छायांकन : अरूंधती 




कार के एफ एम में जैसे ही विज्ञापन बजा

बिस्‍तर पर जाने से पहले फलाने ब्‍लेड से शेव करो वरना

बीवी पास नहीं फटकने देगी

चिकना चेहरा दिखलाओगे दफ्तर में

बीवी को दाढ़ी चुभाओगे यह नहीं चलेगा

याद आया ओह! रेजर रह गया बाथरूम में बाल फंसा झाग सना



आदतन कार चलती चली जाती थी वो मुस्‍काराया

यह औरतों को बराबरी देने का बाजारी नुस्‍खा है या

ब्‍लेड की सेल बढ़ाने का इमोशनल पेंतरा

फिर उसे लगा सच में ही चुभती होगी दाढ़ी पर

कभी बोली नहीं

उसे प्‍यार आया बीवी पर

और वो स्‍वप्‍न-लोक में चला गया

जैसे ही देहों के रुपहले पट खुलने की कामना करने लगा



दुःस्‍वप्‍न ने डंक मारा मानो वो नर-वृषभ है

नारि‍यों के रक्‍त सने हैं उसके हाथ

मदमत्‍त वह चिंघाड़ता हुआ दौड़ रहा सड़क पर

रोड़ी की तरह बि‍खराता चला जा रहा संज्ञाविहीन नारी देह

एक के बाद एक अखंड भूखंड पर

तभी उसकी दौड़ती कार की विंड स्‍क्रीन पर

टीवी मटकने लगता है जिसमें

लाइव टेलिकास्‍ट आ रहा है दौड़ती बस का

फेंकती जाती नारी देहों का

बस के स्‍टीयरिंग पर वही है, कंडक्‍टर वही

सहस्रमुखी अमानुष वही है

हड़बड़ाहट में चैनल बदलता है

उसके हाथ की रॉड यहां मोमबत्‍ती बन गई है

दुख और क्रोध और हताशा और अपराध-बोध में गड़ा जाता

खड़ा पाता खुद को महिलाओं के साथ



नृप-वृषभों के सम्‍मुख है

सींग अड़ाता वही है युवा-वृष

सारे दृश्‍य को तत्‍काल बदल डालने को आतुर

कोमल और सुकुमार और मानवीय रचना को व्‍याकुल

जैसे टीवी की चैनल न बदली दुनिया बदल डाली



तभी सिग्‍नल पर उसकी कार धीमी पड़ती है

बगल से ट्रैफिक पुलिस शीशा खटखटाता है

कार के शीशे काले क्‍यों हैं

चलान कटवाइए या लाइसेंस लाइए

वह झुंझलाता है निकाल दूगा हां निकाल दूंगा

अभेद्य पर्दे तमाम

फिर भी कितना पारदर्शी दि‍खूंगा

और करोगे रक्षा क्‍या तुम भी इन्‍स्‍पेक्‍टर

हाथ फैलाए खड़ा वह रहा वर्दीधारी नर-पुंगव

भिक्षा की मुद्रा में फैली यह हथेली

दरअस्‍ल काठ के प्रधानमंत्री की हथेली थी

जिस पर देश का भविष्‍य अथाह कटी-फटी रेखाओं के जाले में फंसा था



बिना कुछ किए वो हरी बत्‍ती की पूंछ पकड़ कर

चौराहे का भंवर पार कर गया

अब विंड स्‍क्रीन से उसका बाथरूम दिखने लगा था

जहां बीवी ने उसका रेजर ही नहीं

चड्ढी बनियान भी धोए और

अब वो फर्श पोंछ रही थी

एफ एम वह कब का बंद कर चुका था

सोच रहा था विंड स्‍क्रीन पर निरंतर चलते चैनलों का रिमोट

हासिल करने के लिए

क्‍या वह पीआईएल दायर करे

करे तो करे पर कहां करे 
 

Saturday, January 11, 2014

दीवारों की दरारों में पीपल

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पिछले कुछ महीनों में पूना में भारतीय फिल्‍म टेलिविजन संस्‍थान में तीन चार बार जाने का मौका मिला। कालेज यूनिवर्सिटी छोडे़ हुए करीब तीन दशक हो गए हैं। उसके बाद ऐसी जगहों पर जाने का खास मौका नहीं मिला। रस्‍मी तौर पर या मेहमान की तरह तो कभी कभार जाना हुआ, पर आम आदमी की तरह, और ज्‍यादा वक्‍त तक जाना न हुआ। एक समय में राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय, पृ‍थ्‍वी थियेटर, श्रीराम सेंटर, टाटा थियेटर में जाने की एक खास तरह की ललक रहती रही है। धीरे धीरे कई तरह की छायाएं इन जगहों पर पडी़ं, इनके रूप-स्‍वरूप, काम-धाम में तब्‍दीली आई। नतीजतन इनके प्रति खिंचाव भी नए सिरे से परिभाषित होने की मांग करने लगा।    DSC_1462-1

पूना के फिल्‍म टीवी संस्‍थान में जाने पर एक ठहरे हुए से समय से मुलाकात हुई। मुझे तीन दिन वहां यूं ही बिताने थे, कुछ न करते हुए। इसलिए मैं कैंटीन में, पेड़ के नीचे, सड़क किनारे बेंच पर या सी‍ढ़ियों पर अपना दिन बिताता रहा। इस ठहरे हुए समय में मुझे अपने कालेज के दिन याद आ गए। हिमाचल में धर्मशाला के सरकारी कालेज की दीवारें पत्‍थर की थीं, छतें निर्मल वर्मा वाली लाल टीन की थीं और ढलवां थीं। बरामदे चौड़े थे। मैदान हरियाले थे। वो युवा लोगों और युवा मनों की चहल-पहल, जोश और उम्‍मीद भरे दिन थे। यहां फिल्‍म संस्‍थान में एक आध दीवार ही पत्‍थर की है, बाकी जगह प्‍लास्‍टर लगा है। पत्‍थर की दीवार गेरू जैसे रंग में पुती है। बरामदे नहीं हैं, बन्‍नी सी है। एसबेस्‍टस की धंसती हुई सी ढलवां छत है। पेड़ हालांकि काफी हैं पर पहाड़ जैसी गदगद हरियाली मानसून के बाद यानी सितंबर महीने में भी नहीं है। प्‍लास्‍टर वाली दीवारों पर फिल्‍मी हस्‍तियों के चित्र बनाए गए हैं जो अलबत्‍ता दूर से ही ध्‍यान खींच लेते हैं। इसके अलावा लोक निर्माण विभाग की वास्‍तुकला प्रेरित नहीं कर पाती है। DSC_1475-1
मेरे तार वहां की बाहरी रफ्तार से जुडे़। एक तरह की सुस्‍ती, पस्‍ती, उदास सी दिखती चुप्‍पी, और इस सब में एक तरह की पिनक भरी मस्‍ती इस रफ्तार पर तारी रहती है। संस्‍थान में लगता है समय अभी भी झोला छाप बुद्धिजीवियों के समय में ही अटका है। लैपटॉप, बैकसैक, बाइक और बाइसैप्‍स वहां कम दिखते हैं। हालांकि संस्‍थान तकनीकी तौर पर समकालीन है। यह बाहरी लद्धड़ रफ्तार भले ही बीते हुए समय ही है, पर अपनी सी लगती है। शायद मैं भी वहीं अटका हूं।

