वीटी स्टेशन की धरोहर इमारत पर लगी मूर्ति |
मैंने कहानियां ज्यादा नहीं लिखीं हैं । जो लिखी हैं वे भी पचीस तीस साल पहले
। रोटियां कहानी हिमाचल की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर है, जो मधुमति में छपी थी । मुंबई के आवारा कुत्तों के पकड़ने की
कुत्ताघर नाम की कहानी वर्तमान साहित्य में छपी थी । एक और सीधी-सादी कहानी सवा दो अक्षर नव भारत टाइम्स में छपी थी । जो कहानी आपको आज पढ़वा रहा हूं, वह मुंबई के सीएसटी स्टेशन को केंद्र में रखते हुए लिखी थी । तब मुंबई, बंबई और सीएसटी, वीटी कहलाता था । यह वीटी बेबे नाम
से कथादेश में सन 2002 में छपी थी ।
गांव की उस बुजुर्गवार महिला को सब लोग बेबे कहते थे । बच्चों बड़ों सबकी बेबे
। औरत होने के बावजूद बेबे गांव के गिने-चुने बुजुर्गों में से एक थी । हर कोई
सलाह सूतर लेता । वह भी जब तक हर किसी का सुख-दुख जान समझ न ले, चैन से नहीं बैठती थी । किसी का लड़का बाहर
से आया हो, कोई धियाण मायके लौटी हो,
मत्था टेकने के बहाने बेबे के पास जरूर जाते । कोई जा रहा हो, बेबे असीसें देते थकती नहीं थी ।
हम छोटे छोटे थे । जितना मजा बेबे से कहानियां सुनने में आता था, बाकी बातों में इतना रस नहीं आता था । एक
से एक नायाब कहानियां । कभी न खत्म होने वाले किस्से और आंखों के सामने साक्षात
खड़े हो जाने वाले किरदार । अगर कोई पात्र कुछ हासिल कर लेता तो वह हमें अपनी ही जीत
लगती । कोई मुश्किल में पड़ा होता या कोई तकलीफ होती तो हम डर जाते । आंखों में
आंसू तैरने लगते । हम बेबे के पास सिमट आते । बेबे हमें अपने आगोश में ले लेती और
हम निर्भय हो जाते ।
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मैं जब आजाद मैदान से वीटी की तरफ आता, स्टेशन की इमारत के गुंबद पर लगी मूर्ति जीवंत हो उठती । नाइट शिफ्ट करके
बारह-एक के करीब लोकल ट्रेन पकड़नी होती । सारा इलाका तकरीबन सुनसान होता । इक्का-दुक्का
टैक्सी । एक दो आखिरी ट्रेनें । और थोड़े से लोग । खिड़की वाली सीट पर बैठकर सामने
पैर पसार कर बाहर देखता । हवा के साथ थोड़ा अंधेरा और एक बराबर अंतराल पर रोशनी की
फांक चेहरे से टकराती । गाड़ी एक ताल पर फिसलती रहती । बीच-बीच में पटरियों की
चमकती हुई लकीरें गुजरती जातीं । एक अवसाद
मुझे डुबोने लगता । गुंबद पर लगी मूर्ति न जाने कब गुंबद से नीचे उतर कर मेरे साथ
चली आती । और सफेद सौम्य परिधान में सामने
आ बैठती । हाड़-मास की जीवंत मूर्ति । और वह मुझसे बातें करने लगती । बातें क्या,
इकतरफा संवाद । वही बोलती । मैं सुनता बातें भी कैसी ? लोगों के बारे में । चीजों के बारे में । ज्यादातर स्टेशन
से जुड़ी हुई । मैं उसके चेहरे पर बनती-मिटती भाव-रेखाएं पढ़ता रहता । वह हर उस
घटना, इंसान या परिवर्तन का बड़ी शिद्दत के साथ
जिक्र करती, जो किसी भी तरह स्टेशन से या मुंबई की जिंदगी से
जुड़ा रहता । मैं एक तंद्रिलता में सारी बातें सुनता । शयद बेजुबान प्रतिक्रिया भी
मुझसे नहीं दी जाती । ट्रेन से उतरकर पैदल घर जाते हुए सारी बातों को याद करता
