छायांकन : हरबीर सिंह मनकू |
बजती हुई सांकल
(विजय कुमार की तीन कविताओं पर एक टिप्पणी)
कुछ को-
सबको नहीं
सब में से बहुतों को भी नहीं
बल्कि बहुत कम को।
नहीं गिन रही स्कूलों को, जहां जरूरी है
और खुद कवियों को
एक हजार में कोई दो लोगों को।
पसंद है-
पर किसी को
चिकन सूप और नूडल भी पसंद है
किसी को तारीफें
पसंद हैं और नीला रंग
किसी को पुराना
स्कार्फ पसंद है
किसी को रौब
जमाना पसंद है
किसी को कुत्ते को सहलाना।
कविता-
पर कविता है क्या
कई ढुलमुल जवाब दिए गए हैं इस सवाल के
लेकिन मैं नहीं जानती, नहीं ही जानती
पर थामे हुए हूं इसे
जैसे जंगला पकड़ते हैं।
विस्लावा सिंबोर्स्का
(अंग्रेजी अनुवाद : रेगीना ग्रोल)
प्रसिद्ध कवयित्री विस्लावा सिंबोर्स्का की इस ‘कुछ को पसंद है कविता’ नामक
कविता में दो बातें स्पष्ट दिखाई पड़ रही हैं। पहली यह कि कविता के प्रेमी बहुत
ही कम लोग हैं। स्कूलों में यह जबरदस्ती पढ़ाई जाती है। और कवि चूंकि खुद लिखते हैं
इसलिए वे तो पढ़ेंगे ही। बाकी दुनिया जहान को ढेर सी और चीजें पसंद हैं। कविता उनकी
पसंदगी के दायरे में नहीं आती। कविता में दूसरी बात एक सवाल की तरह है कि कविता है
क्या? कवयित्री
को ऐसा लगता है कि कोई भी कविता की परिभाषा से संतुष्ट नहीं है। दूसरे शब्दों में कविता
की सारी परिभाषाएं आधी-अधूरी हैं। कवयित्री जोर देकर कहती हैं कि वह नहीं जानती, नहीं ही जानती। अपने यहां की शब्दावली में सोचें तो क्या यह ‘अनिर्वचनीय’ ‘अगम्य’ किस्म की ‘शै’ है? या एक कदम आगे जाकर ‘नेति नेति’ कह दें? तब तो यह ‘ब्रह्म स्वरूप’ होने लग जाएगी जिसे कोई नहीं समझ सकता। यानी समझ नहीं सकता तो समझा नहीं सकता
यानी व्याख्या नहीं कर सकता यानी यह अपरिभाषेय है। यहां ध्यान दीजिए, इन पारिभाषिकों का प्रयोग करने से कविता का संबंध हमारी जीती जागती कविता से
टूट सा गया लगता है। वह एक ‘ऑर्गैनिक एंटिटी’ न रहकर कोई ‘रहस्यमयी सत्ता’ सी
हो गई लगती है। इससे यह पता चलता है कि ‘नहीं जानती, नहीं ही जानती’ जैसे साधारण शब्दों से जो अर्थ ध्वनित
हो रहा है, वह पारिभाषिकों के घटाटोप में छिप जा रहा है। कविता
के शब्दों में ‘न जान पाने’ की सहजता और
लाचारी सी है जो पारिभाषिकों में ध्वनित नहीं होती।
कविता की अगली पंक्ति इस नकार और लाचारी को एक सकारात्मकता प्रदान
कर देती है, जब कवयित्री कहती है कि कविता भले ही कम पसंद की जाती है लेकिन वह इसे थामे
हुए है जैसे जंगले को पकड़ते हैं। जंगले को पकड़ने से अर्थ छटाएं बिखरने लगती हैं।
वह जंगला बरामदे का हो, बालकनी का हो, जहां
सामने का विस्तार खुलता है या किसी पहाड़ी सड़क के मोड़ का जंगला हो जहां से घाटी खुलती
है।
इस अर्थ में कविता एक भरोसा हमारे भीतर पैदा करती है। समाज में तरह-तरह के अल्पसंख्यकों को
यूं ही हजार तरह के भय होते हैं। कविता प्रेमी जैसे अल्पसंख्यकों की तो बिसात ही क्या
