Sunday, October 25, 2009

वर्तमान के सिरे

कुल्लू (हिमाचल प्रदेश) से पत्रिका शुरू‍ हुई है, असिक्नी।
सपांदकों
को मैंने प्रतिक्रिया लिखी।
इधर कथादेश में बद्रीनारायण का साहित् का वर्तमान लेख छपा।
बात को आगे बढ़ाने के लिए मैंने यह पत्र कथादेश को भेजा जो अक्तूबर अंक में छपा है।
मित्रों का आग्रह है कि उस पत्र को मैं यहां भी रखूं।
कथादेश में छपी पूर्वपीठिका सहित यह पत्र आपके लिए पेश है.




जुलाई के कथादेश में बद्री नारायण का लेख साहित्यिक दुनिया का वर्तमान छपा है। यह साहित्य में सत्ता के संस्तरों की छानबीन करता है, भारत जैसे बहुस्तरीय और बहुपरतीय देश में साहित्य की अंतर्धाराओं की नब्ज पकड़ता है। इस लेख से एक विमर्श की शुरुआत होती लगती है। मैंने पिछले वर्ष एक नई पत्रिका के प्रवेशांक पर संपादकों को अपनी प्रतिक्रिया लिखी थी। यह पत्रिका कुल्लू से शुरू हुई है। यह हिमाचल प्रदेश के रोहतांग दर्रे के पार लाहुल स्पिति जिले के केलंग शहर की एक संस्था की पत्रिका है। यूं तो लाहुल स्पिति जिले का मुख्यालय केलंग है पर लोगों का व्यावहारिक मुख्यालय कुल्लू ही है। कुल्लू मनाली भाई भगिनी नगर हैं, पर्यटकों के पसंदीदा ठिकाने। यह पत्रिका इसी कुल्लू से प्रकाशित हुई है। अत्यंत दुर्गम क्षेत्र की यह पहल हिंदी साहित्य के लिए एक घटना होनी चाहिए थी। लेकिन मुख्य-धारा की साहित्यिक गहमा-गहमी अपने में ही इतनी रमी हुई है कि उसे अपने से बाहर कुछ भी नहीं दिखता। तथाकथित परिधि के बाहर की गतिविधियां जाने-अनजाने अन-नोटिस्ड रह जाती हैं। मैंने अपने पत्र में इसी तरह की आशंका-आकांक्षा- आवश्यकता से जुड़े मुद्दों को उठाया था। बद्री नारायण के लेख के बाद लगा, मैं भी प्रकारांतर से इसी तरह की बात सामने रख रहा था। यह पत्र यहां प्रस्तुत है। उम्मीद है इससे बात आगे बढ़ेगी।

मार्च 2008

प्रिय निरंजन और अजेय,

यह पत्र असिक्नी के हवाले से लिख रहा हूं इसलिए दोनों को संबोधित कर रहा हूं।


मेरे बचपन का कुछ समय केलंग और कुल्लू में बीता है इसलिए उन जगहों की ललक हमेशा बनी रहती है। वहां की हर चीज़ का माने भी मेरे लिए अलग है। यह एक अलग रोमानी दुनिया है। असिक्नी उसी दुनिया में से निकल कर मेरे सामने नमूदार होती है। इसलिए इसका स्पर्श ही अलग है। जब मैंने जाना कि पत्रिका का नाम चंद्रभागा नदी का वैदिककालीन नाम है तो यह रिश्ता एक आद्यबिंब में बदल गया जो सहस्रों वर्ष बाद जीवित हो उठा है। या सहस्र वर्ष बाद भी चला आता है और मेरा समकालीन होकर मरे पास आता है। काल को अखंड करता हुआ।

1

हमारे एक मित्र जब भी इधर की कविता सुनते, कहते कि हां मेनस्ट्रीम कविता जैसी है। उनकी इच्छा कुछ अलग तरह की कविता सुनने की रहती थी। इस प्रसंग का असिक्नी से इतना ही संबंध है कि कुछ वर्ष पहले तक हिमाचल एक अलग-थलग पड़ा क्षेत्र ही था। कला और साहित्य में या तो दबा-ढंका लोक था या सरकारी पन्नी में लिपटा खेल-तमाशा था या स्थानीयता के बोझ तले दबा लेखक था जो बार-बार दिल्ली तक दौड़ लगाता था। और दिल्ली तो हमेशा से दूर रही है।