संस्‍थान को थोडा़ नजदीक से देखने पर पता चला कि यहां छात्र ज्‍यादा नहीं हैं। इसलिए भी शायद गहमा गहमी कम है। यह संस्‍थान विधिवत् रूप से फिल्‍म निर्माण सिखाता है पारंपरिक से लेकर स्‍टेट ऑफ द आर्ट तकनीक तक। पर यहां के लोगों में बालीवुड की हीरो टाइप जगर-मगर नहीं है। सिर्फ अभिनय सीखने आए छात्र धुले-धुले से दिखते हैं, बाकी सब 'गुआचे' (खोए) हुए से पाए जाते हैं। इस खोए-DSC_1455-1खोए पन में सुबह सिद्धांत पढा़ए जाते हैं, दोपहर बाद प्रैक्टिकल। शाम, रात, देर रात फिल्‍में दिखाई जाती हैं। इसी धंसी हुई सी ढलवां छत के नीचे। संस्‍थान के शासी मंडल के मौजूदा अध्‍यक्ष सईद मिर्जा एक दिन इसी हॉल के बाहर किसी सहयोगी के साथ कुछ योजना बनाते समझाते दिखे। मेरे मन में आया क्‍या पता ये भी एसबेस्‍टस की छत को लाल टीन में बदल देने के बारे में चर्चा कर रहे हों। एक प्रोफैसर कहते हैं, छात्रों को हॉस्‍टल में ही रहना चाहिए वरना दिन ढलने के बाद जो चर्चाएं यहां होती हैं, उस लर्निंग अनुभव से वे वंचित रह जाएंगे। बाहर से 'सोतड़' से दिखने वाले संस्‍थान की दिनचर्या सुबह आठ बजे योग और मेडिटेशन से शुरू होती है और आधी रात को फिल्‍म प्रदर्शन से खत्‍म होती है। क्‍या पता इसीलिए यहां के बाशिंदे उनींदे से या टहलते हुए से चलते हैं। कल्‍पनाशीलता और रचनात्‍मकता के बादलों में स्‍लो मोशन में डग भरते हुए। प्राय: यहां छात्र दिखते नहीं हैं जबकि करीब दर्जन भर पाठ्यक्रम यहां पढा़ए जाते हैं। एक, दो और तीन साल लंबे। और तीन साला कोर्स पर्वतों में गूंजती आवाजों की तरह एक एक और साल तक लटके रहते हैं। मतलब पहले साल के नए छात्र अगले साल दूसरे साल में प्रवेश करते हैं। पर उनके आगे उनसे सीनीयर दूसरे साल वाले भी डटे रहते हैं। दूसरे साल वालों के सुपर सीनियर तीसरे साल में मोर्चे पर रहते हैं। जब तक उनके प्रोजेक्‍ट जमा नहीं हो जाते, डिप्‍लोमा पूरा नहीं होता। मतलब आवक मुस्‍तैद है, जावक ढीली। अपने अपने कामों को निपटाने के जुगाड़ में वे अदृश्य हुए रहते हैं और अधर में अटके रहते हैं। DSC_1456-1

संस्‍थान सरकारी है, इसका सकारात्‍मक पहलू यह है कि यहां देश के तकरीबन हर कोने के छात्र को मौका दिया जाता है और नियमानुसार आरक्षण भी मिलता है। फीस अपेक्षाकृत कम है इसलिए मध्‍यवर्ग की प्रतिभाओं को मौका मिल जाता है। सरकारी होने के कारण ही छात्रों की तुलना में प्रशासन अधिक दृश्‍यमान है। अखैं जी मैं कौण ? जी मैं चौधरी खामखाह। सारे कामकाज फाइलों से होकर ही पूरे हो पाते हैं। प्रशासन को लगता है, संस्‍थान उसके चलाए ही चलता है। पर कलाओं के स्‍थल प्रशासन के चलाए नहीं चलते। छात्रों की ललक और लपट दरार पडी़ दीवारों में उगते पीपल की तरह सिर उठाने लगती है। नौकरशाही के धूसर में छात्रशाही का वही हरियाला होता है। जड़ में वही चेतन होता है। जब संगठित हो जाता है तो दिशा भी देने लगता है, धक्‍का भी। कोई बस न चले तो दखल तो देने ही लगता है। छात्र संघ संस्‍थान की लस्‍टम-पस्‍टम चाल को सहारा देने का काम भी हाथ में ले लेता है।
 
इसका एक अनूठा उदाहरण हाल में सामने आया है। निनान वर्गीस यहां की मेस में करीब तीन दशक तक ठेके पर काम करने के बाद रिटायर हुए। इस दौरान वर्गीस ने पैसा देने वाले छात्रों को तो खाना खिलाया ही, जिनके पास पैसे नहीं होते थे उन्‍हें भी भूखे नहीं सोने दिया। इतना ही नहीं, यह दिलदार बंदा हर क्रिस्‍मस को छात्रों को अपने गरीबखाने पर बुलाकर खाना खिलाता था। इसके रिटायर होने पर छात्रों की बारी थी। नए पुराने कई छात्रों ने मिलकर करीब तीन लाख रुपए इकट्ठे करके इस क्रिस्‍मस के दिन वर्गीस को दिए। मदद करने वालों में स्‍लमडॉग मिलिनेयर वाले रेसुल पोकुटी और मुन्‍ना भाई वाले राजकुमार हिरानी भी थे। छात्र जब इस तरह अपने गुरुकुल से जुड़ते हैं तो लगता है सीमेंट की दरारों में उगे पीपल के पत्‍ते जरा सा और सिर और उँचा करके फहराने लगे हैं।

जनसत्‍ता में दुनिया मेरे आगे का लिंक 


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Monday, November 25, 2013

गंध ने लगाई अतीत में सेंध

Pensive 80s
रेखांकन: सुमनिका, कागज पर चारकोल



डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं। इस कडी़ के साथ ही यह श्रृंखला अब  संपन्‍न होती है।

 
07/11/2000
बांदरा से आने पर लिंकिंग रोड शुरू होती है तो बहुत भीड़ के बीच में, बडी़ तीखी महक से सबका पड़ता है। खास किस्म की महक, पंजाब पहाड़ में आम तौर पर यह महक पाई जाती है। यहां चिकन तंदूरी सिक रहा होता है। तंदूरी का खास तेल मसाला। अपना आलम बिखेरता मसाला। जगह बडी़ मज़ेदार है। लिंकिंग रोड का बाजार। जूते चप्पल। सूट और सूट। जनाना सूट। ग्राहक टूटे पड़ रहे होते हैं। बहुत से लड़के चादरों में बेचने वाली चीजें जैसे पर्स या कपडे़, टीशर्ट वगैरह बेचते हैं। ट्रैफिक एक के ऊपर एक चढा़ आता है। वहीं है यह मुर्ग मुसल्‍लम। सारे बाजार में इस दुकान की महक गमकती रहती है। जब भी गुजरो यह गंध बडी़ पहचानी सी लगती है। आज अचानत कौंधा - अरे यह तो वही गंध है। शायद 81-82 की बात है। हमीरपुर (हिमाचल) में मिली थी यह गंध। मैंने अथकथा राजा घसीट सिंह नाटक लिख लिया था। शायद नौकरी की तलाश थी। गुरूजी (रमेश-रवि) मंडी जा चुके थे। पता चला उनकी एक्‍जाम ड्यूटी हमीरपुर में लगी है। मैं मिलने जा पहुंचा। करीब दस बरस बाद हमीरपुर गया था। हीरानगर के पीडब्‍ल्‍यूडी रेस्ट हॉउस में वे रह रहे थे। शाम को गुरूजी की संगत लगती थी। नीचे बाजार से तली हुई मछली लेकर गए। उनके कमरे में गाटी लगी। मैं तो तब सूफी ही था। रात को नाटक सुनाया। या पता नही, शायद तब नाटक नहीं सुनाया था, मंडी में उनके घर पर सुनाया था। पर उस तली हुई मछली की गंध ही चिकन की यह गंध है।