है। यह बहुत ही सीमित दायरे वाली अल्पसंख्या यानी ‘माइनारिटी’
है। पर मजे की बात है की बावजूद ‘नगण्यता’
के, यह सभ्यता की शुरुआत से ही मौजूद है और तमाम
तरह की ताकतों के सामने खड़ी है। यूं तो कविता लोक में भी है, लोकप्रियता के स्पेस में भी है, अकादमिक जगत में भी है,
सत्ता के साथ भी है सत्ता के विरोध में भी है। कविता मनोरंजन और आनंद
की तरह भी है और असुविधा भी पैदा करती है। इस पृष्ठभूमि में विजय कुमार की तीन कविताओं
‘अनुपस्थित कवि’, ‘कवि का यकीन’
और ‘लिखना’ को हम यहां देखते
हैं।
‘अनुपस्थित कवि’ नामक कविता
शुरू ही इस प्रश्न से होती है कि जब कोई कविता नहीं लिखता, तब
भी कविताएं लिखी जाती हैं। क्या इसका अर्थ यह है कि कविता शब्दबद्ध हो या न हो,
जीवन-जगत में तो कविता घटित होती ही रहती है। जिन
तत्वों से कविता रूपाकार ग्रहण करती है, वे तत्पर हैं -
कविता के प्रसूतिगृह में कविता के रूप में जन्म लेने को आतुर कि कोई
कविता लिखने के लिए उनका इस्तेमाल करे । कविता के तत्व भी बताए गए हैं जैसे
- दृश्य, बिंब, प्रतीक,
बयान, पंक्तियां, कोरा कागज,
शब्द, छूटी हुई जगहें, इत्यादि।
ये सब प्रतीक्षातुर हैं। कविता उद्घोषणा के रूप में होगी या या शोक सभा में लिखी जाएगी।
इस कविता को लिखने वाला कवि -
जो अनुपस्थित है
...
तब वह कहां रमा हुआ है?
दुनिया के किन पचड़ों में?
दुख की किस रातपाली में?
ऊब के किस ओवरटाइम में?
दुनिया की ताकत के सामने खड़ा है यह अनुपस्थित कवि, निहत्थे व्यक्ति की बगल
में। जीवन में जो प्रतिकूल घटित हो रहा है, वह उसे देख रहा है।
कविता लिखे जाने के लिए एक 'सनक' चाहिए,
'कल्पना' चाहिए, 'विवरणों'
के भीतर जाना होगा, ‘घोंसलों में नींद जल का
स्पर्श / और थोड़ी सी धुकधुकी’ कविता
में आगे जो तत्व बताए गए हैं, वे एक तरफ जीवन को पूर्णता,
गहनता, व्यापकता और संवेदना के साथ समझने के औज़ार
प्रतीत होते हैं और शायद कवि को इनकी जरूरत है। पहले हिस्से में कविता के शिल्प से
जुड़ी चीजें हैं और उसके बाद जीवन से जुड़े जीवंत घटक हैं, कविता
लिखने के लिए इनकी भी जरूरत है।
सफलता की सीढ़ियों को नजरअंदाज करना, मयनोशी, रातों में सड़कों पर भटकना, मीलों पैदल चलना प्राय:
बोहेमियन के लक्षण हैं और कवियों कलाकारों के साथ भी चस्पां होते हैं।
इन लक्षणों के कारण कवियों की बदनामी ज्यादा है। लेकिन ध्यान से देखा जाए तो इसके पीछे
एक भीतरी बेचैनी और आजादी की चाह है। कविता में कहा गया है -
क्या ये अब भी एक कवि के दरवाजे की सांकल
बजाते हैं कभी कभी?
कविता में यह सवाल
उठाया गया है कि कविता जो चारों तरफ बिखरी पड़ी है और लिखे जाने के लिए बेताब है, उसे रूपाकार देने वाला कवि कहां है? कविता
की अगली पंक्तियां यानी कविता लिखने के उपादान कुछ इसी तरह कवि को उकसा रहे हैं।
‘... शीर्षक इतना अधीर
कि डरा दे आधी रात
कागज जो कोरे हैं
क्या देंगे धमकी ...
