संकट हिंदी कविता
नहीं असल में हिंदी आलोचना का है
मुंबई ये प्रकाशित पत्रिका चिंतनदिशा में पिछले कुछ अंकों से चल रही बहस को आप यहां पढ़ते आए हैं. पत्रिका के ताजा छपे अंक में इस बहस की अगली कड़ी के रूप में युवा कवि आलोचक अशोक कुमार पांडेय का लेख छपा है. यह उनका परिकथा में छपे लेख का परिवर्धित संस्करण है और उनके ब्लॉग असुविधा पर भी है.
(एक)
कभी सोचना कि किन
अभिशप्त रातों में जन्म हुआ था हमारा
नब्बे का दशक
स्वतन्त्र भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण विभाजक रेखा है. सोवियत संघ के विघटन
के साथ जहाँ एक तरफ समाजवादी राज्य का स्वप्न खंडित हुआ वहीं दूसरी तरफ देश के
भीतर नेहरूयुगीन अर्थव्यवस्था को तिलांजलि दे नई आर्थिक नीतियों के नाम से जो नीति
लागू की गयी उसने भारत को विश्व साम्राज्यवाद से नाभिनालबद्ध कर दिया. ऐसा नहीं कि
इसके पहले जो नीतियाँ लागू थीं वे किसी समतामूलक समाज की स्थापना के उद्देश्य से
परिचालित थीं, लेकिन दो-ध्रुवीय विश्व अर्थव्यवस्था में सोवियत ब्लाक की उपस्थिति
और देश में एक मजबूत समाजवादी आंदोलन की उपस्थिति ने राज्य पर थोड़ा नियंत्रण तो
रखा ही था. हालाँकि भारतीय लोकतंत्र से मोहभंग तो साठ के दशक में ही शुरू हो गया
था और सत्तर का दशक आते-आते नक्सलबारी के रूप में जो जनउभार सामने आया था उसका
प्रतिबिम्बन साहित्य में भी साफ़ दिखाई दिया था. मुक्तिबोध अगर रक्तपायी वर्ग से
बुद्धिजीवियों की नाभिनालबद्धता देख पा रहे थे तो सत्तर और अस्सी के दशक का कवि
उसके खिलाफ पूरे दम-ख़म के साथ खड़ा था और सत्ता व्यवस्था को चुनौती दे रहा था.
कुमार विकल, गोरख पांडे, आलोक धन्वा जैसे वामपंथी और नक्सल समर्थक कवि ही नहीं
अपितु धूमिल जैसे गैर वामपंथी कवियों का स्वर भी व्यवस्था के प्रखर विरोध से भरा
हुआ था. लेकिन इस विरोध की खासियत थी इसमें अन्तर्निहित एक प्रचंड आशावाद. दुनिया
के शीघ्र बदल जाने का एक आत्मविश्वास और इसका हिस्सा होने की जिद. ज़ाहिर तौर पर यह
उस दौर की राजनीतिक हकीक़त से उपजा था. नक्सलवादी आंदोलन की विफलता फिर आपातकाल और
उसके बाद सम्पूर्ण क्रान्ति के नाम पर चले आंदोलन की विफलता, सोवियत संघ का
बिखराव, एक ध्रुवीय विश्व के सरगना के रूप में विश्व साम्राज्यवाद के अनन्य नायक की
तरह अमेरिका के उद्भव तथा भारतीय शासक वर्ग के उसके समक्ष सम्पूर्ण समर्पण ने
नब्बे के दशक में जो सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक परिस्थितियाँ उपस्थित कीं उनके
प्रभाव में उसका चेहरा और उसकी अंतर्वस्तु को अपने पिछले दौर से अलग होना ही था.
यहाँ उस प्रचंड आशावाद का ताप मद्धम पड़ा, चिंताएँ और गहरे रूप में सामने आईं, एक
निराशा और दुःख का प्रतिबद्ध कवियों की कविताओं में दिखाई दी तों तमाम लोगों के
विश्वास सोवियत संघ के विघटित होने के साथ ही खंडित हुए और उन्होंने किसी आमूलचूल
परिवर्तन की उम्मीद छोडकर अपनी दूसरी राह चुन ली. हम आगे उन नयी प्रवृतियों और
कमजोर पड़ चुकी कुछ पुरानी प्रवृतियों के उद्भव और उनके स्रोतों पर भी विस्तार से
बात करेंगे.
नब्बे के दशक के
बिल्कुल आरंभिक दौर में इंडिया टुडे में प्रकाशित कुमार अम्बुज की कविता ‘क्रूरता’
इस दौर की कविताओं की प्रवृति को स्पष्टतः रेखांकित करती है. अपनी पूर्ववर्ती
कविता के तीव्र स्वर से अलग यह कविता समाज में वर्चस्व जमाती जा रही शक्तियों की
मंशा का खुलासा करती है. अपने बेहद सब्लाइम ट्रीटमेंट के साथ यह कविता नव उदारवाद
के मानवविरोधी चरित्र को रेशा-रेशा खोलती है. यहाँ नब्बे के दशक में पैर जमाते
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद दोनों की पदचाप साफ़ सुनाई देती
है और साथ ही इसके प्रभावों को जिस तरह अम्बुज रेखांकित करते हैं वह कविता की उस
ताक़त को बताता है जिससे वह भविष्य के खतरों को देख-समझ पाती है तथा समाज को उसके
प्रति आगाह करती है. इस कविता में दिख रही निराशा को समझने के लिए हमें डा नामवर
सिंह के भाषण की इन पंक्तियों को याद करना होगा – ‘जो लोग कलकत्ते में हैं और इस
वामपंथी सरकार को देखकर समझते हैं कि हिन्दुस्तान में भी क्रान्ति या समाजवाद आया
हुआ है तो मैं उनसे कहूँगा कि थोड़ी सी निराशा बचाए रखो. वह समझ देगी, विवेक देगी
और ताक़त देगी. घनघोर आशावाद तुम्हें धाराशायी करेगा. कवि है जो सतर्क रहता है.
आत्म प्रवंचना है आशावाद, इसीलिए उस निराशावाद को बचाए रखो.’ (देखें वागर्थ, २३
फरवरी १९९७, पेज -३१) नब्बे के दशक के बाद की कविता इसी ‘सतर्क निराशावाद’ की
कविता है. यह अलग बात है कि कहीं-कहीं ‘सतर्कता’ सयानेपन में बदल जाती है तों
कहीं-कहीं ‘निराशावाद’ अवसरवाद में.
( दो )
मोनोलिथ
नहीं होती किसी भी दशक की कविता
लेकिन
इस तथ्य के बावजूद इस दशक की कविता का कोई इकहरा चेहरा प्रस्तुत करना सरलीकरण होगा.
वाम की तात्कालिक पराजय, पश्चिम में इतिहास के अंत की घोषणाओं के साथ
उत्तरआधुनिकता के बढ़ते वर्चस्व, देश के तमाम हिस्सों में उग्र आन्दोलनों के
प्रभाव, बाज़ार के लगातार पूँजी केंद्रित होते जाने के साथ एक ध्रुवीय विश्व के
नेता अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ भारती शासक वर्ग के गठबंधन और देश में
साम्प्रदायिक शक्तियों की ताक़त में लगातार बढोत्तरी के प्रभाव में हिन्दी साहित्य
में भी अनेकानेक प्रवृतियाँ जन्मीं. यही कारण है कि इस युग के लिए कोई एक नाम दे
पाना आलोचकों के लिए संभव नहीं हुआ. उस समय से लेकर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के
बीच तक लिखी गयी कविताओं में अलग-अलग तरह की तमाम प्रवृतियाँ दिखती हैं. एक तरफ
वाम अब भी विचार के रूप में संघर्ष तथा प्रतिरोध के आकांक्षी कवियों के लिए
महत्वपूर्ण था तो दूसरी तरफ खुद को वाम कहने वाले तमाम कवि अस्मिताओं की पहचान पर
जोर देने वाले विमर्शों की कविताएँ लिख रहे हैं. दलित और स्त्री विमर्श इस दौर में
बेहद महत्वपूर्ण होकर उभरे हैं. साथ ही सोवियत संघ के टूटने के साथ बहुत सारे
कवियों और आलोचकों ने वाम का लबादा उतार कर कला और एक खास तरह की लक्ष्यहीन परन्तु
सुन्दर कविता का सहारा लिया. इसे ठीक-ठीक कलावाद कहना सही नहीं होगा. क्योंकि अपनी
कला की गुणवत्ता के स्तर पर वह वहाँ भी नहीं पहुंचती लेकिन इसकी लाक्षणिकता इसके
वाम विरोध में है. उद्देश्यहीन नास्टेल्जिया, दार्शनिक प्रलाप, दैहिक प्रेम,
अराजनीतिक आदर्शवाद, आध्यात्म
और जड़ों की तलाश तथा दंत नख विहीन मानवतावाद से प्रेरित इन कविताओं को ‘वैश्विक
स्तर’ का बताने वाले आलोचकों की भी कोई कमी नहीं. हम आगे इन प्रवृतियों और इनके
उभरने के कारणों पर विस्तार से बात करने की कोशिश करेंगे.