बांद्रा में दो सेंधें लग गईं, दोनों गंध मादन सेंधें। एक लगी थी स्टेशन से बाहर निकल कर तालाब के किनारे, गंदे पानी की नाली में। उस नाली में ट्टटी मिली हई थी। उसकी गंध निरंतर व्‍याप्‍त थी। यह गंध कुल्‍लू में थी। सन 70-72 में। कहां कुल्‍लू, कहां मुंबई। ट्टटी की दुर्गंध एक सी। यह बात मैंने भाई साहब को चिट्ठी में लिखी भी थी। अतीत में जाने की एक सेंध तब लगी थी। और एक सेंध आज लगी है - तंदूरी चिकन के जरीए। सरे बाजार।

8/11/2000
आज देखा ध्यान से, हालांकि स्कूटर पर चलते हुए। ज्यादा देर तक रुकने की फुर्सत नहीं थी इसलिए जितना ध्यान दिया जा सकता था, दिया। वह पंजाबी फिश फ्राई और चिकन की दुकान है। तदूंरी नहीं फ्राई। वही मसाला। वही गंध। हमीरपुर वाली। कहां हमीरपुर, कहां मुंबई की लिकिंग रोड। पर क्या यह गंध गुरूजी की संगत के कारण अविस्‍मरणीय हुई है?

Sunday, November 24, 2013

तीर्थाटन-सह-पर्यटन-सह गृहगमन

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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल 


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।


29/05/2000
नया साल शुरू हुए पांच महीने ख़त्म हो गए। नया साल नई शताब्‍दी। नई सहस्राब्‍दी। वक्‍त के इन टुकड़ों पर इतरा के क्या होगा। वक्‍त या तो अणु-परमाणु की तरह विखंडित होता है या फिर अंतहीन क्रम है। ये टुकडे़ तो सुविधा और भोग के खेल हैं।

मई महीने में करीब 20 दिन मुंबई से बाहर रहे। पिता जी के लिए खास तौर से हम सभी तीर्थाटन-सह-पर्यटन-सह गृहगमन करके आए। हरिद्वार, ॠषिकेश, देहरादून, मसूरी, धर्मशाला, मंडी, अमृतसर। हरिद्वार - गंगा स्नान। धर्म और कर्मकांड का एक और गढ़। पर भीतर झांक कर देखो तो यह एक सांस्कृतिक स्थल भी तो है। भारतीय परंपरा और मानस का एक जीवंत स्रोत। जीवंत पौराणिक आख्‍यान। जन समुदाय इह लोक परलोक सुधारने के लिए जुटा रहता है। धर्म के व्यपार की भी कई गझिन छायाएं यहां हैं।

धर्मशाला दो वर्ष बाद जाना हुआ। जब तक वहां न पहुंचो, एक तड़प बनी रहती है। टीस। हूक। पहुंच जाओ तो वर्तमान यथार्थ एक उदासी पैदा करने लगता है। हांलाकि शहर बहुत नहीं बदला है, पर न जाने वहां कैसी खुश्की और खालीपन है जो मुंबई की खुश्‍की और रीतेपन से अलग है। शायद घर भी एक कारक है। पर इस बार दो महत्वपूर्ण फैसले हो गए। भाई साहब को पूरे मकान में रहने की छूट। और बगल वाली ज़मीन की उनके नाम रजिस्ट्री। शायद अब उस शहर के कुछ रंग लौट आएं। हमारे वापस लौटने का हौसला थोडा़ पस्‍त हो गया है। नए सिरे से मंसूबे बांधने होंगे। खास तरह के जीवन को बनाए रखने का बंधन भी एक सीमा बन जाती है। उससे कैसे पार पाया जाए। रचनात्मकता को जीवित रखना ही शायद मूलमंत्र है।

01/10/2000
इस बीच फिर लंबा वक्‍फा बीता है, बिना कविता लिखे। यह फर्क ज़रूर है कि बिना कुछ लिखे नहीं रहा यह वक्त। इस बार यात्रा वृत्‍तांत लिखा। बहुत समय उसमें लग गया। 30 जुलाई को लिखना शुरू किया सितंबर के पहले हफ्ते में अंतिम रूप से तैयार हुआ। खरामा-खरामा। साथ में दीन दुनिया भी चलती रहती है। सुमनिका ने यात्रा के मिस बैजनाथ मंदिर पर अपनी विद्या के सहारे से लिखा। वह पहले पूरा हो गया था। मुझे ज्यादा वक्त लग गया। पर पूरा होते ही विपाशा को भेज भी दिया। अभी इन्टरनेट के लिए वेब दुनिया को भेजने की तैयारी है। अगर इन लोगों को पसंद आया तो, वैसे इन्टरनेट पर अभी गंभीर लेखन की परंपरा बनी नहीं है। इसीलिए उम्मीद कम ही है।

लाख टके का ख्याल यह रहता है कि कविता लिखी जाएगी?

Saturday, November 23, 2013

भरोसा और आस्‍था

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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल 



डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।
 

05/12/99 प्रात: सात बजे
लगभग एक महीना हो गया, खुद से सामना किए हुए। यूं नहीं कि इस बीच सामना या मुठभेड़ नहीं होती रही है, पर ज्यादातर एक ही ट्रैक चलता रहता है। त्वरित, निरवकाश, नियमित, निरंतर। पिछले दिनों निर्मल वर्मा की भारत और यूरोप - प्रतिश्रुति के क्षेत्र पुस्तक के कई निबंध पढे़। भारतीयता की नई सी व्‍याख्‍या है। भारतीयता ही क्यों, यूरोप की भी। आपसी संबंधों की भी। इसी व्याख्या के कारण इन्हें दक्षिणपंथी, बल्कि भाजपाई कहा जाता होगा। पर यह व्‍याख्‍या विचारोत्‍तेजक है।

दूसरे, सारे लेखन में लेखन, लेखन-कर्म, जीवन और लेखक के संबंध के प्रति बडी़ सम्‍पृक्‍तता प्रतिभासित होती है। एक तरह की मंद्रता भी उनमें है। लेखन के प्रति खूब भरोसा प्रकट होता है। भरोसा और महत्व। लखनऊ में काशीनाथ सिंह को नामवर सिंह के पत्र पढ़ते हुए सुनते-देखते समय भी ऐसा ही विश्वास और आस्‍था महसूस हुई थी।

इधर के लेखकों में यह भरोसा-आस्‍था कितनी है, कहां है... शब्द की शक्ति को महसूस करना... नकारत्मक दृष्टिकोण इतना हावी होता जाता है कि भरोसा उठता जाता है। भरोसे को बचाना और महसूस करना शायद ज़रूरी है।

Friday, November 22, 2013

किस बिनाह पर कहूं कि कवि हूं ?

