Sunday, May 4, 2025

एक सच और

चित्रकृति - सुमनिका, कागज पर चारकोल 


 मैंने कहानियां ज्यादा नहीं लिखीं हैं । जो लिखी हैं वे भी पचीस तीस साल पहले । रोटियां कहानी हिमाचल की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर है, जो मधुमति में 1989 में छपी थी । मुंबई के आवारा कुत्तों के पकड़ने की कुत्ताघर नाम की कहानी भी वर्तमान साहित्य में 1989 में ही छपी थी । एक और सीधी-सादी कहानी सवा दो अक्षर नव भारत टाइम्स में छपी थी । वीटी बेबे नामक कहानी कथादेश में सन 2002 में छपी थी। मुंबई के तंगहाल जीवन को केंद्र में रखते हुए लिखी दोस्त कहानी भी नव भारत टाइम्स में छपी थी। जो कहानी आपको आज पढ़वा रहा हूं, वह अपने युवा दिनों में युवा मनों की एक झलक है। यह कहानी दैनिक ट्रिब्यून में 1986 में छपी थी। हाल ही में पुरानी फाइल में यह कहानी मिली। कहानी का नाम है - एक सच और



प्रिय दोस्त,

आज मैं इस मोड़ पर आ खड़ी हुई हूं कि देख पा रही हूं, मौसम साफ ही नहीं शांत भी है। न ठंड, न उमस। ये चीड़ के पते हिल रहे हैं तो जान रही हूं कि धीधी-धीमी हवा चल रही है। इस कमरे की बड़ी खिड़की से सड़क को देख रही हूं। वह खाली है। जरा सुनने लगी तो बस के आने की आवाज सुनाई पड़ी। पर कुछ नहीं है। अब जान पाई कि सिर्फ कान बज रहे हैं। पहाड़ पर वैसे ही बसें गिनी-चुनी आती हैं, प्रमोद जिस बस से आते हैं वह चार बजे पहुंच जाती है। अब दो घंटे ऊपर बीत चुके हैं। वैसे भी प्रमोद को आना होता तो कल आ जाते । अब शायद अगले हफ्ते ही आएंगे। 

तुम्हें क्या इतना ही काफी नहीं लग रहा कि मैं तुम्हें एक लंबे अरसे के बाद लिख रही हूं। खैर! मेरे लिए यह बहुत बड़ा सहारा है कि मैं इस पल अपने को देख पा रही हूं कि मैं तुम्हें पत्र लिख रही हूं। यह पत्र इसलिए भी, बल्कि इसीलिए लिख रही हूं कि तुम्हारे माध्यम से अपने को तोल पाऊं । तुम मेरे बहुत करीबी दोस्त, मेरे इतिहास के साक्षी रहे हो। इसलिए तुम्हें लिख कर अपने को देखना एक सही तरीका मुझे लग रहा है। तुम मेरे इतिहास के साक्षी ही नहीं, मैं इतिहास को जिस हिसाब से मोड़ना चाहती थी, तुम उसमें गाहे-बगाहे सहायक भी रहे हो। उसे कितना मोड़ पाई या खुद मुड़ गई उससे तुम्हारी जगह पर कोई असर नहीं पड़ा। 

प्रमोद के साथ शादी के लगभग एक साल बाद मैं इस स्थिति पर पहुंची हूं कि तुम्हें पत्र लिख सकूं। तुम्हें इसे पढ़कर संतोष होगा। जिस धैर्य की और जिंदगी को खुले रूप में अपनाने की सीख दिया करते थे, उसके काफी करीब खुद को पा रही हूं। आज मैं अपने पिछले चार-पांच वर्षों को परत दर परत खोल कर देख पा रही हूं। चार-पांच वर्ष ही क्यों, अपने सारे ही अतीत को। जिस परिवार में मैं जन्मी थी, एक स्कूल मास्टर की बेटी। तीन और बहनों की एक और बहन। समाज की तमाम गलियों नुक्कड़ों से घिरा एक कस्बाई परिवार । जिसमें कालेज जाने की छूट तो थी, लड़कों के साथ दोस्ती करने की बर्दाश्त नहीं थी। वह किशोर अवस्था का विद्रोह ही होगा कि उन संस्कारों को तिड़का कर बाहर आने में एक विजय का एहसास होता था। एक हूक सी उठती थी कि किसी परिवार की शालीनता और सभ्यता गली के नलों पर कैसे तय होती है। आप संस्कारों को सिर पर दुपट्टे की तरह ओढ़े हैं तो आपके शरीफ होने की चर्चा है और अगर बिना चुन्नी के चलने की आधु‌निकता कर रहे हैं तो भी उसी धुरी में फंसे हुए है। निरंजन के साथ दोस्ती इसी चुन्नी को छोड़ने का परिणाम थी। 

उधर मैंने नंगे सिर चलने का विद्रोह तो कर दिया पर इधर निरंजन की दोस्ती मुझे अपने होने के एहसास में दबाती चली गई। शायद वह उम्र का या शरीर का एक दौर ही होता होगा कि होने का एहसास कोई सहारा पाकर परवान चढ़ता है। अब देख रही हूं, दायरों को तोड़ना गौण हो गया था, अपने को छू पाने और संवारने की इच्छा प्रमुख हो गई थी। उसी वेग में निरंजन मेरा कल्पना-पुरुष बन गया था। तब अपने को हवा में उड़ाने में भी कितना सुख मिलता था। तमाम तरह की कल्पनाओं में खोने का सुख। पर बहुत एकांतिक। निरंजन के साथ मैं सहज कभी नहीं हो पाई। उसके लिए अंदर से मैं जितना पिघलती चली जा रही थी, बाहर अपरिचय और संकोच की दीवार उतनी ही कड़ी हो जाती थी। बहुत बाद तक, जब उसकी तरफ से शादी के लिए इंकार का संकेत भी लगभग मिल ही गया था। सामने पड़ते ही मैं नर्वस हो जाती थी। कान गर्म हो जाते, गला सूख जाता। बोला भी कुछ न जाता। अंदर से हमेशा उसके बारे में ही सोचती। निरंजन के साथ एक अंतरंगता। एक रोमांटिक और मस्त जिंदगी का कल्पनाएं। वॉटर फाल देखने जाना, उसके मोटरबाईक पर उससे सटे हुए आसपास की सारी जगहें घूमना। यह तो जानने की कोशिश ही नहीं की कि यह संभव है या नहीं। उसके साथ होना इतना अच्छा लगता था कि उससे बाहर ही नहीं निकल पाती। उसकी गर्म सांस तो जैसे मुझे रोमांचित कर दिया करती थी। एक विश्वास सा अंदर में था कि निरंजन मुझे समझता है। उसे चीज़ों को या मनःस्थितियों को खोल कर बताने की जरूरत नहीं है। जिसने मुझे होने का एहसास दिलवाया है वह उसे निरंतरता भी देगा। अपना हर निर्णय उसे ही मान लिया था। जो सोचती हूं वही तो करेगा वो। पता नहीं तब उसने इस दोस्ती को कितनी गहराई से लिया था। मुझे यह पता था कि शादी करने में उसे एतराज नहीं है। मेरे लिए इससे बड़ा सुख क्या हो सकता था। और मैं इस संसार में गहरे उतरती जाती थी। तुम तो जानते हो जब बी. एड. करने गई तब तक बाहरी रूप से काफी कुछ बदल गया था। उसे पत्र लिखने की संभावनाएं भी न रही थीं। मैं उसी तरह थी। ताजे बर्फ पर चलती हुई अपने पैरों के निशानों को देखती हुई, गोल-गोल दायरे बनाती हुई, इस उम्मीद में कि बहुत जल्दी नई ताज़ी बर्फ पड़ेगी और सब ठीक हो जाएगा। तब तुम्हें पत्र लिखती थी। निरंजन कैसा है, कभी मेरी बात करता है या नहीं, मेरे बारे में अपने घर में फिर से कोई बात की है या नहीं। यही बातें मुझे तुमसे जाननी होती थीं। तब भी इसके अलावा और कुछ सोच ही नहीं पाती थी। अब आज उस वक्त की  खुद को याद कर रही हूं तो झुंझलाहट होती है। झुंझलाहट भी नहीं अपने दब्बूपन पर तरस आ रहा है। पर उसमें दोष मेरा कितना था। अब बात बहुत साफ नजर आ रही है। मैं अपने घरवालों को दुखी नहीं करना चाहती थी। दूसरी तरफ निरंजन अपने घर में मेरे लिए वकालत करे, गिड़गिड़ाए या छोटा बने, मुझे यह भी अच्छा नहीं लगता था। अपने घर से विद्रोह करने का तो एक बार निर्णय ले लिया था, पर निरंजन कहीं भी छोटा पड़ जाए, यह सहन नहीं होता था। बदले में अपने को दाव पर लगाने को तैयार थी। शायद यह उस अवस्था का आदर्श ही था कि क्या है जिंदगी तो निरंजन के नाम हो ही गई है। वैसे उसके साथ उसके घर में रहती, ऐसे अकेले ही उसके नाम के सहारे रह लूंगी। 

नौकरी लगने के बाद स्कूल में आ गई। वहां बच्चों के साथ, हॉस्टल में दूसरी लड़कियों के साथ अपने को व्यस्त कर लिया। वो एक वर्ष ऐसा बीता है जब न निरंजन का ख्याल आता था न अपने घर का। न ही ज़िंदगी से कोई खास आकर्षण होता था। दिन बहुत ही चुपचाप बीत रहे थे। अपने पैरों पर खड़े होने की खुशी नहीं होती थी। प्रेम के आदर्श को पकड़े रहने का संतोष नहीं होता था। अपने प्रेम को खो देने का दुख या टीस नहीं होती थी। जैसे मैं बहुत सुनसान हो गई थी। पर दुखी या हारी हुई नहीं। तुम बता सकते हो कि क्या वह स्थिति ठीक थी ? तब तो मुझे लगता था क्या है पचीस वर्ष बीत गए हैं। इतने ही और इसी तरह निकल जाएंगे। एक आर्थिक आधार यह नौकरी तो मिल ही गई है। किसी पर बोझ नहीं बनूंगी और कहीं दखल भी नहीं दूंगी। पर उन दिनों एक फर्क जरूर था। उन्हीं दिनों का तुम्हारा एक पत्र मुझे छू गया था। निरंजन के साथ शादी न हो पाने की वजह से मुझमें कोई ग्रंथि नहीं बननी चाहिए। अगर अकेली रहना हो तो सहज निर्कुंठ भाव से रहूं अन्यथा शादी कर लूं। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। तुम्हारी बात एकदम भारी लगी। तुम भी मुझे समझ नहीं पाए। आखिर कटाक्ष कर ही दिया। घर से तो कई तरह की बातें सुनने की आदी हो ही गई थी। तुमसे यह अपेक्षा नहीं थी। धीरे-धीरे जब कई दिन तक सोचती रही तो तुम्हारी बात में वजन लगा। मैंने अपनी चुप्पी को देखा। एकदम ग्रंथि तो नहीं, ऐसा लगा कुछ दिन तक अगर यह स्थिति चलती रही तो सचमुच ही कहीं उसी गर्त में न फिसल जाऊं । तब एक बार मैंने अपने संबंधों को संभाला। अपना आधार ढूंढ़ने की कोशिश की। शायद यही खोज मुझे सहजता की तरफ ले आई। 