पहले साहित्य के गढ़ हुआ करते थे। जैसे इलाहाबाद बहुत बरस रहा। गढ़ बड़े साहित्यकार के कारण भी हुआ करते थे। (ये दरबार नहीं होते थे) प्रसाद हों, निराला हों, दिनकर हों, आचार्य द्विवेदी हों या रेणु हों। फिर गढ़ लगभग ढह गए। सिर्फ दिल्ली बच गई। साहित्य दिल्ली-केंद्रित हो गया। साहित्यकारों ने दिल्ली को दौड़ लगा दीý


इससे एक तरह का टाइपीफिकेशन हुआ। श्रेष्ठताग्रंथी पनपी। जो दिल्ली से दूर थे, उन्हें शहर बाहर ही रखा गया। जो बाहर रह गए उनमें हीनता की गांठ बनी। प्रकाशन और पुरस्कार श्रेष्ठता की जीन काठी हैं। यह साजो-सामान दिल्ली में बनता है। हर कोई दिल्ली में छपना चाहता है। हर कोई दिल्ली में और दिल्ली से पुरस्कृत होना चाहता है। हर कोई दिल्ली से मान्यता चाहता है


जो दिल्ली सरीखा नहीं हो सकता वह पिछड़ जाता है और क्षेत्रीयता या स्थानीयता के खाते में जा गिरता है


यह मेनस्ट्रीम साहित्य का बैकड्रॉप हैý


वास्तव में देखा जाए तो यह ड्रॉबैक है


साहित्य तो इसके बाहर भी है। पर वह परिधि पर रह जाता है। दिल्ली खुद को केंद्र में रखकर परिधियां बनाती है। पिछले साल नया ज्ञानोदय में भगवत रावत की दिल्ली पर छपी लंबी कविता पर परमानंद श्रीवास्तव ने परिधियों की चर्चा की भी है। भूमंडलीकरण और बाजारवाद और परापूंजी के जिस दौर में हम रह रहे हैं, कहते हैं उसकी एक विशेषता है या कहना चाहिए स्वभाव है कि उसमें केंद्र टूटते हैं। सबसे ज्यादा तो बाजार ही केंद्रों को तोड़ेगा। नए केंद्र बनाएगा। मतलब नई परिधियां होंगी। आम आदमी की बहुत मिट्टी पलीद होगी, पर पूंजी का खेल उसे पेर-पेर कर लुगदी में बदल कर नए सिरे से प्लाइवुड की तरह सीधा समतल कर देगा। स्थानीयताओं के लिए यही खतरा है। जो बरमूढ़ा बरमिंघम में पहना जाता है, वही मेरे पुश्तैनी गांव दरवैली में चलेगाý


असिक्नी एक तरफ दिल्ली का दामन पकड़ती है। यह पकड़ पत्रिका को समकालीन बनाती है। दूसरी तरफ असिक्नी लाहुल और कुल्लू और हिमाचल के जन-जीवन को समकालीनता के बरक्स रखती है। आज के परिदृश्य में ये दोनों ही पंख पत्रिका को संतुलित बनाते हैं। या तो दिल्ली को साथ ले के चलिए या दिल्ली के पीछे चलिए, दिल्ली को नज़रअंदाज़ करके नहीं चल सकते। इसे पत्रिका की कमज़ोरी न समझा जाए। यह यथास्थिति है। पत्रिका नए केंद्र बनने की स्थापना को भी पुष्ट करती है। जिस स्तर की सामग्री हमें लखनऊ से या पटना से या भोपाल से छपने वाली पत्रिका में मिलती है, उसी स्तर की सामग्री असिक्नी में मिलती है। यही वजह है कि साहित्यिक नक्शे में हिमाचल और कुल्लू और लाहुल दिल्ली से कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हो जाता है। इससे स्थानीयता का हीनताबोध काफी हद तक छनता है।