Babaji 80s -1
रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल



डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।

25/05/99
मसला यह है कि मैं कवि हूं कवि ऐसा हूं कि कविताएं लिखता हूं साल में चार। फिर भी कवि कहलाता हूं।

27/05/99
मसला यह है कि कवि कहलाता हूं या खुद को कवि मानता हूं या असल में कवि हूं। मसला यह है कि कविताएं पत्रिकाओं को भेजता हूं और वे छप जाती हैं। बाज़दफा पत्रिकाएं मंगवा लेती हैं, तो भी छप जाती हैं। छप जाती हैं तो मानना यह चाहिए कि वे ग्राहकों यानी पाठकों के पास पहुंचती हैं। लेखकों के पास भी पहुंचती हैं। पिछले करीब बीस साल से तो ऐसा ही हो रहा है। यह मसला अर्से से दिमाग में अटका हुआ है कि यूं तो पूरा ही साहित्य, लेकिन खास तौर से कविता, कितने लोगों द्वारा पढी़ जाती है। कोई सर्वेक्षण तो उपलब्ध है नहीं। पक्की सूचना भी नहीं है। पत्रिकाओं की वितरण संख्या से ही अंदाज़ होता है कि पाठक कविता पसंद नहीं करता।

जो बात मैं अर्से से दर्ज करना चाहता हूं, वह यह भी है कि मैं मानता हूं कवि हूं, परिवार और दोस्त मानते हैं। कुछ लेखक संपादक मानते हैं लेकिन जात-विरादरी में, पास-पडो़स में, काम-धंधे के माहौल में मैं भूल कर भी यह जिक्र नहीं कर सकता कि कवि हूं। इसकी क्या वजह है ?





Tuesday, November 19, 2013

क्या यह यश-लिप्‍सा थी ?


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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।


03/10/98
आज आकाशवाणी के लिए अली सरदार जाफरी का साक्षात्‍कार लिया। मैं 10-12 सवाल लिख के ले गया था। किताब भी थोडी़ बहुत पढ़ गया था। पर ज्‍यादातर बात PWA पर ही केंद्रित हो गई। फिर मुडी़ तो हिंदी उर्दू से होती हुई भाषा समस्या पर पहुंच गई। अपनी कविता की विकास यात्रा पर महाराज ने कुछ बोला नहीं, माने मार्के का, और बाद में शिकायत करने लगे कि और सब पर हुई कविता पर बात नहीं हुई। फिर जो बात कविता पर की भी, वह अपनी ही कविता का वखान थी। उर्दू कविता के मिजाज या परिवर्तन पर कुछ खास नहीं बोले। प्यास और आग (1960) संग्रह के बाद उनकी कविता में क्या तब्‍दीलियां आईं, उन पर भी वे बहुत नहीं बोले। ''PWA का रोल खत्म हो गया है। तब की जरूरत थी, पूरी हुई। अब साहित्‍य अकादमी है, NBT है, दूसरी अकादमियां हैं, वे इस भूमिका को निभा रही हैं।'' ये टिप्पणियां बहसतलब हैं लेकिन साक्षात्कार में इतना समय नहीं था, कि और उलझा जाता।

इन्टरव्यू लेने के लिए हालांकि सुमनिका को बुलाया गया था, पर उसका कॉलेज था। मैं इसीलिए चला गया कि इस बहाने से सरदार से वाकि‍फियत हो जाएगी और सुमनिका जो प्रदीप सक्‍सेना के आलोचना अंक (पहल) के लिए इन्टरव्यू लेना चाहती है, वह आसान हो जाएया। हालांकि मन में कहीं यह भी था कि भारतीय ज्ञानपीठ सम्‍मान प्राप्त साहित्कार से इस तरह सार्वजनिक बातचीत करने का अवसर चूकना नहीं चाहिए। क्या यह यश-लिप्‍सा का एक रूप है? पता नहीं, मन में बात खटकी क्योंकि अर्से से इस तरह के मौकों से भागता रहा हूं। क्या यह लाइकोपीडियम (होम्‍योपैथी) का असर है?

Sunday, November 17, 2013

डंडे के ज़ोर पर जयकारा

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रंखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।


25/09/98
आज दफ्तर के काम के सिलसिले में बाल ठाकरे के प्रभाव की बदमग्‍जी का प्रत्‍यक्ष अनुभव हआ। अब तक बातें सुनने में ही आती थीं। आज पता चला कि 'जोर-जबरदस्ती' कैसे काम करती है। कोई फौजदारी नहीं हुई। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जबरदस्ती कैसे रोका जाता है, शक्तिशाली प्रबंधन भी कैसे घुटने टेक देता है, यह पता चला। पिछले कई महीने से हम लोग स्टाफ की रचनाओं का संकलन प्रकाशित करने में जुटे थे। उसे आकर्षक बनाने में मेहनत कर रहे थे। कल ही पत्रिका के रूप में 'संभावना' नाम का यह संकलन वितरित हुआ। आज शाम को लोकाधिकार समिति ने विरोध दर्ज करा दिया। विरोध क्‍या, पूरा का पूरा जत्‍था कार्यपालक निदेशक के पास पहुंच गया। शिकायत यह थी कि एक लेख में लिखा गया था कि फूलन देवी और बाल ठाकरे जैसे लोगों के पीछे जनता कैसे पागल है। जनता का बडा़ पतन हो गया है। आपत्ति इस बात पर थी कि 'दिंदू हृदय सम्राट' बाल ठाकरे की तुलना फूलन देवी से कैसे कर दी गई। कार्यपालक निदेशक वासल साहब ने निर्णय लिया कि प्रकाशन को वापस ले लिया जाए। इसका वितरण न किया जाए। हम लोग, उनके सेनानी, जुट गए टेलीफोन करने, चिट्ठी लिखने, पत्रिका उठवाने में, कि उसे लेकर डंप कर दिया जाए। किए को अनकिया कर दिया जाए।

दफ्तर में कर्मचारियों की यूनियन पर शिव सेना का वर्चस्‍व है, लोकाधिकार समिति भी उनका ही एक अंग है। विरोध उसी ने दज किया। ढेर सारे चपरासियों और ड्राइवरों ने पत्रिका बंद करवा दी। सवाल चपरासियों ड्राइवरों का नहीं है, सवाल अक्‍खड़पन और कुंदजहनी का है। आलोचना सुनने का धैर्य नहीं है। दूसरे का पक्ष सुनने की समझ नहीं है। घेराव, धरना, जोर आज़माइश के तमाम तरह के तरीकों से अपनी बात मनवाने की जिद्द है। डंडे के ज़ोर पर जयकारा बुलवाना है। महाराष्ट्र के इस आतंक का सामना आज इस तरह से हुआ। अब देखना है आगे क्या होता है।

Saturday, November 16, 2013

परिपक्‍वता, मतलब समझदारी कब आएगी ?