रहता । एक रहस्यमय पोटली में बंधी सारी बातें दिमाग में घुसती जातीं ।
अगले दिन दोपहर बाद वीटी पहुंचता तो इधर उधर नजर उठाते ही मूर्ति की बातों में
सच्चाई नजर आने लगती । भीड़ की धक्कमपेल में सरकते हुए चेहरों की खुशियां, उदासियां, उनकी सारी
कहानियां स्पष्ट साकार हो उठतीं । उन औरतों को खोजी नजर से ढूंढ़ने की कोशिश करता
जो मेन हॉल के आसपास सज-संवर कर खड़ी रहती हैं या टहलती रहती हैं । अभ्यस्त नजरों
से ग्राहकों को पहचान लेती हैं । मूर्ति की तरह मेरे भीतर भी ऐसी मजबूर औरतों और
सपाट चेहरे वाले लोगों को देखकर करुणा ही पैदा होती । मूर्ति ने इन लोगों के बारे
में कहा था कि अपने खंभों के इर्द-गिर्द इस व्यापार को महसूस करके अजीब सरसराहट होती
थी । जैसे टांगों पर तिलचट्टे चलते हों । पर इन बेचारी औरतों की घर-परिवार की
मजबूरियों का ख्याल कर इस लिजलिजे एहसास को सह जाती है । मजबूरियों में कहां की
नैतिकता और कहां के मूल्य ।
इसी तरह मवाली छोकरे मुझे अक्सर देखने को मिल जाते, जो स्टेशन पर भटकते हुए बेमकसद लगते हैं पर
इनकी रोजी रोटी वहीं पर चलती है । जेबें काटकर, मुसाफिरों का
सामान चुराकर, गाड़ियों के टिकट और सीटें बेचकर । मूर्ति
उन्हें चींटियों की संज्ञा देती । कहती, इन लोगों ने तो जैसे
मुझे अपना घर ही बना रखा है । और कि अब मेरी खाल ऐसी हो गई है कि कुछ फर्क नहीं
पड़ता । इन मवालियों से मूर्ति अपनी सहानुभूति जतलाती । जिस दिन मूर्ति ने यह बात
बताई, मैं घर जाकर हैरान हुआ कि इनसे सहानुभूति क्यों हो ? ये तो अपराध करते हैं । इसका दंड मिलना चाहिए । अगले दिन मेरे सोचे हुए
पर मूर्ति ने पानी फेर दिया । अब तो यह संपर्क ऐसा हो गया था कि आमने सामने तो
सवाल जवाब न हो पाते, लेकिन
जो मैं घर जाते हुए रास्ते में या घर जाकर सोचता, उनके जवाब
मूर्ति अगले दिन, बल्कि अगली रात मुझे दे देती । बिना कुछ
पूछे । खुद ब खुद । बूझ के । सो मूर्ति का मत था कि स्टेशन तो इनकी शरणस्थली है ।
ठीक है बेचारे भटके हुए लोग हैं, लेकिन पेट तो सबके साथ है ।
इनके अपराध सबको नजर आ जाते हैं, क्योंकि हालात के मारे हुए
लोग हैं । किसी तरह का लुकाव-छिपाव या पर्दा इनके पास नहीं है । न पैसे का न रसूख
का । न सुविधा का न संयोग का । न जात का न जमात का । न दीन का न धर्म का । न भगवान
का न हिवान का । किसी तरह का कोई कवच नहीं । ये लोग अपनी जहालत, जलालत और अपराधों में निपट अकेले हैं । मूर्ति इस ख्याल से विचलित हो जाती
कि ये लोग जिस तरह फटेहाल आते हैं, उसी तरह गुमनाम मौत मारे
भी जाते हैं । इन्हें सुधारने-संवारने की जिम्मेदारी जिस तबके पर है वह भी जम कर इस्तेमाल
करता है । इन्हें यहीं पड़े रहने पर मजबूर करता है । मूर्ति कहती, दिन-रात इमारत के ऊपर ठुकी रह कर देखती रहती हूं । हर एक को अपनी ही पड़ी
है । ऐसी आपाधापी कि अपने सिवा कोई नहीं दिखता ।
मुझे मूर्ति की ऐसी बातों से जिनमें लोगों से प्रेम घृणा का एक अजीब सा रिश्ता
था, कभी हंसी आती कभी उदासी । वह देखती रहती और