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पत्रिका के लिए कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होने के लिए एक और दृष्टिकोण मुझे ज़रूरी लगता है। समकालीन विमर्श करना आवश्यक है। उसका विहंगम होना, सांगोपांग होना और भी आवश्यक है। हमारे समय को प्रौद्योगिकी ने काफी हद तक 'सीमलेस' (बे-जोड़) कर दिया है। अजेय से रोहतांग पार फोन पर बात हो जाती है। मेल उन तक पहुंच जाती है। यह कम चमत्कारी बात नहीं है‎‎। इन्फ्रास्ट्रक्चर पहले से बेहतर हुआ है। कल्पना कीजिए बीस साल पहले दिल्ली पहुंचने में कितनी देर लगती थी। और अब? विदेशों से आवाजाही में भी आसानी हुई है। समाचार कितनी तेज़ी से हम तक पहुंच जाते हैं। मतलब मनुष्य और विचार के आवागमन की गति बढ़ी है। यह अलग बात है कि मनुष्य के संकट भी उसी अनुपात में बढ़े हैं। या कहें बदले हैं। विचार में नयापन है या नहीं; विचार विचारोत्तेजक है या नहीं; विचार और मनुष्य का आचार मनुष्य-हितैषी है या नहीं; यह विचारणीय प्रश्न है। पूंजीवाद और नवसाम्राज्यवाद और परापूंजी का दबदबा है। हर चीज़ में जल्दबाज़ी है, बदहवासी है, हड़प जाने की लोलुपता है। विकास की कीमत इस रूप में चुकानी पड़ रही है। पर यह शायद पैकेज डील है। और हमारे पास इस डील को नकारने का विकल्प नहीं हैý


यह सब मुंबई में हो रहा है। दिल्ली में, न्यूयॉर्क में, बीज़िंग में, शिमला में, कुल्लू में, दार्जलिंग में, मतलब हर कहीं कमोबेश एक ही तरह से हो रहा है। दबाव तकरीबन एक ही जैसे हैं। नॉम चॉम्स्की अमरीकी विदेश नीति की आलोचना करते हैं, तो उनके विचार छनकर बरास्ता 'पहल' हमें भी मिल जाते हैं। अरुंधती रॉय एक्टिविज्म का रास्ता अख्तियार करती हैं। यह बात वह अमरीका में कहती हैं। बांग्लादेश का ग्रामीण बैंक सबका ध्यान खींचता है‎‎। हेराल्ड पिंटर नोबल पुरस्कार लेते समय नोबल समिति के कान खींचता है। अमर्त्य सेन फ्रांसिसी सरकार का आर्थिक सलाहकार बनता है। विचार के हल्के में हो रही हरकत भी हम तक पहुंच रही है। यह क्रिकेट और बॉलीवुड और डब होकर आ रहे हॉलीवुड की तुलना में ज़रूर कम है। पर मैं बात यह कहना चाह रहा हूं कि सारी दुनिया की इस तेज़ हरकत के बीच हम भी हैं। हम परिधि से बाहर नहीं हैं। इस परिवर्तन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। यही शायद ग्लोबलाइजेशन का मूर्त रूप है। वैश्विक गांव


लेकिन इस वैश्विक गांव में संस्तर खत्म हो गए हैं या समानता आ गई है‎‎? जाहिर है ऐसा नहीं है। बल्कि गलाकाट प्रतियोगिता है और अपनी सीढ़ी से ऊपर फलांगने की होड़ है। सब जानते हैं कि ऊपर की सीढ़ियों पर जगह कम होती जाती है शिखर पर तो एक ही जगह होती है। समृद्धि के घेरे में कम आ रहे हैं, बाहर ज्यादा लोग छिटक रहे हैं। गरीब देशों के साथ ऐसा ज्यादा हो रहा हैý


इस बाहरी परिदृश्य के साथ साथ मनुष्य की भीतरी उथल-पुथल भी बहुत है। बहुत खदबदाहट है। व्यक्तिगत जीवन शैली और सामूहिक लोकाचार के ढांचे तेज़ी से बदल रहे हैं। संभाले नहीं संभलते। घटना जितनी है, दुर्घटना उससे ज्यादा है। सुकून की तलाश एक व्यवसाय है। चाहे वह मैडिकल साइंस हो या योग विज्ञान होý


ऐसे घमासान में विरोध, प्रतिरोध, परिवर्तन, परिवर्धन के विचार को पकड़ना दुष्कर है। साहित्य तो अकुलाहट भर बनकर रह जाता है। वाम विचार पर चौतरफा दबाव है। परिवर्तन के पहरुए एनजीओ का रूप धर कर आ रहे हैं जो त्याग और नि:स्वार्थता की पुरानी अवधारणा को त्याग चुके हैं। यह फंडेड मामला है। सुविधा सहित सेवा का शगल है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हिंदी की साहित्यिक गतिविधि इस धन-प्रवाह से मुक्त है। पर उसके अपने अंतर्विरोध हैंý