अगर
नब्बे के दशक की शुरुआत की बात करें तो हमें एकांत श्रीवास्तव, पवन करण, बोधिसत्व,
निलय उपाध्याय, देवी प्रसाद मिश्र, अनिल कुमार सिंह, प्रेम रंजन अनिमेष, संजय
कुंदन, हरिओम राजोरिया, मोहन डहेरिया, सुन्दर चंद ठाकुर, शरद कोकास, हेमंत
कुकरेती, कृष्ण मोहन झा, अनूप सेठी, नरेश चंद्रकर, बद्री नारायण, केशव तिवारी, निरंजन
श्रोत्रिय, जितेन्द्र श्रीवास्तव, अनामिका, कात्यायनी, सविता सिंह, नीलेश रघुवंशी
आदि हैं. ये नाम स्मृति के आधार पर हैं और क्रम भी किसी वरिष्ठता के आधार पर नहीं
है. अगर देखें तो एक ही तरह के संगठनों से जुड़े होने के बावजूद न केवल इनका स्वर
अलग-अलग है बल्कि कई बार वैचारिक स्रोत भी अलग-अलग दिखाई देते हैं. जैसे पवन करण
छोटी-छोटी मासूम सी लेकिन प्रतिरोधी कविताओं से शुरू कर स्त्री विमर्श तक पहुंचते
हैं. लेकिन उनका ‘स्त्री विमर्श’ मार्क्सवादी या किसी फेमिनिस्ट वैचारिक पद्धति से
व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. वह स्वतन्त्र है और एक हद तक अराजक भी. । वह किसी बने-बनाये
खांचे में फिट नहीं होते, उन्हें न तो हिंदी
के किसी कविता स्कूल की परंपरा से जोड़ा जा सकता है और न ही पश्चिम के किसी
नारीवादी स्कूल से वह अपने आसपास के परिवेश की समझ को अपने अनुभवों की धमनभट्ठी में
पकाकर सीधे-सीधे रख देते है, कभी-कभी अधपका भी। बोधिसत्व
की कविताओं में हिन्दी की शास्त्रीय परम्परा और लोक का गहरा प्रभाव दिखता है लेकिन
आगे चलाकर वह लोक में ऐसा फंसती है कि
उनके संकलनों से गुजरते हुए उनमें किसी विकासक्रम को लक्षित कर पाना मुश्किल हो
जाता है. एक खास तरह के शिल्प और कथ्य का आधिक्य उनकी क्षमता से अधिक उनकी सीमाएँ
दिखाने लगता है. मोहन डहेरिया उन कवियों में से हैं जिन पर आलोचकों ने यथेष्ट ध्यान
नहीं दिया. उनकी कविताएँ अपनी अंतर्वस्तु में गहरे राजनीतिक बोध की कविताएँ हैं .
उनका आखिरी संकलन प्रेम कविताओं का है, पहले संकलन में यह ‘बीते हुए समय
का/ लुप्त होता एक बेहद कठिन वाद्य है’ जिसे वह ‘बेसुरे होते जीवन में पूरी
रागात्मकता के साथ’ बजाना चाहते हैं तो अंतिम संकलन तक आते-आते यह उनके जीवन में
एक बैले की तरह शामिल हो गया है जहाँ वह ढेर सारे वाद्यों और स्वरों के साथ उसमें
डूबे हुए हैं. और ये किसी वायवीय कल्पना संसार में नहीं बल्कि जैसा कि विजय कुमार
ने फ्लैप पर लिखा है “बाहर के संसार के दबावों और मनुष्य की आतंरिक ऊर्जा के मिलन
स्थलों पर घटित हुई हैं”. यह अलि कलि ही सो बिंध्यों वाला प्रेम नहीं बल्कि जीवन
की ‘दुर्जेय हताशा को रद्दी कागज़ की तरह’ फेंकने का हौसला देने वाला प्रेम है.
प्रेम के खिलाफ खड़े इस समाज में जहाँ खाप पंचायतें चाहे सीमित जगहों पर हों लेकिन
वह मानसिकता हर घर में बैठी है मोहन डहेरिया ‘मारो, मार सको तो मार डालो’ जैसी
कविता में उनकी ओर तलवार लिए दौड़ते चेहरों की शिनाख्त करते हुए उसका विचारधारात्मक
प्रतिवाद संभव करते हैं तो अपनी विलक्षण कविता ‘जुलूस के बीच प्रेमी युगल’ में
‘माथे पर लाल चुनरी बांधे उत्तेजक नारे लगाते युवकों के जुलूस में कोलतार पुते
चेहरों के साथ भी अपने संकल्पधर्मा मौन के साथ निर्लिप्त युवा युगल के आगे बढ़ने
को रेखांकित कर पाते हैं. यह आगे बढना ऐसे कि जैसे कोई ‘फूलों की पंखुरियों से बनी
मशाल कर रही थी उनका नेतृत्व’. यह प्रेम और भरोसे की मशाल है, यह मनुष्यता की मशाल
है जिसमें मोहन डहेरिया की कविता ईंधन की तरह शामिल होती है. ‘हूँ मैं जहां’ में
वह ‘एक ख़ास रंग से पोत दिए गए संस्कृति के साझे स्मारक’ और ‘प्रेम के मशहूर
विलक्षण शायर के मकबरे पर रखी जा रही पेशाबघर की बुनियाद’ के बरक्स अपनी आत्मा पर
खिले एक नन्हे फूल की गमक से उस जगह को महकाए रखने की जिद के साथ खड़े होते हैं. ये
गम-ए-जानां के कुहरे में गम-ए-दौरां को छिपाने की कोशिश करते प्रलाप नहीं स्त्री
विमर्श के समकालीन दौर में एक अलग बुर्ज़ बनातीं प्रेम के मेटाफर में विद्रोह की कविताएँ
है. लेकिन ठीक-ठीक यही इस दौर में आये प्रेम कविताओं के दूसरे संकलनों के बारे में
नहीं कहा जा सकता.असल में इस दौर में प्रेम कविताओं की
जो बाढ़ आती है, और प्रेम कविताओं के संकलन निकालने की जो बेताबी दिखती है उसे
बहुत गौर से देखे जाने की ज़रुरत है. वह
प्रेम कहीं वास्तविक दुनिया से पलायन का बहाना तो नहीं? कभी वाम कविता में वर्जना
के अतिवाद से गुजरा प्रेम नाजिम हिकमत की प्रेम कविताओं के बाद से जिस तरह उमड़ा
है वह इकहरा नहीं. प्रेम के नाम पर जो कवितायेँ लिखी गयीं हैं, उनकी अपनी वर्गीय
पक्षधरतायें हैं और उनका विवेचन एक स्वतंत्र आलेख की मांग करता है, जो फिलहाल मेरे
लिए संभव नहीं हो पा रहा.
अनामिका
इस दौर का सबसे महत्वपूर्ण स्त्री स्वर हैं. लेकिन स्त्री-विमर्श की कैद में फंसकर
वह भी लगातार अपनी धार खोती सी लगती हैं और लंबे दौर के लेखन में कविता के
क्षेत्रफल में विस्तार की कमी उनकी सीमा बन जाती है. बद्रीनारायण जैसे समर्थ कवि
लोक के संजाल में ऐसा फंसते हैं कि तीसरा संकलन आते-आते खुद को दोहराते हुए ही
नहीं, पीछे जाते हुए भी लगते हैं. यही नहीं संजय कुंदन या प्रेम रंजन अनिमेष जैसे
महत्वपूर्ण कवि कहानियों की तरफ मुड़ते हैं तो अनिल कुमार सिंह और निलय उपाध्याय
सहित कई अन्य कवि पूरे परिदृश्य से ही बाहर चले जाते हैं. इस दौर की कविता को गौर
से देखने पर समझ में आता है कि अस्सी के दशक में ही रक्षात्मक हो चला प्रतिरोध का
स्वर और विरल तथा क्षीण हुआ है. अब यह कविता की ताक़त में अविश्वास की वज़ह से उपजा
हो या ‘ब्रांडिंग’ के युग में अपनी एक अलग पहचान बनाने के दबाव में, लेकिन इस दौर
की कविता में ‘विशेषज्ञता’ महत्वपूर्ण हुई है. कभी कथ्य के स्तर पर तो कभी भाषा और
शिल्प के स्तर पर. इस ‘विशेषज्ञता’ का एक बड़ा स्रोत लोकप्रियता का दबाव है तो
दूसरा अपने समकाल की अस्पष्ट समझ और समझौतों में उलझ जाना है. इस विशेषज्ञता को एक
उत्तराधुनिक प्रवृति की देखे जाने की भी ज़रुरत है. प्रेम कविताओं की जिस बाढ़ का
मैंने पहले ज़िक्र किया है, उसे इस रौशनी में देखा जाना ज़रूरी है.