गरियाती रहती रोज-रोज ।
मेरी नाइट शिफ्ट मजे में चल रही थी । मूर्ति के बहाने मेरा भी इस शहर के
प्रवेश द्वार से रिश्ता जुड़ गया था । जैसे संवेदना की खिड़की खुल गई थी । मुझमें
गुस्से, सहानुभूति, प्रेम के
भाव तैरते रहते । बीटी स्टेशन से दोस्ती मजे में चल रही थी ।
एक रात उसने एक किस्सा सुनाया । जो आदमी आज ट्रेन से कटकर मर गया, वह कोई बीस साल पहले यहां आया था । कहने को वह आदमी था, पर आदमी तो वह कभी हुआ ही नहीं । जब आया था
तब बालक था । मैला कुचैला छौना । जब मरा तो बूढ़ी ठठरी था । जब आया था, महीना दस दिन भटकता रहा भूखा प्यासा । फटेहाल । पुलिस वालों के हत्थे भी चढ़ा । अजनबी
माहौल के खौफ में वह सड़कों पर भटकने निकल जाता पर प्लेटफॉर्म छोड़कर वह कभी गया
नहीं । आधी रात के बाद दो बजे के करीब जब वह कोने वाले खंभे से पीठ सटा कर निढाल
पड़ जाता तो मेरा दिल पसीज उठता । मेरे हाथ अगर उसे छू सकते तो मैं उसे सहला कर सुलाती
। पर मैं तो बस देखने और कुढ़ने के लिए ही अभिशप्त हूं । कोई दैवी ताकत भी मुझ में
नहीं है कि उसके सामने खाने की थाली परोस सकती या कोई ठीहा ही ढूंढ़ देती । वह तो
भैया हर किसी को अपने ही उद्यम से पाना है । चाहे उस उद्यम में मेहनत हो, तिकड़म हो या संयोग हो । जैसे हालात बन जाएं
और इंसान मौके का फायदा उठा ले । खैर! कुछ दिन तक तो वह आदमी गायब रहा । मेरी ढूंढ़ती आंखों ने एक
दिन देखा कि वह सामने छोकरों की पांत में बैठा है और पॉलिश की पेटी पीट पीट कर गला
फाड़ फाड़ कर ग्राहकों को बुला रहा है । मेरी छाती में ठंडक पड़ी । जी उमड़ने लगा
। भैया बउ़ा चैन पड़ा कि चलो अपने पैरों पर खड़ा हो गया । मेरे सामने उसने कमाना
खाना शुरु कर दिया । पिछले बीस सालों से वह वहीं उसी जगह पर लोगों की जूतियां
चमकाता रहा । बूढ़ा तो वह दो ही साल में हो गया था । पर काम बदस्तूर करता रहा । और चाहे
कुछ हो न हो सौ तरह की बीमारियों की कृपा इन लोगों पर हुई रहती है । मुझे इनके
पीले चेहरों को देखने और उनकी खसखसाती छातियों की लय ताल सुनने की आदत पड़ गई है ।
वह कहां रहते हैं, इस बारे
में भी मैं ज्यादा नहीं सोचती । वह सुबह प्रकट होता, रात को
चला जाता । मेरे आंगन की वह जगह उसने कभी नहीं छोड़ी । दो बाई दो फुट की उस जगह पर
कब्जा जमाए रखने के लिए उसे पुलिस वालों को हफ्ता देना होता था । मैं जानती हूं, पर हालात कैसे बदल सकती हूं । मैं तो जड़ आंख हूं । देखती हूं और बिसूरती
रहती हूं ।
और वह आज ट्रेन के नीचे आ गया वह गाड़ियों की हर अदा से वाकिफ था । यूं बेमौत
नहीं मर सकता था । पर जिस्म ने साथ नहीं दिया । ट्रेन से छलांग लगाने की पुरानी
आदत । कमबख्त ने अपने जर्जर शरीर का ख्याल
करके नहीं छोड़ी । दूसरा पैर नीचे रखने से पहले ही उसका हाथ छूट गया और देह गाड़ी
और प्लेटफार्म के बीच रगड़ती चली गई । शरीर बुरी तरह चिथ गया था । उसकी पॉलिश की पेटी
दूर जा गिरी ।
किस्सा यहीं खत्म हो जाता तो मैं भूल जाती । आदमी पैदा होता है । मर खप जाता
