मैंने कहानियां ज्यादा नहीं लिखीं हैं । जो लिखी हैं वो भी पचीस तीस साल पहले । रोटियां कहानी
हिमाचल की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर है, जो मधुमति में छपी थी । मुंबई के आवारा कुत्तों के पकड़ने की कुत्ताघर नाम
की कहानी वर्ततान साहित्य में छपी थी । एक और यह कहानी मुंबई के सीएसटी स्टेशन को केंद्र में रखते
हुए वीटी बेबे नाम से कथादेश में छपी थी । यह सीधी सादी कहानी सवा दो अक्षर नव भारत
टाइम्स में छपी थी। यहां इस कहानी में सभी चित्र गुरुदेव रवींदनाथ ठाकुर के हैं जो
इंटरनेट से लिए हैं ।
इस वक्त प्रेम कहानी के लिए बहुत बढ़िया माहौल बन रहा है । पर्यटन विभाग का
होटल । सीधे घटनास्थल पर आ जाएं तो होटल का आंगन । आंगन अक्सर मकान के सामने होते
हैं,
यहां पिछली तरफ है । कालीनी फर्श और साफ चमकती दीवारों वाले
रिसेप्शन और डायनिंग हॉल को पार करके खुले आसमान में यह आंगन खुलता है । आंगन के
पार घाटी खुलती है । दूर तक घुमावदार सड़क
और पहाड़ी ढलानों को एक नजर में देखा जा सकता है । लगता है यह आंगन नहीं किसी
गगनचुंबी इमारत की आखिरी मंजिल की बालकनी
हो । हर चीज को देख पाने की सुविधा । दूधिया आसमान में ची़जों को साफ साफ पहचान न
पाने और कल्पना करने की पूरी छूट वाली प्रेम कहानियों की आदर्श स्थिति । दूसरी तरफ
गर्दन घुमाई जाए तो तनिक टेढ़ी भी करनी पड़ेगी । धौलाधार की अंतिम चोटियां ऊपर उठती
जाती हैं । इतनी ऊपर कि वनस्पति भी उस ऊंचाई का साथ नहीं दे पाती । लेकिन अक्तूबर
की पहली बर्फ उन पर ताजगी की एक पर्त चढ़ा गई है । खूबसूरती का आलम आसमान से लेकर
नीचे सड़के के आखिरी छोर तक फैला हुआ है । आंख के कैमरे को घुमाकर आंगन पर फोकस
किया जाए तो तीस फुट चौड़ाई रेलिंग पर आकर रुकती है । नियमित कुतरी जाने वाली, सींची जाने वाली गदराई हुई हरी दूब के कालीन पर इधर उधर केन
की कुर्सियां और एक दो मेज पड़े हैं । वक्त यही कोई दोपहर बाद साढ़े तीन चार का ।
अक्तूबर के आखिरी दिनों की धूप के आखिरी डेढ़ दो घंटे । लगातार धूप में नहीं बैठ
सकते,
पर उस हरारत को हवा पोंछती जाती है । बैठना अच्छा लगता है ।
बैठकर मन को खुले छोड़ देना और भी अच्छा । है न प्रेम कहानी के अनुकूल स्थिति । कहानी बनाने, कहानी सोचने और कहानी जीने की बढ़िया सिचुएशन ।
नायक पत्नी के साथ सुबह ही इस होटल में प्रवेश ले चुका है । आंगन रूपी इस रंगभूमि
पर अभी उसका पदार्पण नहीं हुआ । वह इस वक्त मैक्लोडगंज गया हुआ है । दलाई लामा की
पहाड़ी पर घूमने । चला गया बल्कि कहिए जाना ही पड़ा । वे दोनों आज सुबह बस से पिटे
हुए से उतरे । करीब बारह तेरह घंटे की यात्रा । बस में सवारियों के नहीं पहाड़ी
मोड़ों के धक्के । हड्डी पसली एक कर देने वाले । बस में सोना तो क्या, ढीले होकर पड़े रहना भी दूभर । ऊपर से वीडियो की कृपा, एक के बाद एक तीन फिल्में । आप आंखें तो मीच सकते हैं, कानों में कितनी रूई ठूसेंगे । सोचा था पहुंचते ही शरीर को
जरा सीधा करेंगे । किस्मत का फेर, यहां भी चैन नहीं । पहाड़ों में लोग इस खामख्याली से आते हैं