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इतना तूमार बांधने का मेरा मकसद क्या है? जाहिर है असिक्नी मेरे ध्यान के केंद्र में है। ऊपर का खंड 1 एक सच्चाई है जिसमें असिक्नी को अपना अस्तित्व बनाना है। इन दोनों में संतुलन साधा जाएगा तो पत्रिका समकालीन होगी। यह ध्यान भी रखना पड़ेगा कि खंड 1 की तरफ झुकाव हुआ तो साहित्यिक खेमेबाज़ी का खतरा रहेगा। कोई दिल्ली, कोई लखनऊ, कोई शिमला, कोई मंडी का दायरा बनने लगेगा। खंड 2 पर अंधाधुंध पिल पड़े तो सब कुछ हाई फंडा होकर बाकी सब को रोंदने लग पड़ेगा। इसलिए संतुलनý

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पर इसका एक कोण और है। यह पत्रिका घोषित रूप से लाहुल स्पिति की एक संस्था द्वारा चलाई जा रही है। यह अपने आप में बड़ा कदम है। यह लाहुल स्पिति की समकालीनता में बड़ी छलांग है। इसके नाते स्थानीयता मुख्यधारा से कदम मिलाएगी। अपनी पहचान को बचाए रखकर।

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यह सब है किसके लिए? हिंदी की पत्रिकाओं में ब्रेनस्टॉर्मिंग (विचार मंथन) खूब होता है (?)। उसका छल भी खूब होता है। प्रगतिशीलों का तो यह शगल भी रहा है। पर मेरी इच्छा, मेरा आग्रह पत्रिका को ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक ले जाने का है। अभियान की तरह। यह एक चुनौती है। जितनी मेहनत फंड और सामग्री इकट्ठा करने में की जाती है, उतनी ही पाठक बनाने पर की जानी चाहिए। रोड शो, गोष्ठी, सभा, सम्मेलन, सेमिनार, घर-घर जाकर - जैसे भी हो। दस को समझाएंगे तो एक ग्राहक बनेगा। दस ग्राहक बनेंगे तो एक ग्राहक पढ़ेगा। दस ग्राहक पढ़ेंगे तो एक ग्राहक गुणवंत बनेगा। जैसे पानी ज़मीन में समाता है। सोता किसी दूसरी जगह फूटता हैý


मैंने रचनाओं पर अलग से बात नहीं की है। पत्रिका कैसे पोजीशन्ड होती है, मैं इसी में उलझ गयाý

ईषिता की कहानी सौकणें बहुत अच्छी लगीý


आपका,


अनूप सेठी


Thursday, October 22, 2009

तदेउष रोज़ेविच की कविताएं

संक्षिप्‍त परिचय

1921 में जन्मे पोलिश कवि, नाटककार और उपन्यासकार तदेउष रोज़ेविच बहुमुखी प्रतिभा के विश्व के सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्यकारों में से एक हैं। रोज़ेविच कविता और नाटक के क्षेत्र में आवांगार्द के भी अग्रदूत माने जाते हैं। वे एक ऐसे नवपर्वतक हैं जिनकी जड़ें रोमैंटिक परंपरा में मजबूती से जमी हैं। वे एक ऐसा स्वतंत्रचेता कलाकार हैं जो आम राय के दवाब में नहीं आता और जो राजनीति से भी परे रहता रहा है। वे नितांत एकाकी हैं, कला के प्रति उनका दृढ़ विश्वास ऐसा है कि यह जैसे आंतरिक ध्यानावस्था है, भीतरी सतता है और नैतिक संवेदनशीलता है।