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रेखांकन : सुमनिका कागज पर चारकोल


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।
 

15/09/98
पांच हफ्ते कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। डायरी लिखने का मौका भी नहीं मिला। एक बार फिर दिल्ली जाना पडा़ और लौटकर वही नियमति व्‍यस्‍तता।
कल शाम को लौटते समय (वर्ड ट्रेड सेंटर से) संजीव चांदोरकर (आईडीबीआई में सहकर्मी और मराठीभाषी सचेतन मानुस) मिल गए। ट्रेन में भी थोडी़ बातचीत होती रही। वे एक मराठी पत्रिका पर्याय का जिक कर रहे थे। हिंदी की लघु पत्रिकाओं जैसी पत्रिका है लेकिन वे उसकी संपादकीय दृष्टि, रचना-चयन यदि से प्रसन्‍न नहीं थे। उनका आशय यह था कि इस तरह...
16/ 09/98
... की पत्रिकाएं बहुत सीमित पाठकों तक जाती हैं। लेखकों और कार्यकर्ताओं के बीच ही जाती हैं, जिनकी बौद्धिक तैयारी काफी हद तक हुई होती है। तो उन्हें ऐसी सामग्री चाहिए जिससे उन्हें कुछ नई बात, नया दृष्टिकोण जानने को मिले। लेकिन पत्रिका में कुछ भी भर दिया जाता है। शायद पत्रिका छापने का शौक ज्यादा होता है। सब लोग कई कई वर्षो से काम कर रहे हैं और उनकी उम्रें भी चालीस को छू रही हैं लेकिन मामला कॉलेज विद्यार्थियों जैसा रहता है। इस पर मैंने कहा कुछ गड़बड़ है। शायद परिपक्‍व होने की उम्र बढ़ गई है। अब लोग जल्दी मैच्‍योर नहीं होते। मेरी उमर भी चालीस बरस हो गई है लेकिन बहुत से मसलों पर लगता है, स्पष्टता नहीं है। कई बातें पता ही नहीं हैं। बहुत कुछ तो पढ़ सीख ही नहीं पाए। पहले छोटी उमर में ही लोग बडे़ हो जाते थे। शायद यह बात सिर्फ अतीत राग नहीं है। कहीं कुछ गड़बड़ तो है। अगर कोई 50 वर्ष तक युवा ही होगा तो वह परिपक्‍व कब होगा, प्रौढ़ कब होगा और ज्ञानी वृद्ध होने के लिए उसके पास अपनी उमर के कितने बरस बचेंगे? क्या हमारी आयु इतनी बढ़ गई है? अगर औसत उमर 70 भी हो तो भी उसके पास परिपक्‍व समझ के 20 ही बरस बचते हैं यानी युवावस्था से कम। इसके कारणों को ढूंढना बडा़ मुश्किल है और अपने मामले में तो लगता है 50 तक भी परिपक्‍वता शायद भी आये। मतलब समझदारी।

Thursday, November 14, 2013

मध्‍यवर्गीय होने से कविता जनविरोधी नहीं हो जाती

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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं। 

05/08/98 नई दिल्ली यूटीआई गेस्ट हाऊस, ग्रेटर कैलाश

गोविंद सिंह (पत्रकार) और तापस चक्रवर्ती (आईडीबीआई के सहकर्मी और अंग्रेजी कवि) से बात हुई। गोविंद से संयोग से राकेश वत्‍स (अंबाला वाले नहीं, ये हिमाचल के हैं) का नंबर मिल गया। अर्से बाद उससे बात की। पिछले साल चंडीगढ़ में कई सालों बाद भेंट हुई थी। तब उसके पिता का एक्सिडेंट हुआ था। आज उससे पता चला जगदीश मनहास (गुरु नानक देव विश्‍वविद्यालय में हमारे सीनियर, अब पोर्ट ब्‍लेयर में) के भाई का देहांत हो गया है। बड़ी बुरी खबर है। सम्पर्क तो बरसों से नहीं था, यूनिवर्सिटी के बाद ही कोई खबर नहीं थी कहां है। अचानक पता चला तो बुरा लगा। यह भी पता चला कि सांगरा (हिमाचल से) फिर बे-रोजगार है। उस पर भाग्य की मार हमेशा पडी़ रहती है।

तापस ने भी उद्भभावना कविता विशेषांक में छपी कवितायों की आलोचना की। सभी एक सुर से आलोचना कर रहे हैं। हां यह है मध्यवर्गीय कविता। जब कवि मध्यवर्ग का है तो कविता किसकी लिखेगा। वह लिखने में ईमानदार है। नौकरीपेशा है। वक्त का उसके पास टोटा है। अपने वर्ग से बाहर की दीन-दुनियां वह कहां से देखे। बाहर की बात फार्मूले से लिखेगा तो नकल ही होगी। जब समाज का बड़ा तबका सारे विमर्श से बाहर है तो अकेला कवि क्‍या इन्‍कलाब कर लेगा। यह कवि और इसकी कविता जनविरोधी नहीं है। जन का प्रतिनिधित्‍व उस रूप में नहीं हो रहा हो, ऐसा हो सकता है। पर जनभक्‍त या जनमित्र कट्टरपने की बात करते हैं। संस्कृति के दूसरे पहलुओं के साथ मिलाकर, दूसरे कला माध्‍यमों के साथ मिलाकर कविता की बात होनी चाहिए। पत्रकारिता को भी सामने रखना चाहिए। भक्तिकाल जैसा बंजारा कवि समय लौट कर नहीं आ सकता। आज का कवि अलग धारतल पर है, जनता अलग धरातल पर। और जनता के भी ढेरों धरातल हैं। हवेली की छत तक पहुंचने वाली सीढ़ी की तरह के धरातल हैं। अगर कवि की ताल या कदमताल अलग है तो कहानीकार भी अपने ही घाट पर कपडे़ पछींट रहा है। जरा उपन्यास भी गिन लिए जाएं, मध्यवर्ग से बाहर के जीवन के कितने हैं। मतलब यह कि ऐसा बयान करते समय विधा की मर्यादा का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। तुक ताल छंद का दुराग्रह जनता को बदल डालेगा, अगर ऐसा विश्वास है तो यह बालोचित विश्वास है।


Saturday, November 9, 2013

नीरवता, साहित्‍य व संगीत

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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।


14/05/98 प्रात: 8:20

जब से मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास चाक पढ़ कर खत्‍म किया है मन इतना भरा-भरा रहा है कि डायरी लिखना चाहता रहा हूं। चाक से कुछ ही दिन पहले इदन्‍मम् पढा़ था। दोनों ने बहुत उद्वेलित किया था। चार्ज किया था। लेकिन जीवन का ढर्रा ऐसा है कि वक्‍त निकल नहीं पाया। कल आजकल में पं.जसराज के भजनों की कैसेट की समीक्षा पढी़। शाम को कैसेट खरीद भी ली। रात से सुन रहा हूं। अभी जो भजन चल रहा था वह भी वैसे ही चार्ज कर रहा था। सोचा कम से कम यह बात तो दर्ज कर दूं। रह जाएगी तो रिस जाएगी। विस्तार से बाद में लिखूंगा इन पिछले दिनों की मन: स्थिति के बारे में। नीरवता के आनंद के बारे में। साहित्य की सहचरता के बारे में। संगीत के राग के बारे में।

