अब दो कविताएं पढि़ए. ये भी उसी माहौल से निकली हैं, जहां से पिछला लेख निकला था। राकेश जी को लगा, लुधियाना शहर का ये चित्र कल्पना से लिखा है। ये कविताएं हमें यह समझने में मदद करेंगी कि अस्पतालों में आदमी के सामने कल्पना करने का अवकाश नहीं होता, अलबत्ता पल पल कलपना बदा होता है।
बेसुध औरत
बहुत रात गए एक औरत सुबकती है
जनरल वार्ड के एक बिस्तर पर
लगभग बेसुध पड़ी इस औरत को शायद एहसास हो कि रात है
बीमार और जीवन को किसी तरह बचा ले जाने की थकान ओढ़ कर लोग सो रहे हैं
औरत के सुबकने का भंवर लहराता हुआ बीमारों के सिर के ऊपर से गुजरता है
जनता-बाथरूमों वाले कोने से कपड़े पछीटने की आवाज आ रही है
बेसुध औरत का आदमी रोज रात ढाई बजे उठ कर कपड़े धोता है
सुबकी का भंवर कपड़े धोने की आवाज को अपने आगोश में लेते हुए
वार्ड के बिस्तरों के ऊपर छत को छूता हुआ अटका रहता है हल्की हवा की तरह
बेमालूम ढंग से यह हवा बाहर की हवा में घुल जाएगी
बेसुध औरत अपने आदमी की सारी थकान मिटा देना चाहती है
थपकियों से उनींदी लाल आंखों को कोहेनूर हीरे में बदलना चाहती है
उसे कुछ पता नहीं चलता
जब डॉक्टर राउंड लगा कर चला जाता है
नर्स देगी अब दवा
एक स्पर्श की चुभन से फूट पड़ती है रुलाई
फंसे हुए भारी गले की मोटी आवाज
वार्ड के बिस्तरों के ऊपर छत से टकराती
कई मील का चक्कर लगाती निढाल पड़ती जाती
बेसुध औरत के पिछले दिन धुले कपड़ों की सीलन में जज्ब होती
कल इन कपड़ों के साथ उसकी अपनी रुलाई भी चिपकेगी
बेसुध औरत के शरीर से
जैसे आज पहने उसके कपड़ों में उसके आदमी की रुलाई की एक परत जमी हुई है
बेसुध औरत का आदमी
डॉक्टर जब राउंड पर आता है
किसी बफादार कारिंदे की तरह हाथ जोड़े
चौथी पांचवीं सीढ़ी के मातहत अफसर की तरह
बड़े अफसर की हर हरकत पर निगाह बांधे
हर आवाज पर कान साधे
दहलीज के बाहर मुस्तैद कारकून
डॉक्टर के किसी कहे अनकहे आदेश के इंतजार में खड़ा
बेसुध औरत का आदमी
डॉक्टर कोई पर्ची देगा
और वह संजीवनी लाने उड़ चलेगा
बेसुध औरत का आदमी बाद में छोटे डॉक्टर या नर्स से भी पूछता है
धीमे सुर में तहजीब से
मेहतर से भी दरयाफ्त कर ही लेता है
कहीं डॉक्टर ने कोई दवा लिखी तो नहीं
जिसे लाने में या मंगवाने में या बताने में कोताही बरती जा रही हो
हड़बड़ाते हुए जाता है वार्ड के बाहर
सोचते हुए कुछ जरूरत न पड़ जाए बेसुध औरत को
बिना वक्त गंवाए खाना खा के दौड़ा चला आता है
वार्ड में किसी चमत्कार को घटित होते देखने की आशा में
बेसुध औरत का आदमी
रह रह कर कुछ चिटकने लगता है बेसुध औरत के आदमी के अंदर
वह तपाक से मदद का हाथ बढ़ा देता है पड़ोसी मरीज की तरफ
जब सब सो जाते हैं
वह खिड़की की जाली से आसमान ताकने लगता है
जाली के असंख्य चौकोर छेदों में से किसी एक में से
बाहर निकालना चाहता है वह अपनी नजर