Thursday, April 6, 2023

दोस्त

 


मैंने कहानियां ज्यादा नहीं लिखीं हैं । जो लिखी हैं वे भी पचीस तीस साल पहले । रोटियां कहानी हिमाचल की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर हैजो मधुमति में छपी थी । मुंबई के आवारा कुत्तों के पकड़ने की कुत्ताघर नाम की कहानी वर्तमान साहित्य में छपी थी । एक और सीधी-सादी कहानी सवा दो अक्षर नव भारत टाइम्स में छपी थी । वीटी बेबे नामक कहानी कथादेश में सन 2002 में छपी थी।  जो कहानी आपको आज पढ़वा रहा हूंवह भी मुंबई के तंगहाल जीवन को केंद्र में रखते हुए लिखी थी । दोस्त शीर्षक से यह कहानी भी नव भारत टाइम्स में छपी थी। 


फाइलों से घिरे फैले पसरे मेज के ऊपर डाक के पांच सात लिफाफे और आ जुड़े । शर्मा जी बादामी और खाकी से लिफाफों को फाड़-फाड़ कर देखने लगे । उस मटमैली जमात में अलग-थलग पड़ा, नीले रंग का एक अंतर्देशीय शर्मा जी के हाथ में आकर खुलने ही वाला था कि बाईफोकल चश्मे ने पते पर लिखे गणपत राम शर्मा को सीधे शर्मा जी के दिमाग में घुसा दिया ।

यहां उन्हें हर कोई जी आर शर्मा के नाम से ही जानता है ।

गणपत राम शर्मा ने पत्र को पलटा । भेजने वाले का नाम साफ पढ़ा जा सकता था । धनवंत सिंह ठाकुर ।

आगे-आगे गनपत राम पीछे-पीछे धनवंत सिंह, दोनों नाम शर्मा जी के दिल में छपाक से गोता लगा गए । शर्माजी की पीठ पीछे हटकर कुर्सी की पीठ से जा लगी और मेज के नीचे उनके पैर हिलने लग गए । अरे! यह तो वही अपना धनवंत लगता है । चुकस्ता मारकर लिखने की वही पुरानी आदत ।

शर्मा जी ने चिट्ठी खोल ली । पढ़ाई के दिनों की तैरती छवियों के साथ खत पढ़ने लगे । खत के खत्म होते-होते आंखों की पुतलियां, नाक और होंठ फैलने सिकुड़ने लगे करीब । करीब दस साल बाद यार को याद आई खत लिखने की । पिताजी के गुजरने पर शर्मा जी गांव गए थे तो वहां आया था धनवंत विचार करने ।

खत में लिखा था कि वो जिला वन अधिकारी हो गया है और बंबई घूमने आ रहा है । शर्मा जी समझ नहीं पाए, वे खुश हो रहे हैं या झेंप रहे हैं । वो लफंटर डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट ऑफिसर हो गया और बंबई भी आ रहा है ।

शर्मा जी को जरा गर्मी सी महसूस हुई । उठकर खिड़की के पास खड़े हुए । अंतर्देशीय तहा कर जेब में रखा । अब दफ्तर के काम में उलझे रहने की मन:स्थिति नहीं थी । अंतर्देशीय शर्मा जी को इस बदामी खाकी मटमैली कागजों की धूसर दुनिया से बाहर ले आया । उसी झोंक में वे इमारत से बाहर निकल आए । थोड़े से फैले हुए पेट को साथ लेकर बेध्यानी में चाय के खोखे के पास आ गए, जहां उनके महकमे का कोई न कोई हर वक़्त जमा ही रहता है । पवार और दलवी के साथ कटिंग पीने के लिए रुक गए । दूसरी तरफ तीन-चार महिलाएं भी चाय के बहाने खड़ी थीं । शर्मा जी ने चारों महिलाओं की साड़ियों के रंग अलग-अलग पहचान लिए । किस साड़ी का प्रिंट अच्छा है, किसका बॉर्डर सलीके से कंधे पर चढ़ा हुआ है । धनवंत के शब्द टनटनाते हुए शर्मा जी के दिमाग में कौंधे  - वह फूल वाली, वो टोकरी । धनवंत साड़ी के डिजाइन से औरतों के रूपाकार की कल्पना करता था ।