रोज़ेविच दूसरे महायुद्ध में पोलैंड की सेना में एक सैनिक थे। उनका भाई भी सैनिक था। वह 1944 में नाज़ी यंत्रणा शिविरों में गोस्टापो द्वारा मारा गया। रोज़ेविच बच गए। बहुत से लोग यह सवाल पूछते हैं कि इन यंत्रणाओं (ऑश्विच) के बाद क्या कविता संभव है? रोज़ेविच ने इसका अपनी तरह से उत्तर दिया है। उनके मुताबिक कविता नई तरह का प्रतिबंधित किस्म का पद्य है। साहित्यिक पोलिश में इसे गद्यात्मकता का चौथा तरीका कहा जाता है। यह इनकी एंक्ज़ाइटी (1947) और अ रेड ग्लोब (1948) में मिलता है। हमारा बड़ा भाई नाम के कहानी संग्रह से, जो 1950 के बाद कई जिल्दों में छपे, पता चलता है कि उन्होंने दूसरे महायुद्ध के नतीजों को कभी स्वीकार नहीं किया। ये संग्रह उसी बड़े भाई को समर्पित हैं जो यातना शिविर में मारा गया था। रोज़ेविच ने मानवीय क्रूरता के समकालीन उदाहरणों को उजागर किया है। रोज़ेविच कविता में नए नए रूपों की तलाश करते रहे हैं। इन दिनों वे काव्यात्मक आत्मकथा लेखन में लगे हैं इसमें विमर्श की संभावना रहेगी और अस्तित्व पर भाष्य करते समय कला और जीवन की हदें आपस में विलीन हो जाएंगी। यह सब होगा, हालांकि कवि का यकीनी तौर पर मानना है कि इस तरह का भाष्य नामुमकिन है और कविता अभिव्यक्ति से परे का इलाका है। रोज़ेविच एक बेचैन कर देने वाले कवि हैं जो परिभाषाओं से बचते हैं और काव्यात्मक फंदों को खारिज करते हैं। उन्हें रहस्यवादी लेखक जैसा कुछ कहा जा सकता है। वे आवांगार्द के क्लासिक हैं, उत्तर-आधुनिकता के अगुआ हैं और भीतरी अनुभव के अन्वेषक हैं। वे एक ऐसे कवि हैं जिनके लंबे जीवन ने रहस्य के द्वार खोल दिए हैं।

यह परिचय इंटरनेट पर अंग्रेजी में उपलब्‍ध लेख के आधार पर लिखा है. कवि के चित्र भी इंटरनेट से साभार लिए हैं. इस चित्र में रोजेविच गुंटर ग्रास के साथ हैं. कविताओं का भी अंग्रेजी से अनुवाद किया है. और ये कविताएं कुछ वर्ष पहले विपाशा में छपी थीं.

Tuesday, October 20, 2009

तदेउष रोज़ेविच की कविताएं

यहां पर विश्‍वप्रसिद्ध कवि तदेउष रोजेविच का परिचय दूं , उससे पहले उनकी यह कविता पढ़ ली जाए. इससे बात जरा पूरी सी हो जाएगी. कवि यहां बुरे कवि का मजाक उड़ा रहा है, कि मृत्‍यु किसी बुरे कवि को महान कवि नहीं बना देगी. इस श्रृंखला की पांचवी कविता में भी कवि इस युक्ति का प्रयोग करता है जहां वो कहता है संसार के खात्मे के बाद / अपनी मौत के बाद / मैंने पाया खुद को जिंदगी की मझधार में / मैंने रचा खुद को / घड़ी जिंदगानी... इस तरह से दुनिया और जिंदगी को दूर से देखा जा रहा है. निरपेक्ष भाव से. हमारे यहां भी अनासक्ति और निर्लिप्‍तता की बात की जाती है. पर क्‍या अनासक्‍त होकर कविता लिखी जा सकती है? हां, क्‍यों नहीं. पहले के कवि कहते ही थे, बात को पकने दो. अनूभूति को अनुभव में बदलने दो. अनुभव हम से अलग एक पिंड ही तो होता है. खैर! आइए, ये कविता पढ़ते हैं - छोटी सी है.

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प्रूफ

मृत्यु सुधारेगी नहीं

कविता की एक भी पंक्ति

वह कोई प्रूफ रीडर नहीं है

वह कोई सहानुभूतिशील

महिला संपादक नहीं है

एक बुरा रूपक अविनाशी होता है

घटिया कवि जो मर गया है

है एक घटिया मृत कवि

एक बोर मरने के बाद भी बोर करता है

बेवाकूफ कब्र के पार से भी

लगाए रखता है अपनी बकबक।

Friday, October 16, 2009

तदेउष रोज़ेविच की कविताएं

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क्‍या किस्‍मत

क्या किस्मत है, चुनूं

रसभरियां जंगल में

मैंने सोचा

न है जंगल न रसभरियां

क्या किस्मत है, जा सोऊं

पेड़ की छांह तले

मैंने सोचा

पेड़ देते नहीं अब छाया

क्या किस्मत है, मैं हूं संग तुम्हारे

दिल धड़के मेरा

मैंने सोचा

आदमी के है नहीं दिल।

Thursday, October 15, 2009

तदेउष रोज़ेविच की कविताएं

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रूपांतरण

मेरा छोटा बेटा आता है

कमरे में और कहता है

'तुम गिद्ध हो तो मैं चूहा '