इस
दौर में स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के उभार के साथ एक और परिघटना बेहद
महत्वपूर्ण तरीके से सामने आई है. वाम कही जाने वाली धारा का साम्प्रदायिकता
विमर्श तक सिमटते जाना. नब्बे के दशक में बाबरी मस्जिद विध्वंस और देश भर में
लगातार गहराती जा रही साम्प्रदायिकता के बरक्स कविता में इसकी मुखालफत ज़रूरी भी थी
और अपरिहार्य भी. और यह कहना होगा कि हमारे कवियों ने यह भूमिका निभाई भी पूरी
ताक़त से. एकांत श्रीवास्तव की ‘दंगे के बाद’ हो, अनिल कुमार सिंह की ‘अयोध्या’,
देवी प्रसाद मिश्र की ‘मुसलमान’ बोधिसत्व
की ‘पागलदास’ या पवन करण की ‘मुसलमान लड़के’ या फिर गोधरा के बाद लिखी गयी निरंजन
श्रोत्रिय की कविता ‘जुगलबंदी’ (जुगलबंदी पर थोड़ा विस्तार से मैंने इसी शीर्षक से
प्रकाशित उनके संकलन की समीक्षा में बात की है) , इस दौर के लगभग सभी कवियों ने
साम्प्रदायिकता के विरोध में कविताएँ लिखी हैं. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि
इस दौर में वाम होने का अर्थ लगातार साम्प्रदायिकता विरोधी होने तक संकुचित होता
चला गया. इसीलिए इन कविताओं को अलग-अलग करके देखना होगा. इस साम्प्रदायिकता विरोध
में एक स्वर गाँधीवादी सर्व धर्म समभाव का विगलित स्वर था. धर्म की संस्था के
खिलाफ खड़े होने या फिर ‘रक्तपायी वर्ग से इसकी नाभिनालबद्धता’ को रेशा-रेशा साफ़
करने की जिद यहाँ उतनी नहीं दिखती और इसीलिए स्वर बहुत धीमा, उदास और किसी पराजित
वक्तव्य सा लगता है. इनका मूल स्वर उदासी का है.
इस उदासी के कारण भी उस समय की स्थितियों में
खोजे जा सकते हैं. एक तरफ वामपंथ की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय फलक पर पराजय और
दूसरी तरफ देश के भीतर सत्ता और समाज पर साम्प्रदायिक तत्वों का बढ़ता जा रहा
नियंत्रण...इन दोनों के साथ ही उदारीकरण के नाम पर हो रहे आर्थिक बदलावों ने समाज
के भीतर एक गहरी निराशा और पस्ती का जो भाव भरा था उसकी यह परिणिति स्वाभाविक ही
थी. आप देखिये कि उर्दू की जुझारू परम्परा से आये कैफी आजमी भी जब अयोध्या पर अपनी
प्रसिद्द नज्म लिखते हैं तो वहाँ भी यह उदासी साफ़ झलकती है. हिन्दुस्तान के
बंटवारे से बाबरी की शहादत का सफ़र कर चुके कैफ़ी साहब की उदासी समझी जा सकती है,
लेकिन युवा कवियों की यह उदासी थोड़ा विवेचन की मांग करती है.
जैसा की मैंने पहले इंगित किया, इस दौर में
साम्प्रदायिकता पर लिखना एक चलन की तरह तो आया लेकिन इसके लिए टेक ली गयी
गांधीवादी सर्व धर्म समभाव की. खुद को वाम कहने और वाम संगठनों से जुड़ाव के बावजूद
गांधीवाद के अधिक करीब इन कवियों के लिए यह उदासी धर्म की संस्था पर सीधे हमला कर
पाने की उनकी असमर्थता पर ताना गया एक कुहासा भी था. इन कवियों ने साम्राज्यवाद का
सामना करने के लिए भी अक्सर ‘लोक’ का सहारा लिया. यह ‘बैक टू द विलेज’ जैसा था. एक
प्राचीन गौरवशाली समय में लौटना. इनके यहाँ समानता का स्वप्न और उसके लिए संघर्ष
अगर अनुपस्थित या बहुत सतही तौर पर दिखता है तो गाँव बहुत ज्यादा आदर्श की तरह.
वहां गाँव की जातिवादी संरचना, वहां उपस्थित आर्थिक विभेद भी अक्सर अनुपस्थित हैं.
अगर गौर से देखें तो कालान्तर में धर्म को लेकर इन कवियों का स्वर और मुलायम और
महीन हुआ है, वाम से दूरी लगातार बढ़ी है. ये कविताएँ इसी सफ़र की पूर्वपीठिकाएं
थीं. इसी के बरक्स वे कविताएँ हैं जहाँ साम्प्रदायिकता पर लिखी गयी कविताएँ एक प्रतिरोधी
स्वर के साथ हैं. जैसे अनिल कुमार सिंह की ‘अयोध्या’ या देवी प्रसाद मिश्र की कई
अन्य कवितायें या एकांत श्रीवास्तव की कविता ‘दंगे के बाद’. मोहन
डहेरिया अयोध्या या गुजरात की घटनाओं पर
लिखने की जगह सीधे-सीधे धर्म से मुठभेड़ करते दिखाई देते हैं. अपने कई अन्य चमकदार
समकालीन कवियों की कैलकुलेटेड उदासी की जगह उनके यहाँ धर्म पर सीधा प्रहार है, उस
विषवृक्ष की ज़हरीली छाया के नीचे बैठकर मोहन विलाप नहीं करते बल्कि उसकी जड़ों में
मट्ठा डालने की कोशिश करते हैं. उससे आक्रान्त नहीं होते, उसकी आँखों में आँखें
डाल सवाल करते हैं. धर्म शीर्षक कविता के पहले खंड में वह इसे ‘बदबूदार गोबर देने
वाली गाय’ कहते हैं जिससे अब न तो घरों के आँगन लीपे जा सकते हैं न ही कंडे बनाये
जा सकते हैं. उन्हें दूर से इसके ‘खंजर की तरह चमकते सींग’ दिखाई देते हैं तो
दुसरे खंड में यह सटीक पहचान कर पाते हैं कि धर्म से दीक्षित बच्चा जिसे ‘होना
चाहिए था पाठशाला में/ दंगाइयों की भीड़ में सबसे आगे है’. ईश्वर या ‘यह हैं हम-
इस पृथ्वी की सर्वश्रेष्ठ प्रजाति’ जैसी कविताओं में वह सर्व धर्म समभाव के
समकालीन विगलित स्वर में मिमियाने की जगह धर्म के पूरी तरह अमानवीय होते जाने की
प्रक्रिया और उसके मानवीय विकल्पों के निर्माण की ज़रुरत को पहचानने की हिम्मत
बरतते हैं.
उस उदासी को भी सकारात्मक समझा जा सकता था
लेकिन दिक्कत यह है कि उन कविताओं के साथ
लिखी दूसरी कविताओं में अपने समय, समाज और राजनीति की जो मुकम्मल समझ और बदलाव की
जो दिशा दिखानी चाहिए थी वह बहुत अस्पष्ट और भावुक है. यहाँ अचानक आ गए बाज़ार के
प्रति एक कातर और भीरु भाव है. उसकी आँखों में आँखे डाल बतियाने और चुनौती देने की
जगह उससे भागकर कुछ पवित्र प्रतीकों की शरण में चले जाने की प्रवृति है. इसकी एक
अभिव्यक्ति बाज़ार से बाहर होते जा रहे उन ग्रामीण प्रतीकों और वस्तुओं के कविता
में प्रवेश के रूप में हुई जो वस्तुतः पिछडी हुई तकनीकों की उपज थे और आर्थिक
विकास के साथ उनका बाज़ार से बाहर होते जाना स्वाभाविक तो था ही साथ में कई बार उन
लोगों के लिए भी मुक्तिदाता था जो इसका उपयोग कर रहे थे. लेकिन शहरों में रह रहे
हमारे मध्यवर्गीय कवियों की गाँवों से जुड़ी स्मृतियों में ये वस्तुएँ गहरे समाई
हुई थीं तो कविता में इनका प्रवेश किसी पवित्र प्रतीक की तरह हुआ. कुदाल, पिंजन,
चूल्हा, कुल्हाडी जैसे विषयों पर तमाम कविताएँ लिखीं गयीं. लेकिन इनका एक पक्ष
इनसे जुड़े हुए कारीगरों की बदहाली पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना भी था. नई आर्थिक
नीतियों के बाद के अंधाधुंध मशीनीकरण से जो शिल्पकार बदहाल होते जा रहे थे उनकी
नियति और उनके संघर्षों पर इनमें से कुछ कविताएँ गंभीर प्रश्न भी खडी करती हैं.