पवार ने टोका

- क्यों शर्मा जी बड़े खुश नजर आ रहे हैं ।

- नहीं-नहीं, बोलते हुए शर्मा जी की दोनों आंखों के बीच माथे का भारी सा हिस्सा हरकत में आ गया । अनजाने में हाथ जेब तक गया और अंतर्देशीय को छूकर निश्चिंत हो गया ।

रात को घर में घुसते ही शर्मा जी का मन उचाट सा हो गया । चौदह साल की बेटी सात साल के बेटे और अधेड़ सी दिखती पत्नी से कोई खास बात भी नहीं हुई ।

दूसरे दिन सुबह चाय के साथ अखबार पलटते हुए अपने प्रदेश की खबर पर नजर गई तो शर्मा जी ने आंखें मिचमिचा कर उसे पूरा पढ़ा । दाढ़ी बनाते हुए उन्होंने पत्नी को धनवंत के बारे में बताया कि अब जिले भर का अफ्सर हो गया है । वे उसके मुंबई आने की बात नहीं बता पाए । तरक्की की खबर सुनकर पत्नी को कैसा लगा शर्मा जी भांप न सके। वे खुद को भी जांच नहीं पाए थे कि दोस्त की पदोन्नति से खुश हैं या मुंबई आने से तनिक चिंतित ।  

पत्नी ने उस दिन अपने डेढ़ कमरे के फ्लैट की हर चीज को खूब झाड़ा पोंछा । शाम को जब शर्मा जी के ब्रीफकेस से उसने सब्जी निकाली तो ब्रीफकेस की किनारियों पर जमी धूल को देखकर बड़बड़ करने लगी । शर्मा जी ने नोट किया कि पत्नी ने सलीकेदार कपड़े पहन रखे थे । कमरे की ताजगी को देखकर उन्होंने तहकीकात भी की – क्या कोई आया था ?

- कौन आएगा यहां । और पत्नी ने बेटी को ब्रीफकेस साफ करने की हिदायत दी ।

कोई चार दिन तक शर्मा जी जब भी अकेले होते उनके माथे पर बल पड़ जाते और नाक के ऊपरी हिस्से पर गुमटी सी खड़ी हो जाती ।

आठवें दिन उनके ये बल खत्म हो गए । इसके बाद ठाकुर धनवंत सिंह के मुंबई आने के दिन ज्यों-ज्यों नजदीक आने लगे, वे निश्चिंत से दिखने लगे । शर्मा जी जैसे निर्भार हो गए थे ।

·        

और एक दिन शर्मा जी ने अपने परिवार को खुशी-खुशी विदा कर दिया । बच्चे खुश थे कि तीन-चार दिन छुट्टी मनाएंगे, पिंकू-टिंकू के साथ खेलेंगे, आंटी आइसक्रीम खिलाएगी । वीडियो पर फिल्में दिखाएंगी । पत्नी ने राहत महसूस की कि गृहस्थी की चक्की से चार दिन तो निजात मिलेगी ।

विरार में शर्मा परिवार के परिचित रहते हैं अपने ही इलाके के । अच्छे खाते पीते । उनकी कई सारी टैक्सियां हैं । विरार में दो साल हुए एक बड़ा बंगला बनवाया है । शर्मा पत्नी को वहां जाकर माईके जैसा ही लगता है सो तुरंत जाने को तैयार भी हो गईं । एक टैक्सी लेने आ गई थी और शर्मा जी ने हाथ हिलाकर विदा कर दिया । विदा करते समय मुस्कुराना वे नहीं भूले । पेंट की जेबों में हाथ डालकर चलने लगे तो उन्हें अपना वजन कम महसूस हुआ ।

·        

- क्यों शर्मा जी सब्जी नहीं लेनी ?

- नहीं । फैमिली बाहर गई है ।

- मतलब आप भी बैचलर हो गए ?