तुम बता सकते हो कि आखिर निरंजन मेरे काफी नजदीक आने के बाद मेरे प्रति इतना उदासीन क्यों हो गया था? अंदर ही अंदर मुझसे चिढ़ गया था? उसी ने मुझे इंतजार करने को कहा था। उसके साथ की हर बात, हर घटना याद है। ऐसे संबंधों में शायद हर कोई अपने को ऐसा ही समझता है। वह सब अभी भी पुरानी डायरी की तरह सुरक्षित है। उसके इंतजार करने को मैंने मान लिया था। कुछ दिन बाद ही मेरी बहन ने उसकी भाभी से बात कर दी थी। सिर्फ औपचारिक रिश्ते की ही नहीं, हमारे परस्पर आकर्षण की भी। उसके बाद तो निरंजन जैसे बदल ही गया। उसने सोचा यह सब मेरी जानकारी में कहा गया है। शायद उसे लगा मुझमें सबर नहीं है। सबर ही नहीं उसके ऊपर विश्वास भी नहीं है। क्या पता उसे यह भी डर लगा हो कि मैं इतनी जल्दबाजी कर रही हूं और दबाव डाल रही हूं तो इसके पीछे  मेरा कोई स्वार्थ है। मेरे लिए तो यह सब पहेली ही था। पर इस सब में मेरा क्या दोष था। यह छोटी सी बात दीवार की तरह खड़ी हो गई। धुंध की तरह फैल गई। जैसे कुछ चरमरा गया। मैंने बदले में कुछ नहीं किया, यह तुम जानते हो। निरंजन धीरे-धीरे मुझसे कटता गया। उसने अपने को समेट लिया। मैं उसे अपने और पास महसूस करती रही। करीब डेढ़ साल। जब तक नौकरी नहीं लग गई। सारी पढ़ाई और बेकारी के दौरान अपने को उसके सम्मोहन में ही पाया। 

आज जब पिछली सारी बातों से अपने को अलग करके देख रही हूं तो लग रहा है शादी का निर्णय लेकर मैंने ठीक ही किया। जिस तरह की चुप्पी से मैं गुजर रही थी, शायद और दो साल बाद बिल्कुल जड़ हो जाती। आज सोच रही हूं तो यह बात और साफ हो रही है। जब स्कूल में मेरी एक कुलीग शादी के बाद आई थी, वह इतनी चहक रही थी, बात-बात पर उनकी हंसी रुकती ही नहीं थी, वह सहेलियों के साथ शहर घूमना चाहती थी, पिक्कर देखना चाहती थी। मुझे तब सिर दर्द होने लगा। मैं कमरे की लाइट आफ करके लेट गई थी। बहुत रात तक नींद नहीं आई थी कि यह क्या कुछ था? क्या तुम बता सकते हो? 

आज और भी कुछ बातें तुम से कह लेना चाहती हूं। बहुत सारी लड़कियों की तरह मेरी भी शादी हो गई। लगभग मेरे घर जैसा ही परिवार, सास-ससुर, बाकी संबंधी। कोई बहुत फर्क नहीं पड़ा। पर निरंजन की जगह प्रमोद को नहीं रख पाई। आज भी निरंजन एक अलग अध्याय की तरह मेरे पास है। प्रमोद से कोई शिकायत नहीं है। प्रमोद से इस बीच कई बातें हुई हैं। खास उत्साह उनमें नजर नहीं आया। इसीलिए निरंजन की बात उनसे नहीं की। असल में मुझे लगता भी नहीं कि वे मुझसे मेरे अतीत को बांटना चाहते हैं। तुम्हारी बात मैंने दो-एक बार ज़रूर की। पर प्रमोद को अच्छा नहीं लगा। शायद किसी भी पति को यह अच्छा नहीं लगता कि पत्नी किसी दूसरे पुरुष पर इतनी निर्भर रहे। शायद अपना आधिपत्य छिनता लगता हो। शादी के पहले भी किसी का कुछ अपना नहीं होता क्या? अपनी पसंद अपने फैसले, अपने दोस्त, या कुछ भी। 

मैंने शुरू में ही कहा था कि इस मोड़ पर पहुंच गई हूं कि चीजों को साफ-साफ देख सक रही हूं। पिछली सारी बातों के साथ यह भी उतनी ही जरूरी बात या परिवर्तन है। मुझे नहीं लगता शादी करके मैंने कोई अपराध कर दिया है। या अपने प्रेम के आदर्श के सामने झूठी पड़ रही हूं। यहां दोनों बातें अलग-अलग हो गई हैं। अब तो शादी ऐसा ही काम लग रहा है जैसे आत्मनिर्भर होने के लिए नौकरी की थी। समाज में एक सामान्य सी जिंदगी जीने के लिए एक मान्य घर और व्यक्तिगत संदर्भों में शरीर की ज़रूरतों के लिए एक बना बनाया रास्ता। एक सवाल अपने से पूछ रही हूं तुम्हारी तरफ से। वो यह कि क्या मैं खुश हूं? हां! खुश ही हूं।  ऐसी नहीं जैसी तब कल्पनाओं में डूब कर होती थी पर दुखी भी नहीं। और खास वैसी चुप भी नहीं। इतना ही फर्क है। जब प्रमोद के घर जाती हूं। (वैसे अब वह मेरा ही घर कहलाता है) या प्रमोद यहां आ जाते हैं, तो व्यस्त हो जाती हूं। घर के कामों में, खाना बनाने में या कहीं बाहर घूमने जाने में। अभी तुम्हें लिख रही हूं तो थोड़ी भिन्न मानसिकता है। एक हल्कापन मेरे अंदर है। बाहर घिरता हुआ अंधेरा अच्छा लग रहा है। एक गुनगुनापन महसूस हो रहा है। इतने लंबे अर्से बाद लिख कर जी हल्का हुआ है। तो इतना काफी है? फिलहाल के लिए? जिस परिवेश में हूं यह बांधता तो है ही। कितने गहरे तक यह बाद में सोचूंगी। खुद से पूछती रहूंगी। जब जवाब मिल जाएगा, एक बार फिर शाम को इसी खिड़की के सामने बैठ कर तुम्हें लिखूंगी। अभी प्रमोद का एक स्वेटर पूरा करना है। पता नहीं कहां से वो एक डिजाइन ढूंढ़ लाए हैं। शर्त लग गई है कि मैं उसे ठीक से उतार दूं तो मान जाएं। घरों की ही बात है। डिजायन की उलझन दिमाग में है। शायद प्रमोद को मनपसंद स्वेटर पहना कर शर्त जीत ही लूं। 

शेष फिर....

Monday, April 28, 2025

बंदिशों पर बंदिश


26 अप्रैल को नेहरू सेंटर में बंदिश नाटक देखा। यह नाटक पूर्वा नरेश का लिखा हुआ है और उन्होंने ही इसका निर्देशन किया है। प्राय: पूर्वा के नाटक संगीत प्रधान होते हैं। कह सकते हैं कि संगीत उनके नाटकों का स्थाई भाव होता है। इस नाटक की तो विषय-वस्तु भी संगीत से जुड़ी हुई है। आजादी की 70वीं सालगिरह के मौके पर किसी दूर दराज के इलाके में शायद एक सरकारी कार्यक्रम हो रहा है जिसमें संगीत के पुराने कलाकारों को केवल सम्मानित किया जाना है। नए जमाने के कलाकारों के गीत पेश किए जाएंगे। बदलते समय के साथ बदलते संगीत संसार की दास्तान इस नाटक में कही गई है। दास्तान के बहाने नाटक में इस तरह का विमर्श चलता है कि संगीत और कलाकारों पर किस-किस तरह की बंदिशें लगती आई हैं।  

एक जमाने में तवायफें या कोठेवालियां संगीत का परचम फहरा रही थीं। राजाओं राजवाड़ों का प्रश्रय उन्हें प्राप्त था। धीरे-धीरे उनका ओज मंद पड़ गया। उनकी सामाजिक हैसियत कम हो गई। माली हालत भी खस्ता हो गई। इसी तरह नौटंकी कलाकार जनता में लोकप्रिय तो बहुत थे, लेकिन शुचितावादी सोच उन्हें सम्मान नहीं देती। समाज में नौटंकी कलाकारों को अच्छा नहीं माना जाता था। आकाशवाणी जैसा सरकारी महकमा भी शायद इसी तरह की शुचितावादी सोच से प्रभावित होकर तवायफों के गायन पर रोक लगा चुका है। एक जमाने में हारमोनियम पर भी बंदिश लगाई गई थी।  

इसके बरक्स नए जमाने में बंदिशों या बंधनों या सीमाओं के नए तौर-तरीके आ गए हैं। जैसे युवा गायिका मौशमी बहुत लोकप्रिय है पर वह अब सभाओं में नहीं गाती। वह केवललिपसिंक' करती है। यानी रिकॉर्ड किया हुआ गाना बजता है, वे गाने का अभिनय मात्र करती हैं। दूसरे युवा गायक कबीर पड़ोसी देश में प्रोग्राम करने के कारण सोशल मीडिया के नए रोगट्रोलिंगका शिकार हो गए हैं। यह किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा लगाई गई रोक नहीं है। एक कलाकार टेक्नोलॉजी की सहायता के बिना नहीं गा सकती। और दूसरा टेक्नालॉजी के ही रथ पर सवार सामाजिक रोष का शिकार हो जाता है। आयोजक ट्रोलिंग में फंसे कलाकार से गीत गवाने का जोखिम नहीं उठाना चाहते।  

संगीत की दुनिया की यह सारी चर्चा, बहस या विमर्श इस नाटक में बेहद चुटीले अंदाज में चलता है। मुन्नू और नौटंकी की गायिका चंपाबाई की नोक झोंक और बाबू की बौखलाहट मंच को जीवंत बनाए रखती है। नौटंकी गायिका चंपा बाई और उपशास्त्रीय संगीत की गायिका बेनी बाई परस्पर पेशेवराना ईर्ष्या करती रही हैं। अब मौका पाकर अपने-अपने मन कर बात करके वे जी हल्का कर लेती हैं। अंतरंग सहेलियों की तरह एक दूसरे का गायन सुनती हैं। ज़मीन पर बैठ कर दो बूढ़ियों की खिलखिलाहट जी खुश कर देती है। लेकिन थोड़ी देर बाद जब वे सब गीत गाने न गाने के बारे में बात करते हैं तो नब्बे वर्षीय बेनी बाई मंच पर चलते हुए और बतियाते हुए नब्बे वर्षीय नहीं लगती। उनकी आवाज भी किंचित कम उम्र लगने लगती है।       

सभी कलाकार अभिनय करने के साथ-साथ गाने में भी माहिर हैं। लेकिन जहां ठहर कर या लंबे समय तक ठुमरी, दादरा या शास्त्रीय गायन करना होता है वहां एक अन्य प्रशिक्षित गायिका मंच संभाल लेती हैं।  