डराए यह रौशनाई ...’
पसलियों में जलती
लालटेन,
जिद, बेकली, नशीली धुन,
ढोलक पर थाप, गटर के गंदे पानी में सितारों की
परछाइयां, सीने पर पत्थर जैसा बोझ, निस्सारताएं,
विफलताएं, ये सब किसी अजूबे की तरह जीवन के
हाशिए पर पड़े हैं ... ये कुछ ऐसे अवयव हैं, जिन्हें कवि
कविता के लिए आवश्यक समझता है। लेकिन कवि अनुपस्थित है।
विस्लावा सिंवोर्स्का
को लगता है कि जीवन में कविता की मौजूदगी बहुत क्षीण है। पर कवयित्री को कविता पर
भरोसा है। वह उसे सहारे की तरह थामे हुए है। विजय कुमार काव्य रचना के बाहरी और
भीतरी पुर्जों को तरह तरह से हमारे सामने रखते हैं; और
खासे दिलकश और आवेग भरे अंदाज में; और बिंबों, रूपकों और बयानों के माध्यम से रखते हैं। लेकिन वहां कवि गैर हाजिर है।
क्या यह अजीब है कि कविता लिखे जाने के सभी तत्व मौजूद हैं, वे
तत्पर हैं कि कोई उनसे कविता बनाए पर कवि गैरहाजिर है? क्या
यह किसी तरह का विरोधाभास है? आगे
बढ़ने से पहले विजय जी की दो अन्य कविताओं पर भी नजर डाली जाए। ये कविताएं भी कवि
और कविताओं से ही संबंधित हैं।
‘बुजुर्ग
कवि का यकीन’ एक कठिन समय के बीच खड़ी है। विजय जी की ही एक अन्य
गद्य पुस्तक है ‘अंधेरे समय में विचार’।
यह कविता कुछ कुछ उसी तरह के अंधेरे समय को या एक विकराल समय को कविता की सत्ता
में स्थापित करती है।
‘शहर
का सबसे बूढ़ा कवि
आधी रात शहर के सबसे पुराने इलाके में
एक दुकान में
अधजली रोटी शोरबे में डुबोकर खाता है’
कविता इस दृश्य से शुरू होती है। आगे बहुत लंबी उदास रात है, हवा
बंद है, चांद पहले से ज्यादा टेढ़ा है (यह मुक्तिबोध के प्रसिद्ध
बिंब से आगे और अधिक कठिन समय का बिंब है), पेड़
कट चुके हैं, पक्षी कलरव नहीं विलाप कर रहे हैं, नदियों
में पानी सूख चुका है, पुस्तकें फट चुकी हैं, स्वप्नदर्शी
की स्मृति को भी मिटा दिया गया है। और ऐसे भयावह समय में सड़कें एकतरफा हैं यानी
मत भिन्नता की जगह नहीं बची है।
इस भयावह स्थिति में कवि की कोई जगह नहीं बची है। लेकिन कवि का यकीन कायम
है। यह यकीन सनक की तरह लग सकता है, पर है। कवि को विश्वास है कि जो तरह-तरह के अपराध करने
में लिप्त हो गए हैं, वे थक कर लौटेंगे ही नहीं, कवि
के शब्दों को भी तलाश करेंगे। कविता पर यह गजब का यकीन है। दुनिया को रहने लायक
बनाने का एक तरीका भी यह है। कवि का यह यकीन शुरू में दी गई विस्लावा सिंबोर्स्का
की कविता में व्यक्त यकीन से थोड़ा अलग है, ज्यादा
जिद्दी। कवि को तो यकीन है पर इस कविता में इस यकीन के बारे में कहा गया है कि ...