- ऐसे ही समझो ।

- तो चलो आज मेरे यहां ।

दफ्तर से लौटते हुए शर्मा जी बिना न नुकर किए श्रीवास्तव के साथ हो लिए । चाय के बाद तय हुआ कि जरा महफ़िल जमाई जाए तभी कुंवारापन सार्थक हो ।

रम का एक-एक पैग अंदर गया तो कमरा चहकने लगा । श्रीवास्तव ने बताया कि घर से इतना दूर होने के बावजूद लोग उसके यहां आते रहते हैं । सबसे ज्यादा तो दोस्त यार । हर महीने कोई न कोई । यूनिवर्सिटी में पढ़ने और हॉस्टल में रहने का यही तो नुकसान होता है । मेरे बैच के कोई दस लोग यहीं मुंबई में होंगे । फिर दिल्ली, हैदराबाद, मद्रास, कहीं न कहीं से चले ही रहते हैं । बंबई ससुर जगह ही ऐसी है ।

- अच्छा है न दिल लगा रहता है ।

- पर यह दिल लगाना बड़ा महंगा पड़ता है ।

- दोस्तों से मिलना तो हो जाता है न ?  

- हां, यह तो है । पर शर्मा जी आपका परिवार कहां गया है ?

- वो भी दोस्त के यहां गए हैं । घर जैसे ही हैं ।

- आप नहीं गए ?

- मुझे आपसे जो मिलना था । शर्मा जी ने मसखरी सी की ।

- छोड़िए शर्मा जी । यह तो मैं जबरदस्ती ले आया वरना आप कहां आते हैं ।

- नहीं श्रीवास्तव ऐसी बात नहीं है । तुम तो मुझे बहुत अच्छे लगते हो । पर घर गिरस्ती और दफ्तर । वक्त ही कहां मिलता है ।

- शर्मा जी, आप तो यहां कई सालों से हैं । आपके दोस्त मित्र भी काफी होंगे ।

- दोस्त ! हां दोस्तों की कौन सी कमी है ।

शर्मा जी दूसरे पैग के साथ रौ में आने लगे थे । दोस्ती की लहर में बह चले ।

- डियर श्रीवास्तव, बीस बीस साल पुरानी दोस्तियां हैं अपनी । अपना एक लंगोटिया यार है ठाकुर । जिले भर का अफसर बन गया अभी कुछ दिन पहले । उसकी चिट्ठी भी आई । चिट्ठी लिखना नहीं भूला ।

- अच्छा ! आप तो बड़े आदमी हैं ।

- बड़े हम नहीं, बड़ा तो वो है । वन विभाग में है । खूब पैसे कूटता होगा साला ।

शर्मा जी का मन दोस्त के बारे में और बातें करने का हो रहा था, पर गला अटक अटक जाता था । पूरा गिलास गटक कर उन्होंने गला तर किया ।

- पर देखो श्रीवास्तव, में भी अजीब उल्लू हूं । वो अपना दोस्त अफसर ही नहीं बना, बंबई भी आ रहा था ... और मैं ...

शर्मा जी फिर अटक गए ।

- कब आ रहा है वो बंबई ?

शराब पी के शायद अपनी कमजोरियों का सामना करने की ज्यादा ताकत आ जाती है आदमी में । पिछले हफ्ते जो फैसला शर्मा जी ने किया था उस पर दुबारा विचार करने की हिम्मत वे नहीं कर पाए थे । खुद को भी उन्होंने याद नहीं दिलवाया कि उनका पुराना दोस्त आ रहा है और कई सालों बाद उससे मिलने का मौका मिलेगा ।

लेकिन नशे में मन के भीतर छिपी हुई बात जुबान पर आ ही गई । खुद को गालियां देखने देने लग गए शर्माजी ।

- मैं तो बहुत ही चूतिया निकला यार । भैनचो अपने ही दोस्त के आने की खबर को छिपा गया । शायद डर ही गया यार मैं कि वो बहुत बड़ा अफसर हो गया है । इधर मैं मुंबई में कैसे-कैसे तो रहता हूं । दोस्त देखेगा तो क्या इंप्रेशन पड़ेगा । फिर वह बीवी बच्चों के साथ आ रहा है । कहां ठहराऊंगा ? और साली चुप ही लगा गया मैं । ऐसी चुप कि घर में किसी को हवा तक नहीं लगने दी ।

श्रीवास्तव को समझ न आए,  शर्मा जी क्या बोल रहे हैं और क्यों बोल रहे हैं । वह उन्हें शांत करने लगा ।

- जो हो गया भूल जाइए ।

- भूल कैसे जाऊं मेरे दोस्त । नहीं, दोस्त कहने का हम मुझे नहीं है श्रीवास्तव साहब । मेरे जैसा बेगैरत कोई नहीं होगा। बीवी बच्चे विरार भेज दिए । खुद साला आपके पास आ गया ताकि अगर भूले भटके घर आ ही जाए तो ताला लगा देखकर अपना इंतजाम खुद करता रहे ।