निर्देशिका ने पात्रों के बीच आवागमन की एक तरकीब इस्तेमाल की है। नौटंकी वाली चंपा बाई और तवायफ बेनी बाई उम्रदराज कलाकार हैं। जब उनकी जवानी के दिनों के फ्लैशबैक में जाने का दृश्य आता है तो युवा गायिका मौशमी बेजोड़ ढंग से (seamlessly) युवा अवतार में चली जाती है। इससे बूढ़े शरीर की मर्यादा भी बनी रहती है और युवावस्था की फुर्ती और आवाज़ का टटकापन भी साकार हो जाता है। पुराने जमाने को दिखाते हुए आजादी की लड़ाई में गायिकाओं के योगदान के बहाने कलाकारों के सामाजिक सरोकारों को भी दर्शाया गया है। 

नाटक में इस बात पर जोर दिया गया है कि कलाकार को अपनी आवाज बंद नहीं करनी चाहिए। उसे हर हाल में अपनी कला के माध्यम से अपने समय पर टिप्पणी करनी ही चाहिए।  

नाटक में अंत तक आते-आते स्थिति यह बन जाती है कि एक भी कलाकार गीत पेश करने के लिए उपलब्ध नहीं है। तवायफ रेडियो पर प्रतिबंधित होने के बाद गाना छोड़ चुकी हैं। नौटंकी की गायिका को गाने की इजाजत नहीं दी जाती है। उन्हें केवल सम्मानित किए जाने के लिए बुलाया गया है। यह भी एक विडंबना ही है। युवा मौशमी नए जमाने की तामझाम वाली गायिका है। केवललिपसिंककरती है। बिजली चले जाने की वजह से वह गाने से लाचार है। युवा गायक कबीर लोकप्रिय होने के बावजूद ट्रोलिंग का शिकार है इसलिए आयोजक उसका गाना रद्द कर देते हैं।  

सारे बहस मुहाबसे के बाद चारों गायक मिलकर अपने ही लिए गाते हैं और मंच से बाहर चले जाते हैं। एक तरह से वे आयोजन का बहिष्कार कर देते हैं। वे इस बात की भी तस्दीक करते हैं कि संगीत पर लोग बंदिश लगाते हैं, लेकिन वे बंदिश में गाते हैं। पुरानी बंदिशों का संभाल कर रखते हैं।  

पूर्वा नरेश की संस्था आरंभ के इस नाटक का यह प्रदर्शन आदित्य बिरला सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स की तरफ से आयोजित था। संगीत शुभा मुद्गल का तैयार किया हुआ है। मंच पर तबले और हारमोनियम पर पूर्व जागड़ और वरुण गुप्ता थे। सभी कलाकारों ने नाटक को एक यादगार पेशकश में बदल दिया। मंच पर ये कलाकार थे- चंपा बाई - अनुभा फतेहपुरिया, बेनी बाई - निवेदिता भार्गव, मौशमी/युवा चंपा और युवा बेनी - इप्शिता सिंह चक्रवर्ती,  कबीर - शायोन सरकार, बाबू - हर्ष खुराना और मुन्नू - दानिश हुसैन। 

पिछले कुछ समय से नाटक के साथ-साथ सभागार के माहौल के बारे में भी आपको जानकारी देता आ रहा हूं। यह नाटक नेहरू सेंटर के सभागार में खेला गया। नाटक से पहले और मध्यांतर में शुरुआती हॉल में जहां पैंट्री है, अच्छी खासी भीड़ देखी जा सकती है। यहां 30-30 रुपए में जंबो बटाटा बड़ा और समोसा मिल रहा था। चाय कॉफी ₹50 में। अधिकांश भोजन-सजग दर्शक अपनाचीट डेमनाते प्रतीत हो रहे थे। नेहरू सेंटर में इस सभागार के अलावा भारत की खोज की एक स्थाई प्रदर्शनी है। एक दो और सभागार हैं। एक कैफे है एक रेस्त्रां। इसी परिसर में तारांगण भी है। यह एक पुराना सांस्कृतिक ठिकाना है।

Tuesday, February 25, 2025

चांदनी रातें - भारत में रूस की बातें

 


नरेश सक्सेना जी के आमंत्रण पर हम दोनों 1 फरवरी को चांदनी रातें नाटक देखने गए थे। वहां मित्र मिलन भी हो गया- विजय कुमार, ओमा शर्मा और मधु कांकरिया भी आई थीं। पहली बार सीरज सक्सेना जी से मिलना हुआ। अंग्रेजी कवि अश्विनी कुमार भी मिले। पहली ही बार कवि पत्रकार फिरोज खान भी मिले। जरा सी झलक अविनाश दास की भी दिखी। छह सौ से ऊपर की क्षमता वाला सभागार लगभग भरा हुआ ही था। भांति भांति के लोग। सजे धजे लोग।

सभागार था बाल गंधर्व रंग मंदिर। यह बांद्रा में लिंकिंग रोड के पास स्थित है। नाम से लगता है पुराना सभागार होगा। पर यह तो नूतन अवतार में है। अब इसका नाम है शीला गोपाल रहेजा ऑडिटोरियम। साफ सुथरा, बड़ा और भव्य पर भयभीत करने वाला नहीं। कई बार भव्यता भीति भी पैदा करती है।

पिछले कुछ समय में हमने कई सभागार देखे हैं। एनसीपी के तीनों ऑडिटोरियम; पृथ्वी तो देखते ही आए हैं; बीकेसी में नीता मुकेश अंबानी सांस्कृतिक केंद्र- यह भव्यता विशालता की वजह से दूरियां खड़ी करने में सक्षम है, पर वहां छोटे-छोटे सभागार भी हैं, वे नहीं डराते। माटुंगा कल्चरल सेंटर भी नवीकरण के बाद सहज है और पुराने जमाने की झलक देने वाला है। षणमुखानंद हॉल नवीकरण के बावजूद अपनी पहले ही जैसी धज लिए हुए मौजूद है। (इन सब की जानकारी आपको मेरे ब्लॉग की नाटक संबंधी टिप्पणियों में मिल जाएगी।)

बाल गंधर्व रंग मंदिर की कैंटीन नहीं कैफे शुरू में ही यानी लॉबी में ही एक तरफ है। चाय, कॉफी, समोसा, सैंडविच उपलब्ध हैं, पर महंगे नहीं हैं। मध्यवर्गीय दर्शक यहां चाय पीने में संकोच नहीं करेगा। इसी लॉबी में आगंतुकों के दर्शन हो जाते हैं‌। मध्यवर्गीय कला अनुरागियों से लेकर डिजाइनर पोशाकों वाले सजावटी कला प्रेमियों तक, सब।

चांदनी रातें नाटक पूर्वा नरेश ने लिखा भी है और निर्देशित भी किया है। यह दोस्तोएव्स्की के प्रसिद्ध लघु उपन्यास वाइट नाइट्स पर आधारित है। नाटक देखने के बाद घर आते ही सुमनिका ने प्रगति प्रकाशन की किताब ढूंढ़ निकाली। इसमें दरिद्र नारायण और रजत रातें नाम से दो लघु उपन्यास हैं। रजत रातें में व्यक्ति के भीतर चलने वाली उमड़-घुमड़ का इतना सघन वृत्तांत है कि उसे यथावत नाटक में बदलना आसान नहीं। कथा की तरह वाचन करना भी सहज नहीं। पूर्वा ने एक तरह से ठीक ही किया। कथा की तमाम नाट्य संभावनाओं का प्रयोग करते हुए एक बड़ा शाहकार पेश किया। अपने निर्देशकीय वक्तव्य में उन्होंने कहा भी है कि उस प्रेम कथा को आज के संदर्भ में पेश करना चुनौतीपूर्ण है। और वे वैसे भी एक संगीत प्रधान नाटक ही बनाना चाहती थीं।

मूल कहानी का किराएदार व्यापारी प्रेमी यहां सूत्रधार की भूमिका भी निभाता है। वह मूल कथा के दोनों पात्रों को पेश करता चलता है; उन दोनों के मिलने और लंबे लंबे वार्तालापों की संभावित एकरसता को तोड़ता चलता है। नाटक में मूल प्रेम कथा के समानांतर एक समसामयिक प्रेम कथा भी बुनी गई है। इस कथा का प्रेमी बिना कागजात के विदेश यानी रूस में आ गया है और प्रेमिका को साथ लेकर लौट जाना चाहता है। प्रेमिका ऐसा नहीं चाहती। वह विवाह भी कर चुकी है और यहां काम भी करती है। अंततः यहां भी वैसा ही आदर्श प्रेम साकार होता है। जैसा दोस्तोएव्स्की की मूल कथा में है। भीतर तमाम तरह की उथल-पुथल और बाहर आदर्श और त्याग से परिपूर्ण कहानी। यहां प्यार पाने की जद्दोजहद भी है। नाटक के बीच-बीच में आज के समय की विडंबनाओं, तकलीफों को भी उजागर किया गया है। केदारनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी जैसे हिंदी के नामी कवियों की पंक्तियों को सलमा सितारे की तरह टांका गया है। पता नहीं मकसद बड़े और चर्चित नामों को शामिल करना है या कथ्य को वजनदार बनाना। क्योंकि दो समानांतर प्रेम कथाओं के बावजूद जैसी तड़प, पीड़ा, सघनता और व्याकुलता और व्यापकता मूल कथा में है वैसी इस नाटक में अनुभव नहीं होती।

इस प्रेम कथा को एक विशाल भव्य संगीत नाटक के रूप में पेश किया गया है। अभिनेता गायन में भी प्रवीण हैं। मंच पर म्यूजिक बैंड भी है। दृश्यबंध में पीट्सबर्ग शहर को उभारा गया है। वहां नदी, आसमान, पुल, सीढ़ियां, छज्जे, बार, रेस्त्रां, पार्क, घर कई कुछ मौजूद है या थोड़े बहुत फेर बदल के साथ खड़ा कर दिया जाता है। प्रकाश का भी इसी के अनुरूप स्वप्निल प्रयोग किया गया है।

नाटक में रूसी माहौल का दृश्यांकन है। नाटकों में प्राय: जिस संस्कृति-समाज का चित्रण किया जाता है, वहां की दृश्यावलियां मंच पर निर्मित की जाती हैं। यह दृश्यबंध, पात्रों, उनकी वेशभेषा आदि के जरिए रूपाकार पाती हैं। कायदे से संवाद भी उसी समाज की भाषा के होने चाहिए। लेकिन तब संप्रेषण केवल उसी भाषा-भाषी दर्शकों में हो सकेगा। संसार के दूसरे भाषा-भाषी समाज तक बात पंहुचेगी ही नहीं। इसलिए भाषा को तो बदलना पड़ेगा ही। नाटक मंडली और निर्देशक की महारत इसी में निहित है कि वह किसी संस्कृति-विशेष के जीवन को किसी दूसरे भाषा-भाषी समाज तक ले जाए। और वे सारी दृश्यावलियां जीवंत और सच्ची लगें। चांदनी रातें में भी रूसी समाज नाटक के दृश्यबंध, पात्रों, उनकी वेशभूषा के कारण असली लगता है। रूसी संगीत उसे और प्रामाणिक बनाता है। हिंदी के संवाद यहां गैर भाषी नहीं लगते। रूसी समाज के इस प्रदर्शन को भारतीय संगीत और प्राणवान तथा प्रामाणिक बनाता है। भारतीय संगीत इस पूरी दृश्य रचना का अभिन्न अंग बन जाता है।