‘कवि का यकीन / बाहर के बियावान से ज्यादा भयावना’ है। इससे यह प्रतीत होता है कि यह यकीन अविश्वसनीय ढंग
से गहरा है। गहरे से भी गहरा। यानी कि अमानवीय होती इस दुनिया को आखिरकार कविता ही
बचाएगी।
विजय जी की तीसरी कविता है ‘लिखना’। यह भी कविता से पाए जाने वाले भरोसे को जिंदा करती है।
कविता कोई जादू की पोटली नहीं है कि वह दुनिया को सुधार देगी, इन्साफ
दिला देगी, जानलेवा बीमारियों से निजात दिलवा देगी, न्यायधीशों
को भावुक कर देगी या भुखमरी दूर कर देगी। हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जो ‘नियॉन
साइनबोर्ड’ की तरह चमक रही है। शाम का वक्त है और यह हमारे लिए
निरर्थक है। हम घर का रास्ता भी भूल गए हैं। इस बिंब के जरिए मन:स्थिति की कल्पना
कीजिए, कितनी दारुण और डरावनी है। समय इतना बदहाल है और
‘दुनिया
के तमाम कवि
रोज असंख्य
कविताएं लिख रहे हैं’
इसके बाद कविता में प्रश्न किया गया है कि
‘तो
क्या ये तमाम कविताएं
चाबियां हैं किन्हीं ओझल दरवाजों की
जो समय के बाहर खुलते हैं?
के किन घावों का निशान लिए
इंसानों की परछाइयां बैठी हुई हैं भाषा में?’
प्रश्न की तरह एक संभावना व्यक्त की गई है कि शायद ऐसा हो सकता है कि कविता
समय के परे ले जा सकती है।
तमाम कविताएं उस भाषा को पकड़ने की कोशिश करती हैं जिनमें इंसानों की
परछाइयां हैं और उनकी आत्मा पर घावों के निशान हैं। यानी कविता में आभ्यंतर तक
घायल मनुष्य दिखाई पड़ता है। या यह कोई मौन स्मृति है जिस पर तितली मंडराती है।
यानी वह स्मृति किसी फूल की तरह है। यानी कविता में मनुष्य की पीड़ा, दुख
और स्मृति दर्ज रहती है। यह कोमल है; इसमें रंग और खुशबू
हैं जिसकी तरफ तितली आकर्षित होती है। यानी सौंदर्य की खोज करती है कविता। सौंदर्य
में दुख, पीड़ा, स्मृति, कोमलता, रंग, खुशबू, सृजनात्मकता का समावेश है। इस तरह कविता के अर्थ खुलते
जाते हैं और उसकी उपादेयता, उसकी उपस्थिति, उसकी अनिवार्यता
स्वयं सिद्ध हो जाती है।
कोई भी रचना या कलाकृति एक दिक् और काल में निबद्ध होती है। उसी में रहते हुए वह दिक् और काल के आर-पार विचरण करती है। सिंबोर्स्का की कविता एक रोमानी सा और बादलों की तरह का हल्का-फुल्का यानी भारहीन और बेठोस सा दिक् काल रचती है। उसी में से कविता के प्रति दृढ़ विश्वास उभरता है। दूसरी तरफ विजय कुमार की कविताएं कठिन, कर्कश, बीमार, अपराध, हिंसा, लूट-खसूट, ज्ञान-कला-संवेदना विरोधी और अमानवीय होता हुआ सा दिक् काल रचती हैं। बेशक इसमें हमारे ही समय का वर्तमान धड़कता है। इस कठीन, कठोर, ठोस, सांद्र, परिस्थिति के बीच कवि काव्य रचना की संवेदना- संभावना की तलाश करता है। इसी बीमार समय में कवि और कविता पर भरोसे को संभव करता है, वह भी शिद्दत के साथ।
हमारे समय में भरपूर कविता लिखी जा रही है। तरह तरह की कविताएं लिखी जा रही हैं। कवियों और कविताओं के कई संस्तर हैं। कवि और उनके जितने भी थोड़े बहुत रसिक हैं, वे अपने अपने दायरे में मस्त हैं। वे अपनी अपनी तरह की कविताई से संतुष्ट हैं।
यहां जिन कविताओं की चर्चा की गई है, इनकी
केंद्रीय चिंता है कि कविता जीवन के भीतर कुछ और धंसे। कविता जहां-जहां जो-जो
संधान की रही है, वह पर्याप्त नहीं है, उससे
और आगे जाए। हमारा यह ‘स्वप्नदर्शी’ कवि जिस तरह से कविता
को देख रहा है, उस तरह की कविता का रचयिता कवि दृश्य में मौजूद नहीं है।
जीवन के भीतर धंसकर कविता को खंगालने, ढूंढ़ने और साकार