और शर्मा जी ठहाका मार कर हंस पड़े । फिर उन्हें खांसी आ गई । जरा सांस लेकर उन्होंने घूंट भरा और फिर शुरु हो गए ।

- पर जानते हैं दोस्त से छिपता क्यों फिर रहा हूं ? इतने सालों से इस शहर में लल्लू सी नौकरी कर रहा हूं । घर में एक्स्ट्रा गद्दा नहीं है कि कोई आ जाए तो सुला सकूं । किसी की खातिरदारी करने की हिम्मत नहीं पड़ती । बीवी को कोई सुख नहीं दे सका । बच्चे भी जैसे समझदार हो गए हैं, कोई मांग नहीं करते । पता है पूरी ही नहीं होगी । पर श्रीवास्तव साहब घर में कभी झगड़ा नहीं किया मैंने । जितना बन पड़ा परिवार को सुख देने की कोशिश की पर साली चादर इतनी छोटी है कि पैर नंगे ही रहते हैं हमेशा । क्या जिंदगी है ?

श्रीवास्तव को लगा शर्मा अपने पर कुढ़ता ही रहेगा । सांत्वना देते हुए बोला

- तो इसमें आपकी क्या गलती है!

- गलती कैसे नहीं ? साला मैंने दोस्त से दगा किया । जान जाता न मैं कैसे रहता हूं ? क्या सोचता ? कौन सी इज्जत चली जाती ? ऐसे ही कौन से झंडे झूल रहे हैं ।

- अरे शर्मा जी आप तो यूं ही छोटी सी बात दिल पर लगा के बैठ गए ।

- श्रीवास्तव तुम इसे छोटी सी बात कहते हो ?

- छोड़ो छोड़ो शर्मा जी ग्यारह बज गए । अब खाना खाते हैं ।

- अब खाना क्या खाना । में तो बहुत ही नीच निकला श्रीवास्तव । तुम मेरे दोस्त हो न ?

- हां हां

- नहीं, दिल से बोलो, दोस्त हो ?

- हां हां बोल रहा हूं ।

- मेरी कसम ?

- हां आपकी कसम ।

शर्मा जी बुक्का फाड़ कर रो पड़े ।

- मेरे प्यारे दोस्त । मुझे माफ कर दो।

नशे में धुत शर्मा जी का नजारा देखने लायक था । वो रोते जा रहे थे और श्रीवास्तव के पैरों में झुके जा रहे थे ।

- माफ कर दो दोस्त... माफ कर दो... ।

झुकते हुए चप्पल उनके हाथ लग गई । उठा कर श्रीवास्तव को देने लगे ।

- लो मुझे जुत्ते लगाओ । मैं इसी लायक हूं । मारो मेरे दोस्त मारो मुझे । और खुद ही अपने सिर पर चप्पलें टिकाने लगे ।

श्रीवास्तव ने चप्पल छीन कर फेंकी । और बात करने लगा ।

- ये तो बताया ही नहीं वो आ कब रहा था ?

- कौन ?

-आपका दोस्त

- दोस्त नहीं, मेरे जिगर का टुकड़ा । बीस की रात को उसकी ट्रेन यहां पहुंचनी थी ।

- बीस तो आज ही है ।

- तभी तो फिर रहा हूं भागा भागा ।

- तो चलो पहनो जूते । चलो । उसको ले के आते हैं ।

- क्या कह रहे हो श्रीवास्तव । नहीं नहीं । मैं उसे मुंह दिखाने लायक नहीं हूं ।

- क्या कह रहे हैं शर्मा जी । वो आपका जिगरी दोस्त है । और ठहराने की चिंता न करो । उसका इंतजाम हो जाएगा।

- तुम तो देवता आदमी हो श्रीवास्तव । मुझे चरणबंदा करने दो मेरे दोस्त, मेरे देवता ।

एक बार फिर श्रीवास्तव ने शर्मा जी को उठाया ।

·        

आखिर वे दोनों मुंबई सेंट्रल रेलवे स्टेशन पहुंचे । संयोग से वक्त से पहुंच गए । गाड़ी रुक ही रही थी ।

