बचपन की कुछ घटनाएं, कुछ चित्र, कुछ आवाजें, कुछ गंधें मेरे दिमाग
में अटकी हुई हैं। वे मेरे लिए हाड़-मांस और सांस की तरह सच हैं। असल में कितनी सच
हैं, पता नहीं। क्योंकि जैसे एक बार सुनी हुई बात को बाद में याद के सहारे दोहराया
जाए तो उसमें कुछ हिस्सा कल्पना से जुड़ जाता है। जितनी बार हम याद करेंगे, उतनी ही
बार वह बात या प्रसंग बदलता रहेगा या बढ़ता रहेगा। फिर भी हमें मजा आता है। यह
हमारा सच होता है। ऐसे ही कुछ दृश्य मेरी याद में टंके हुए हैं।
बस छूट जाएगी
यह 1965-66 की बात है। मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था। हमारे पिता
कांगड़ा सेंट्रल कोआपरेटिव बैंक में थे। उनकी बदली केलंग हो गई। वे चले गए। हम
हमीरपुर के अपने पुश्तैनी गांव दरवैली में ही रहे। फिर तय हुआ कि हम भी केलंग
जाएंगे। मैं, मेरे बडे़ भाई और बीजी (माँ) बड़े मामा जी राल्हा तक छोड़ने आए।
कांगड़ा में शायद बस बदली जानी थी। मैं और मां बस में बैठ गए। मामा और भाई शायद बस
पर सामान चढ़ा रहे थे। बस स्टार्ट हो चुकी थी। बीच-बीच में हॉर्न बजाती थी। जैसे ही
घर्र-घर्र की आवाज तेज होती और हॉर्न बजता, मेरी चीख निकल जाती। मुझे लगता बस चल
पडे़गी। और न भाई आए न मामा। वे छूट जाएंगे। मैं रो-रोकर बेहाल हो रहा था। डर तो
रहा ही था।
डर और चढ़ाई
राल्हा में पता नहीं रात को रुके या नहीं, पर वहां घोडे़ बहुत थे।
उनकी लीद की गंध भी बहुत थी। मढ़ी में रात काटी थी। हम लोग पैदल ही चल रहे थे। तब
हमारे साथ पिता भी थे। मेरे ख्याल से पिता शुरु से ही साथ थे, पर मेरे स्मृति पटल
पर वे राल्हा के बाद ही प्रवेश पाते हैं।
मेरे बडे़ भाई मुझसे सात वर्ष बडे़ हैं। मढी़ के बाद भी वे सबसे
आगे-आगे चल रहे थे। बल्कि दूर निकल जाते थे। मैं और बीजी पीछे रह जाते थे। हम लोगों
को लग रहा था जैसे हम माउंट एवरेस्ट चढ़ रहे हों। फिर हम लोग चलते-चलते थकने लगे।
पर चले बिना गुजारा न था। तभी कोई जीप उस रास्ते से गुजरी। वह भी केलंग जा रही थी।
उसमें मुझे और बीजी को लिफ्ट मिल गई। हम दोनों उसमें खोकसर तक गए। बीच में हम लोग
ब्यास कुंड में रुके थे। यह याद नहीं है कि जीप उससे पहले मिली थी या बाद में। यह
याद है कि दाईं तरफ खाई थी और बीच-बीच में उस तरफ से धुंध भी उठती थी। जब भाई अकेले
आगे निकल जाते थे तो हमें डर लगता था कि अचानक बर्फवारी शुरु न हो जाए। तेज़ हवाएं न
चलने लगें। ऐसा तो होता ही रहता था। तब कहते हैं आदमी गायब हो जाता था। मुझे क्या
पता। यह बात जरुर बीजी ने मुझे बताई होगी। चढा़ई, ठंड और डर। इस रोमांच के बीच एक
अजनबी जीप। इस जीप ने हमें खोकसर उतारा। जब पिता और भाई भी आ गए तो हम लोग वहां से
बस में बैठ कर केलंग गए। उन दिनों ग्यारह सीटर बसें हुआ करती थीं।
बर्फ और रेडियो
केलंग में हम लोग एक साल रहे। भाई नौंवी जमात में थे मैं तीसरी
में। बीजी ने हम दोनों को काले पट्टू का कमीज और सफेद पट्टू का पजामा सिल दिया था।