लेकिन ज्यादातर कविताएँ उन स्मृतियों को सहेजने से आगे नहीं जातीं. यह
नास्टेल्जिया कविता में उस पुराने समय की वेदना को तो दर्ज करती है लेकिन इसके आगे
किसी सार्थक बहस को जन्म नहीं देती. ये कवितायें शहर की आँखों से देखी गाँव की
निष्क्रिय छवियों के सहारे गाँव का एक ऐसा चित्र खींचती हैं जिसमें उसे उसकी
विडम्बनाओं और नयी आर्थिक व्यवस्था के बरक्स हुई बदहाली से काटकर किसी पुरानी
स्मृति की क़ैद में एक यथास्थिति में रखा जाता है. इसी के बरक्स जब नीलेश रघुवंशी
‘हंडा’ कविता में लिखती हैं ‘वह हंडा/ एक युवती लाई अपने साथ दहेज में/ देखती रही
होगी रास्ते भर/ उसमें घर का दरवाजा/बचपन उसमें अटाटूट भरा था/ भरे थे तारों में
डूबे हुए दिन’ तो यह महज नास्टेल्जिया नहीं रह जाती अपितु एक औरत के जीवन की सबसे
बड़ी विडम्बना को रेखांकित करते हुए ऎसी स्मृति में बदल जाती है जो भविष्य के लिए
दरवाजे खोलती है.
लेकिन इस पूरे दौर में गाँव को उसके पूरे आदमकद
रूप में सामने लाने वाले कवि हैं अष्टभुजा शुक्ल. उनके यहाँ गाँव स्मृतियों में
नहीं, रोज़ ब रोज़ के जीवन में है. उनकी कविताओं में इस नवसाम्राज्यवादी व्यवस्था की
आर्थिक नीतियों के चलते ग्रामीण समाज के ढाँचे में बदलाव और तबाही के प्रामाणिक
दृश्य ही विन्यस्त नहीं हैं अपितु उसके खिलाफ एक तीखा गुस्सा है जो सिर्फ
सत्ताधीशों तक नहीं सीमित बल्कि ‘सूरज के आंसूं को खून कहके धाँसू कविता’ लिखने
वाले कवियों और साहित्य सत्ता पर कब्ज़ा जमाये जनता की कविता के नाम पर मलाई काट
रहे लोगों तक भी पहुंचता है. यह ‘लोकधर्मिता’ विजेंद्र और उनके प्रिय लोगों की
लोकधर्मिता नहीं, जहां एक ख़ास लोकेल के चमत्कारी दृश्यों को रूमानी तरीके से और एक
लद्धड़ भाषा में पेश कर दिए जाने को ही ‘जनपक्षधरता’ मान लिया जाता है. अष्टभुजा एक
साथ मध्यवर्गीय दृष्टि के विगलित ग्रामीण अतीतजीविता और लोक के सीमित तथा चमत्कारी
प्रदर्शन के लिए प्रतिपक्ष बन कर सामने आते हैं.
(तीन)
नए लोग नयी बात लेकर भी आते हैं
इस दौर में कविता की नागरिकता विस्तृत होकर महिलाओं
और दलितों तक पहुँचना शुरू करती है. इस दशक की महिला कवियों का स्वर न तो ‘नीर भरी
बदली’ वाला है, न ही ‘बुंदेले हरबोलों वाला’. यहाँ स्त्री का जीवन अपने पूरे आदमकद
रूप में उसके संघर्षों और प्रतिकार के साथ आया है. ‘चौका’ कविता में अनामिका जिस
तरह से ‘मैं रोटी बेलती /जैसे पृथ्वी/ ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़/ भूचाल बेलते हैं घर/
सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर’ लिखती हैं या ‘हे परम पिताओं /परम
पुरुषों/ बख्शो अब हमें बख्शो (स्त्रियाँ) लिखती हैं या सविता सिंह जब लिखती हैं
कि ‘डरी रहती है
बिस्तर में भी अपने पुरुषों के संग/ बेवजह ख़लल नहीं ड़ालती उनकी नींद में/ रहती
हैं सेवारत बरसाती प्रेम सहिष्णुता/ चाहिए उन्हें वैसे भी ज्यादा शांति / बहुत कम प्रतिरोध अपने घरों में/ फिर भी/ अपने
एकांत के शब्दरहित लोक में/ एक प्रतिध्वनि – सी / मन के किसी बेचैन कोने से उठती जल की तरंग-सी /अपने चेहरे को देखा करती है /एक दूसरे के
चेहरे में /बनाती रहस्यमय ढंग से/ एक दूसरे को अपने सच
का दर्पण.’ तो यह मर्दों की दुनिया में आजादी के लिए
व्यग्र और तत्पर महिलाओं की आवाज़ बन जाती है. लेकिन दिक्कत तब होती है जब इस नए
विमर्श को एक हिट फार्मूले की तरह प्रयोग किये जाने से स्त्री केंद्रित कविताओं की
एक बाढ सी आ जाती है जिसमें स्त्री प्रश्न पर किसी गंभीर समझदारी या किसी गहरी
चिंता की जगह एक तरह की सतही भावुकता और कालान्तर में पूरे स्त्री-मुक्ति को
देह-मुक्ति के आख्यान में बदलकर उसका गुड-गोबर कर दिया जाता है. यह कविता में
धीरे-धीरे जगह जमा रहे और अपने सवालों को लेकर जूझ रहे स्त्री स्वर को न केवल
धुंधला करता है, बल्कि कई बार स्त्री विमर्श की आड़ में स्त्री-मुक्ति के सवाल को
ही सरलीकृत कर देता है. अभी बिलकुल हाल में हिंदी कविता के परिक्षेत्र में विमर्श
के दबाव में यह चीख-पुकार, आर्तनाद, शोर-ओ-गुल, हुंकार भयावह रूप से बढ़ी है.
इधर इस भीड़ में जिन आवाजों की मैं अलग से पहचान कर पा रहा हूँ उनमें
विपिन चौधरी और मोनिका कुमार प्रमुख है. विपिन की हाल में ‘अनुनाद’ पर
आई कविताओं पर जो टिप्पणी मैंने की थी उसे यहाँ दुहराना चाहूंगा. ‘विपिन की कवितायें
कवि के रूप में उनके प्रौढ़ होते जाने की सूचना देती हैं. उनके शुरूआती दोनों
संकलनों से तुलना करें तो ये एक 'लीप फारवर्ड' जैसी
लगतीं हैं. जो सबसे ज़रूरी बात इनके बारे में कहना चाहूंगा वह यह कि समकालीन समय
के विमर्शीय दबाव में जो चीख पुकार आह कराह शोर ओ गुल चिल्ल-पों मची है और
फार्मूला कविताओं के रूप में (जिनमें एक ऐसा यथार्थ परोसा जाता है जो न
कवियत्रियों का है न ही किसी और का) इनकी जो भीड़ राजधानी और बाहर कुकुरमुत्ते की
तरह उग रहे कार्यक्रमों के माध्यम से सामने आ रही है, ये उस
भीड़ में शामिल नहीं हैं.’
मोनिका कुमार बिलकुल अलग जेनर की कवियत्री
हैं. इधर कुछ ब्लाग्स और ई पत्रिकाओं में आई कविताओं से उन्होंने ध्यान खींचा है.
उनके पास एक बहुत गहन और विरल अनुभव संसार है और उसे कविता में कहने के लिए एक
कलात्मक परन्तु स्पष्ट शिल्प है. ‘चींटा’ जैसी कविता में वह जिस तरह शरीर पर चींटे
के चढ़ने की मामूली घटना को एक बड़े आख्यान में तब्दील कर देती हैं, एक नए कवि के
रूप में यह बहुत उम्मीद जगाने वाला है.
