Wednesday, February 25, 2009

दो कविताएं


अब दो कविताएं पढि़ए. ये भी उसी माहौल से निकली हैं, जहां से पिछला लेख निकला था। राकेश जी को लगा, लुधियाना शहर का ये चित्र कल्‍पना से लिखा है। ये कविताएं हमें यह समझने में मदद करेंगी कि अस्‍पतालों में आदमी के सामने कल्‍पना करने का अवकाश नहीं होता, अलबत्‍ता पल पल कलपना बदा होता है।

बेसुध औरत
बहुत रात गए एक औरत सुबकती है
जनरल वार्ड के एक बिस्तर पर
लगभग बेसुध पड़ी इस औरत को शायद एहसास हो कि रात है
बीमार और जीवन को किसी तरह बचा ले जाने की थकान ओढ़ कर लोग सो रहे हैं
औरत के सुबकने का भंवर लहराता हुआ बीमारों के सिर के ऊपर से गुजरता है
जनता-बाथरूमों वाले कोने से कपड़े पछीटने की आवाज आ रही है
बेसुध औरत का आदमी रोज रात ढाई बजे उठ कर कपड़े धोता है
सुबकी का भंवर कपड़े धोने की आवाज को अपने आगोश में लेते हुए
वार्ड के बिस्तरों के ऊपर छत को छूता हुआ अटका रहता है हल्की हवा की तरह
बेमालूम ढंग से यह हवा बाहर की हवा में घुल जाएगी

बेसुध औरत अपने आदमी की सारी थकान मिटा देना चाहती है
थपकियों से उनींदी लाल आंखों को कोहेनूर हीरे में बदलना चाहती है

उसे कुछ पता नहीं चलता
जब डॉक्टर राउंड लगा कर चला जाता है
नर्स देगी अब दवा
एक स्पर्श की चुभन से फूट पड़ती है रुलाई
फंसे हुए भारी गले की मोटी आवाज
वार्ड के बिस्तरों के ऊपर छत से टकराती
कई मील का चक्कर लगाती निढाल पड़ती जाती
बेसुध औरत के पिछले दिन धुले कपड़ों की सीलन में जज्ब होती

कल इन कपड़ों के साथ उसकी अपनी रुलाई भी चिपकेगी
बेसुध औरत के शरीर से
जैसे आज पहने उसके कपड़ों में उसके आदमी की रुलाई की एक परत जमी हुई है


बेसुध औरत का आदमी
डॉक्टर जब राउंड पर आता है
किसी बफादार कारिंदे की तरह हाथ जोड़े
चौथी पांचवीं सीढ़ी के मातहत अफसर की तरह
बड़े अफसर की हर हरकत पर निगाह बांधे
हर आवाज पर कान साधे
दहलीज के बाहर मुस्तैद कारकून
डॉक्टर के किसी कहे अनकहे आदेश के इंतजार में खड़ा
बेसुध औरत का आदमी

डॉक्टर कोई पर्ची देगा
और वह संजीवनी लाने उड़ चलेगा
बेसुध औरत का आदमी बाद में छोटे डॉक्टर या नर्स से भी पूछता है
धीमे सुर में तहजीब से
मेहतर से भी दरयाफ्त कर ही लेता है
कहीं डॉक्टर ने कोई दवा लिखी तो नहीं
जिसे लाने में या मंगवाने में या बताने में कोताही बरती जा रही हो

हड़बड़ाते हुए जाता है वार्ड के बाहर
सोचते हुए कुछ जरूरत न पड़ जाए बेसुध औरत को
बिना वक्त गंवाए खाना खा के दौड़ा चला आता है
वार्ड में किसी चमत्कार को घटित होते देखने की आशा में
बेसुध औरत का आदमी

रह रह कर कुछ चिटकने लगता है बेसुध औरत के आदमी के अंदर
वह तपाक से मदद का हाथ बढ़ा देता है पड़ोसी मरीज की तरफ

जब सब सो जाते हैं
वह खिड़की की जाली से आसमान ताकने लगता है
जाली के असंख्य चौकोर छेदों में से किसी एक में से
बाहर निकालना चाहता है वह अपनी नजर


Wednesday, February 11, 2009


यह चित्र हमारे प्रिय और प्रसिद्ध सौंदर्यबोधशास्‍त्री विद्वान रमेश कुंतल मेघ की पुस्‍तक साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक का मुख पृष्‍ठ है। पुरुष और प्रकृति की यह कलाकृति डॉ मेघ की ही बनाई हुई है।
सम्‍पूर्ण सौंदर्य

रात दो बजे का वक्त है। पंजाब का एक खदबदाता हुआ शहर - लुधियाना। कहते हैं लुधियाना के लोग विदेश जा बसे हैं। यह एनआरआइयों का शहर है। चमक दमक और ठसक को देखकर लगता है वाकयी यह एनआरआइयों का ही शहर है। लेकिन जितने गए हैं उतने ही रह भी तो गए हैं। तभी तो गमकता है शहर। ये खुद गए हुए हैं। या इनके रिश्तेदार गए हुए हैं। या ये जाने वाले हैं। किसी न किसी तरीके से तार जुड़ी हुई है।