कि तन मन को ताजा करेंगे, आराम देंगे । पर मजबूरियों ने कब किसका पीछा छोड़ा है । जिंदगी का पिछवाड़ा साथ
ही चिपका रहता है।
यहां पाठक गण, यह भी जान लीजिए कि नायक की पिछले हफ्ते ही शादी हुई है । जीवन के बाकी कामों, पढ़ाई, नौकरी आदि की तरह यह काम भी वक्त से निपट गया । सारे काम
विधिवत हो रहे हैं तो यह हनीमून का रिचुअल क्यों छोड़ दिया जाए । हालांकि हमारे
नायक की इसमें आस्था नहीं है, चोंचलेबाजी ही लगती है । जैसे दहेज लेना, शादी की धूमधाम उसे चोंचलेबाजी लगती थी, पर नायक अपने बड़ों, अपनी बिरादरी को नाराज नहीं करना चाहता, इसलिए उसने यह सब स्वीकार कर लिया । चलो भाई चार पांच दिन
और कुछ हजार की ही तो बात है । जिंदगी भर खटना ही है, बहाने से पहाड़ की सैर भी कर ली जाए । इस तरह हमारे नायक मय
पत्नी सुबह सुबह इस होटल में आ बिराजे ।
आप लोग हैरान होंगे कि मैं नायिका न कहकर पत्नी क्यों कह रहा हूं । श्रद्धेय
पाठको! भेद की बात यह है कि अगर पत्नी को नायिका कह दिया तो शुरू में जो प्रेम
कहानी की भूमिका बांधी है उसका क्या होगा । तब कहानी यों खत्म हो जाएगी - एक था
नायक एक थी नायिका, दोनों मिल गए इति आख्यायिका । कहानी क्या उस भूमिका की इति हो जाएगी। इसलिए
फिलहाल उसे नायिका नहीं पत्नी ही रहने दीजिए ।
हमारा नायक बड़ा पुरुषार्थी है। सब काम करता रहता है । शेव करते हुए शीशे में
अपना चेहरा देखता है तो उसे अपने कर्तव्यों की याद आ जाती है । वो उन्हें निबटाने
में जुट जाता है । पिछले हफ्ते से परिस्थिति किंचित बदल गई है । शादी क्या हुई
शरीर की दूसरी छाया आ खड़ी हुई । शुरू में तो बेचारा नर्वस होता रहा । अब पत्नी का
चेहरा देखते ही कर्तव्य पुकारने लगते हैं । फिलहाल नायक छुट्टी पर है पर इस छुट्टी
को भी उसने कर्तव्यों में शामिल कर लिया है और उसी मुस्तैदी से उन्हें निभा रहा है
। यही वो वजह थी कि चाह कर भी सुबह सो नहीं पाया वरन् उसने सोचा तो था कि होटल का
कमरा खुलते ही सामान पटक कर धड़ाम से पलंग पर लेट जाएगा और नींद लेगा । वह धड़ाम से
जैसे ही लेटने लगा, पत्नी ने घंटी टुनटुना दी – थक गए न! इतना लंबा तो सफर
था ।
- नहीं... नहीं... पहाड़ी रास्तों में ऐसा तो होता ही है ।
- थोड़ी देर आराम कर लें ।
- आराम तो होता रहेगा । बेहतर है हम घूमने का प्रोग्राम बना
लें । नायक ने पत्नी का चेहरा देख लिया था और उसे कर्तव्य याद आ गए । धड़ाम से
लेटना और नींद रफूचक्कर । उन लोगों ने तय किया कि आज मैक्लोडगंज चल के सबसे पहले
डॉ. डोलमा से एपॉएंटमेंट ले लिया जाए ताकि इसी ट्रिप में उनसे भेंट हो जाए और
चाचाजी का सारा केस उन्हें समझा के सलाह ले ली जाए । चाचाजी की इच्छा है कि
तिब्बती डॉक्टर का इलाज करा कर भी देख लें । नाम तो बड़ा सुना है डॉ. डोलमा का ।
मैक्लोडगंज में तिब्बती ब्लेजर, एंटीक
पीसेज वगैरह भी देख लेंगे, अगर वक्त मिल गया। वैसे दूसरी बार तो शायद जाना ही पड़ेगा । बाकी चीजें तब भी
देखी जा सकती हैं, पहला काम है डॉ. डोलमा । और नव दम्पत्ति नहा धोकर रवाना हो गया ।
मैक्लोडगंज पहुंच कर डॉ. से मिलने का समय लेकर वे भागसूनाथ की तरफ चले । पत्नी