एक बार स्कूल की एक बहिन जी (टीचर) ने मुझे डांट दिया। मैंने घर शिकायत लगा दी।
पिताजी उनसे लड़ने स्कूल पहुंच गए। हम लोग जिस मकान में रहते थे उसी के एक हिस्से
में बैंक था। घर से बाहर निकलते तो दो चार कदम चलकर छत पर चढ़ जाते थे। यह कच्चा
मकान था। बर्फ साफ करनी पड़ती थी। पर उससे पहले बर्फ हटाकर रास्ता साफ करना पड़ता
था। मैं तो बर्फ से खेलता था और ठिठुरता रहता था। यह वही साल था जब लाल बहादुर
शास्त्री ताशकंद गए थे और वहां उनकी मृत्यु हो गई थी। हमारे पास रेडियो नहीं था।
(वैसे रेडियो तो हमारे घर तब आया जब मैं बी.ए. कर रहा था।) नीचे की मंजिल वालों के
पास रेडियो था। फर्श लकडी़ का था। पिताजी फर्श पर कान लगा देते और खबरें सुनते।
तंदूर और कविता
भाई को किसी फंक्शन में भंगडा़ करने का मौका मिला। उन्होंने वहां
कविता भी सुनाई। मुझे भी कविता का जोश आया। कहते हैं। तंदूर के आगे बैठ कर मैं भी
बोलने लगा। एक तंदूर है। आग जल रही है। बीजी रोटी बना रही हैं। वगैरह-वगैरह। और कि
मैंने कहा यह मेरी कविता है। यह याद ऐसी है कि लगता तो है कि मेरी ही है। मुझे यह
याद बडी़ प्रिय भी है। क्योंकि मैं सोचने लगता हूं कि मेरे अंदर कविता तभी बनने लगी
थी। पर ध्यान से सोचता हूं तो लगता है यह दूसरों की स्मृति है। जिसे सुन-सुन कर
मैंने अपना बना लिया है। पर जो भी हो है तो मजेदार। जब कविता लिखना शुरु ही किया था
यानी आज से तीस साल पहले तो सोचता था भाई ने तो तुक वाली कविता सुनाई थी। और मैंने
तंदूर के सामने आधुनिक कविता बनाई थी। (हालांकि था वो ब्योरा ही।) यह सोच कर मुझे
खुद पर ही गर्व होता था।
शब्द और बांह का स्पर्श
लेखन के प्रति प्रेम का एहसास मुझे बाद में हुआ था। यह कुल्लू के
स्कूल की बात है। हम लोग कुछ साल कुल्लू भी रहे हैं। मैं तब आठवीं में था। दसवीं का
सर्टीफिकेट कुल्लू स्कूल का है। ढालपुर के हाईर सकेंडरी स्कूल में एक दिन सुबह की
सभा में एक टीचर ने स्कूल की पत्रिका दिखाई। उसमें लेख आदि थे। पूरा प्रसंग याद
नहीं है। इतना याद है कि मेरे दिल में कुछ हुआ था। मुझे भी लिखना था। तब कुछ लिखा
नहीं। लेकिन यह एहसास मेरे अंदर बना हुआ है। उस एहसास की छवि कभी नहीं धुलती। उन
दिनों लिखने का सवाल भी नहीं उठ सकता था। मैं पढ़ने में फिसड्डी था। मटरगश्ती
ज्यादा करता था। लड़कियों के पीछे घूमते थे हम लोग। पर इसी बीच एक कोमल याद एक
लड़की की बांह को छूने की है। वह हमारी पडो़सिन ही थी। आसपास मंडराते तो रहते ही
थे। यह घटना भी सुबह की एसेंबली की ही है। सभा खत्म होने पर कैसी भगदड़ मचती है, सब
जानते हैं। उसी बीच कहीं मेरा हाथ उसकी बांह से छू गया। मैं तो जैसे निहाल हो गया।
खुशी का ठिकाना नहीं रहा। यह बात मैंने आज तक किसी को बताई नहीं थी।
तो ये थे बचपन की यादों के कुछ दृश्य। जिनकी फिल्म मेरे भीतर
अक्सर चल पड़ती है। और बडा़ मनोरंजन होता है।
यह संस्मरण कुछ बरस पहले निरंजन देव के कहने पर कुल्लू से
प्रकाशित पत्रिका हिमतरू के लिए लिखे थे।