इसी तरह कविता में दलित स्वर का भी प्रवेश पूरे दम-ख़म के साथ होता
है. अपनी एक कविता में बद्रीनारायण जब यह कहते हैं कि ‘आकाश में मेरा एक नायक है / राहू / गगन दक्षिणावर्त में जग-जग करता /
धीर मन्दराचल-सा / सिंधा, तुरही
बजा जयघोष करता/ चन्द्रमा द्वारा अपने विरुद्ध किए गए षड़यन्त्रों को / मन में धरे /
मुंजवत पर्वत पर आक्रमण करता / एक ग्रहण के बीतने पर दूसरे ग्रहण के आने की करता
तैयारी / वक्षस्थल पर सुवर्णालंकार, जिसके कांचन के
शिरस्त्राण / ब्रज के खिलाफ़ एक अजस्र शिलाखण्ड / भुजाओं में उठाए / अनन्त देव-नक्षत्रों का अकेला आक्रमण
झेलता / अतल समुद्र की तरह गहरा / और
वन-वितान की तरह फैला हुआ / तासा-डंका बजाता / और कत्ता लहराता हुआ ....... ऋगवेद
के किसी भी मण्डल के अगर किसी भी कवि ने / उस पर लिखा होता एक भी छन्द तो मुझे / अपनी
कवि कुल परम्परा पर गर्व होता’ तो वह कविता की एक नयी परम्परा की तलाश और उसकी
स्थापना का ही उद्घोष है. मुसाफिर बैठा लिखते हैं कि ‘मुझे क्या था मालूम/ कि/ हरि पर तो कुछेक प्रभुजन का
ही अधिकार है/ और इस देवी मंदिर को/ ऐसे ही प्रभुजनों ने अपनी ख़ातिर सुरक्षित कर कब्ज़ा रखा था.
(मैं उनके मंदिर गया था) तो एक दलित कवि की कविता में यह आक्रोश और अधिक
तीखा होकर सामने आता है. दलित कविताओं की सबसे बड़ी खूबी भी उनकी यही तिक्तता है.
पिछले दो दशकों में यह कविता और अधिक परिपक्व हुई है. इसी समय में प्रेमचंद गाँधी
जैसे प्रतिबद्ध कवि इस पूरी अवधारणा को मानवमुक्ति की बड़ी लड़ाई के साथ जोडकर देख
रहे थे लेकिन साथ ही दलितों का जीवन संघर्ष और उनकी वंचना भी उनकी कविताओं में जगह
बना रहे थे.
(चार)
अगर
यहाँ नहीं है विविधता तो कहीं नहीं है
नागरिकता
का यह विस्तार, स्वाभाविक रूप से भाषा, शिल्प और कथ्य तीनों के स्तर पर विविधताएं
और नवाचार लिए आया जो बाद के दशक में और विस्तारित तथा स्पष्ट हुआ. लेकिन
बद्रीनारायण जिसे ‘लांग नाइंटीज’ कहते हैं और एक ही समय में भिन्न-भिन्न स्तरों पर
भिन्न-भिन्न सच्चाइयों की उपस्थिति की बात करते हैं, मैं उससे सहमत नहीं हूँ. ऊपर
से यह दिखने के बावजूद, एक प्रमुख अंतर्विरोध पूरी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में
उपस्थित है – नवसाम्राज्यवाद, और प्रतिरोध की किसी भी संरचना को किसी भी संस्तर पर
आपरेट करते हुए अंततः इस मुख्य अंतर्विरोध के सामने खड़ा होना पडेगा. ऐसा कोई भी
हाशिये या केंद्र का प्रतिरोध जो इस मुख्य अंतर्विरोध को नज़रअंदाज करेगा, वह असल
में समझौते की एक छोटी कोशिश की तरह रह जाएगा. कहना न होगा की अस्मिता विमर्श का
बड़ा हिस्सा यही होकर रह गया है. आगे वर्ष २००० के बाद की कविता पर बात करते हुए हम
देखेंगे कि ये नब्बे की प्रवृतियों का विस्तार नहीं हैं, एक सततता जो किन्हीं भी
दो दशकों के बीच सेतु की तरह होती ही है, उसके अलावा एक स्पष्ट डिपारचर भी दिखाई
देता है जो अभी बिलकुल हाल में लिखी जा रही कविताओं के किसी भी सचेत पाठक के लिए
लक्षित करना आसान होगा.
इस
दौर में सोवियत संघ के विघटन का ‘हैंग़ ओवर’ कमजोर पडता है, बाज़ार का मनुष्यविरोधी
रूप साफ़ सामने आने लगता है, सामाजिक न्याय की विसंगतियाँ दिखती हैं और संपदा की
लूट के साथ-साथ सरकारों का जो क्रूर और दमनकारी चेहरा दिखाई देता है वह कवियों को
अपने तरीके से प्रभावित करता है. एक तरफ राजेन्द्र यादव जैसे तमाम लोग कविता को
खारिज कर रहे हैं तों दूसरी तरफ विजय बहादुर सिंह जैसे तमाम लोग छंद की वापसी की
बात कर रहे हैं. कविता के वजूद को लेकर ही एक नई बहस शुरू होती है. इसी दौर में
इंटरनेट एक प्रमुख माध्यम के रूप में सामने आता है और पाठकों के खत्म होते जाने के
भयावह शोर के बीच कवियों की एक पूरी नयी और ताज़ा खेप सामने दिखाई देती है. इस दौर
में जिन कवियों ने अपनी पहचान बनाई और हिन्दी कविता को प्रभावित किया उनमें शिरीष
कुमार मौर्य, पंकज चतुर्वेदी, आशीष त्रिपाठी, गिरिराज किराडू, गीत चतुर्वेदी,
विशाल श्रीवास्तव, कुमार अनुपम, आर चेतनक्रांति, अंशु मालवीय, नीलोत्पल, राकेश
रंजन,
प्रभात, राजुला शाह,
व्योमेश शुक्ल, तुषार
धवल, अजेय, विपिन चौधरी, उमाशंकर चौधरी, निर्मला पुतुल, हरे प्रकाश उपाध्याय,
प्रदीप जिलवाने, पीयूष दईया, मनोज कुमार झा, प्रांजल धर, विजय सिंह, मनोज कुमार
झा, बहादुर पटेल, सच्चिदानंद विशाख, शंकरानंद, महेश चन्द्र पुनेठा, रविकांत, अंशु
मालवीय, अंशुल त्रिपाठी, मृत्युंजय, महेश वर्मा, विमलेश त्रिपाठी, निशांत, मुकेश
मानस, अमित मनोज, अनुज लुगून, ज्योति चावला, विपिन चौधरी, मोनिका कुमार, अमित
उपमन्यु आदि प्रमुख हैं.
इस दौर की कविता में दो तरह के स्वर साफ़ सुने जा सकते हैं. पहला उन कवियों का जिनका अब किसी महाकाव्यात्मक आमूलचूल परिवर्तन में कोई विश्वास नहीं रह गया और दूसरा जिनका धीमे स्वरों में उदासी या पस्ती के गीत गाने से काम नहीं चलता और वे पूरी तल्खी के साथ व्यवस्था के विरोध में खड़े होते हैं. साथ ही इस दौर में बिल्कुल नए क्षेत्रों और नए अनुभवों के कवि अपनी ताज़ा संवेदनाओं के साथ सामने आते हैं. निर्मला पुतुल सुदूर झारखंड से बिल्कुल नई तरह की कविताएँ लेकर आती हैं (यह अलग बात है कि वे अपने पहले संकलन के बाद
अचानक अपनी चमक खो देती हैं) तो अजेय सुदूर हिमालयी क्षेत्र से जिन कविताओं के साथ सामने आते हैं उन्हें सिर्फ पहाड़ की कविताएँ कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. पिछले साल अकार में प्रकाशित उनकी कविता ‘एक
बुद्ध कविता में करुणा ढूंढ रहा है’ समकालीन कविता की एक विशिष्ट उपलब्धि है. इस दौर के पहले कुछ वर्षों में लम्बी कवितायें लगातार कम होती गयीं. किसी बड़े आन्दोलन की अनुपस्थिति और एक महाकाव्यात्मक विमर्श के अंतर्गत इस परिवर्तन और दुष्काल को सांगोपांग देख पाने की विफलता इसका बड़ा कारण रहे है. फिर भी बीच- बीच में कुछ महत्वपूर्ण लम्बी कवितायेँ आई हैं. यहाँ बहुत कम लिखने वाले कवि तुषार धवल की चर्चित लंबी कविता ‘काला राक्षस’ का जिक्र करना भी उचित होगा जो हमारे समय के काले पक्ष को इतनी शिद्दत से दिखाती और व्याख्यायित करती है कि इसे पढकर मुक्तिबोध की याद आना स्वाभाविक है. बाद के दौर में इधर बिलकुल हाल में एक बार फिर से लम्बी कविताओं की वापसी दिखाई देती है. तुषार धवल, गिरिराज किराडू, कुमार अनुपम, रविकांत, गीत चतुर्वेदी, शिरीष कुमार मौर्य सहित तमाम कवियों ने मानीखेज लम्बी कवितायें लिखी हैं.