प्रस्तुति में सब कुछ बहुत चमकीला है। सुबद्ध है। त्वरा से भरा है। किसी तरह के झोल की कोई जगह यहां नहीं है। शायद सांगीतिक शाहकार होने की वजह से ही हर कलाकार के गाल के पास अदृश्य सा माइक्रोफोन लगाया गया है। उससे संवाद साफ सुनाई पड़ते हैं। इतने साफ जैसे रिकॉर्ड किए गए हों या जैसे हमें सिनेमा हाल में संवाद सुनाई पड़ते हैं। नाट्य गृहों में खेले जाने वाले नाटकों में प्राय इस तरह से माइक्रोफोन का प्रयोग नहीं होता है। लेकिन शायद संगीत की वजह से और पूरी प्रस्तुति की भव्यता को बरकरार रखने की लिए इन उपकरणों का प्रयोग किया गया हो। नाटक में एक पुरुष और दो स्त्रियों को शायद कोरस की तरह रखा गया है। ये किसी दृश्य में अतिरेकी किस्म की नाटकीयता पैदा करते हैं, किसी दृश्य में मुख्य पात्र के मन में घुमड़ रहे विचारों या भावों को व्यक्त करने में मदद करते हैं। और किसी दृश्य में नायिका के परिचर बनकर दृश्य को हल्का बनाने की कोशिश करते हैं। वे कभी मसखरे लगते हैं कभी सर्कस के पात्र, कभी साधारण पात्र। कभी-कभी वे दृश्य को अतिरंजित कर डालते हैं।

कुल मिलाकर नाटक बेहद ऊर्जावान, ओजस्वी और दर्शक को अपने साथ ले चलने वाली प्रस्तुति के रूप में ही याद आता है। इसे आदित्य बिड़ला समूह के आद्यम थिएटर ने प्रस्तुत किया है। जब कॉर्पोरेट समूह कला को सहारा देता हो तो उसमें भव्यता एक अनिवार्य तत्व होगा ही।

Thursday, February 20, 2025

पटकथा



मुंबई विश्वविद्यालय में पटकथा 


10 फरवरी को धूमिल की पुण्यतिथि पर उनकी प्रसिद्ध लंबी कविता ‘पटकथा’ का नाट्य मंचन देखने का मौका मिला। यह मंचन मुंबई विश्वविद्यालय के अकादमी का थिएटर के सभागार में संपन्न हुआ। आर एस विकल के निर्देशन में प्रसिद्ध अभिनेता राजेंद्र गुप्ता ने इस कविता को मंच पर प्रस्तुत किया। आर एस विकल प्रतिबद्ध थिएटर के लिए जाने जाते हैं। बहुत लंबे समय से नाटक में सक्रिय हैं। मैं जब मुंबई में नया-नया था, दिल्ली से डॉक्टर विनय मुंबई आया करते थे। उन दिनों शायद विकल जी शंकर शेष के नाटक पोस्टर पर फिल्म बना रहे थे या उस पर काम कर रहे थे। तब विनय जी के जरिए उनसे पहली बार भेंट हुई थी। इस बात को शायद तीन दशक बीत गए हैं। 


धूमिल की कविता को मंच पर साकार करना आसान नहीं है। सर्वांग राजनीतिक कविताओं को नाट्य रूप देना आसान नहीं। सर्वांग राजनीतिक मैं इस दृष्टि से कह रहा हूं क्योंकि धूमिल का मुख्य स्वर राजनीति ही है। उसके साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक यथार्थ कविता में सामने आता है। कविता में छटपटाहट से ज्यादा तल्खी है। तल्खी मोहभंग की ओर ले जाती है। कविता बिंबों और सूक्ति-प्रवण भाषा से बुनी गई है। सूक्तियों की तरह की काव्य पंक्तियां धूमिल की पहचान है। ये सूक्तियां नाट्यांतरण में सशक्त संवादों का काम करती हैं। इस वजह से  इसे नाटक या नुक्कड़ नाटक में तब्दील किया जा सकता है। इसका लाभ निर्देशक और अभिनेता दोनों ने उठाया है। कविता में कथा-तंतु नहीं है। कविता में कथात्मकता हो ही यह जरूरी नहीं। कथा-तंतु का न होना नाट्यांतरण के लिए चुनौती है, जिसका सामना निर्देशक ने किया है।     


राजेंद्र गुप्ता अपनी रुचि की कविताओं के पाठ के लिए साहित्य समाज में जाने जाते हैं। पटकथा का पाठ भी आप करते हैं। शायद दो वर्ष पहले जब धूमिल समग्र प्रकाशित हुआ था तब मुंबई के गोरेगांव में विमोचन कार्यक्रम में राजेंद्र जी ने इस कविता का पाठ किया था। उन्होंने बताया था कि वे पिछले कई वर्ष से इस कविता का पाठ करते हैं।  


राजेंद्र गुप्ता काव्य पाठ का नाट्यांतरण बखूबी करते हैं। वे कविता के भीतर घुस जाते हैं। स्थितियों, परिस्थितियों, मन:स्थितियों को वे अपने नाट्य पाठ और अभिनय से साकार करते हैं। निर्देशक ने कुछ अंशों को अभिनेता के अंतःसंवाद में बदला है। इस वजह से कविता और स्पष्ट तथा मुखर हो जाती है। थके हुए तिरंगे को केंद्र में रखकर बनाया गया दृश्य बंध, लाल रंग की प्रधानता वाली प्रकाश व्यवस्था नाटक की तासीर को और सघन बना देती है। ध्वनि प्रभावों का प्रयोग कविता के ध्वन्यार्थ को और गहरा करता है। पार्श्व संगीत के रूप में गीत, संगीत का भी प्रयोग किया गया है। मुझे कई बार एक पाठ के ऊपर दूसरे पाठ को रख देने से संप्रेषण में असुविधा प्रतीत होती है। जैसे अभिनेता कविता का पाठ संवाद की तरह कर ही रहा है। उसके पीछे कोई गीत बजने लगे तो उसके बोल ध्यान बांट लेते हैं। यदि केवल संगीत का कुशल प्रयोग हो तो वह नाट्य पाठ या कविता पाठ या संवाद की अर्थच्छायाओं को बढ़ाने में मदद करता है। 


थिएटर अकैडमी का सभागार व्यावसायिक सभागारों जैसा नहीं है। वहां शायद छात्र अपनी नाट्य प्रस्तुतियों का अभ्यास करते होंगे। इस वजह से नाटक की प्रस्तुति में एक तरह की अनौपचारिकता का माहौल भी रहा। यह पूरी प्रस्तुति से जुड़ने में सहायक ही था।

 

थिएटर अकैडमी और शोधावरी पत्रिका और हूबनाथ पांडे के प्रयत्नों से यह मंचन संभव हो पाया। इस नाटक की प्रस्तुतियां जगह-जगह होनी चाहिए।

Tuesday, January 7, 2025

भोलू की याद

 


बंधन में बंदा, खुला सा खुदा

 (हिमाचल प्रदेश के एक लगभग गुमनाम बांसुरी वादक राजेंद्र सिंह गुरंग का 2019 जनवरी में आज के ही दिन देहांत हुआ था। शास्‍त्रीय संगीत की दृष्‍टि से कठिन प्रदेश हिमाचल प्रदेश में उन्‍होंने लंबी साधना से बांसुरी को साधा। चौसठ वर्ष की आयु में उनका जाना संगीत प्रेमियों के लिए मर्मांतक आघात था। उन्‍हें हम इस बातचीत के माध्‍यम से याद कर रहे हैं। यह बातचीत हिमाचल मित्र पत्रिका के 2010 के वर्षा अंक में प्रकाशित हुई थी।)

इस बार बातचीत के जरिए हम संगीत के सागर में उतरेंगे। पहाड़ और बांसुरी का बड़ा गहरा रिश्‍ता है। बांसुरी की तान कानों में पड़ते ही ऊंची-ऊंची चोटियां, दूर-दराज तक फैली हुई हरी-भरी वादियां, कल-कल करती नदियां हमारी आंखों के सामने तैरने लगती हैं। और जब बांसुरी से गहरा, लंबा और शांत सुर फूटे तो शास्‍त्रीय संगीत के द्वार खुलने लगते हैं। ऐसे ही नायाब बांसुरी वादक हैं धर्मशाला के राजेंद्र सिंह गुरंग। नेपाली कवि, अध्‍यापक और समाज सेवी मगन पथिक के पुत्र राजेंद्र सिंह के नाम से कम भोलू के नाम से ज्‍यादा जाने जाते हैं। पिछली सर्दियों में हमने उनसे लंबी बातचीत उनके घर पर ही रिकार्ड की। भोलू चूंकि हमारे मित्र भी हैं इसलिए उनके नए बने मकान में हम सपरिवार उपस्थित थे यानी मैं (अनूप सेठी), मेरे बड़े भाई तेज कुमार ( जो भोलू के मुझसे ज्‍यादा अंतरंग और संगीत-मित्र हैं), सुमनिका और हमारी बेटी अरूंधती। करीब डेढ़ घंटे की रिकार्डिंग को पन्‍नों पर सुमनिका ने उतारा है।  

 

अनूप: सबसे पहले यह बताइए की कब और कैसे लगा कि संगीत ही सब कुछ है?

राजेन्द्र: (याद करते हुए) यह बात है….1976 की।  वैसे तो 1975 में जब मैंने कॉलेज में एडमिशन ली थी, और मैं बी.कॉम में था,  तब मैडम शशि शर्मा थी (आप भी जानते ही हैं उन्हें) तो उनका बड़ा प्रोत्साहन रहा। और मास्टर चुन्नीलाल का भी- जो तबले के थे। और इसी बीच मैं मंडी में एक यूथ फेस्टिवल हुआ था। वहां मुझे बांसुरी के एक कलाकार को सुनने का सौभाग्य मिला…. तो पता लगा कि क्लासिकी संगीत कैसे बजाया जाता है बांसुरी में। एक रात वह किसी कमरे में बैठकर कन्सर्ट  कर रहे थे तो मुझे भी सौभाग्य मिला और पवन थापा भी वहीं थे। वे चाहते थे कि मैं उस फलूटिस्ट (बांसुरी वादक)  से मिलूं। वे थे दयाल सिंह राणा जो बाद में रोहतक रेडियो में ए ग्रेड के कलाकार रहे, बांसुरी में। अब तो वह रहे नहीं। तो पहले अनुभूति मुझे तभी हुई कि बांसुरी में मुझे अब कुछ करना चाहिए। उन्होंने मुझे कुछ टिप्स भी दिए थे वहां रहते हुए।

अनूप: बस यही प्रस्थान था क्या?

राजेन्द्र:  नहीं..और भी बातें थी। वहां मैडम ने मुझे आर्केस्ट्रा में तो शामिल किया ही था और मुझे काफी अधिकार दिया था कि तुम स्वछंद उसमें विचरण करो। और मुझे आइडिया भी दो। तो उन्होंने मुझे सचमुच बहुत प्रोत्साहित किया। आर्केस्ट्रा राणा जी ने भी सुना और हम लोगों को हाइली कमेंडेडका पुरस्कार भी मिला। तब से मेरी एक पहचान बन गई। लोग जानने लगे की यह है कोई …(हंसते हैं)।

अनूप: उससे पहले क्या कुछ भी ना था? 