है । कुदरत कहो या हालात यह गोरखधंधा ऐसे ही चलता रहता है ।
उसकी लाश उठा दी गई । पॉलिश की पेटी प्लेटफार्म पर पड़ी रही । देखती क्या हूं
कि एक बारह तेरह साल का छोकरा बड़ी देर से वहां चक्कर लगा रहा था । चक्कर में इधर
उधर नजर दौड़ाने के बाद चुपके से पेटी उठा ली । मेरा जिस्म तो जैसे सुन्न पड़ गया ।
यह क्या हो रहा है ? इस लड़के को मैंने पहली दफे नहीं
देखा था । कोई दो हफ्ते पहले यह गाड़ी से उतरा था । सूनी और डरी हुई आंखों से
प्लेटफार्म को, भीड़ को, हर चीज को देख रहा था । तब मैंने ध्यान नहीं दिया । अपना भाग लेकर गाड़ी
से उतरा है । खुद ही निकाल लेगा रास्ता, और चलता बनेगा । इतने
दिनों तक मेरे आसपास चक्कर लगाता रहा तो भी मैंने खास ध्यान नहीं दिया । इकहरे बदन
का छोकरा, मसें अभी भीगी नहीं थीं । घर से भाग आया होगा । बंबई
किस किस को नहीं खींच लाती । यह भी भटक रहा है । राह पा जाएगा । पर यह ऐसी राह
पाएगा यह नहीं सोचा था । दस ही दिनों में वह पत्थर हो गया । उस बूढ़े को मरते हुए
उसने देखा । उठने का इंतजार करता रहा । और मौका पाते ही पॉलिश की पेटी उठाकर
इत्मीनान से चलने लगा । न उठाने में कोई उतावली दिखाई, न ले
के भागा । ताकि किसी को चोरी की भनक तक न लगे । इसके दिल-दिमाग में कैसी बजरी बिछ गई
है ।
उसे जिंदगी जीने का एक सबब मिल गया, मुझे खुश होना चाहिए था । मैं तो पिघली जा रही थी । कैसा इतिहास बन रहा है
। मेरी आंखों के सामने आज की घटना और बीस साल पहले का यह दृश्य गड्डमड्ड होकर फड़फड़ाने
लगा । जो मर गया वह तब कितना हताश था । फिर पॉलिश की पेटी की लाकर हालात से लड़ने
लगा था । और यह छोकरा बीस साल बाद अपने मरे हुए अतीत पर चल कर उसी पॉलिश की पेटी को उठा
कर इत्मीनान से चल रहा है । उसे अपनी ही फिक्र है । वह जान गया है, अगर मौके का फायदा नहीं उठाया तो उसे कुछ
हासिल नहीं होगा । हाय रब्बा, इसकी उम्र मासूमियत की है और
यह दुनियावी समझदारी में माहिर हो गया है । बालक अब कितनी जल्दी बड़े हो जाते हैं ।
पर इस अनजान लड़के को कुछ नहीं मालूम । अतीत क्या था । बीस या पचीस साल बाद या कल
या अगले ही पल क्या होगा । कुछ नहीं मालूम । उसने तो जैसे एक किनारा पकड़ लिया है
और दुनिया उसके सामने खुलती चली जाएगी ।
इस किस्से को सुनने के बाद जब मैं घर पहुंचा तो सो नहीं पाया । मूर्ति से मुझे
पहली बार डर लग रहा था । मूर्ति से यह संवाद इकतरफा ही होता था । जवान खोलने का
सवाल नहीं उठता । लेकिन जो सवाल मन में उठ भी रहे थे, वे घर पहुंच कर गायब हो गए । सिर्फ मूर्ति
की बातें ही दिल दिमाग में घुमड़ने लगीं ।
अगले दिन में काम पर नहीं जा सका । भागता हुआ खौफनाक अंधेरा, तेज चमकती रोशनियां,
मूर्ति का सफेद लिबास, गाड़ी की ठक-ठक,
भीड़ का शोर, चिल्लाहटें मुझे घेरे हुए थीं । मुझे बुखार आ
गया । उठकर चाय पीने तक की हिम्मत बाकी नहीं बची थी । जैसे बहुत लंबी बीमारी से
शरीर निचुड़ गया हो ।
दिमाग खाली नहीं हो पा रहा था । उस सारे दिमागी तूफान में एक बात बार-बार भड़भड़ा
रही थी । जहां मैं काम करता था,