करने की बेचैनी इन कविताओं में है। इन कविताओं में मौजूदा कविताओं और काव्य-स्पेस
के प्रति नकार का भाव नहीं है। यहां सिर्फ कविता के बनने को ही तरह-तरह से कहा गया
है। कवि के ‘अनुपस्थित’ होने की असहायता केवल
ध्वनित हो रही है।
यह लगता है कि वह कुछ
भिन्न चाहता है। ऐसा हर कवि के साथ होता है या हो सकता है कि वह जो लिखता है, उससे कभी कभी पूरी तरह संतुष्ट न
हो। वह जीवन की अतल गहराइयों में घुस कर सच्ची और अप्रतिम कविता संभव करना चाहता
है। खुद से भी और अपने वक्त के कवियों से भी वह ऐसी ही अपेक्षा करता है। इन तीनों
कविताओं में काव्य लेखन के कुछ नवीन, कुछ अनछुए, कुछ गहन आयाम तलाश करने की एक तरह की छटपटाहट महसूस होती है।
इन चारों कविताओं में कुछ
शब्द स्फटिक मणियों की तरह चमकने लगते हैं। ‘नहीं जानती’, ‘जंगला’, ‘लिखना’, ‘अनुपस्थित कवि’, ‘यकीन’,
‘सांकल’ और ‘चाबियां’। इन सप्त मणियों की अपनी-अपनी अलग-अलग व्याख्याएं इन कविताओं के संदर्भ में
दीप्त होने लगती हैं। ये परस्पर संबद्ध होकर ही अर्थच्छायाओं के नए आयाम खोल सकती
हैं। यह इस काव्य आस्वाद का अगला चरण हो सकता है।
इस बिंदु पर विजय कुमार जी
की पहली आलोचना पुस्तक ‘कविता की
संगत’ को खंगालना दिलचस्प होगा। इस किताब में उनका एक लेख
है, ‘क्या कविता गवाही देगी?’ सन् 1993 में लिखा गया यह लेख सोवियत संघ के विघटन और भूमंडलीकरण के पैर पसारने के
दौरान हो रहे परिवर्तनों को दर्ज करता है और अपेक्षा करता है कि कविता इस बदलते
हुए समय की परख करे। कुछ उद्धरण दिए जा रहे हैं जिनकी
व्याख्या की जरूरत नहीं है।
‘‘हमारे समय में कविता की गवाह बनने,
याद रखने और दर्ज करने की शायद एक नई तरह की भूमिका उभरी है।’’
(पृष्ठ 34)
‘‘आज लिखी जा रही कविता घटनाओं की
गवाही इसी अर्थ में देगी कि हम तुष्टि, विस्मृति और उदासीनता
के इस भयावह अंधकार के खिलाफ कितनी देर तक टिके रह सकते हैं।’’ (पृष्ठ 35-36)
‘‘हिन्दी की समकालीन कविता के एक
बड़े हिस्से में दुर्भाग्य से इस तरह की गवाही आज ज्यादा नहीं है।’’ (पृष्ठ 36)
‘‘यह एक सच्चाई है कि आज हम अपने
समय का एकीकृत और कन्डेंस अनुभव प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। हम विवरणों, घटनाओं, प्रसंगों में इस प्रकार नहीं धँस पा रहे हैं
कि उनमें रमें भी, एक साथ उन्हें ट्रांजेंड भी कर दें।’’
(पृष्ठ 37-38)
जो छटपटाहट, अकुलाहट और प्रश्नाकुलता यहां
उल्लिखित तीन कविताओं ‘अनुपस्थित कवि’, ‘कवि का यकीन’ और ‘लिखना’
में है, लगभग उसी तरह की मन:स्थिति
इस लेख में प्रतीत होती है। ऊपर दिए गए उद्धरणों से यह झलक मिल जाती
है। इसी किताब में विजेंद्र जी को एक खत के रूप में लिख गया एक लेख है, 'अमानुषिकता के बीच कविता जिंदा है'। इस लेख में विजय
जी ने कविता के प्रयोजन को खोला है।
‘‘... जानकारियां देने वाले दूसरे
तमाम माध्यमों की तरह कविता भी अपने समय की गवाही देना चाहती है पर इस गवाही में
केवल तथ्यों को इकट्ठा कर लेना भर नहीं है।’’ (पृष्ठ 201)
‘‘कवि चीजों से गुजरते हुए एक ओर
स्वयं को बचाये रखने की जद्दोजहद में रहता है, दूसरी ओर वह
चीजों को भी बदल देना चाहता है। यह दोतरफा लड़ाई है।’’ (पृष्ठ
201) इस बात को विजय जी ने विष्णु खरे की 'घर' कविता के जरिए स्पष्ट भी किया है।
‘‘एक कवि के रूप में हम बार बार इस
चीज को जानना चाहते हैं कि हमारी उलझनें क्या हैं और हमारी क्षमताएं क्या हैं?