राजेन्द: उससे पहले तो मैं वैसे ही फिल्मी गाने या लोक धुनें या क्लासिकल बेस्ड फिल्मी गाने बजाता था। या राग के बारे में कोशिश करता था पर कोई दिशा नहीं थी। न ही यह पता था कि इसे कैसे करना है। फिर ऐसा हुआ की 1976 में हरि वल्लभ संगीत सम्मेलन में (जो देवी तलाब जालंधर में होता है) शशि शर्मा मैडम हमें ले गई, एक एजुकेशनल टूर पर। वहां 100 साला उत्सव था। जब 9 दिनों तक दिन- रात कार्यक्रम चले तो वहां जाकर एक दूसरी ही दुनिया में पहुंच गया। कैसे कैसे कलाकारों को सुना। काबुल के मोहम्मद हुसैन सारंग बड़े जानेमाने गायक थे। फिर पंडित रविशंकर, विलायत खां साहब, उस्ताद अल्ला रखा, पंडित शामता प्रसाद, किशन महाराज यानी…. भारत के महान रत्न वहां आए थे। उनको दिन-रात सुनने पर देखने पर मुझे वाकई लगा कि संगीत तो यह चीज है.तो यहीं यह अनुभव गहरा हुआ कि संगीत ही सब कुछ है।

अनूप: चौरसिया जी से भी वही मुलाकात हुई?

राजेन्द:  जी हां, पहली बार 1976 में वहीं उनको सुना। 1975 में सुना था दयाल सिंह राणा को। और 1976 में चौरसिया जी को सुना तो मैं तो बस…..मैस्मराइज्ड ही रह गया।  लगा कि ऐसा दिव्य संगीत तो हो ही नहीं सकता! कि  यह तो मेरी कल्पनाओं से भी परे है। तो फिर लगा कि मुझे कहां उड़ान भरनी है, और उसके लिए कितना श्रम करना होगा। यहां तक मानो ईश्वर ही मुझे ले आए- मानो यह सब  किसी पूर्व योजना के तहत था। चुन्नी लाल जी के रूप में शायद वही मिला- ईश्वर की अंगुली  थी वह। उन्होंने शुरू से. . . हर तरह से. . . . रियाज भी करवाया और स्वर की बारीकियां, और मन की बारीकियां भी कैसे होती हैं- समझाया। यह अलग ही तालीम थी। 

अनूप: यानी. . . . . 

राजेंद्र:  मैंने देखा है कि संगीत की तालीम जो स्कूलों में होती है, या किसी संस्था में जाकर- वो काफी नहीं होती। सीखने के लिए एक ब्रॉड आउटलुक चाहिए। मेरे गुरु चुन्नीलाल जी कहते थे। बंधन में बंदा खुला सा खुदा. . . यानी स्वर को भी एक खुले रूप में देखो आप. . . . और यों जब शुरू करवाया उन्होंने. . . .  जबकि तब तक मुझे सरगम वगैरह का काफी ज्ञान था. . . बजा भी लेता था. . . पर उन्होंने कहा की अब जीरो पर आ जाओ। सब कुछ भूल जाओ और अब से शुरू करो - उसी की साधना करो और कुछ नहीं। मुझे याद है की जब मैं बी. ए. प्रथम वर्ष में था, तो वही मंदिर में कई बार शंख जैसी आवाज गूंजती रहती. . . . घंटों तक। चार चार घंटे तक बैठकी. . . फिर आराम. . . फिर 4 घंटे. . . . फिर आराम और फिर दो घंटे। यों 10 घंटे तक रियाज़ करता था। एक  साल तक तो को साधा। यानी धन्‍ने जाट वाली बात कि इसी में भगवान है। इससे पहले उन्होंने काफी लेक्चर भी दिया मुझे। यानी किसी भी कला में मन की स्थिरता. . . और उसके लिए एक माहौल का होना बड़ा जरूरी है। जो कुछ मिलना था शायद तभी मिला। नहीं तो जितनी जल्दी मैंने इन चीजों को जाना और समझा, और एकदम से लाइम लाइट में आया. . . यह संभव ही नहीं था। आप तो जानते हैं कि मैं आम सा आदमी था -  एक बेहद आर्डनरी परिवार से था। बस कुछ मिलना था मुझे तो जैसे ज्ञान के कपाट एक साथ खुलने लगे थे। गुरु जी ने ही वे खोले थे। या आध्यात्मिक करामात थी। फिर हम लोग सत्य साईं बाबा के अभियान से भी जुड़े थे। उनका भी आशीर्वाद था। इसी सिलसिले में शिव कुमार जी जैसे गुरुजन मिले। तब यह अहसास हुआ कि संगीत में कदम रखना है तो गहरे पैठ कर. . . सतही ढंग से नहीं. . . और गहराई दिखाने वाले भी मिल गए। 

अनूप: यानी चुन्नीलाल जी. . .

राजेंद्र: हां, वे कहा करते. . . भोले तू मैनूं भुल जाणा ऐं। कहते, बताओ आज तेरे साथ है कोई? जानता है तुझे? . . . मैं कहता. . . नहीं. . . .। वे कहते कोई टाइम आएगा तू मुझे भूल जाएगा। उनका खुद का इतना बड़ा परिवार था, अनेकों दुख कष्ट थे, अकेले कमाने वाले थे। पता नहीं उन्‍हें मुझ में क्या दिखा कि उन्होंने सोच लिया कि इसे मैंने बनाना है।

अनूप:  लेकिन आप भी तो समर्पित रहे। 

राजेंद्र:  शायद हां, उन्होंने जो कुछ कहा, मैंने उसे गांठ बांध लिया, शत- प्रतिशत - ब्लाइंड्ली. . . 

अनूप:  आजकल कहां हैं वे?

राजेंद्र: वो अब. . . .ही इज नो मोर. . . . गुजर गए। 2001 में जब मैंने पीएचडी सबमिट की, उसी बीच पैगाम मिला कि मास्टर जी. . . . 

अनूप:  कहां थे वे, कहां सेटल हुए थे? 

राजेंद्र:  गुरदासपुर में था न उनका घर। तो बस तब से साधना का क्रम जारी रहा। मैं दयाल सिंह राणा के पास भी जाता रहा. . . लंबा संपर्क रहा और काफी कुछ सीखा मैंने उनसे. . . कि रागों का विस्तार कैसे करते हैं, लाइट म्यूजिक क्या है। हमारा संबंध 1990 तक रहा क्योंकि 1990 में वे भी गुजर गए- यानी मृत्यु पर्यंत. . . .

अनूप:  कहां होते थे वे?

राजेंद्र:  शिमला के एक स्कूल में नृत्‍य-संगीत सिखाते थे। कभी वे उदय शंकर (रवि शंकर के भाई) के ट्रुप में रहे थे- उनसे शिक्षा भी पाई थी और विजय राघव राव, जो जाने माने बांसुरी वादक हैं उनसे भी सीखे थे। और सौभाग्य से मुझे भी उनका सानिध्य मिला। और मैं जगह-जगह संगीत के आयोजनों में भाग लेने लगा।

अनूप: और कॉलेज की पढ़ाई? 

राजेंद्र: चल रही थी। उसमें मैंने संगीत विषय ले लिया-विद सितार इंस्ट्रूमेंट। यानी 1976 से संगीत की अकादमिक शिक्षा भी पाई। पहले तो में कॉमर्स में था उसमें (हंसने लगते हैं) थोड़ा गड़बड़ हो गया। फिर आर्ट स्ट्रीम में आया। 

अनूप: यानी हमें पता ही नहीं होता है कि रुचि क्या है और हमारी दिशा क्या है? 

राजेंद्र:  हां, वही तो. . . पिता ने ज्योतिष के हिसाब से कॉमर्स दिला दिया। मैंने बदल कर साइंस ले ली- वह भी नहीं चली. . .  1976 के बाद जाकर सही दिशा मिली कि मैंने क्या करना है। और फिर यहां ग्रेजुएशन की। फिर जब साई बाबा जी के पास गए तो उन्होंने एम. ए. करने को कहा। मैं तो चाहता था कि चौरसिया जी के पास चला जाऊं। क्योंकि इस बीच मेरी 1978 में उनसे फिर मुलाकात हुई थी, जालंधर में। मैंने उन्हें बांसुरी सुना कर पूछा कि बताइए मैं इस लाइन में आगे जा सकता हूं या नहीं। उन्होंने बड़े प्रेम से मुझे स्काईलार्क होटल में बुलाया, वहां सुना और कहा कि तुम में प्रतिभा है, फूंक अच्छी है - मगर तुम गायन सीखो क्योंकि संगीत में गायन बड़ा प्रमुख होता है। भावों की अभिव्यक्ति उसी से होती है। फिर संगीत में शब्द भी होते हैं, अच्छा गायन जानने वाला वादन के साथ न्याय कर सकता है। तो मैंने उनकी बात सुनी। फिर सत्य साईं बाबा ने 1979 में कहा- तुम म्यूजिक में एम. ए. करता है। तो मैंने यह ठान लिया कि यही करूंगा। और ईश्वर कृपा से चौरसिया जी फिर1979 में, होलियों में अमृतसर के दुर्गियाना मंदिर की राग सभा में मिले।

अनूप:  यह संयोग कैसे हुआ? 

राजेंद्र:  मेरी एक विदेशी शिष्या थी,  म्‍यूरियल नाम था उसका, फ्रेंच थी। वह मुंबई गई थी और जाने से पहले उसने चौरसिया जी का एड्रेस मांगा। मेरे पास उनका विजिटिंग कार्ड था ही, मैंने उसे नंबर वगैरह दिया था। वह वहीं रुकी उनके पास. . . उन्होंने उसे बहुत इंस्पायर किया। पूछा कि गुरु कौन हैं। उसने मेरा नाम लिया तो उन्होंने कहा कि अपने गुरु को बताना की होलियों में अमृतसर आऊंगा, उन्हें लेकर आना। यों व‍ह लौटी और बोली कि आज ही चलना है पांच बजे की बस से पठानकोट, और फिर अमृतसर. . . . चौरसिया जी ने बुलाया है। रात को पहुंचे तो प्रोग्राम खत्म हो गए थे पर अगले दिन सुबह ही चौरसिया जी से मिलने गए। उन्होंने कहा कि कुछ सुनाओ। मैंने बजाया। उन्होंने एलाबोरेट करने के बाबत टिप्स दिए। फिर पूछा कि वह गायन की तालीम का क्या हुआ। मैंने कहा कि मैं धर्मशाला जैसी जगह पर रहता हूं, कहिए क्या करूं - मार्ग आप ही दिखाइए। 

अनूप:  धर्मशाला में तो शास्त्रीय संगीत की वैसी कोई परंपरा थी नहीं? 