कविता की नागरिकता के आदिवासी क्षेत्रों में प्रवेश की एक बड़ी उपलब्धि अभी हाल में झारखंड के कवि अनुज लुगून हैं. अनुज की कविताएँ आदिवासी क्षेत्रों की हालिया लूट के बरक्स प्रतिरोध की कविताएँ तो हैं ही, साथ में वे इसपहचान के बाहरी और भीतरी स्रोतों की तलाश करती ताज़ा और आथेन्टिक कविताएँ भी हैं. अपनी एक चर्चित कविता ‘यह पलाश के फूलने का समय है’ में अनुज कहते हैं – ‘जंगल में पलाश के फूल को देख / आप भ्रमित हो सकते / हैं कि / जंगल जल रहा है / जंगल में जलते आग को देख / आप कतई न समझें पलाश फूल रहा है / यह पलाश के फूलने का समय है / और, जंगल जल रहा है।‘ आदिवासी क्षेत्र और उनमें चलता संघर्ष इस दौर की कविताओं में लगातार आया है. इस दौर में व्यवस्था-परिवर्तन के लगभग इकलौते आन्दोलन ने समकालीन कविता को अपनी तरह से प्रभावित किया ही है और प्रतिरोध की एक नयी ज़मीन भी दी है.
साथ ही इस दौर में कविता में शिल्पगत प्रयोगों
के नए-नए रूप भी देखने को मिलते हैं. गीत चतुर्वेदी, व्योमेश शुक्ल, कुमार अनुपम,
गिरिराज किराडू, प्रभात, पीयूष दईया, मनोज कुमार झा जैसे कवियों के पास एक बेहद
ख़ूबसूरत और ताज़ा शिल्प है जिसका वे अपने-अपने तरीके से प्रयोग करते हैं. यहाँ
हिन्दी कविता अपने शिल्पगत तथा भाषाई उरूज पर दिखती है. हालाँकि यह भी एक पक्ष है
कि शिल्प के अतिरिक्त आग्रह के चलते अकसर कथ्य धुंधलाया है और कई बार तो यह सायास
लगता है. इन कवियों को एक खांचे में रखना भी शायद उचित नहीं. यहाँ गीत चतुर्वेदी
जैसे बेहद समर्थ और प्रतिभाशाली कवि हैं जो अपनी आरंभिक कविताओं में अधिक स्पष्ट
पक्षधरता के बाद धीरे-धीरे आध्यात्म और रहस्य की उस कन्दरा में जाते दिखाई देते
हैं जहाँ से जीवन की भौतिक समस्याएं और हकीकतें धुंधली, और धुंधली होती चली जाती
हैं. उनकी इधर आई कविताओं में प्रेम इतना अधिक और ऐसा है कि उन्हें पढ़ पाना
मुश्किल होता जा रहा है. बिम्बों की अथाह लदान की बोझ से कविता की कमर झुक सी गयी
है. गिरिराज के यहाँ यह उलटे तरीके से घटित होता दिखता है. वह इधर धीरे-धीरे अपने
उस कलात्मक उरूज़ से उतरते दिखाई देते हैं और उनके कविता का एबस्ट्रेक्ट अब थोड़ा
मद्धम पड़ता दिखता है. ‘मगरिब जाओ’ जैसी कविता में जिस तरह वह मगरिब को
आहिस्ता-आहिस्ता एक धिक्कार में तब्दील करते चले जाते हैं वह साम्राज्यवाद विरोध
की एक बड़ी कविता बन जाती है. इस तरह की कविता की एक बड़ी समस्या यह दिखाई दी है
कि कवि अक्सर अपने शुरूआती जादू को लम्बे समय तक बनाए रखने में सफल नहीं हो पाता.
व्योमेश जैसा कवि जिस तरह से कविता के दुनिया में आता है अचानक ऐसा लगता है कि एक
बड़ी लकीर खिंच गयी. ‘भारत भूषण सम्मान’ (जो इन कवियों में से अधिकाँश को सही समय
पर मिल गया) इस जादू के स्वीकार के प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है. लेकिन
बमुश्किलन पांच साल बीतते न बीतते यह स्वर धुंधलाने लगता है, खुद को दुहराने लगता
है और शिल्प के अबूझ प्रयोगों में ऐसा फंसता है कि पाठक के लिए पहले पहेली और फिर
गैरज़रूरी बन जाता है. इनके बीच प्रभात जैसा कवि जिस तरह लगातार आदिवासी जीवन ही
नहीं बल्कि अपने समय-समाज की तमाम विडम्बनाओं से टकराता है बिलकुल स्वाभाविक है कि
इस तरह वह अपनी कविता को ही नहीं बचाता बल्कि उस उम्मीद को भी लगातार कायम रखता है
जो उनकी आरम्भिक कविताओं से उपजी.
कुमार अनुपम इस सूची में अपनी तरह का बिलकुल
अलग कवि है. दस-पंद्रह साल तक लगातार लिखते रहने के बाद जाकर 2010-2012 के बीच
उनकी ओर अचानक सबका ध्यान गया. इन एकान्तिक वर्षों का उपयोग अनुपम ने अपने कवि को
कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर लगातार संवारने में किया है. शिल्प के जितने
प्रयोग उनके यहाँ देखे जाते हैं, कम से कम मुझे इस दौर के किसी कवि के यहाँ दिखाई
नहीं देते. और ये प्रयोग बिलकुल देशज हैं, शेर, दोहे, चौपाई, मंगलाचरण से लेकर
पेंटिंग्स तक के प्रयोग उनकी कविताओं में आते हैं. इस सन्दर्भ में मैं यहाँ उनकी
तीन कविताओं ‘टिंकू महाराज’, ‘विदेशिनी’ और ‘आफिस तंत्र’ का ज़िक्र करना
चाहूंगा.
इसी दौर में राकेश रंजन जिस छंद में लिखते हैं
उसे छंद से अधिक ‘तालबद्ध’ कविता कहना उचित होगा उनकी अधिकतर कविताओं का शिल्प
नागार्जुन की तरह कहरवा या दादरा की चार या तीन मात्राओं से निर्मित है. छंद और
ताल के साथ वह अपनी कविता में समकालीन समय पर तीखा व्यंग्य संभव करते हैं और यह
उनकी कविता की ताक़त तो है ही साथ में छंद की शक्ति के सतर्क और उपयोगी प्रयोग के
लिए भी रास्ते खोलता है. राकेश रंजन के अलावा इधर मृत्युंजय ने छंद का बेहद मजबूती
से इस्तेमाल किया है. गहरी राजनीतिक समझ, सक्रियता और परम्परा की स्पष्ट शिनाख्त
के दम पर मृत्युंजय ने हालिया दौर में ऐसी कविताओं का सृजन किया है जो शिल्प और
कथ्य, दोनों स्तरों पर नागार्जुन की परम्परा में शामिल की जा सकती हैं.