 - हां शर्मा जी जल्दी करो । पहचानो । कहीं निकल न जाए ।

शर्मा जी का सारा नशा काफूर हो गया । वे पसीने से नहा गए । उतरती सवारियों पर उनकी नजर दौड़ती जाती थी । आखिर उन्हें झटका सा लगा जिसकी वे तैयारी सी भी कर ही रहे थे । आंखों से होता हुआ पैरों तक बिजली का करंट सरसराया । उन्होंने श्रीवास्तव का हाथ कसके पकड़ लिया । थोड़ा नजदीक गए और सारा सामान उतरने दिया। तीन चार लोगों के झुंड के पास दम साधे खड़े हो गए ।

मजदूरों को पैसे देकर व्यक्ति ने जैसे ही चारों तरफ नजर दौड़ाई, वह अचानक रुक गया । उसकी बांछें खिल गईं ।

- अरे गनपत ? तुम यहां ? मुझे लेने आए हो ? अरे देखो सावित्री गनपत आया है ।

नमस्ते-वमस्ते होती रही । गनपत छुई-मुई होता रहा ।

- क्या बात है, सब ठीक तो है ?

- हां... तुम...?

- बस आ गए तुम्हारे पास ।

- हां ... हां...

शर्मा जी के गले में कांटे चुभ रहे थे ।

- और बाल-बच्चे, राजी-बाजी ?

- हां सब ठीक है ... ये मिलो मरे कुलीग श्रीवास्तव ।

अपने बच्चों को हिदायत देते हुए ठाकुर सामान उठवाने और टैक्सी ढूंढ़ने में व्यस्त हो गया ।

- जल्दी करो, आगे ही इतनी देर हो चुकी है ।

शर्मा जी ने सूखते गले से फिर बोलने की कोशिश की

- तु... तुम ... क... कहां ...

- अरे यहीं ताड़देव में एक गेस्टहाउस में बुकिंग है । अपने एक टिंबर मर्चेंट ने करवा दी थी । आओ चलो वहीं गप्प लगाते हैं ।

शर्मा जी का गला जरा खुला ।

- मेरी चिट्ठी नहीं मिली तुम्हें ?

- न । चलने के दिन तक तो नहीं मिली थी ।

- आप दो दिन से दफ्तर भी कहां गए थे । ठाकुर पत्नी ने जोड़ा ।

और शर्मा जी सामान लदवाने के लिए टैक्सी की तरफ बढ़ गए ।        


Saturday, April 1, 2023

पारदर्शी भाषा के चित्रकार

 


विनोद कुमार शुक्ल हमारे समाद्रित कवि हैं। हाल ही में घोषित अंतरराष्ट्रीय पेन पुरस्कार के कारण साहित्य समाज में खुशी की बयार बह रही है। इस पुरस्कार से हिंदी भाषा को गर्वित होने का एक और अवसर मिल गया है। इसी प्रसंग में मेरी यह टिप्पणी भारतीय विद्या भवन की मासिक पत्रिका नवनीत में छपी है।    

 

विनोद कुमार शुक्ल की साहित्य की लंबी यात्रा रही है जो सन् 1971 में पहचान सीरीज में लगभग जय हिंद से शुरू होकर आज तक अनवरत जारी है। सन् 1981 में उनका कविता संग्रह आया वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह। इस शीर्षक ने पाठकों और समालोचकों दोनों को चौंकाया। विनोद कुमार शुक्ल ने कविता की अपनी निजी कहनीविकसित की है। इसी वजह से उन्हें कला की तरफ अधिक झुकाव रखने वाला भी माना गया। भाषा में चमत्कार पैदा करने की बातें भी कही गईं । लेकिन यह पूरा सच नहीं है। बल्कि अधूरा सच भी नहीं है। जब तक उनकी या किसी की भी कविता को समग्रता में नहीं देखा जाएगा, उसकी कहनीपर जजमेंट देना न्यायसंगत नहीं होगा। विनोद कुमार शुक्ल गहरी मानवीय संपृक्ति के कवि हैं। व्यक्ति को, उसके मानसिक वितान को, उसके घर-संसार को, उसके बाहरी परिवेश को, देश-समाज को, अत्यंत कीननेससे, अपनेपन से, निश्छलता से, आपसी गर्माहट से, देखने वाले कवि हैं। उनका काव्य-समाज मनुष्य और प्रकृति के आपसी तालमेल से बनता है। तमाम विसंगतियों को भी वे बेलाग निस्पृहता से पकड़ते हैं।  निस्पृहता और करुणा का यह मेल एक तरह की सादगी और सपाट बयानी का आभास देता है। उनके भाषाई प्रयोग में एक तरह की मंथरता और परतदारी है। शब्द दर शब्द, पंक्ति दर पंक्तिबिंब दर बिंब, वे एक काव्य-वास्तु खड़ा करते हैं। उसी में से भाव और अर्थों की परतें खुलती हैं। उनकी कविता को हौले से अपने सामने रखकर पढ़ना होता है। तब कविता की पंखुड़ियां खुलती खिलती हैं। 