क्योंकि हमारे सबसे अच्छे इरादों के बावजूद, हमारे
सबसे महान विचारों के बावजूद हमारे जीवन से कितना कुछ छूटता चला जा रहा है,
कितना कुछ हम भूलते चले जा रहे हैं। वे तमाम चीजें जिनमें हमारा
हस्तक्षेप हो सकता था, वे हमसे याचना करती दिखाई पड़ती हैं,
हम लगातार उन्हें विस्मृत करते चले जाते हैं। हमारी अधूरी इच्छाएं
और हमारी स्वीकृतियां, हमारा लगातार संतप्त निजी
अन्तर्द्वन्द्व और हमारे विचारों की ऊंचाई, हमारे इरादे और
हमारे भीतर का आदिम अंधकार, हमारे आदर्श और हमारे साधनों की
सीमाएं, हमारी दुनियावी सफलताएं, और
हमारी झूठी स्वैरकल्पनाओं में जीने की थकी हुई इच्छाएं, हमारी
अनवरत और अनिश्चित किस्म की उत्कंठित अन्यमनस्कताएं और हमारी सबसे स्पष्ट
व्यावहारिकताएं - यही सब कुछ कविता का विषय बनता है। और सबसे अचरज की बात है कि
रचते हुए हमेशा एक आधुनिक कवि को यह लगता है कि कविता केवल इसी सबकी गवाही ही नहीं
देना चाहती, वह इस सबको भरपूर गाना भी चाहती है। बहुत प्रकट
दिखाई देने वाले अन्तर्विरोधों में और इसी सबको साफ तौर पर न सुलझा पाने पर हमेशा
भीतर मौजूद रहने वाली कसक कविता में छिपी रहती है।’’ (पृष्ठ 202)
इस तरह विजय जी की ये
कविताएं और उनके लेख हमें कविता के रूपाकार, कविता से अपेक्षाओं-आकांक्षाओं और कविता के प्रयोजन
को समझने में मदद करते हैं। वे परस्पर भी एक दूसरे को स्पष्ट करते हैं। और एक
विमर्श की निर्मिति होती है।
(इस टिप्पणी के लिए हृदयेश जी का आभार, जिनके कई बार कहने पर यह लिखी जा सकी। साथ ही केरल के हिन्दी के युवा प्रोफेसर महेश एस का आभार। एक वेबिनार में महेश ने विजय जी की तीन कविताओं की सुंदर व्याख्या की। उन तीन में से एक कविता 'अनुपस्थित कवि' भी थी। संयोग से ही मैं उस वेबिनार को सुन पाया और महेश जी की बातों से ही मुझे लगा कि मैं भी इस कविता पर कुछ बात कर सकता हूं। अरुंधती का भी आभार जिसने विस्लावा सिंबोर्स्का की कविता ढूंढ़ कर दी। इस कविता का जो अनुवाद मैंने किया है, वह बहस-तलब हो सकता है। इसे बेहतर बनाया जा सके तो खुशी होगी।)
No comments:
Post a Comment