उसी महकमे में मेरे पिता नौकरी करते थे । दो साल पहले एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई । घर टूटने के
कगार पर ही था । मैं उनका बड़ा लड़का नौकरी की तलाश में भटक रहा था । पिता के
महकमे ने दरियादिली दिखाई और मुझे नौकरी पर रख लिया । मैं मुंबई आ गया । घर उजड़ने
से बच गया । पिता की जिम्मेदारियां मैं निभाने लगा ।
जैसे काले सागर में लाइट हाउस की रोशनी घूमती रहती है और रोशनी की लकीर पानी
पर खिंचती चली जाती है । जर्द और उदास । चमकता पीला काला पानी थरथ्राता हुआ दिखता
है । मूर्ति का सुनाया हुआ किस्सा काले सागर की तरह मेरे चारों ओर पसरा हुआ था । अपना
और पिता का रिश्ता पीली डोलती लकीर की तरह इस स्याह पारावार में दूर तक चिरता चला
जाता । मैं उस काले स्याह में डूब रहा था ।
बीमारी के दौरान एक दोस्त मेरा हाल चाल पूछने आता था । मेरे चेहरे के पल-पल
बदलते रंग देखकर पूछता, ‘‘कोई चीज तुम्हें खाए जा रही है। बता दो ।’’ मैं हिम्मत
नहीं कर पाया । बार-बार इसरार करने पर
धीरे-धीरे सारा किस्सा कह डाला । मूर्ति के सारे संवाद उसे सुनाए । जो मेरे दिमाग
में पक्की स्याही से इतनी बार लिख डाले गए थे कि न मिटने का नाम लेते थे न अंदरूनी
नजर से ओझल होते थे । उसने सारी बातें ध्यान से सुनीं । और बोला, ‘‘ तुम सनकी आदमी हो’’ मैं
सफाइयां देता रहा । आखिर उसने फैसला सुनाया, ‘‘अगर तुम ठीक होना चाहते हो तो आगे से ट्रेन के खाली डिब्बे में कभी मत चढ़ना
। और रात की शिफ्ट तो बंद ही कर दो । मैडिकल सर्टिफिकेट दो और दिन की ड्यूटी करो ।’’
उसकी इन बातों पर पहले मैंने ध्यान नहीं दिया । लेकिन एक फर्क महसूस किया कि
सारी बात बता कर मैं जरा हल्का हुआ था । वो अंधेरे और रोशनी के धब्बे, और शोर कुछ कम हो गया । और मैं स्वस्थ होने
लगा ।
Vikash Singh शानदार, मार्मिक ....वह समझ गया था, अगर मौके का फायदा नहीं उठाया तो कुछ हासिल नहीं होने वाला...आज की दुनिया की सच्चाई तो यह है सर...जो ना तो निष्ठुर हो और ना हीं फायदा उठाना जानता हो उसकी रात मूर्ति के आगोश में हीं गुजरती है ...
ReplyDeleteVinod Kalra अत्यन्त मार्मिक रचना। अपने कहानी संग्रह का नाम और प्रकाशक बताएं।पढ़ना चाहती हूँ मैं।
ReplyDeleteVijayshankar Chaturvedi दृश्यों के पार जाती एक विचलित कर देने वाली कथा। 👏👏
ReplyDeleteVinod Das मुंबई को जीना इसी को कहते हैं। क्या भाषा और क्या सुंदर शिल्प
ReplyDeleteSudarshana Dwivedi यही है मुंबई और उसके फुटपाथ ! बहुत मार्मिक रचना ।
ReplyDeleteKushal Kumar दिल को छू गई। विचलित भी हूँ। वीटी स्टेशन पर 35 साल से इस तरह के लोगों को देखता आ रहा हूँ। मार्मिक अभिव्यक्ति।
ReplyDeletePratyoosh Guleri बहुत बढ़िया कथा बुनी है बंधु बिबिध बुनतरों की स्वेटर।बधाई
ReplyDeleteJayanarayan Kashyap बेहतरीन रचना, वाह वाह 👏👏👏🙏🙏🌹