शिरीष कुमार मौर्य इस दौर के अपने तरह के विशिष्ट कवि हैं जिनका
संवेदना संसार प्रगतिशील-क्रांतिकारी जीवन मूल्यों से निर्मित है और अत्यंत
विस्तृत है. उनके पास एक समृद्ध भाषा भी है और एक विकसित शिल्प भी जिसके सहारे वे
प्रतिरोध की सार्थक कविताओं के साथ-साथ एक पाठक को उसके अकेलेपन में बोलने-बतियाने
और संभालने वाली कविताएँ भी रचते हैं. शिरीष
कुमार मौर्य की कविताओं में जो चीज सबसे पहले ध्यान खींचती है वह है उनकी
प्रतिबद्ध दृष्टि और कहन की सांद्रता. एक बिलकुल प्रतिकूल संसार में रहते हुए वे
जिस जिद और आत्मीयता के साथ लगातार मनुष्यता के पक्ष में कविता संभव करते हैं वह
ब्रेख्त की उस पंक्ति की बार-बार याद दिलाती है – बुरे समय में लिखी जायेंगी/ बुरे समय की कविताएँ. जाहिर है कि
शिरीष का काव्य संसार इस बुरे समय के चमकीले वृत्त से बाहर छूट गयी चीजों से बनता
है. ‘ठेले पर फोन और उज्जैन की याद’ ‘एक मध्यप्रदेशीय सामंती कस्बे के आकाश पर’, ‘प्रधानाचार्य निलंबित’, ‘लंगडाकर
चलने वाला आदमी’, ‘आठ हजार प्रतिमाह
पाने वाला आदमी किराने की दुकान पर उधारखाता लिखवा रहा है’, ‘अगन बिम्ब जल भीतर निपजे’ और ऐसी अनेक कविताएँ न
केवल हमारे समय का एक मानवीय प्रतिसंसार रचती हैं अपितु चालू मुहाविरे से अलग एक
ऐसा सघन वितान बुनती हैं जिसमें न तो शुष्क और वायवीय सैद्धांतिक गोलीबारी है और न
ही कातर गलदश्रु भावुकता. यह प्रेम के साहस से उपजी शब्दों की ताकत है जो शिरीष को
हमारे समय का एक महत्वपूर्ण कवि बनाती है - लड़ने के नाम पर इस सबके
खिलाफ़/मैंने सिर्फ प्रेम किया है/क्योंकि इससे ज्यादा साहस के साथ/ और कुछ नहीं
किया जा सकता था. यह प्रेम उन्हें दूर-दूर तक भटकाता है. उत्तराखंड के पहाड़,
साथी कवि और मित्र, पीछे छूट गया पिपरिया, बच्चे, मामूली लगने वाली घटनाएँ और
स्त्रियाँ इन सब तक जाता हुआ उनका कवि इस एहसास के साथ अपने काव्य-संसार की सृष्टि
करता है कि आज के
समय में सोचना भर काफी है/ किसी को मार दिए जाने के लिए और उससे अपने तथा अपने
समय के लिए जीवन द्रव्य एकत्र करता है. इस पूरी प्रक्रिया में वह भाषा को किसी
अनुभवी जर्राह के नश्तर की तरह बरतते हैं. एक सीधे से वाक्य को मारक मुहाविरे में
तब्दील कर देने का उनका हुनर अभिव्यक्ति को वह सांद्रता देता है जो पाठक को दर्शक
से सहयात्री में तब्दील कर देती है - ‘कपड़े गीले हों तो
भारी हो जाते हैं’. उनकी कविताओं
का एक बड़ा हिस्सा स्त्रियों से बनता है. लेकिन यहाँ स्त्री का प्रवेश न तो विमर्श
के विषय की तरह है न ही किसी भोग्या की तरह. यहाँ एक पुरुष है इस अहसास के साथ कि
स्त्री के संसार में ‘सघन मुहल्ले हैं/ संकरी गालियाँ/ पर
इतनी नहीं कि दो भी न समा पायें’.
शिरीष की स्त्रियाँ हमारे जीवन में रोज-ब-रोज आने वाली स्त्रियाँ हैं जिनकी
विशिष्टता उनकी साधारणता में है. विमर्शग्रस्त इस उत्तरआधुनिक समय में स्त्री से
संवाद करता यह कवि वह बहुत कुछ बहुत साफ़ कह पाता है. ‘एक
प्रेम कविता’ जैसी कविता संवेदना और प्रतिबद्धता के उन
स्रोतों का पता ही नहीं देती जो शिरीष के कवि का निर्माण करती हैं बल्कि उस पतित
देहवादी विमर्श के बरक्स पूरी ताकत से खडी भी होती है, जिसे मानव मुक्ति के
महाआख्यान के विकल्प के रूप में हिन्दी के कुछ चपल आलोचकों-संपादकों द्वारा
स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है. ‘जैसे कोई सुनता हो मुझे’ सहित
अनके कविताओं को पढते हुए उस यातना का एहसास होता है जिससे गुजरते हुए इन्हें लिखा
गया है और उन स्वप्नों का भी जिन्होंने उस यातना को सह पाने की शक्ति दी है. ‘नींद से अधिक स्वप्नों वाले’ इस कवि का यह संकलन उस
मुश्किल सपने को ज़िंदा रखने की मुसलसल जद्दोजेहद में आपके साथ कुछ दूर चलता है,
जख्मों पर मरहम सा कुछ रख जाता है और उम्मीद के नए वातायन खोल देता है. इस तरह
शिरीष पक्षधरता और कला को एक साथ अद्भुत संतुलन के साथ संभव करते हुए हमारे समय की
वह कविता सामने लेकर आते हैं जो एक पाठक के अकेलेपन में भी उसके साथ चलती है और
सामूहिक संघर्षों में भी. शिरीष,
अंशु मालवीय, विशाल श्रीवास्तव या आर चेतनक्रान्ति जैसे कवि एक आमूलचूल बदलाव की
पक्षधर कविताएँ लिखते हैं जो किसी दशक की वापसी की जगह इक्कीसवीं सदी का एक
महत्वपूर्ण आख्यान रचती हैं. अंशु मालवीय एक ऐसे कवि हैं जिन पर आलोचकों का ध्यान
बिल्कुल नहीं गया है – बावजूद इसके कि बिना किसी समीक्षा के इतिहासबोध प्रकाशन से
छपे उनके इकलौते संकलन ‘दक्खिन टोला’ के दो संस्करण खत्म हो चुके हैं. वह शोर
शराबे और आलोचकीय-सम्पादकीय संरक्षण के बगैर चुपचाप और लगातार जनता के पक्ष में
आवाज़ बुलंद करने वाले कवि हैं. जिन्हें कविता से राजनीति और प्रतिरोध के समाप्त
होते जाने की शिकायत है उन्हें इन कवियों तक ज़रूर पहुंचना चाहिए. जिस आत्मसंघर्ष
की बात विजयबहादुर सिंह सहित कई लोगों ने किया है, उसकी अनुपस्थिति से ये कवितायें
संभव नहीं होतीं, यह बात दीगर है की उसे देख पाने के लिए जो नज़र पैदा करनी पड़ती
है, उसके लिए आवश्यक श्रम और संवेदना दोनों का अभाव है.
उपसंहार लिखते हुए कतराता हूँ /‘संहार’ की बू आती है*
ज़ाहिर तौर पर इस एक आलेख की सीमा में समकालीन कविता के पूरे
परिदृश्य को समेट पाना कम से कम मेरे जैसे व्यक्ति के लिए संभव नहीं. साफ़ कहूँ तो
यह मेरे बूते का काम भी नहीं. एक तरफ तो मेरा सीमित अध्ययन दूसरे तरफ इस समकालीन
कविता का एक अदना सा हिस्सा होना, दोनों ही मेरी सीमाएँ तय करते हैं. साथ ही
समकालीन कविता में इतने आयाम, इतने स्वर और इतनी विविधताएं नज़र आती हैं कि इसे
किसी एक फ्रेम में बाँध देना मुश्किल लगता है. लेकिन मैं इसे कविता के लिए शुभ
मानता हूँ. इस बहुरंगी कविता में हमारा विविधतापूर्ण समाज अपनी सारी लाक्षणिकताओं
के साथ साँसे लेता है. हाँ ज़रूरी यह है कि इसमें से जनपक्षधर धारा की कविता की
पहचान की जाय, मैंने अपने तईं यह प्रयास किया है. दुनिया भर में संकट के समय में
बेहतर रचनाएं सामने आई हैं और मुझे लगता है कि संकट के इस समय में हिन्दी कविता
अपने तरह से विकास कर रही है. नब्बे के दशक में जो आर्थिक-राजनीतिक नीतियां सामने
आईं थीं वे इक्कीसवीं सदी के इस पहले दशक में अपनी पूरी विभीषिका के साथ सामने आईं
तो कविता में इनका अपने तरीके से प्रतिरोध भी दर्ज हो रहा है. साम्प्रदायिकता,
उपभोक्तावाद, किसानों की आत्महत्या, सामाजिक विभाजन, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की
समस्या, समाज के भीतर अकेले पड़ते जा रहे मनुष्य के दर्द, छीजते रिश्ते और नई तकनीक
के साथ बदलते मानवीय संबंधों को आज की कविता न केवल दर्ज कर रही है बल्कि इसका एक
प्रतिआख्यान भी रच रही है. मेरा प्रयास समकालीन कविता के अक्सर एक पेंट से रंग दिए
जाने वाले इन विविध पक्षों को आपके सामने रख देने का था.