 
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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


साहित्य साहचर्य

16/05/98 शाम 5 बजे मथुरा, मुंबई अमृतसर स्वर्ण मंदिर मेल में

बाहर गर्मी बहुत है। भीतर (ए सी में) शांति है। पिछले दिनों की साहित्य साहचर्य की बातें दिमाग में हैं। पता नहीं आज भी लिखी जाएंगी या नहीं। गाडी़ हिचकोले जम के ले रही है।

इदन्‍मम् में राजनैतिक कार्यनीति की एक रूपरेखा उभरती है। वही उसकी रीढ़ है। हालांकि भाषा की गुंझलक ज्यादा है। जनता के बीच से जनता का आदमी (बल्कि औरत) दु:खों से तप के निकले (जनता में भी किसान) और जागरण या आंदोलन की अगुआई करे। मानवीय रहते हुए, सहज साधारण रहते हुए, इच्‍छा-शक्ति को संजोए रखते हुए। मंदाकिनी ऐसी ही युवती है।

चाक भी सुंदर प्रभावशाली उपन्यास है। सारंग नैनी के चरित्र में बहुत उठान है। राजनिति की धक्‍कमपेल प्रत्‍यक्ष है। प्रधान, प्रधान पद के प्रत्‍याशी, जातिवाद, भ्रष्टाचार, आदर्श पर अडिग अध्‍यापक। इस सारे चहबच्‍चे के बीच सारंग का चरित्र विकल्प के रूप में उभरता है। सच्चाई का पक्षधर। पति से भी लोहा ले लेने वाली। संबंधों की अंतर्धाराएं, सभी चरित्रों की गजब की हैं।

उपन्यास में पाठक को धर दबोचने की शक्ति भी है। क्या यह राजनैनिक कथा-वस्‍तु के कारण है, चारित्रिक सघनता के कारण है, समाज की बेहतरी के विचार के कारण है, पूरी लेखन कला के कारण है? शायद इन सभी कारणों से है।

एक और मकनातीसी कारण है। सारंग और श्रीधर मास्‍टर का प्रेम। श्रीधर अपने कर्तव्य के प्रति अडिग है। सारंग अन्याय से लड़ने के लिए हर बार श्रीधर से ही ताकत पाती है। तथाकथित सामाजिक नैतिकता से ऊपर उठा हुआ प्रेम-पाश है। यह भी पाठक को बांधता है। इन दोनों चरित्रों के कारण एक ऊर्जा प्रवाहित होती है। बाहरी स्तर पर नाटकीयता भी बनती है।

पं. जसराज के कंठ में सरस्‍वती है। भजन बडे़ सुंदर गाए हैं। आह्लादित करते हैं। संगीत में ताल मेरी पकड़ में पहले आती है, शायद इसलिए भी ये भजन आकर्षक लगे हों। देह उस ताल के वशीभूत होने लगती है। बहुत साल पहले रेडियो से फिलर के रूप में शहनाई का एक टुकडा़ बजा। मैंने रिकार्ड कर लिया। बाद में पता नहीं, उसे कितनी बार सुना। जितनी बार सुना, उतनी बार उसने देह को पिघला दिया। पता नहीं वैसे संगीत का कैसा असर होता है कि देह वश में नहीं रहती। खो जाती है। ये शब्द भी उस मन:स्थिति के लिए उपयुक्‍त नही लग रहे। पूरी तरह प्रकट नहीं कर पा रहे। फिर से जसराज के ये कृष्ण भजन सुने जाएं, तो पता नहीं कैसे लगें।

इदनमम् और चाक से पहले नरक कुंड में बास (जगदीश चंद्र), पांचवा पहर (गुरदयाल सिंह, पजांबी) अनुभूति (हेमांगिनी रानाडे) उपन्यास पढे़ थे। नरक कुंड में बास दलि‍त चेतना का बडा़ निर्मम यथार्थवादी उपन्यास है। सारे वर्णन बडी़ निर्ममता से किए गए हैं। एक दूरी, एक ठंडेपन से। अतिरिक्‍त भावुकता के बिना। पाठक चमडे़ के कारखाने के जीवन के चित्रण से दहलता चला जाता है। शिल्प की परवाह जगदीश चंद्र ज्यादा नहीं करते।

पांचवा पहर तो साधारण उपन्यास है। अनुभूति भी। यह मुंबई के पारसी समुदाय पर है। एक समाप्त होती हुई जाति की कहानी। बिन मां-बाप की एक संघर्षशील लड़की की कहानी। हेमांगिनी जी को भाषा और वर्णन के लिए और मेहनत करने की जरूरत है। (ये बात अगर उनको पता चले तो वे दुखी हो जाएं। मेरी पिटाई भी हो जाए।) इस उपन्यास के बाद पहल में मैत्रेयी पुष्‍पा की कहानी राय प्रवीण पढी़ थी। बडा़ प्रभावशाली वर्णन। आलोड़ित कर देने वाला। वह कहानी आधी पढ़ ली थी, कुछ पंक्तियां सुमनि‍का को सुनाने लगा तो ऐसा समा बंधा कि सारी कहानी ही सुना डाली। अंत तक पहुंचते-पहुंचते उसने द्रवि‍त कर दिया। सहज मनोदशा में लौटने में वक्‍त लगा। भावुकता का उद्रेक पेश करना क्‍या कहानी की कमजोरी है?

ट्रेन में शिव प्रसाद सिंह का गली भागे मुड़ती है पढ़ना शरू किया। उपन्यास में वैसी ताकत नहीं है। लगा मैत्रेयी के उपन्‍यासों के प्रभाव को अगर दर्ज नहीं करुंगा तो काशी की बाढ़ में ये धुल जाएंगे। यह अभी तक साधारण उपन्यास लगता है। बहुत पहले इन की लिखी हुई श्री अरविंद की जीवनी उत्तर योगी पढी़ थी। बडी़ अच्छी लगी थी।

Monday, November 4, 2013

कोरा कागज

Sumanikas sketch
रेखांकन: सुमनिका, कागज पर चारकोल

डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।

05/01/98
इस बीच कई दिन बीत गए हैं। कई रातें गुज़र गई हैं। न कविता हूक बन के दिल में समाई। न छुट्टी वाली रात को हाहाकार बन कर निकली। दिसंबर खत्म हो गया। यानी सन् सत्‍तानवे खत्म हो गया। यानी एक और साल बीत गया। अ भी-अभी थोडी़ देर पहले सोच रहा था क्या किया। इतने साल बीत गये। लिखना तो दूर की बात, मसले ठीक से समझ भी नहीं पाए। समझ बनी ही कहां। उमर चालीस की हो गई। जैसे अभी तक कुछ पल्ले पडा़ ही नहीं है। सोचा था साहित्य अपना क्षेत्र है। लेकिन साहित्य की भी समझ कहां है? जेब में कोरा कागज़ ही है। उस पर ककहरा भी नहीं उकेरा गया है। जब कागज़ ही कोरा है तो लिखा कहां से जाएगा।