सन् 2000 में छपे कविता संग्रह अतिरिक्त नहींमें एक कविता है, इस मैदानी इलाके में। इसकी पहली पंक्ति है कि मैदानी इलाके में इस साल भी पहाड़ नहीं हैं। वे चाहते हैं कि पहाड़ों को अब मोटर स्टैंड, कचहरी, पाठशाला या खेतों के पीछे आ जाना चाहिए। आगे वे कहते हैं कि जो जगह जहां नहीं है वहां के लिए उसका न होना ज्यादती है। इसके बाद कामना करते हैं कि समतल जगह हिमालय पर चली जाए, भोपाल बांकल में चला जाए, काशी गंगा छोड़कर महानदी के तट पर आ जाए, इत्यादि। भू-स्थलियों की अदला-बदली करने की कल्पना साकार होने लगती है और कविता की परतें खुलने लगती हैं कि यहां वे सारी भू-स्थलियों को विस्थापित कर देने की कामना कर रहे हैं ताकि किसी एक जगह को दूसरी जगह की कमी महसूस न हो या हर जगह को दूसरी जगह का स्वाद मिल सके। गांव घर से किसी को भी विस्थापित न होना पड़े। इस तरह यह विस्थापन की एक अलग तरह की कविता है। मनुष्य विस्थापित न हों, जगहें इसकी भरपाई करें। 

घर से कवि का बेहद लगाव है। यह कई जगह प्रकट होता है। घर सभ्यता की, मनुष्यता की, संबंधों की प्राथमिक इकाई की तरह उनके पास है। लॉकडाउन के दौरान फेसबुक लाइव में भी वे अपनी बात इसी बात से शुरू करते हैं कि मैं घर से बोल रहा हूं। उसके बाद शहर और प्रदेश का नाम लेते हैं।

जब बाढ़ आई

तो टीले पर बसा यह घर भी

डूब जाने को

आसपास का सब पड़ोस इस घर में

मैं इस घर को धाम कहता हूं

और ईश्वर की प्रार्थना में नहीं

एक पड़ोसी की प्रार्थना में

अपनी बसावट में आस्तिक हूं ...

(जब बाढ़ आई, कभी के बाद अभी संग्रह से)

 

मेरी चार साल की नातिन

बस्ता लटकाए स्कूल से आ रही है

मैंने उससे पूछा

तुम स्कूल से आ रही हो?’

हां

घर जा रही हो?’

नहीं, घर को आ रही हूं

एक छोटी बच्ची हमेशा आ रही होती है

उससे विदा होते समय मैंने कहा

अच्छा, मैं आ रहा हूं

(आते जाते लोगों से भी, कभी के बाद अभी संग्रह से) 

समाज में व्याप्त सोपान क्रम के बारे में एक कविता में वे लिखते हैं कि सामने बैठने वालों की कुर्सियां हटा देनी चाहिए, जो बड़े लोगों के बैठने के लिए होती हैं। फिर बाद वाली कुर्सियां सामने वाली हो जाएंगी और उनमें पीछे बैठने वाले ही बैठें। (वैसे सामने की कुर्सियां, कभी के बाद अभी संग्रह से) यह है कवि का चुनाव कि वह किन लोगों के साथ है। विष्णु खरे ने उनके कविता संग्रह अतिरिक्त नहीं के ब्लर्ब में लिखा है, ‘‘ विनोद कुमार शुक्ल शमशेर बहादुर सिंह के साथ हिन्दी के सबसे बड़े प्रयोगधर्मी कवि भी हैं ... किंतु सिर्फ उन्हीं ने यह सिद्ध किया है कि लगातार प्रयोग और लगातार प्रतिबद्धता एक साथ संभव हैं। उनके सिवा और कौन लिख सकता है : सबके हिस्से की हवा वही हवा नहीं है / अपने हिस्से की भूख के साथ / सब नहीं पाते अपने हिस्से का पूरा भात ...’’ 