ने चाहा भी होगा कि यह अकेला सा रास्ता है, देवदार अगल बगल खड़े हैं, उन पर हवा तैर रही है, हमारी नई नई शादी हुई है, जरा हाथ में हाथ डाल के चला जाए, पर नायक ने मौका नहीं दिया । अंतिम मोड़ आया तो दूर पानी का
ऊंचा झरना दिखा । पत्नी के मन ने किलोल सी ली - अब तो वहां साथ साथ पानी में पैर
डालकर बैठेंगे। लेकिन पत्नी की किस्मत में कुछ और ही बदा था, वो किलोलती रहे । नायक को पत्नी का चेहरा देखकर कर्तव्य
दर्शन हो जाता था, प्रेम संप्रेषण नहीं हो पाता था । तो क्या उसमें कर्तव्य की धातु ज्यादा है, और प्रेम के नाम पर ठन ठन गोपाल, जो बस माहौल का, खुशगवार मौसम का भी असर नहीं हो रहा? जी नहीं! पाठक गण, अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो भूल कर रहे हैं । नायक पिघल गया
है । एक दूसरे संसार ने पलटियां खाना शुरू कर दी हैं । नायक पत्नी से करीब दो साल
दूर जा पहुंचा है । वो बेचारी किसका तो हाथ पकड़े और कहां पैर से पानी छपछपाए ।
असल में नायक दो साल पहले पहाड़ में नौकरी कर चुका है । पहाड़ से उसका रिश्ता
पुराना है । पत्नी पहली बार आई है, इसलिए वह ज्यादा उत्साही है । नायक के मन में पहाड़ बसा हुआ
है । उसे देवदार की इस सुगंध, हवा के इन झोंकों से अपनी दोस्ती याद आ रही है । इस अकेले
रास्ते पर उसने दनादन दो चार फोटो अपने कैमरे से ले लिए । उड़ते हुए एक कव्वे के
पीछे पहाड़ के फ्रेम पर निशाना साध रहा था कि उसने पत्नी का चेहरा देख लिया और वो
झेंप गया । फट से उसने पत्नी का एक फोटो खींच लिया । पत्नी खुश हुई, नायक उदास हो गया । कैमरे के व्यू फांइडर में से उसने अपनी
पत्नी का चेहरा देखा... और वही हो गया जिसे वो शादी के बाद से लगातार टाल रखा
था... आह... एक टीस सी दिल में उठी और उसे लगा उसने नायिका का चित्र खींच लिया है ।
हालांकि उसने हकीकत में कभी नायिका का चित्र नहीं खींचा था । उसे समझ नहीं आया...
ये चेहरों का, चीजों
का,
घटनाओं का घालमेल इस तरह क्यों हो रहा है । हनीमूनी उल्लास
के कर्तव्य को निभाता नायक उदास हो गया । उसके बाद उसी उदासी में उसने घूमने के
काम पूरे किए । पत्नी के साथ मंदिर में माथा टेका, पानी के झरने तक गया, हाथ मुंह धोए, और भी जो करते बना किया । और लौट आया... चुपचाप ।
पत्नी का सिर दर्दाने लगा है, वो कमरे में लेट गई है । नायक उठा, धीरे कदमों से होटल के पिछवाड़े के उसी दोपहर बाद वाले आंगन
में प्रविष्ट हुआ । वह चारों तरफ नजरें घुमाता है... धीरे धीरे... एक कुर्सी की
पीठ पर हाथ रखता है... जरा सा खिसकाता है... उसी तरह धीरे धीरे बैठ जाता है । उसके
जीवन के पिछले दरवाजे खुलने लगते हैं ।
नायिका उसके सामने बैठी है । उसकी आंखों में धूप पड़ रही है । उठकर कुर्सी सरका
कर नायक की बगल में बैठती है । सामने मेज पर पाइनेपल जूस के टिनों में स्ट्रा पड़े
हैं । नायिका स्ट्रा छू रही है ...
– मैं तुमसे कुछ... कहना चाहती हूँ
– हां
– ...पूछना... चाहती हूं
– पूछो
– तुमने क्या सोचा
– किस बारे में
– जैसे तुम कुछ जानते नहीं
– सब बहुत मुश्किल हो रहा है
– क्या
– मदन ने तुमसे कुछ कहा नहीं
– हां कहा था
– तो
– इतनी जल्दी है?
– मुझे नहीं, लोगों को
– तो?