इस शहर में रात दो बजे का वक्त और एक बड़ा अस्पताल। भरा हुआ। शहर ही की तरह। दर्जन भर से ज्यादा वार्डों में से एक वार्ड पर नजर डालें। पचीस के करीब बिस्तर। सभी भरे हुए। खाली कोई नहीं। कोने वाली टयूब लाइट जल रही है। लोग सो रहे हैं। लोग ऊंघ रहे हैं। लोग हरकत में हैं। हर कोई अपने में और अपनों में।

एक बिस्तर से एक सरदार उठता है। एक हाथ में ड्रिप लगी है। दूसरे हाथ में बोतल। पाइप बिंधी हुई। उल्टा लटका के सरदारजी आराम से चल रहे हैं। जैसे स्टैंड साथ साथ चल रहा है। अविचल। निर्विकार। उन्हें शायद बाथरूम जाना है। नसों में लगातार जाते गुलूकोज की इस प्रक्रिया को उन्होंने ऐसे गले लगा लिया है जैसे मामूली पट्टी बंधी हो। साधारण आदमी हो तो सूई के नाम से ही दो मील दूर भाग जाए। और ये बहादुर गुलूकोज की बोतल अपने ही हाथ में उठाए घूम रहे हैं। उमर भी पकी हुई है। चिलगोजियां करने दिखाने बाली उमर नहीं। बालों का जूड़ा सिर पर बंधा है। जूड़ा क्या जूड़ू ही है। गंज तो सरदारों को भी पड़ता है।

किसी सरदार को इस हाल में देखने पर एक बारगी झटका लगता है। हालांकि बीमारी का शिकार तो सरदार भी होंगे ही। पर छवि कुछ मन में ऐसी बैठी है कि सरदार माने दिलदार। दिलवर। दिलकश। मस्ती, मजा, मजाक, मेहनत, मुहब्बत और मर्दानगी का नाम सरदार है। बहादुरी और ताकत का मानवीकरण। पारंपरिक लोक मानस और आधुनिक मीडिया ने इस रूप को गढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। ऐसी लाजबाव कौम के नायक को बीमार हालत में देखते ही जाति की सामूहिक छवि बिखरने लगती है।

अस्पताल के इसी वार्ड में शाम का वक्त है। सरदार जी तैयार हो रहे हैं। या कहना चाहिए सज संवर रहे हैं। बीमार आदमी भी तो सजता संवरता है। बल्कि इससे थोड़ी सफूर्ति ही पाता है। इस उपक्रम में सरदारनी जी मदद कर रही हैं। हाथ मुंह धो चुके हैं। कपड़े भी बदल लिए हैं। केश काढ़े जा रहे हैं। पकी उमर है। सरदारनी जी दारजी के बाल संवार रही हैं। लड़कियां चोटी करते समय बालों को पीछे पीठ की तरफ काढ़ती हैं। सरदार सिर झुका के आगे को बाल काढ़ते हैं। खुद ही काढ़ते हैं। पर यहां ये दारजी बीमार हैं। दारनी प्रेम से लगी हैं। बाल कम ही बचे हैं। नींबू बराबर जूड़ा बनता है। सरदारजी का इस तरह से झुका हुआ चेहरा, बालों के नन्हें से झरने से ढंका हुआ। सरदारनीजी के हाथों की हरकत। सरदारजी इस वक्त क्या सोच रहे होंगे।

बड़े भोले लगते हैं जब सरदार बाल काढ़ रहे होते हैं। तब क्या उनके अंदर की प्रकृति माता जागी होती है? क्या सरदार पुरुष और प्रकृति का पूर्ण समन्वित रूप हैं। बहादुर, दिलेर सरदार इतना कोमल और मनोरम भी है। रोज जिसके सिर में से झरना फूटता है। क्या सरदार अपने शीर्ष पर गंगा को धारे रहते हैं? क्या सरदार शिवजी के वंशज हैं?

पर यह तो सिख कौम की समूहिक छवि नहीं है। इस बारे में कौन जानता है। प्रकृति तो हरेक इंसान के भीतर छिपी बैठी होती ही है। कुछ प्रकट कुछ अप्रकट।

अहमदाबाद के शायर सुलतान अहमद से एक बार बात हो रही थी। दंगों में झुलस के आए थे। उन्होंने हमारी आंखें खोलीं कि जाति या कौम के नाम पर सरलीकरण नहीं करने चाहिए। उनकी बात सिर माथे पर। पर किसी इंसान के रूप सरूप और गतिविधि को देख कर उसके छुपे हुए आयाम दिखने लगें तो क्या करें। और अगर वे जाति की छवि के कंट्रास्ट में और चमकने लगें और व्यक्ति की खूबियां सामने आने लगें तो क्या करें।