कविता विनोद कुमार शुक्ल के लेखन का एक पक्ष है। उनका उतना ही प्रखर पहलू कथाकार का है। कथा साहित्य में भी वे विषय, कथा तत्त्व, भाषा और शिल्प के अन्यतम प्रयोग करते हैं। उनकी कथा शैली उनकी ही कथा शैली है। कोई उनकी तरह लिखने लगेगा तो तुरंत पता चल जाएगा। नौकर की कमीज’, ‘खिलेगा तो देखेंगेऔर दीवार में खिड़की रहती थीउपन्यासों में भी उनका घर के प्रति जबरदस्त आकर्षण है। एक तरह से घर केंद्र में है। निम्नमध्यवित्त के पात्र होने के कारण बहुत कम वस्तुओं से इनका घर बन जाता है। हरेक चीज का अस्तित्व है। पात्रों में जीने की तन्मयता है। सादगी है। प्रोफेसर को सवारी के रूप में हाथी मिल जाता है। नवविवाहित प्रोफेसर की अपनी रोमांटिक दुनिया है। इस अर्थ में हाथी की सवारी मिलने से वह यथार्थ से थोड़ा ऊपर उठ गया है। उसे अब टेम्पो और साइकिल की जरूरत नहीं रही। हाथी उसे दयनीयता और अपमान से ऊपर उठा देता है। उपन्यासकार इस बहाने से उपभोक्तावादी विकास को धता बताता है। तीनों ही उपन्यासों में मुक्ति का एक स्वतंत्र दर्शन रचा गया है। सबके पास जरूरत भर का जीवन हो और जो प्रकृति में रचा बसा हो। गरीबी का वर्णन है, महिमा मंडन नहीं। महत्वपूर्ण यह भी है कि उसका जवाब अमीरी में नहीं खोजा गया है। 

उपन्यासों में खांटी यथार्थ है; जीवन की क्रूरता है और सौंदर्य भी है। उसे व्यक्त करने में उपन्यासकार बच्चों के खेल संसार जैसा मासूम बना देता है। उनके संवाद, शिल्प, उछाह, सब जैसे शिशुता की रंगत से भरे हैं। शायद इसीलिए उनमें लोककथाओं के संवादों जैसी पुनरावृत्ति, शैलीबद्धता और लय मिलती है। खिलेगा तो देखेंगेके कुछ दृश्य तो कार्टून फिल्म की याद दिलाते हैं। बस पतली हो के गली में घुस जाती है, सीढ़ियां चढ़ जाती है। 

विनोद कुमार शुक्ल का भाषा विन्यास भी भिन्न है। इनके वाक्य छोटे हैं। वे किसी दृश्य या घटना का ब्योरा छोटे-छोटे वाक्यों में देते हैं। इससे लोक कथा वाचन का रंग आता है पर कहानी में नाटकीय भंगिमा बिल्कुल नहीं है। बल्कि भंगिमा ही नहीं है। यही इसकी खूबी है। सीधे-सादे जमीनी पात्र। गरीबी का गर्वोन्नत भाल लिए। यहां गरीबी या अभाव का रोना नहीं है। आत्मदया की मांग नहीं है। उससे बाहर आने का क्रांतिकारी तेवर भी नहीं है। वे असल में जैसे हैं, वैसे ही उपन्यासों में हैं। 

फर्क यह है कि ये पात्र वैसे नहीं हैं जैसा हम प्राय: लोगों के बारे में सोचते हैं। विनोद कुमार शुक्ल का सारा गद्य ही वैसा नहीं है जैसा हम प्राय: पढ़ते हैं। यह अपनी ही तरह का गद्य है। इसने गद्य की रूढ़ि को तोड़ दिया है। हमें रूढ़ गद्य पढ़ने की आदत है। शायद इसीलिए विनोद कुमार शुक्ल पर उबाऊ गद्य लिखने की तोहमत लगती है। 