यह भी एक सच है कि कविता के पाठक कम हुए हैं, इस बहस में भी
अपने-अपने तरीके से सबने यह सवाल उठाया है और इस पर कुछ कहे बिना निकल जाना कविता के केवल
एक हिस्से पर बात करना ही होगा. बाज़ार में कविता की जगह नहीं है. लेकिन इसका कारण
कविता के भीतर से अधिक बाहर है. जेरेमी स्क्मेल अपने एक आलेख में इसे बहुत साफगोई
से पेश करते हैं जब वे कहते हैं कि ‘कविता
जिस रूप में आज अस्तित्वमान है, वह सहज, आत्मआयोजित और संस्कृति के पूरी तरह
अलाभकारी स्रोत के रूप में उत्पादन और पूंजीवादी विनियोजन के बीच के गैप में
उपस्थित है ; यह विशिष्ट रूप में उस गैप में है जहाँ यह भूमंडलीकरण की व्यापक
परियोजना को, जिसे अपनी उत्पादकता और उपभोक्ता क्षमताओं को लगातार एक क्षतिमान
छितिज की ओर विस्तारित करना ही होता है, अधिकतम संभव क्षति पहुँचा सकती है. कोई भी
चीज़ जिसमे भूमंडलीकरण के इस व्यापक प्रबंधन को बाधित करने की ताक़त है – जो हमें
इसके स्वचालन से विचलित कर सकती है और वास्तव में सोचने तथा अपनी कल्पनाओं के
प्रयोग पर मजबूर कर सकती है – वह हमारी आवश्यक मानवता के परिक्षेत्र में हमें फिर से स्थापित कर सकती है’........’बुरी
तरह से प्रतिकूल बाज़ार की ताकतों के बावजूद कविता का सतत अस्तित्व मानवता के लिए
हमारे अकसर विस्मयकारी अस्तित्व के उद्देश्य को परिभाषित करने वाले के रूप में
इसके महत्व को प्रदर्शित करता है. लोकप्रिय संस्कृति कवियों के प्रति कोई सम्मान
नहीं रखती, यह वास्तविक कल्पनाशील काम को खारिज करती है – ये बातें हमारे
वर्त्तमान राजनीतिक तथा आर्थिक संकट के वातावरण में आश्चर्यजनक नहीं लगानी चाहिए.
हमारी हालिया रूचि, मुख्य रूप से इस सवाल के हल की और केंद्रित हो गयी है कि किस
तरह पैसे को और अधिक पैसे में तबदील किया जाए. वह इस बात पर कोई खास ध्यान नहीं
देती कि अंतिम परिणाम कैसा हो सकता है और इसकी तो बात ही मत कीजिए कि यह कैसा होना
चाहिए.’[i] इस बहस में नित्यानंद श्रीवास्तव जैसे जो लोग
छंद की वापसी के नारे से पाठक को फिर से हासिल करने की बात करते हैं उन्हें देखना
होगा कि आज छंद में लिखी जा रही रचनाओं के पास भी पाठक कितने हैं?
कम मिलाकर इस रूप
में नव उदारवादी पूंजीवाद के बरक्स हिन्दी की कविता एक असुविधा की तरह उपस्थित है
और इसके भीतर जनता के पक्ष में आवाज़ बुलंद करने वाले कवियों का एक पूरा कुनबा
तैयार हो रहा है जो न सिर्फ बाजारू कविता के सामने चुनौती पेश कर रहा है, बल्कि
मुख्यधारा के भीतर उन कवियों को भी गहरी चुनौती दे रहा है जो किसी बदलाव की उम्मीद
खोकर ‘कला कला के लिए’ के बासी मन्त्र से कविता की शव साधना कर रहे हैं.
लेकिन दिक्कत यह है कि इस बहस में जितने भी लोग आये हैं
उनमें से अधिकाँश युद्ध मुद्रा या फिर प्रवचन मुद्रा में हैं. इन कवियों के करीब
जाकर इनकी अलग-अलगा आवाज़ को पहचानने की जगह, कविता के क्षेत्रफल के विस्तार के
चलते आई इन नयी आवाजों को धीरज से समझने, स्वीकारने या आलोचित करने की जगह कोई
नागार्जुन का डंडा चला रहा है तो कोई अपना ख़ास जयपुरी डंडा, कोई छंद का जाल फेंक
रहा है तो कोई इनकी ओर पीठ किये पूछ रहा है – पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?
सवाल जायज है, पर तब जब आँख में आँख डालके पूछा जाय. नागार्जुन की बात करने वाले
भूल जाते हैं की उस दौर का कविता परिदृश्य शमशेर, केदार और मुक्तिबोध के बिना पूरा
नहीं हो सकता, न उस दौर में किसी ने एक ही तरह के स्वर की बात की थी न किसी और दौर
में की जा सकती है. अस्सी के दशक की जिस कविता पर इतनी बात होती है उसमें भी राजेश
जोशी, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, अरुण कमल जैसे कवि मिलकर ही एक पूरा काव्य
परिदृश्य बनाते हैं. एक अजीब सी बात है की एक तरफ तो विविधता न होने की बात की
जाती है तो दूसरी तरफ हर कवि के लिए एक ही तय मानक स्थापित करने का प्रयास. इससे भी मजेदार यह कि ‘समकालीन कविता’ पर बात
करते हुए कोई रघुवीर सहाय तक पहुँच रहा है तो कोई राजेश जोशी-मंगलेश डबराल तक. कोई
बहुत हिम्मत करके उछाल मार रहा है तो वह पहुँच रहा है बद्रीनारायण तक. बाक़ी इस दशक
के पचासों कवियों के कोई डेढ़-दो सौ संकलनों की हजारों कविताओं में से कोई एक
पंक्ति भी खारिज कर देने तक के लिए नहीं उठा रहा. कई बार तो जब विभूतिनारायण राय
या फिर विजय बहादुर सिंह जैसे लोग विविधता के अभाव का सवाल उठाते हैं तो मुझे लगता
है कि क्या इन्होने इधर के कवियों को पढ़ा भी है? ज़ाहिर है सत्ता के जिस उठापठक में
ये अहर्निश लगे हुए हैं, उसमें पढने का वक़्त कहाँ मिलता होगा? जो मिलता होगा उनमें
से इन कवियों के हिस्से कितना आता होगा. शायद इसी दर्द को लिए कुमार अनुपम ने एक
ब्लाग पर लिखा था – “तथाकथित गंभीर
आलोचकों की स्थापनाओं और निकषों का अकेडमिक स्तर पर ही महत्त्व मैं महसूस करता रहा
हूँ, इसका
एक जायज कारण मेरे पास यह रहा है कि रचनाकार जिस भाव दशा और तनाव को रचना लिखते
हुए जीता है, उसका अंदाज़ा भी शायद उक्त महापुरुषों (इस शब्द
के लिए स्त्रीलिंग कोई अन्य शब्द बन गया हो तो कृपया उसे भी शामिल कर लिया जाये )
के लिए मुश्किल है, इसके बरक्स सहधर्मी रचनाकार द्वारा की गई
एक छोटी सी टिप्पणी भी मुझे ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगती है:.
ईमानदारी
की बात यह है की इधर की कविताओं के पास अगर कुछ नहीं है तो वह है आलोचक. हिंदी की
कविता-आलोचना बरसों से कोमा में है और बीच-बीच में जब जगती है तो ऐसे प्रलाप कर सो
जाती है. शुष्क और पेड़ों की निर्दय हत्यारे अकादमिक शोधों के , जो अंततः देवी शंकर अवस्थी सम्मान
या हतभागी हुए तो केवल प्रमोशन के लिए काम आते हैं, अलावा मुझे पिछले पंद्रह-बीस
सालों की कविताओं पर कोई सुसंगत किताब नज़र नहीं आती, कोई विस्तृत आलेख भी नहीं. पंकज चतुर्वेदी, शिरीष कुमार मौर्य, निरंजन श्रोत्रिय, आशीष त्रिपाठी और जितेन्द्र श्रीवास्तव के अलावा मुझे कोई ऐसा
व्यक्ति भी दिखाई नहीं देता जिसने इधर की
कविताओं पर अलग-अलग ही सही, कोई मानीखेज टिप्पणी की हो, उसमें भी पंकज जी को
हाइबर्नेशन में गए अब अरसा हुआ. यहाँ यह भी गौरतलब है कि ये सभी मूलतः कवि हैं. तो इस आलोचनाविहीन समय में कविता
पर उठी यह बहस उम्मीद जगाती है, काश यह केवल कविता पर होती!
*कुमार
अनुपम की कविता ‘कुछ न समझे खुदा
करे कोई’ से