राजेंद्र: हां, भौगोलिक परिस्थितियों में कैद था। तो फिर चौरसिया जी ने गुरु शंकर लाल मिश्रा का रेफरेंस दिया। वह इलाहाबाद के थे और उनके शार्गिद शहनाई वादक भोलानाथ थे। चौरसिया जी  शुरू में उनके शिष्य रह चुके थे और शंकर लाल मिश्रा जी को भी दादा गुरु के रूप में मानते थे। तो उन्होंने एक रुक्‍का उनके नाम लिखकर मुझे मिलने को कहा। लिखा कि इसे भेज रहा हूं, संगीत में रुचि है, बांसुरी अच्छी बजाता है, गायन की तालीम आप दे दीजिए। बाद में मैं इसे गाइड करूंगा. . .यों रुक्का लेकर मैं उनसे मिला। 

अनूप: इलाहाबाद गए? 

राजेंद्र: नहीं, इधर ही जालंधर में। वे ए. पी. जे. फाइन आर्ट्स कॉलेज के प्रिंसिपल थे और गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी में फैकल्टी थे। फैकल्‍टी  आफ फाइन आर्ट्स के डीन थे। तो जब चौरसिया जी का रिकमेंडेशन हो, शंकर लाल मिश्र जैसे नामी व्यक्ति ने सिखाया हो तो फील्ड खुद ब खुद बनाता जाता है। और वह बनता गया। पंजाब और आसपास के इलाकों के संगीत के लोगों से जुड़ने लगा। यों जो मिला, शायद मिलना था मुझे। और गहरे से मिला - गहरे उतरा, उतारने वाले भी मिले। चमत्कार ही समझो इसे। 

अनूप: अध्यापन की तरफ कैसे आना हुआ? 

राजेंद्र: मिश्रा जी ने कहा कि ग्रेजुएशन किया है तो एम. ए. भी कर लो, नौकरी के लिए अच्छा रहेगा। क्योंकि जीवन भी तो चलाना है। स्ट्रगल करने के लिए पेट में रोटी भी तो चाहिए। यों एम. ए. की एम. फिल की. . . साथ-साथ उनसे तालीम लेता रहा।

अनूप:  तालीम के बारे में बताइए कुछ? 

राजेंद्र:  जालंधर में ही बनारस घराने के एक सितार वादक थे- वीरेंद्र सर- जो सितार की क्लास लेते थे। वे विलायत खां साहब के शागिर्द थे। एम.ए. में उन्होंने पढ़ाया। और उनसे मैंने वादन अंग को समझा। 

अनूप:  वादन अं ग.. . .? 

राजेंद्र:  हां, क्योंकि सितार में एक बीन अंग होता है, वीणा के सुरों की तरह, ध्रुपद- धमार की तर्ज पर। पहले तो गायन ही होता था ना! उसी को बीणा ने फॉलो किया। तो बीन अंग की चीजें जैसे ध्रुपद में नोम तोम का विस्तृत आलाप होता है, उसके बाद कंपोजीशन गाते हैं। सितार ने भी खयाल  अंग को अपनाया था- नोम तोम, जोड़ आलाप जोड़ आलाप करके विस्तृत आलाप होता था। किसी तरह की अवतारणा के लिए एक घंटा चाहिए। तो उनसे बादन अंग टेक्नीक, बीन अंग की, ध्रुपद अंग के सीखने का मौका मिला। फिर सीखने की यह प्रक्रिया क्लास रूम तक तो सीमित नहीं थी। उनकी भतीजी भी पढ़ती थी। बहुत टैलेंटेड थी। अक्सर उनके घर चले जाते थे, उनके पिता ओम प्रकाश खुद लेक्चरर थे कन्या महाविद्यालय में। तो वहां भी संगीत का माहौल था। फिर उनमें एक हरविंदर थे। बहुत अच्छी सितार बजाते। वे भी विलायत खां से सीखे थे। अब तो ए क्लास आर्टिस्ट हैं। पहले वे कालका में थे। सो कहने का मतलब यह है कि व्यक्ति एटमॉस्फीयर से सीखता है। एक खुला वातावरण था।  ए.पी.जे. कॉलेज का बड़ा नाम था। ओम प्रकाश थे, गिरिजा व्यास थीं, बिरजू महाराज के भांजे वहीं थे। बनारस से दो बड़े तबला वादक थे। तो माहौल ही रात दिन संगीत का था। कॉलेज में कभी फोक तो कभी क्लासिकल कंसर्ट चला करते। 

अनूप:  आप बड़े पते की बात कह रहे हैं। 

राजेंद्र:  और हरिवल्लभ सम्मेलन तो होता ही था। तो दिमाग खुल गया मेरा. . . मेरे गुरु जी (चुन्नीलाल) कहते भोले! एद्दां ऐ न, ए हल्लाशेरी बहुत वॅडी चीज हुंदी ए। अगर किसी से कहो कि ओए वह डूब गया. . . तो वह डूब जाता है और कहें कि शाबाश लंघ गया. . . ए लंघ गया. . . तो वह लांघ जाता है। तभी वे मुझे प्रेरित किया करते। कहते तू चौरसिया नाल बजाऊंगा। कई बार तो तेरे सुर इतने बारीक लगते हैं कि क्या कहूं। उन्होंने जैसे अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया मुझ पर। रात रात रियाज कराते थे। यहीं नीचे शाम नगर में विमला नगर निवास में रहते थे। किसी से भी बात करते तो मेरा जिक्र करने लगते। लोग कहते - यार तूं भोल्‍ले दी गल ला छडदां, कोई होर गल कर। मुझे कहते  यार तूं लता नाल बजाऊंगा एक दिन। देख लईं, जाकिर नाल बजाऊंगा। 

अनूप:  आपका हौसला सदा ऊंचा रखते थे। 

राजेंद्र: हां, मंजिल ही ऊंची दिखाते थे। उरे तो देखने ही नहीं दिया। गुरु विद्यार्थी को तलाशता है, ज्ञान तो फिर स्वत: ही आता है। सुनते सुनते, देखते हुए, बातें करते हुए। बताइये एकलव्य ने कहां एक एक चीज की शिक्षा पाई थी। बस श्रद्धा और गुरु के प्रति समर्पण-  इम्‍पलीसिट फेथ भीतर से आ जाए, इच्छा जरूर पूरी होती है।

अनूप: इसकी कोई मिसाल? 

राजेंद्र:  वे कहते मैं काला, मेरी जुबान काली। मैं जो कहता हूं, होगा। कहा कि अगले साल तू बजाएगा हरीवल्लभ सम्मेलन में। मैं अविश्वास से कहता मैं!!! मैं तो जाणदा ई कख नई! इतनी बड़ी स्टेज जहां लोगों को देख सिर श्रद्धा से झुक जाते हैं -  वहां मैं  कैसे हो बजाऊंगा। बोलते - देख लईं।  मैं काला - मेरी जुबान काली।

अनूप:  सच हुआ यह? जुबान पूरी हुई उनकी? 

राजेंद्र: बस एक साल पूरी मेहनत की। शाम नगर के उनके घर का दरवाजा तीन-साढ़े तीन  बजे खटका देता। चाय खुद बनाता। सुबह के सात साढ़े सात तक अभ्यास करता। फिर वे भी कॉलेज के लिए तैयार होते, मैं भी। फिर 77 में हरवल्‍लभ में युवा कलाकारों की प्रतियोगिता में बजाया (अब भी होती है विभिन्न आयु स्तरों पर) 1977-78 में मुझे स्वर्ण पदक मिला। और उत्तर भारत के उस महान आयोजन के मंच पर बैठने और पदक पाने की हवा बन गई। हिमाचल- पंजाब-हरियाणा और दिल्ली तक के लोग, संगीत जगत के, पहचानने लगे। चौरसिया जी का वरद हस्त मिला ही था। 

अनूप: बाकी पढ़ाई पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा? 

राजेंद्र: मैं नहीं जानता कि कैसे मैं पार उतर आया। कैसे इंग्लिश में पास हुआ, कैसे हिस्ट्री के समुद्र में तैर गया। शायद यह शिवकुमार जी का प्रताप था। वे कहते बस ग्रेजुएशन कर लो फिर संगीत में अपने हिसाब से बढ़ते रहना। चुन्नीलाल जी भी कहते- पढ़ जा, पढ़ जा, तूं पढ़ जा। मैं तो अनपढ़ हूं। मेरे मन में भी यह गर्व नहीं आया कि मुझे क्या जरूरत है कि मैं यह रूखे विषय पढ़ूं। 

अनूप:  चुन्नीलाल जी औरों को भी सिखाते थे? 

राजेंद्र:  हां, गुरुजी ने संगीत विद्यालय चलाया था – ‘कॉस्मिक म्यूजिक स्कूलविदेशी आते थे उसमें। 1976 तक तो मैं भी रहा, उसके बाद भी वे चलाते रहे। मैं पढ़ने चला गया। पहले बांसुरी और सितार विदेशियों को सिखाता था। सोचिए कितनी जल्दी पिकअप किया होगा कि दूसरों को सिखाने लगा। गुरुजी कहते टीचिंग से बहुत कुछ आता है। सोचिए एक अनपढ़ व्यक्ति का क्या विजन था। कहते उन्हें पढ़ाकर तुम्हें अंग्रेजी आ जाएगी, तुमने तो आगे बढ़ना है, भ्रमण करना है। झिझक मिटाने के लिए उसी परिसर में शनिवार को कंसर्ट रखा करते। मीनू कॉटेज में, तिब्बती लायब्रेरी के नीचे कोई 30-35 कमरे थे जहां विदेशी रहते।  वही मैं भी सितार-बांसुरी की कक्षाएं लेता, परफॉर्म भी करता। कैसा बजाता था पता नहीं. . . पर ठीक ही रहा होगा. . . (हंसते हैं) 

अनूप: तभी तो लोग आते भी थे।

राजेंद्र:  इससे भी एक पहचान बनी, कि यह तो विदेशियों को सिखाता है। जैसे दुर्गयाना मंदिर अमृतसर में म्‍यूरियल को देख कर एक तबला वादक उठ खड़े हुए। मुझे बड़ा उस्ताद मान बैठे और बोले!  आइये आइये उस्ताद जी. . . . 

अनूप:  तो इस सफर में कई सरपरस्त रहे? 

राजेंद्र:  हां, 1974 में हायर सेकेंडरी के बाद ही यह सिलसिला चल पड़ा था। जब मैंने पूछने पर पिता से कहा कि संगीत सीखना चाहता हूं।  पहले पहल देशबंधु जी से, फिर उनके शिष्य कृष्णदत्त शर्मा से। वे कोटखाई चले गए और बहुत अरसे बाद लौटे। और फिर शंकर लाल मिश्रा मिले, वीरेंद्र सर मिले, और मिले जालंधर रेडियो के शहनाई वादक श्यामलाल। उनके पिता नंदलाल जी बिस्मिल्लाह खां के समकालीन थे। खां साहब को तो बड़ा नाम मिला,  वे शहनाई के पर्याय ही बन गए। लेकिन नंद लाल जी भी उसी स्तर के थे। पर नाम - यश तो ईश्वर के हाथ में है। 

अनूप:  आप शामलाल जी के बारे में कह रहे थे। 

राजेंद्र: हां, तो शामलाल जी भी बड़े भले मानुष, बड़े सज्जन पुरुष थे। उनसे मिलने पर सुशिर वाद्य की जो फूंक की टेक्निक होती है, उनसे सीखी। वे मेरे घर आ जाते, टूटी मंजी और बैठकर सिखाते,   इतवार को भी आ जाते। कहते यह तूने क्या कर दिया है मेरे अंदर। लोग तो मिठाई लेकर आते हैं घर कि कुछ बताइए और हम नहीं सिखाते और तेरे लिए खुद आता हूं।  

अनूप:  तो क्या था यह जो गुरुओं की इतनी मेहरबानी हुई। 

राजेंद्र: शायद मैं विनम्र था -  कह नहीं सकता। उन्हीं के कहने पर मैंने 1988 में रेडियो का ऑडिशन दिया! और पास भी हुआ!  उन्होंने पूरा पहरा रखा, पूरी कांट छांट के साथ तैयारी करवाई और फिर दिल्ली में भी ऑडिशन हुई। रेडियो प्रोग्राम मिलने लगे। मुझे साल में चार प्रोग्राम मिलते थे। मैं बी. हाई. ग्रेड का था। 

अनूप: ग्रेड उससे आगे बढ़ा? 