विनोद कुमार शुक्ल की दृष्टि अद्भुत है। वे अपने पात्र को मचान पर बैठकर या गर्त में गिराकर नहीं देखते। उनके पात्र न तो ऊंचाई से दिखने वाले खिलौने हैंन ही नीचे से दिखने वाले भव्य महापुरुष‎‎। रचनाकार समस्तर पर रहकर देखता है। उसके पास पात्र को रंगने या बदरंग करने की कोई कूची भी नहीं है। रचनाकार को किसी चीज को जैसी है वैसा ही कहना बड़ा पसंद है। जैसे दिन की तरह का दिन थाया रात की तरह की रात थी। इसी तरह उसके पात्र जहां और जैसे हैं वे वास्तव में ही वहां और वैसे ही हैं। रचनाकार बस उनके अंग संग बना रहता है 

सिर्फ पात्र ही नहींपूरा जीवन-जगत ही उसके अंग संग है। उसमें व्यक्तिप्राणि जगत और प्रकृति सब समाहित है। यहां व्यक्ति का मन भी उसी पारदर्शिता से दिखता है जितनी स्फटिक दृष्टि से प्रकृति और वनस्पति जगत को देखा गया है। एक हिलता हुआ पत्ता भी मानवीय स्थिति का हिस्सा ही होता हैसंवादरत होता है। पेड़ की छाया भीचींटी भीचिड़िया भीआलू प्याज और तोते का पिंजरा भी 

इस समावेशी दृष्टि के साथ-साथ विनोद कुमार शुक्ल के देखने में भावुकता नहीं है। निर्ममता और उदासीनता की कोई जगह नहीं है। पूरी तरह से संलिप्तता भी नहीं है। बल्कि उस पर निर्लिप्तता की छाया प्रतीत होती है। शायद इन्हीं दोनों के संतुलन से करुण दृष्टि का जन्म होता है। रचनाकार का देखना करुणा से डबडबाया हुआ है। यह एक दुर्लभ गुण है। इस तरह उपन्यासकार जीवन-जगत के सम-स्तर पर रहते हुए उसे करुणा-आप्लावित नजर से देखता है। और यह करुणा सपाट बयानी की तरह नहीं आती। करुणा पर वो एक झीना परदा डालते हैं। यह उनके खास शिल्प का पर्दा है जिसमें लोक कथाएंबच्चों के खेल और परी कथाओं का शिल्प है। सच और झठमूठ के खेल का एक निराला संतुलन बनता है 

विनोद कुमार शुक्ल की नजर में एक और गुण हैउनकी आर पार देखने की शक्ति। इसी नजर से वे आकाश को देखते हैं और उसमें अंधेरे उजाले को देखते हैं। इसी दृष्टि के कारण वे हाथी की खाली होती जगह देखते हैं और लिखते हैं ‘हाथी आगे आगे निकलता जाता था और पीछे हाथी की खाली जगह छूटती जाती थी’ यथार्थ को रूढ़िबद्ध ढंग से देखने का आदी पाठक इस पंक्ति को निरर्थक पाता है। रूढ़ि में नवीनता देखने वाला पाठक इस पंक्ति में चमत्कार देखता है। लेकिन अगर आप ध्यान से पढ़ें और देखने लगें तो हाथी की जगह आपको दिखने लगेगी। हम कह सकते हैं कि एक दृश्य के गतिशील तत्वों को वे देखते हैं तो रुके हुए तत्वों को भी। फोरग्राउंड को देखते हैं तो बैकग्राउंड को भी। और उन्हें इंटरचेंज भी कर देते हैं। कभी अग्रभूमि का आकार देखते हैं तो कभी पृष्ठभूमि का। जैसे अंधेरा और हाथी। फिर अंधेरे के हाथी। पानी के भीतर और पानी के ऊपर का अंधेरा। मनोविज्ञान में यह परसेप्शन का खेल होता है। असल में ये सारी चीजें तभी दिखती हैं जब हम उन्हें धैर्य से पढ़ें। विनोद कुमार शुक्ल को हड़बड़ी में नहीं पढ़ा जा सकता। धीरज से पढ़ने पर ही अनूठी दुनिया खुलती है 

यह सुखद है कि पारदर्शी भाषा के रचनाकार विनोद कुमार शुक्ल पिछले एक दशक से निरंतर बच्चों के लिए लिख रहे हैं। बच्चों की कविताएं भी वे बड़ी तन्मयता और लय के साथ सुनाते हैं। उनकी जिस शैली को तिर्यक नजर से देखा जाता था, वह अब और अधिक सरल और मृदुल होकर बाल सुलभ सरलता पा गई है।