Friday, January 29, 2010

हिमालय में हैंड ग्लाइडिंग, नहीं पहाड़ में हिचकोले खाती जिंदगानी हरदम



4

पहाड़ियां और झाड़ियां

(कांगड़ा के मसरूर में प्रचीन शैल-खनित मंदिर का इलाका)


हम ऐसी जगह पर उतर आए

जहां चोटियों पर चढ़कर

घाटियों में उतर कर

जाना होता था बस्तियों में


जहां सरकार को सड़क बनाना तो आसान था

लोगों को पानी की सीर ढूंढना मुश्किल

किसान बीज बोते थे और आसमान ताकते थे

सारी हरियाली कोमलता और मौज मस्ती

कांगड़ा चित्रकला में छूट गई थी

यहां काल से पहले का एक मंदिर था टूटा हुआ

यूं दिवाले शिवाले हर कोने में थे

दिल दिमाग पर जड़े तालों की तरह


एक कवि चाहता था हल जोतने के बाद

फुर्सत मिले तो ताली खोजे

पर हर बार ठरकियों की सभा में

तालियों में गर्क होता था


पहाड़ी सैरगाह की नाक के नीचे

बाहर बस्तियां

भीतर उजाड़ ज्यादा था

Tuesday, January 26, 2010

हिमालय में हैंड ग्लाइडिंग, नहीं पहाड़ में हिचकोले खाती जिंदगानी हरदम




3

जल जीवन की अनंत काया

(मंडी के पुराने शहर की बावड़ी पर दिल कुर्बान)

एक

खींचकर लाई पहाड़ों की जड़ों से

बहाई सदियों से अजस्र जलधार

हद बाहर रहे आए कुएं बाबड़ियां

नगर हुआ बेहद्द कुछ इस तरह

गलियों मकानों छज्जे चौबारों के बीच

ला बिठाई बावली पुरानी


एक एक सीढ़ी उतरता हूं

एक एक पीढ़ी पीछे मुड़ता हूं

अंजुरी में जल धरता हूं

अंतहीन जीवन हथेली में धरता हूं


घड़े घड़ोलू या बोतल में ढक्कन बंद

लुकी हई रहती है बावड़ी प्यारी

जैसे पोतों पड़पोतों के बीच दादी सजल मुस्काती है


आहाते में लोकनियों की सदियों से चलती पंची चहक रही है

छप-छपाक-छप धोने की है गमक गंभीर

सीलन सिहरन फिसलन में संतुलन अद्भुत

अनुभव विचार और दर्शन सारे पछीट कर सुखाए पहनाए

कुनबों के कुनबों को तमीज और तहजीब सिखलाई


एक एक सीढ़ी ऊपर चढ़ता हूं

समय में एक एक पीढ़ी आगे बढ़ता हूं


घूंट घूंट जल पीता हूं

अनंत समय को यूं नम होकर जीता हूं


दो

न जाने किस नीड़ से

प्यासे पखेरू सा

हजारों मील दूर से

उड़ता आता हूं

बावड़ी है

जल है

जल का स्पर्श है

स्पर्श की स्मृति है

जितना उड़ा अब तक

उड़ने का

उतना ही संकल्प

और भरता हूं

Friday, January 22, 2010

कुल्‍लू और मनाली के बीच नग्‍गर में निकोलिस रोरिक के खुले संग्रहालय में रखे लोकशिल्‍प



2
रोहतांग से दुनिया में वापसी


हवा कुछ बची है चोटियों पर
सांस भरो, हल्का कर देती है

पैदल चल कर आए थे
पंख लगा कर टहलाती है
बची हुई फीकी गदगद हरियाली
खुश्बू पत्तों की
अनछुई चांदी शिखरों की

लहराती महकाती उतराती
ले चलती जैसे पंछी उड़ता है

सोलंग नाले को निरखा
भीड़ भरे वशिष्ठ कुँड को परखा
नग्गर की तरफ उड़ चले
निकोलिस रोरिक के घर जा बैठे
कुछ देवी देवता आए
चंद्रखणी की तरफ जमलू को सीस नवाया
गर्म धुंध का झोंका मणिकर्ण से आया
भरी उडारी ब्यास के जल को अंजुरी में धारा
पतली कूल में सेबों का बाग निहारा

कुल्लू में पंखधरों के टिकने का ठौर नहीं मिलता
समशी, भूंतर, औट, बजौरा सब बेगाने से
पर्वत पाखी को मुक्त आकाश नहीं मिलता

भारी होते डैनों को पंडोह झील में अर्पित करके
वापस दुनिया में आना पड़ता है
मानुस जैसे पैरों पे चलके ॥

इसमें भी कुछ नाम और जगहें अपरिचित लग सकती हैं. उनके बारे में टिप्‍पणी श्रृंखला के अंत में दूंगा, इंतजार कीजिए.

Thursday, January 21, 2010

हिमालय में हैंड ग्लाइडिंग, नहीं पहाड़ में हिचकोले खाती जिंदगानी हरदम



यह छः कविताओं की श्रृंखला है. मनाली से केलंग जाने के रास्‍ते में रोहतांग दर्रे से शुरु होकर धर्मशाला तक पहुंचाती हुई एक जमीनी उड़ान. बारी बारी से छहों कविताओं को पढ़ने का लुत्‍फ उठाइए. इस बार पहली कविता -

1

ओ मेरे रोहतांग! ओ मेर राल्हा!



चलते चले आए नदी के किनारे किनारे

कहां नदी बिछ आई दीवारों के भीतर

कहां दिवारें खड़ी हो गईं नदी के ऊपर

पता ही न चलता कहां पर नदी कहां गई धरती


ब्यास के किनारे बस्तियां ही बस्तियां हैं

उन्हीं के बीच में चलते चले आए

यह मान कर कि चलते चले आए नदी के किनारे

यह जान कर कि बढ़ते चले आए बजार के हरकारे

नदी सिकुड़ गई देवदार ठिगने हुए

हमी हम चढ़ते चले आए हर इक दुआरे


रोहतांग के सीने को बींध डाला

गाड़ियों की पांत ने

बर्फ का दम घुटता है इस शहरी खुराफात में


राल्हा दिखता नहीं, मेरे बचपन का पड़ाव

कहते हैं दूर छिटक गया है सड़क के घेर से ॥


Sunday, January 10, 2010

Akbar Padamsee


Couple
Oil on canvas, 2005. Courtesy




The conscious mind is like a monkey bitten by a scorpion. It is never still. As a result most of our unconscious feelings escape us. An artist needs to be in silence. To still his mind, reach into his intuitive processes and transcend the limitations of ego. That universalizes his work.
Akabar padmsee
The Crest, 09.01.10

Friday, January 1, 2010

स्‍वागत 2010


पहली किरण

पहली अंगड़ाई

अभी आलस गया नहीं

पहला सजदा

चलो अब उड़ें