राजेंद्र: नहीं मैंने कोशिश ही नहीं की। पारिवारिक परिस्थितियां, दूसरे झमेले, नौकरी भी बदलती रही। पहले धर्मशाला कॉलेज, फिर सेंट्रल स्कूल डलहौजी, गर्ल्स स्कूल और अब पालमपुर में हूं।  

अनूप:  शिमला में युवा कलाकार के रूप में रजिस्टर होने और जालंधर में आर्टिस के बतौर तो आप बजाते रहे। रेडियो के अलावा भी कंसर्ट करते हैं? 

राजेंद्र:  हां वे तो चलते रहे। जैसे नामधारियों का प्रोग्राम होता था। बाबा जगजीत सिंह खुद बड़े मर्मज्ञ हैं संगीत के।  नामधारियों को उस्‍तादों के पास भेजते हैं। और भी कई प्रोग्राम किए हिमाचल, पंजाब में। 

अनूप:  अब क्या स्थिति है? 

राजेंद्र:  संगीत में तब गुडविल खत्म हो जाती है जब आप दूसरी लाइन में जाते हैं। अब मेरा मुख्य व्यवसाय अध्यापन है। फिर भी जो जानते हैं, बुलाते हैं। चार पांच साल पहले कुछ वैज्ञानिक आए थे। उन्हें थोड़े समय में भारतीय संगीत की झलक देनी थी तो फोक के लिए पंजाब से और क्लासिकल के लिए मुझे बुलाया था। फिर मैं भी अब सिलेक्टेड हूं। और कला स्वान्‍त: सुखाय तो है ही। लेकिन अगर टीचिंग में न होता - कार्यक्रम करके ही जीविका चलानी होती तो बात अलग होती है। ज्ञान तो है, उसका मंथन तो किया करता हूं।  

अनूप:  मैं सीधे से सीधे ही पूछता चाहता हूं कि जितना आपने सीखा है, जितना बजाया है और अगर आप हिमाचल में न होकर किसी बड़े शहर में होते तो आपका स्थान कुछ और होता। 

राजेंद्र: हां,यह तो स्वाभाविक है, क्योंकि. . . . 

अनूप:  जब हम भाग्य की बात करते हैं तो इसका संबंध कहीं छोड़ देने से तो नहीं है। अगर आप बड़े शहरों में जाने की सोचते। नौकरी की तलाश पंजाब या फिर दिल्ली में करते तो मौके ज्यादा मिलते। और जानना चाहूंगा कि ऊंचा कलाकार और नामी कलाकार. . . इसमें क्या भेद है। 

राजेंद्र:  नाम, यश, मान. . . सब ईश्वर के हाथ में होते हैं। 

अनूप:  ईश्वर के हाथ में या बाजार के हाथ में? 

राजेंद्र:  बाजार के हाथ में भी होते हैं पर फिर पारिवारिक परिस्थितियां भी तो होती हैं। आदमी अपने लिए चुनाव भी तो करता है। भगवान ने जो अंकुश लगाएं हैं - उनका इशारा भी तो समझ ना होता है। और फिर संतुष्टि की बात होती है. . . जब आवे संतोष धन. . . सब धन धूरि समान 

अनूप: मैं इसलिए पूछना चाहता हूं कि. . . . 

राजेंद्र: समझता हूं, ज्ञान की कई मंजिलें तय की हैं, छू-परख के देखा भी है। मगर यह अफसोस नहीं कि चौरसिया जी जैसा क्यों नहीं बना। उनसे आगे क्या है - उनके साथ उनके साथ स्टेज पर बैठ कर भी देखा है। उनकी आभा-उनकी गरिमा की छाया भी देखी है। शायद साई बाबा जी के प्रभाव के कारण वैसी डिजायर,  वैसी मृगतृष्णा नहीं है। भागने की इच्छा नहीं. . . ठीक है. . . भाग्य में नहीं होगा. . . शायद. . . . कोई नहीं. . अगले जन्म में सही।  ऐसी आस्था भी है।

अनूप:  क्योंकि भ्रम होता है कि कहीं भौतिक कारण भी हैं। जैसे शिवकुमार शर्मा जी ,(संतूर) कश्मीर से उठे। मुंबई तो माया नगरी है फिर भी सब कलाकार वहीं रहते हैं। चौरसिया जी, जाकिर हुसैन, जसराज। हां जोशी जी पुणे में रहे। मुंबई संगीत का बड़ा गढ़ रहा है। रिकॉर्ड से लेकर कैसेट - सब वहीं से जारी होते हैं। इन चीजों का भी तो संबंध होता है कला और कलाकार से? 

राजेंद्र: वह तो है, कौन नहीं चाहता कि मैं प्रसिद्ध हो जाऊं, रिकॉर्ड हों, लेकिन उसके लिए कुछ खोना भी तो पड़ेगा। आध्यात्मिकता हमें सिखाती है कि नाम यश से क्या हो जाएगा! मानसिक स्थिति के आधार पर चाहतें होती हैं। पंडित रविशंकर अंतिम नहीं है। उनसे भी बड़े विद्वान होंगे -  हैं भी जो चुपचाप जीवन गुजार रहे हैं। उनकी विद्या में, उनके रियाज में कोई कमी नहीं है। हां, उन्हें वे अवसर नहीं मिले जो मिलने चाहिए थे। तो क्या करें।

अनूप:  दूसरा पहलू यह है कि जैसे जालंधर में हरीवल्लभ होता है - पहाड़ी प्रदेश में इस तरह की कोई परंपरा बन सकती है? 

राजेंद्र:  छिटपुट परंपराएं बनी भी हैं। मैं जब जालंधर गया तो वहां सुंदर नगर के एक व्यक्ति मिले गंगाराम - हेड मास्टर रिटायर हुए थे। उन्होंने वहां संगीत का एक विद्यालय बनाया और हर साल पं. विष्णु दिगंबर जयंती मनाते हैं। उसमें अच्छे कलाकारों को बुलाते हैं जो उनके संपर्क में हैं। यथाशक्ति पत्र-पुष्प भी भेंट करते हैं।  1980 में मैं वहां बजा कर आया हूं। 86 में फिर गया। तो वह कई सालों से यह हो रहा है।

अनूप:  अभी भी? 

राजेंद्र:  हां। और धर्मशाला में भी हिमाचल शास्त्रीय संगीत सभा का गठन हो चुका है। कोई दस साल तो शायद हो चुके हैं। तो हो रहा है यहां भी। हर महीने के दूसरे शनिवार को चामुंडा परिसर में यह होता है।  दस बारह या पंद्रह-बीस लोग जो भी होते हैं वे दो-तीन बजे तक गाते बजाते हैं। और मुझे याद है  कि जब हम शुरू शुरू में (96-97) में एक शिव मंदिर था, वहां पर शिवरात्रि को कार्यक्रम होता था। वहां भी पुराने लोग थे भगवंत जी, पाधा जी, पंडित अमरनाथ कथा वाचक. . . .। यों इस सबका श्रेय देशबंधु जी को जाता है। वे सन 50 में जब धर्मशाला आए थे तब कांगड़ा के कथावाचकों ने संगीत का प्रसार प्रचार किया। 

अनूप: वह कैसे? खोलकर बताइए जरा। 

राजेंद्र:  कथावाचक अपने आप में एक रंगमंचीय कलाकार भी होता था और गायक भी।  यह सब गुण होते थे उसमें तभी तो कई कई घंटों तक बांध कर रखते थे लोगों को। एक दीनानाथ होते थे कांगड़ा जिला में। उनके जितने भी जजमान थे, सबके घरों में उन्होंने एक पेटी और एक तबले की जोड़ी रखवाई थी। वे पुराने ढंग से संगीत का स्थाई-अंतरा गाते, जितनी उन्हें जरूरत थी बतौर कथावाचक। फिर दुगुण - चौगुण करते।  तानैं वगैरह नहीं लेते थे। जब देश बंधु शर्मा जी लाहौर से यहां आए तो उन्होंने ख्याल गायिकी का काफी प्रचार-प्रसार किया। इसके पहले दीना नाथ जी, पंडित अमरनाथ वगैरह जो कथा वाचक थे वे तो बकायदा तान-पलटों के साथ गाते थे। मैंने भी सुना है उन्हें - उनका स्नेह भी पाया है। 

अनूप: आप संतुष्ट हैं इससे।  

राजेंद्र:  नहीं,  वह तो नहीं हूं। हुआ तो है यहां पर कुछ कुछ, पर उस स्तर तक नहीं हुआ जितना होना चाहिए था। सीमित सा ही है। और जो है - उसका भी प्रचार-प्रसार बहुत कम होता है।  

अनूप:  क्या यहां के लोग कुछ हैं जो संगीत में निकल रहे हों? कोई प्रतिभा हो, कमिटमेंट हो? 

राजेंद्र: देखिए कुछ युग ही बदल गया है। लोग चाहते हैं कि जल्द अज़  जल्द हम इंडियन आइडल बन जाएं।  संगीत के आधारों की तरफ ध्यान कम है। जिन्होंने पढ़ा है, और समझ कर कर रहे हैं, वो अलग बात है। जैसे एक रैत साइड का लड़का था। लेकिन अधिकतर तो यह एक बिजनेस सा हो गया है। तालीम मिल रही है या नहीं - इस पर प्रश्न चिह्न है। 

अनूप:  यहां स्कूल कॉलेजों में तो संगीत विषय है ही? 

राजेंद्र:  हां है।

अनूप: पर वहां से पढ़ कर निकलने वाले आगे जा पाते हैं? 

राजेंद्र:  देखिए एक होती है गुरु शिष्य परंपरा. . . लेकिन स्कूल कॉलेज में समय के बंधन होते हैं। मैंने भी पढ़ा है वहां। अगर वहीं तक सीमित रहता तो क्या हो पाता। 40 मिनट के पीरियड में कई बार साज को ट्यून करते ही समय समाप्त हो जाता है। और फिर एक बंदिश, दो चार  तोड़े, थोड़ा सा कनक्लूडिंग पोर्शन. . . और एक राग खत्म हो गया। सलेबस के हिसाब से तो कई राग हो जाते हैं पर वह तो एक आउटर स्‍केच  के जैसा होता है।

अनूप: आप को पढ़ा के संतोष होता है? 