– यही पूछने तो मैं तुमसे आई हूं
– जानता हूं । मदन ने कहा था तुम आओगी
– तो?
–... बर्फ पड़ गई है
– कहां
– हैं! नहीं । यही तो मुश्किल है
– क्या? तुम्हें लगता है मैं तुम्हें समझ नहीं पाती?
– नहीं... यह बात नहीं है
– तो मुश्किल क्या है?
– इतना आसान नहीं है
– समझना?
– नहीं...
समझाना
– किसे, मुझे?
– ओ… हो...
नहीं, पेरेंट्स
को
– कोशिश की तुमने?
– कोशिश से फायदा?
– तुम्हें अभी भी फायदा बेफायदा सूझता है?
– फायदा नहीं… वे बहुत कंजर्वेटिव हैं
– मतलब... कुछ नहीं हो सकता
– मैंने यह कब कहा
– वही तो पूछ रही हूं
– वो ऐसा है कि... मदन ने तुम्हें कहा होगा... एक ही रास्ता
है... मुझे लगता है कि... कि इंतजार करना पड़ेगा...
– कब तक?
– थोड़ी पेशेंस रखो... जब तक... जब तक वो लोग थक न जाएं... थक
कर हार न जाएं...
– तब तक चाहे तुम मुझे ही हार जाओ... वे तुम्हारी मर्जी पूरी
नहीं करेंगे और... तुम उनकी मर्जी... या मर्जी के खिलाफ... शादी नहीं करोगे
– मैं मना तो नहीं कर रहा... वेट ही करने के लिए कह रहा हूं
– मेरे हालात जानते हुए भी? उन्हें छोटी बहन भी ब्याहनी है
– जानता हूं
– तो?
– ... लो ये पी लो... पाइनेपल बेकार हो जाएगा
– ....
–....
– आज तुम्हारी मौसी मिली थीं
– किसलिए?
– रास्ते में मिल गईं, वो रिश्ते में मेरी भी बुआ हैं
– कोई बात तो नहीं हुई?
– तुम्हारे बारे में पूछ रहीं थीं। साथ में उनकी लड़की भी थी
किरण
– क्या कहा?
– मैंने तो कुछ नहीं… किरण ने कमेंट पास किया... इसके लिए तो गुडी गुडी है
– मैंने पहले भी कहा था इतना उतावला होने की जरूरत नहीं है
– मैंने तो कुछ नहीं कहा । कह भी देती तो क्या यह सच नहीं है?
– अपने ही लिए मुश्किल खड़ी कर रही हो
– साफ साफ क्यों नहीं कहते
– मैं भी चाहता हूं... पर वे लोग इतनी आसानी से मानेंगे नहीं...
इसलिए... वक्त के सहारे
छोड़ने के सिवा और कोई चारा नहीं
– तुम्हें भी शायद फर्क नहीं पड़ता... पर मैं... मैं ही... कमजोर हूं...
प्लीज तुम कोशिश तो करो
– ठीक है...
ऐसे हारने लगोगी तो... मुश्किल हो जाएगा... फिर भी झेलने के लिए तैयार रहो
– वो तो हूं ही । जब तक आस रहेगी तो भी... टूट जाएगी तो भी...
– तुम खुद ही अनसर्टन हो
– सिर्फ तुम्हारी वजह से...
नायक बड़ी देर से देख रहा था, एक चिड़िया रेलिंग पर आकर बैठ गई थी । पता नहीं उसे कैसा
खटका हुआ,
वो उड़ गई । नायक का ध्यान भंग हुआ । उसने देखा एक अधेड़
कोहनियों के बल रेलिंग पर झुका हुआ है । दूसरी तरफ दो लोग बैठे हैं । बेयरा उन्हें
चाय देकर लौट रहा है । नायक ने तय किया चाय पी जाए और वो उठा, जाहिर है चाय पत्नी के साथ ही पी जाएगी । वो कमरे में गया ।
पत्नी लेटी हुई कुछ पढ़ रही थी । नायक ने पूछा - अरे तुम सोई नहीं कैसा है सिर दर्द?
पत्नी तनिक सकपका गई । बोली - नींद नहीं आई
– क्या पढ़ रही हो?
पत्नी ने डायरी आगे कर दी
– ओह...