क्या यह अवसाद का दौरा है? हो सकता है, कुछ हद तक अवसाद ही हो। या हो सकता है कुछ न कर पाने की कुंठा हो। सुमनिका तो कहती है, चिढे़ हुए रहते हो। चेहरा भी वैसा ही दिखता है। तो क्या चेहरे में भी चिढ़ भर गई है।
नौकरी तो दिमाग़ पर चारों याम छायी ही रहती है। (इससे बडी़ मुसीबत और क्या होगी) इधर रेडियो वालों ने फंसा दिया है। भारती पर प्रोग्राम बनाने का बिल्कुल मन नहीं है। रत्‍ती भर उत्साह नहीं है। वे इस बात को समझते नहीं। सुमनिका भी नहीं समझती। मना कर देने का मन है पर किसे कैसे कहा जाए।

भारती को पूरा पढा़ भी नहीं है। छिटपुट पढा़ई के बूते पर न्याय नहीं हो जाएगा। उससे बडी़ बात यह कि जो प्रोग्राम उनके मरणोपरांत उनके जन्म-दिन का देखा 'पुष्पांजली', उससे मन और भी मर गया है। काफी फूहड़ था।

कविताओं के प्रति यही धारणा बन रही है कि वासना लिप्त मांसलता का ही गान भारती ने किया है। कविता में वे उससे बाहर नहीं निकले। जहां कविता में कथात्मकता या चरित्र या मिथ या इतिहास या पुराण का सहारा लिया गया है, वहां समाज की व्याख्या होने लगती है। अंधायुग उसका चरम है जबकि कनुपिया मिथक के सहारे के बावजूद दूसरे छोर की कविता है। देह की उपासना। कुल मिला कर भारती आकर्षित नहीं करते। (आज 2013 में सोचता हूं, यह कितना सरलीकरण है)




Saturday, November 2, 2013

कम लिखे रह जाने का कलपना

Sadaneera 2
डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिड़ा हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के दूसरे अंक में हाल में छपे हैं।

कविता की हूक
11/12/97
पहल के नए अंक के साथ एक पुस्तिका आई है- मंगलेश डबराल से ललित कार्तिकेय की बातचीत। बहुत से पहलुओं को उन्होंने छुआ है। कविता लिखने को लेकर उन्होंने कहा है कि हर बार नई कविता लिखते समय लगता है जैसे कविता लिखना भूल गए हैं। नए सिरे से लिखना शुरू करना होता है।

यह बात लगा, मेरी ही बात है। अर्से से मेरे साथ भी यही होता है। ऐसा लगता है जैसे कविता लिखनी आती ही नहीं। जब लिख लो तो वह भाती नहीं। कविता लिखने का वैसा उद्रेक नहीं होता। संवेदना ही जैसे सोई रहती है। बहुत बड़ी बड़ी चट्टानें जैसे राह में पड़ी रहती हैं। अपनी कविता के प्रति निर्ममता और भी भटकाती है। वर्तमान कविता की बाढ़ को देखकर निर्ममता ज़रूरी लगती है। लेकिन यह निर्मतता किसी बच्चे की निश्च्छलता को बरज देने जैसा कहर भी ढा देती है। जैसे अरू और सुमनिका (बेटी और पत्‍नी) को ज़रा ज़ोर से बोल दूं तो दोनों ढुलमुल हो जाती हैं। उनका उत्साह मर जाता है। अपनी कविता पर कड़ाई बरतने से भी ऐसा ही होता है। शायरों और कवि सम्मेलनी कवियों जैसी आत्म-मुग्धता की प्रतिक्रिया स्‍वरूप ही तो कहीं ऐसा नहीं होता है? ऐसा नहीं लगता। वह तो रास्ता ही अलग है। यह मौजूदा कविता के रंग-ढंग से बचने का मकैनिज्‍म है। जो वाज़ दफा क्‍या, अक्‍सर ही सिट्टी-पिट्टी गुम कर देता है। तीन कविताएं लिख रखी हैं। संतुष्ट नहीं करतीं। वे पूर्ण नहीं होतीं। नई बनती नहीं। यूं भी गति बेहद कम है। कविता लेखन के लिए अक्सर लगता है कि आदमी में आत्‍मरति होनी चाहिए। इसका ज़रा सुधरा हुआ रूप होगा अपने ऊपर भरोसा। अपने देखे, सोचे, महसूस किए पर विश्वास। अपनी बात की कीमत।

थोडी़ देर पहले अरू किताबों से खेल रही थी। क्लास के दृश्य की कल्पना कर, खुद अध्यापिका बन, सबको पुस्‍तकें बांट रही थी। उसमें मेरी एक पुरानी डायरी भी थी। वह डायरी मैंने उठायी। पलटी। उसमें शुरुआती दौर की हिंदी और पहाडी़ कविताएं हैं। एक कविता पढी़। पहाडी़ में। तुक में। पहाडी़ (भाषा) में बोली की लोच है। लावण्‍य भी। सुमनिका को अर्धनिद्रा में सुनाई। पढ़ कर मज़ा आया। संयोग यह भी था कि वह ठीक 22 वर्ष पहले की थी, सन् 1975 की। दिसंबर महीने की 12 तारीख की और आज 11 दिसंबर है। यह कविता 1977 में हिमभारती में छपी भी थी। कविता के नीचे यह भी दर्ज कर रखा है। पढ़ कर लगा, उस वक्त क़े हिसाब से, बी. ए. के दूसरे साल में बुरा प्रयास नहीं था। शायद यही कारण था कि रूह में थोडी़ फुरफुरी हुई। नीचे उतर कर पान-चर्वण कर आया। आ कर डायरी लिखने बैठ गया। मित्र कवियों की कविताएं पढ़ने तक सीमित हो चुके समय में इस तरह अपनी पुरानी कविता पढ़ कर जाग उठना उत्साहवर्धक है। नौकरी के बेतुकेपन के बीच यह जागृति ज़रा देर ठहर जाए! जैसे आजकल सुबह-शाम ज़रा सी तुर्शी, ज़रा सी ठंडी हवा, मन में नॉस्टेलिज्या भर रही है, कविता ने उस नॉस्टलिज्या को थोडा़ और सघन कर दिया है। मन करता है, रात भर जागे रहा जाए। बैठ कर मन के उच्छवास को उचारा जाए। पर दिनचर्या का भूत कड़ियल मास्‍टरनी की तरह कमरे में टहल रहा है। जो कहता है, बस करो। सो जाओ। वरना सुबह दफ्तर देर से पहुंचोगे। ओ कविता की हूक, तू फिर से दिल में समा जा। छुट्टी वाली रात को हाहाकार बन निकलना।