राजेंद्र:  इनमें कई बच्चे जिनमें प्रतिभा होती है, उन्हें समय देते हैं। यूथ फेस्टिवल की तैयारियां होती हैं।  हरिवल्लभ भी जाते हैं। एक्स्ट्रा टाइम भी देते हैं। पर पूरी क्लास के साथ यह संभव नहीं है। यह विषय ऐसा है कि इसमें रुचि वाले सिलेक्टेड छात्र-छात्राएं होने चाहिए। 

अनूप: आप जालंधर में संगीत संस्थान में पढ़े हैं,  ऐसे किसी संगीत विद्यालय की जरूरत है यहां? 

राजेंद्र: जरूरत तो बहुत है हिमाचल में। संगीत ही क्यों, और भी ललित कलाओं के लिए (नाटय्, चित्र, नृत्य. . . .) कोई भी सुविधा ही नहीं है। पर ऐसी संस्था बने जो पॉलीटिसाइज  न हो जाए कि देखने को तो भवन हो, पर भीतर कुछ ना हो। या उद्देश्य वह न हो। उनमें वही लोग होने चाहिए जिन्होंने अपना जीवन लगाया है। समर्पित लोग ना होंगे तो कैसे चलेगा। 

अनूप: अच्छा यह बताइए कि आजकल रियाज की क्या रुटीन रहती है। 

राजेंद्र: संगीत का तो यह है कि एक तो इसका क्रियात्मक पक्ष है -  यानी ध्वनि निकालना, एक कम ध्‍वनि निकालना और अध्‍वन्‍यात्‍मक रियाज। यानी संगीत का सुनना, चिंतन, मनन भी उसी भाव धारा में बहना है। लेकिन आजकल कार्यक्रमों के आधार पर रियाज चलता है। क्योंकि अध्यापन भी तो समय की मांग करता है। फिर वहां भी सितार ही पढ़ाता हूं। बांसुरी मेरे लिए रह गई है।  कार्यक्रम से 15-20 दिन पहले से अपने को ट्यून करके  उसी स्थिति में लाता हूं जहां उसे छोड़ा था। हां, पहले की तरह दस-दस घंटे रियाज नहीं हो पाता। दूसरी प्राथमिकताएं भी हैं। 

अनूप:  अच्छा यह बताइये कि क्लासिकल संगीत तो शास्त्रबद्ध होता है - पर सुनने वालों को मुक्त भी करता है। तो उसमें स्वच्छंदता कैसे आती है? यह कोई रासायनिक क्रिया है? 

राजेंद्र:  देखिए, रस की उत्पत्ति कब होती है? उसके लिए बहुत कुछ चाहिए होता है। एक तो कलाकार जो रस पैदा करना चाहता है, स्टेज पर बैठा है, वह किस मन: स्थिति में है, कितनी पकड़, कितना रियाज उसमें है। दूसरा श्रोता है -  जिन्‍हें वह प्रेषित कर रहा है वे भी उसी स्तर से समझ पा रहे हैं या नहीं। तो श्रोता के अनुसार भी काट छांट होती है। जैसे स्पिक मैके में बड़े-बड़े कलाकार जब कॉलेज के छात्रों के सामने होते हैं तो वहां वह जरूरी नहीं कि कलाकारी और आलापकारी दिखाई जाए। बच्चों को तो लय-ताल सुर सबका मिला जुला आनंद चाहिए। तो खुले दिमाग और परिपक्वता से ढाल लेंगे संगीत को। कलाकार और श्रोता की तारतम्‍यता से ही रस पैदा होता है। जो गा रहा है, वह दूसरे को समझ आ रहा है या नहीं - उसी रूप में ग्रहण कर रहा है या नहीं। तो जब दोनों में समन्वय होता है तब डांस की स्थिति आती है। कुछ भेद नहीं बचता। राग की अवतारणा सोची-समझी प्रक्रिया नहीं होती कि यह पकड़ है, यह स्वरावलि है, उस समय तो राग का स्वरूप साकार करना है, क्रिएशन है न वो तो। श्रोता भी वहीं चला जाता है। फिर तो आप घंटों बैठे रहिए। 

अनूप: जब आप किसी सभा में बजा रहे होते हैं - तो मन में क्या चल रहा होता है? 

राजेंद्र:  मन में तो यही चल रहा होता है कि जो भी स्वर हो,  भीगा हुआ हो। सच्चा स्वर हो। और तभी सच्चा होगा जब पॉलिश किया गया होगा। पहरा बैठाया होगा उस पर। साधना की है तो सारे स्वर चमके हुए होंगे,  चाशनी में डूबे हुए होंगे जैसे जीभ पर गुलाब जामुन। जैसे शहद - गाढ़ा और स्निग्ध। गुरु जी कहते थे- ओए ऐ नईं ऐ एैन्‍नूं तूं राम कह, ओम कह ऐन्‍नू।  फिर यह अध्यात्म से जुड़ जाता है। फिर कुछ चीजें जो अनुभव करने की हैं - वाणी से नहीं कह सकते हैं। अनुभवगम्‍य  ही हैं। 

तेज:  लेकिन गायन का प्रभाव किन चीजों पर है - या अच्छा गायन क्या है? 

राजेंद्र:  यही कि रियाज कैसा है, कल्पना शक्ति कितनी प्रखर है, कंपोजीशन क्या है कलाकार गा बजा रहा है तो उसमें भाव कैसे हैं। है तो यह अलग अलग पुर्जों की एसेम्‍बलिंग ही। एसेम्‍बलिंग घड़च्‍च  करके तो नहीं कर सकते। बिल्कुल धीरे धीरे ऐसे मिलाना है कि सारी चीजें स्मूदली बैठें। नहीं तो ध्यान टूटता क्यों है - इसलिए तो लय-ताल के कच्चेपन के कारण, या स्‍वर के फीकेपन के कारण। उस्ताद तो वहां जो बैठे होते हैं, वही होते हैं सब कुछ। उन्होंने ही रेटिंग देनी है। श्रोता ही समीक्षक होते हैं। सब का मनोविज्ञान समझना होता है। और सचमुच में होता है यह कि पता ही नहीं चलता कि मैं ईश्वर हूं।  ट्रांस की अवस्था में खुद भी चला जाता है और दूसरों को भी ले जाता है। जब वादक देखता है कि सुनने वाले को आनंद आ रहा है तो आदमी और खुभ (डूब) जाता है। लेकिन दूसरा घड़ी देख रहा है, इरिटेट हो रहा है तो ध्यान भंग हो जाता है। 

अनूप: कहते हैं संगीत में शब्द नहीं होते, विचार भी नहीं होते - या फिर उस पर निर्भर नहीं होता संगीत। तो यह समाज को क्या देता है? 

राजेंद्र:  सबसे बड़ी चीज जो देता है वह है मन का रंजन। कोई भी कला यह करती है। इसीलिए इसे फाइन या ललित कहा जाता है कि मन के स्तर पर सुकून मिलता है। संगीत में शब्द हो तो रस परिपाक में योग देते हैं - पर सच्चे सुरों का अलग ही आकर्षण होता है। हर स्वर की एक फ्रिक्वेंसी है ना! स की 240, रे की 270… ट्यूनिंग फोर्क से देख सकते हैं। मापे होते हैं। पूरे सच्चे स्वर तो तानसेन के ही हो सकते हैं जिनसे चमत्कार हो जाता था। आज उतने सच्चे न भी लगे – 239-242 के आसपास रहते होंगे. . . श्रुतियां भी तो बहुत होती हैं। अभ्यास से मांज कर स्‍वर सिद्ध होते हैं। फिर तो स्वर हाथ जोड़ के खड़ा हो जाता है कि दिशा दो मुझे, कहां जाऊं मैं। कोई भी चीज सिद्ध होने पर अनुगत हो जाती है। लेकिन इसके लिए बहुत श्रम और तप चाहिए। 

अनूप:  तो वह केवल मनोरंजन तक ही रहेगा या मनोरंजन के भी अलग-अलग स्तर होते हैं? मनोरंजन तो फिल्मी गानों से भी हो जाएगा। बेसुरे गीतों से भी हो जाए शायद। 

राजेंद्र:  ऐसा है न, इसलिए श्रोताओं की भी कई श्रेणियां हैं। एक वो है जो फोक गाने वाले को सुन रहा है, एक नौसिखियों को. . . पर दृष्टि तो तभी जब आप उस लाइन में जाएंगे। संगीत के प्रकार कितने भी हों, आधार तो सबका स्वर ही है - अलंकरण हैं -  कर्ण, मुरकी,  मीड़, खटका, जमजमा. . . और यह सब गुरु के कंठ से सीखा जा सकता है। तब तो वही ऑडियो विजुअल था ना - आज तो और भी साधन हैं। 

अनूप:  पहले तो गुरु के साथ रहने का बड़ा महत्व था? 

राजेंद्र:  कहते हैं न कि गुरु छ: छ: महीने चिलमें भराते थे। वह अच्छा ही था एक प्रकार से। वे जो साल साल, दो-तीन साल तक नहीं सिखाते थे - मतलब कि शार्गिद उस माहौल से एटयून हो जाता था। और फिर स्वत: ही चीजें अपने अंदर प्रकट होने लगती थीं। तो यह भी एक तरीका था। अब 40 मिनट के पीरियड में क्या पढ़ाई होगी -  ऊपर से सिलेवस और छुट्टियां---- लेकिन अब हमें भी अनुभव हो गया है और टीचर होने में भी फख्र महसूस होता है। एक टीचर एक चीज को कितने तरीकों से समझाता है -  कैसे आसान से आसान करता है - और धीरे धीरे मुश्किल की और बढ़ता है। अलग-अलग आयु वर्ग और समझ के अनुसार खुद को ढालता चलता है। 

अनूप:  आपको क्या लगता है कि आप बांसुरी वादक हैं या संगीत के अध्यापक? 

राजेंद्र:  अध्यापक भी हूं, बांसुरी वादक भी।  जब भी कोई प्रोग्राम आएगा तो सौ प्रतिशत दूंगा। क्योंकि जो सीखा है, वह तो खत्म नहीं होता। इतना जरूर है कि ट्यूनिंग करने के लिए, रियाज करने के लिए कुछ समय जरूर चाहिए। उसके बाद आदमी उसी खुमार में आ जाता है जिआं जाह्लु ब्‍याह हुंदा, तां लाड़े जो गलांदे हुण बणया विष्‍णु रूप। (जैसे जब विवाह होता है दूल्‍हे को कहते हैं, अब बना विष्‍णु रूप) तो वो जो एक रूप है न - वो आर्टिस्ट का रूप होना चाहिए। जब हम रियाज करेंगे तो वो रूप अपने आप ही आ जाता है। तभी क्रिएशन निकलेगी ना! 

अनूप:  यानी बांसुरी वादक स्थान लेगा? 

राजेंद्र: अभी मुझे कई बार लगता है कि मेरी जिम्मेदारियां पूरी हो जाएं और एक दो साल अपने आप को अप टू डेट कर लूं तो जिस भी स्तर का कलाकार बनना चाहूं -  बन सकता हूं।  मतलब निराश नहीं हूं।

(हिमाचल मित्र, वर्षा 2010 अंक में प्रकाशित)