यह डायरी नायक ने लिखी है । शायद प्रेम करते हुए आदमी अकेला होता है । प्रेम
और अकेलेपन की ऊहापोह शायद हर प्रेमी प्रेमिका को डायरी या कविता लिखने पर मजबूर
कर देती है । खास तौर पर जब चुप्पा सा प्रेम चल रहा हो, सारी इंद्रियां बहुत सक्रिय हो जाती हैं, बहुत कुछ कहने को लबालब । कह के भी अनकहा ही रहता है । उस
अनकहे में अकेलापन सिर उठाता है और सारे अनकहे को अपने विस्तार में समेट लेता है ।
चुप्पे प्रेम और अकेलेपन की डायरी नायक के घर से चलते वक्त पत्नी को दे दी थी यह
कहते हुए कि बेहतर है तुम भी जान जाओ ।
पत्नी ने नायक की उदासी सुबह घूमते वक्त ही भांप ली थी । लौटकर सिर दर्द की
वजह से सो नहीं पायी । खिड़की में से देखा नायक आंगन में बैठा है तो उसे डायरी याद
आ गई और निकाल कर उसे पढ़ने लगी । सिर दर्द जाता रहा । नायक को उसने अकेले बैठने
दिया,
कमरे में उसके अकेलेपन से संवाद करती रही । पता नहीं यह एक
और प्रेम की शुरुआत थी या खटास जमा होने लगी थी, पर उसे अच्छा नहीं लग रहा था । पूछे बिना रहा नहीं गया -
याद आ रही है?
नायक के जवाब नहीं दिया - चलो बाहर चलते हैं । चाय पीएं ।
दोनों आंगन में कुर्सियों पर विराजमान हो गए । नायक अपने बालों में अंगुलियां
उलझा कर चुप्पी तोड़ रहा था । पत्नी ही बोली - मुझे समझ नहीं आ रहा, ये सब अधूरा कैसे छूट गया...
– तुमसे जो होना था पूरा
– तुम्हें मलाल नहीं हो रहा? जो चाहा वो नहीं मिला, अनचाहा...
– मैं तुमसे पूछता हूं, तुम्हें ईर्ष्या नहीं हो रही?
– ईर्ष्या नहीं खराब लग रहा है । खास वजह भी नहीं, सब यूं ही छूट गया । सुनो, उसे पता है तुम्हारी शादी हो गई?
– हां
– कोई प्रतिक्रिया?
– मुझसे पहले उसकी शादी हो गई थी
– याद तो करती ही होगी
– … याद पर किसका बस चलता है... शादी तो मेरी भी हो चुकी
– पछतावा होता है?
– उससे क्या!
– लौट नहीं सकते?
– यह तुम कह रही हो... लौट सकता है कभी कोई... मतलब समझ रही हो जो कह रही
हो?
– खराब लग रहा है... मैं भी औरत हूं...
– .....
– तो भूलने की कोशिश करोगे?
– बच्चों जैसी बातें कर रही हो । मैंने डायरी इसलिए दी थी कि
तुम सब जान लो
– मेरा यह मतलब नहीं था
बेयरा चाय दे गया । नायक ने चाय की चुस्की ली । पत्नी कुछ देर मूढ़मति बैठी रही
। फिर उसने भी चुस्की ली । काफी देर तक सिर्फ चुस्कियों की आवाजें आती रहीं । वे
कुछ नहीं बोले । पता नहीं यह चुप्पे प्रेम की शुरुआत थी या अकेलापन सिर उठा रहा था
या खटास जमा होने लगी थी । शायद कोई भी निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी करना था । पत्नी
आखिर पत्नी थी, उसका
मन भर्राने लगा, फुसफुसाहट
ही निकली - कब तक ऐसे ही रहेगा?
– क्या?
– पछताने से भी डरते हो, भूलना भी नहीं चाहते?
– हैं? … नहीं… देखते हैं... झेलना तो होगा ही
– ओह...
– इंतजार करो... जब तक थक न जाऊँ... थक कर...
हार न जाऊं
जब ये दोनों चुस्कियां ले रहे थे, आंगन में बैठा दूसरा जोड़ा एक दूसरे के फोटो खींच रहा था । ‘‘एक्सक्यूज मी’’ कहकर वो महिला नायक के पास आई, नायक उठ खड़ा हुआ और उसने उस युगल का फोटो खींच दिया । लौटकर
बिना पत्नी की तरफ देखे बोला - लाइट अच्छी हो रही है, एक दो फोटो खींच लूं । तुम जाओ तैयार हो जाओ । फिर बाजार
चलेंगे । यहां की शॉपिंग आज निबटा ही दी जाए ।