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पहाड़ियां और झाड़ियां
(कांगड़ा के मसरूर में प्रचीन शैल-खनित मंदिर का इलाका)
हम ऐसी जगह पर उतर आए
जहां चोटियों पर चढ़कर
घाटियों में उतर कर
जाना होता था बस्तियों में
जहां सरकार को सड़क बनाना तो आसान था
लोगों को पानी की सीर ढूंढना मुश्किल
किसान बीज बोते थे और आसमान ताकते थे
सारी हरियाली कोमलता और मौज मस्ती
कांगड़ा चित्रकला में छूट गई थी
यहां काल से पहले का एक मंदिर था टूटा हुआ
यूं दिवाले शिवाले हर कोने में थे
दिल दिमाग पर जड़े तालों की तरह
एक कवि चाहता था हल जोतने के बाद
फुर्सत मिले तो ताली खोजे
पर हर बार ठरकियों की सभा में
तालियों में गर्क होता था
पहाड़ी सैरगाह की नाक के नीचे
बाहर बस्तियां
भीतर उजाड़ ज्यादा था ॥