Saturday, October 12, 2013

परंपरा का बुजका

Pagdandi
पिछले दिनों हमारे एक चचेरे भाई का फोन आया कि वे मुंबई पहुंच गए हैं, कई दिन के सफर के कारण बच्‍चे बडे़ सभी बीमार पड़ गए हैं और रात को ही लौट भी जाना है, इसलिए घर नहीं आ पाएंगे। चाची जी के लिए कुछ सामान लाए थे, यहीं छोड़ रहे हैं, तुम आ कर ले जाना। सुबह का वक्‍त था। मैंने तैयार होते-होते ही फोन सुना था। यह भी बोल नहीं पाया कि कोई बात नहीं, मैं ही आता हूं मिलने। या शाम को प्‍लेटफार्म पर विदा करने आउंगा। दफ्तर से छुट्टी लेना नामुमकिन था। शाम को जाना भी बस में नहीं था। अच्‍छा अपना ख्‍याल रखिए, इतना भर कह पाया।
करीब दो महीने पहले से पता था वे आने वाले हैं और हिमाचल मित्र मंडल के गेस्‍ट हाउस में ठहरेंगे। भाई रिटायर हो गए हैं और हर साल पर्यटन पर निकलते हैं। पिछले साल भी आए थे तब नासिक में टिके थे। चाची को मत्‍था टेकने के वास्‍ते मुंबई का फेरा लगा के लौट गए। समझदारी यह की थी कि इतवार का दिन चुना था या क्‍या पता संयोग रहा हो।
इस बार संयोग नहीं बना। हफ्ते के बीच का दिन पड़ गया। एक ही शहर में होने के बावजूद मेरे और उनके बीच कई घंटों की दूरी थी। इस दूरी को इतवार के दिन ही पाटा जा सकता था। पर इतवार तक वे वापस हमीरपुर पहुंच चुके थे। इतवार के ही दिन मैं उनके रखे सामान को लेने हिमाचल मित्र मंडल पहुंचा। मंडल में और कुछ हो न हो, भाषा सुख खूब मिलता है। वहां आने वाले तकरीबन लोग अपनी बोली में बतियाते हैं। मुंबई में रहते हुए घर में मैं बीजी (मां) के साथ पहाडी़ बोलता हूं। फोन पर हिमाचल में बडे़ भाई से, यहां हिमाचल मित्र के संपादक कुशल से। पांच साल हमने यह पत्रिका निकाली और खूब भाषा सुख लूटा। हिमाचल मित्र मंडल में बाकी माहौल तो मुंबइया ही है, सिर्फ कानों को लगता है आप हिमाचल में हैं। और वहां पहुंच कर मन हलका हो जाता है।
भाई जिस थैले को उठाए-उठाए पूरा दक्षिण घूम आए थे, वह मेरा इंतजार कर रहा था। उसे उठा कर चलने लगा तो कई तरह के ख्‍याल मन में आए। मैंने थैले को नहीं, परंपरा को हाथ में उठाया है। यह परंपरा मुझे ले कर चल रही है या परंपरा को मैं चला रहा हूं। या जो परंपरा चली आती है, मैं उसका हरकारा हूं। तो क्‍या मैं परंपरा का बोझा उठा कर चल रहा हूं ? क्‍या यह सच में ही बोझ बन गई है।
बरसात का मौसम था। एक हाथ में छाता, एक में थैला लिए मैं चल निकला। आटो से विद्याविहार स्‍टेशन आया, वहां से लोकल ट्रेन पकड़ कर दादर। वहां से दूसरी ट्रेन लेकर गोरेगांव। वहां से फिर आटो। तब पहुंचा अपने घर। मतलब चार पडा़व के बाद आया घर। थैले को अपने सामने पाकर अस्‍सी वर्षीया बीजी इस तरह सजग हो गईं मानो डेढ़ हजार मील दूर से उनका कोई अपना उनके रू-ब-रू आ बैठा हो। सामान भरे थैले ने उनके तार जोड़ दिए और वे अपने लोगों से जुड़ गईं। वे सामान भेजने मंगवाने की परंपरा को आज भी नि:संकोच अमल में लाती हैं। वे इस तरह नहीं सोचतीं कि इससे दूसरे को असुविधा भी हो सकती है। खैर, सामान में क्‍या निकला – वड़ियां शायद घर की बनी हुईं, मक्‍की का आटा, चुख माने गलगल (बड़े नींबू) की काढ़ी हुई खटाई और उनके लिए सलवार कमीज का कपड़ा। सामान के उपयोग की उनकी योजनाएं शुरू हो गईं। मेरा आकलन यह था कि वड़ियां यहां मिल जाती हैं, मक्‍की का आटा ताजा पिस जाता है। यह सूट बीजी पहनेंगी नहीं। सिर्फ चुख ही नायाब चीज है। पर खटाई खाने से वैसे भी परहेज करने का दबाव बना रहता है क्‍योंकि‍ उनके घुटने जवाब दे चुके हैं।
तो फिर बाबू किस्‍म का एक भाई हजार किलोमीटर तक इसे ढोता रहा। यहां बाबू किस्‍म का दूसरा भाई महानगर की सड़कों पटड़ि‍यों को लांघ कर घर तक लाया। बिना भावुक हुए सोचने की बात है कि पहाड़ के इस बुजके (बोझ) को लादे रखा जाए या छोड़ दि‍या जाए। आज टेलिफोन क्रांति चरम पर है। बीजी भी अपने सगे संबंधियों की सुबह शाम की खबर नियमित रूप से रखे रहती हैं। थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ हमारे घर पर खाना भी तकरीबन उन्‍हीं के स्‍कूल का बनता है। रसना के दोनों सुख हमें मिल जाते हैं। मैं और बीजी पहाडी़ में बतियाते हैं और दाल भात खाते हैं। सिर्फ रहने की जगह फर्क है। छोटी जगहों के घरों में बरामदा आंगन होता है, यहां माचिस की डिबिया जैसे फ्लैट हैं।
आज चालीस पहले जैसा वक्‍त नहीं है। तब वहां पर सौ किलोमीटर दूर अपने ननिहाल भी बाकायदा प्रोग्राम बनाकर जाना पड़ता था। आज लोग सुबह जाकर शाम को लौट आते हैं। आवागमन तेज और आसान हुआ है। यह अगल बात है कि‍ जाने की फुर्सत कम मिलती है। संपर्क रहता है, पर आना जाना उतना नहीं होता। सोयशलाइजिंग कम हो गई है। उसकी जगह आभासी सामाजिकता अमर बेल की तरह फैल रही है। कुल मिलाकर अलग-अलग इलाकों में रहन-सहन, खान-पान में ज्‍यादा अंतर नहीं रहा। शहर भी ग्‍लोबल, गांव भी ग्‍लोबल। इसलिए अब इस बोझे में से कुछ सामान हटा देना ठीक नहीं रहेगा ? सारे के सारे अतीत को बुहार देने की जरूरत नहीं है पर थोड़ी बहुत छंटाई बीनाई तो हमें करते रहना चाहिए। जैसे थैले के बारे में ही सोचो, कपडे़ की जगह सिंथैटिक ने ले ली है। झोले की जगह पिट्ठू ने ले ली है। उसे पिट्ठू कहते भी नहीं, बैकसैक या बैगपैक कहते हैं क्‍योंकि पिट्ठू बड़े आकार का होता था और लंबी, खासकर पैदल यात्राओं में काम आता था। अब तो बैक सैक को बच्‍चे बूढे़ सब अपनी पीठ पर गांठ के चलते हैं। अगर सामान ढोने वाला बदल रहा है, सामान ढोने का साधन बदल रहा है तो उसके अंदर के सामान को भी बदलना चाहिए।
दुनिया मेरे आगे, जनसत्‍ता