ReplyDeleteGaurav Sethi चाचा जी में तब बहुत है छोटा था जब आपके पास आए थे बंबई।मुंबई तो बाद में हुआ।लगता था कितना बड़ा शहर है।दुनिया है सबसे अलग।उस वक़्त दादी वहीं पर थे।हमने खाना खाया। और पापा तथा मम्मी खुश थे की वो घूमने आए है तथा पापा इसलिए कि अपने भाई से भी मिल लिए।सच कहूं तो बंगलौर में पड़ा हुआ हूं पर घर से जुड़ा ही रहा।घर की याद कभी भूल है नहीं पाता था। पर आप हर चीज को इतना बारीकी से देखते हैं कि लगता है धरमशाला तथा दरवैली आज भी वैसी है है। मुझे लिखना नहीं आता है पर घर याद आता है मुझे।। कभी आपसे मिलूंगा तो घर के बारे बहुत कुछ समझूंगा। चलोखर दादी के पास भी जाते थे। उनसे मिलकर जो आनंद था वो शायद कभी नहीं मिल पाएगा।मेरी पापा की बुआ जिसे हम अम्मा कहते थे बहुत याद आती है मुझे।वो मेरी favourite thi Aur sada रहेंगी।।।नमस्कार।
ReplyDeleteTejkumar Sethi अठारह साल पहले की लिखी कहानी आज भी हृदय तन्तुओंको को काटती सी लगती है। कहानी के आरम्भ में बेबे जी का नाम आते ही मेरी आँखों में बचपन की अनगिन तस्वीरें तैरने लगीं। बेबे जी, परोजू जी, बड़ी जी, गाँव की चार मुख्य 'जी' ' जिनमें सुब्धू जी भी शामिल हैं, सभी जीवित हो गईं। कहानी के शुरू होते सार अनेक कहानियां कुक्कर मुत्तों की तरह सिर उठाने लगीं। भाप्पा जी का बरामदा और अंगीठे पर लोगों का जमावड़ा और गम्भीरो की ठस्साके दार आवाज़ सुनाई देने लगी। फिर अचानक तुम्हारी कहानी ने मुम्बई का रुख कर लिया। मुम्बई के वीटी स्टेशन के परिदृश्यों में लिपटी इस मार्मिक कहानी के समुद्र में डूबता चला गया। पत्थर की मूर्ती की आंखों की संवेदनाओं को कहानी में इस नजाकत से पिरोया है की पढ़ने वाले का ह्रदय चीत्कार करने लगता है। पापी पेट के लिये इन्सान जो भी धंधा अपनाता है, लगता नहीं कि वह कोई अपराध करता है। बड़ी दयनीय स्थिति है। मुम्बई शहर में नि:सहाय आदमी के जीवन का क्या मूल्य है , यह कहानी उसका गहरा विश्लेषणात्मक बोध कराती है। इस शहर में एक संवेदनशील व्यक्ति का जीना खारे समुद्र में गोते खाने से कम नहीं है। यदि उसे इस शहर में जीना है तो वह संवेदनशीलता को पैरों तले रौंदता हुआ चला जाये।
ReplyDeleteAsha Sharma वाह!अनूप क्या कहने।
ReplyDeleteBhatt Hemantkumar १९७३ में बम्बई घूमने आया था. उस वक्त के वीटी स्टेशन की हुबहू तस्वीर आपने पेश कर दी।यह मूर्ति बेबे से कम नहीं है। आपने वास्तविक बम्बई का चलचित्र इस मूर्ति के प्रोजेक्टर से मन के सिनेमास्क़ोप पर्दे पर अंकित कर दिया है। बम्बई का जीवन हर उस व्यक्ति के लिए चुनौती भरा रहा जो पहली बार रोज़गार के चक्कर में इधर उधर भटकता रहा। वीटी स्टेशन से चर्चगेट के बीच से गुजरते हर व्यक्ति को इस मूर्ति की कहानी सुननी पड़ती थी। लेकिन हर किसी को परवाह नहीं होती थी उस बूढ़े की या उस युवक की। यह मार्मिक वर्णन उन व्यक्तियों के मन को छू जाता है जिन्होंने उस समय की बम्बई देखी है। मुम्बई वाले शायद ही इसका अन्दाज़ लगा सकें। कहानी से स्पष्ट झलकता है लेखनी और लेखक का मन आपस में जुड़ गए हैं, एक दूसरे में गूँथ गए हैं। अभिनंदन।
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