मैं अपनी किताब फेंकता हूं परे

डैने और पंजे उग आते हैं मुझमें

उनकी अपशगुनी छाया

दीवारों पर दौड़ती है

मैं हूं गिद्ध वह है चूहा

'तुम हो भेड़िया मैं हूं बकरा '

मैंने मेज का चक्कर लगाया

और मै हो गया भेड़िया

खिड़की के पल्ले चमकते हैं

जैसे विषदंत

अंधेरे में

वह दौड़ता है मां की तरफ

निरापद

उसका सिर छुपा हुआ उसकी पोशाक की गर्माहट में

Wednesday, October 14, 2009

तदेउष रोज़ेविच की कविताएं

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जिंदगी की मझधार में

संसार के खात्मे के बाद

अपनी मौत के बाद

मैंने पाया खुद को जिंदगी की मझधार में

मैंने रचा खुद को

घड़ी जिंदगानी

लोग मवेशी और धरती के नजारे

यह मेज है मैं कह रहा था

यह एक मेज है

मेज पर रखी है ब्रेड और छुरी

छुरी से ब्रेड काटी जाती है

लोग पोसते हैं खुद को ब्रेड से

आदमी से मुहब्बत करनी चाहिए

मैं रात दिन सीख रहा था

किससे मुहब्बत करनी चाहिए

मैंने जवाब दिया आदमी से

यह एक खिड़की है मैं कह रहा था

यह एक खिड़की है

खिड़की के पार एक बागीचा है

बागीचे में मुझे दिख रहा है एक सेब का पेड़

सेब का पेड़ फूलता है

फूल झर जाते हैं

फल आने लगते हैं

वे पकते हैं

मेरे पिता एक सेब तोड़ रहे हैं

वह आदमी जो तोड़ रहा है सेब

मेरा पिता है

मैं घर की देहलीज पर बैठा था

वह बूढ़ी औरत जो

बकरे को रस्सी से खींच रही है

ज्यादा जरूरी है

और ज्यादा कीमती

संसार के सातों आश्चर्यों से

जो कोई सोचता और महसूस करता है

कि वह नहीं है जरूरी

उस पर एक कौम के कत्ल का पाप है

यह आदमी है

यह पेड़ यह ब्रेड

लोग पोसते हैं खुद को

जिंदा रहने के लिए

मैं अपने आप में दोहरा रहा था

मानव जीवन जरूरी है

मानव जीवन का बड़ा महत्व है

जीवन का मूल्य

आदमी की बनाई चीजों से ज्यादा है

आदमी है एक महान खजाना

मैं दोहरा रहा था

एक जिद्द की तरह

यह पानी, मैं कह रहा था

मैं हाथ से लहरों को थपक रहा था

और नदी से बतिया रहा था

पानी, मैंने कहा

बढ़िया पानी

यह मैं हूं

आदमी ने जल से बात की

चांद से बात की

फूलों से बारिश से

उसने पृथ्वी से बात की

पंछियों से

आसमान से

आकाश मौन था

अगर उसने सुनी आवाज

जो प्रवाहित हुई

नदी से पानी से आकाश से

यह आवाज थी दूसरे आदमी की

Monday, October 12, 2009

तदेउष रोज़ेविच की कविताएं

4
एक मुलाकात

मैं उसे पहचान नहीं पाया

जब मैं यहां आया

हो सकता है यह भी हुआ हो

इन फूलों को सजाने में इतनी देर लगी

इस बेडौल गुलदान में

'मुझे इस तरह न देखो '

उसने कहा

मैंने छेड़ा कटे बालों को

अपने खुरदुरे हाथ से

'उन्होंने काट दिए मेरे बाल '

उसने कहा

'देखो उन्होंने मेरे साथ क्या कर डाला '

अब फिर से वह आसमानी रंग का झरना

फड़कने लगा है उसकी गर्दन की पारदर्शी

त्वचा के नीचे हमेशा की तरह

जब वह आंसू पी जाती है

वो इस तरह एकटक देख क्यों रही है

मुझे लगता है चले जाना चाहिए

मैं कुछ ज्यादा ही जोर से बोल देता हूं

और मैं निकल आता हूं

मेरे गले में एक थक्का है।