Saturday, December 4, 2021

मुंबई : अंतर्यात्राएं

 


सन् 2005 में मुंबई के गोरेगांव (पश्चिम) में रहते हुए हमें एक ही साल हुआ था। आईबीपीएस में कॉन्ट्रैक्ट की नौकरी को भी एक ही साल हुआ था। मेरे घर से दफ्तर की दूरी दस ही किलोमीटर थी पर ऑटो, ट्रेन और बस बदल कर जाना पड़ता। घर से पौन घंटा लगता था। डायरी के ये अंश उन्हीं टुकड़ा-टुकड़ा यात्राओं से जुड़े हैं। और नवनीत मासिक के नवंबर अंक में प्रकाशित हुए हैं। 

 

14 मार्च, 2005

गोरेगांव से कांदिवली स्टेशन तक लोकल ट्रेन की निर्धारित दूरी छह मिनट है। छह मिनट यानी जरा टिक कर खड़े होइए और तीसरे स्टेशन पर उतर जाइए। आज दफ्तर जाते समय बैठने को जगह मिल गई। मुंबई का जलवा है कि ट्रेन की यात्रा तो छह मिनट की ही है, पर घर से गोरेगांव स्टेशन और कांदिवली से दफ्तर (आईबीपीएस) तक पहुंचने में पौन घंटा या पचास मिनट लग जाते हैं। ट्रेन की जरा सी दूरी में भी लालच रहता है कि कुछ पढ़ लिया जाए। ओमा शर्मा की साहित्य का समकोणमें स्टीफन स्वाइग पर लेख पढ़ रहा था, तभी फोन की घंटी बजी। धर्मशाला से तेज भाई (मेरे बड़े भाई) थे। उन्होंने तुरंत फोन लोक गायक की तरफ कर दिया। वह ढोलरूगा रहा था। आज संक्रांति है। नया वर्ष आरंभ हो रहा है। हमारे यहां (यानी हिमाचल के हमारे इलाके में) नए महीने यानी नए साल के पहले महीने का सबसे पहले नाम लोक गायक लेते हैं। ट्रेन रुक गई थी। समय ज्यादा लग रहा था। अचानक समय भी कितना लंबा हो गया था। कहां स्टीफन स्वाइग, कहां मुंबई और कहां धर्मशाला, कहां वहां आया हुआ लोक गायक और उसका गायन ...।

मैं जैसे समय से परे तिर रहा था ... फ्लूइड...। पर यंत्रवत् ट्रेन के कांदिवली पहुंचने पर उतरा भी। धक्कमपेल के बीच प्लेटफार्म पर इतनी भीड़ कि धक्का दिए बिना एक कदम आगे नहीं बढ़ सकते। इसी दौड़ के बीच में से होते हुए बस पकड़ी। समय पर दफ्तर पहुंचना है। पौने दस से पहले कार्ड पंच करना है। 

6 अप्रैल, 2005

आज सुबह यूं तो देर हो रही थी, पर शायद इसी दबाव में जल्दी तैयार हो गया। ऐसी स्थिति में घर से राम मंदिर रोड से होते हुए एस वी रोड तक पैदल जाना ठीक रहता है। करीब सात मिनट लगते हैं। यहां से ऑटो के 9 रुपए लगते हैं। घर से लो तो तेरह रुपए। अगर वहां शेयर ऑटो मिल जाए तो 3 रुपए में ही काम हो जाता है। शेयर ऑटो एस वी रोड से ही मिलता है। वह भी, कभी कभी, क्योंकि ऑटो तो होते हैं सवारियां नहीं होतीं। आज संयोग से सवारियां थीं। 3 रुपए में गोरेगांव स्टेशन पहुंच गया।

ऑटो में भोजपुरी किस्म का कैसेट चल रहा था। पहले लगा, यह वही भब्बड़ किस्म का संगीत है, बंद करा दिया जाए। पर धीरे धीरे लगने लगा कि है तो लाउड पर कहीं लोकगीत वाली छटा भी है। बांसुरी भी बीच बीच में उभर रही थी। गीत के कुछ शब्दों के अर्थ याद रह गए। कि सारा जग तो जीत लिया पर घर में हार गया। जिस भाई को पीठ पर चढ़ाया था, उसी ने पीठ में छुरा घोंपा।मैं इंतजार करता रहा कि पंक्ति दोहराई जाएगी, पर नहीं। तब तक स्टेशन आ गया। चार-पांच मिनट की यह यात्रा जैसे काल से परे ले गई। संगीत के लोक में?

तभी लगा कि यह सुबह अचानक खिल सी गई है। मुक्त कर दिया इसने। ख्याल आया ये वसंत के दिन हैं। प्रकृति में ही कुछ होगा। एक मस्ती, एक खिलंदड़ापन। संयोग से ट्रेन लेट आई इसलिए मिल गई। भीड़ भी ज्यादा नहीं थी। दरवाजे पर खड़े होकर हवा खाता हुआ, पटड़ियां देखते हुए आगे बढ़ा। आज कोई पुस्तक साथ नहीं थी। 

18 मई, 2005

आजकल लोकल ट्रेन में भीड़ जरा कम है। प्लेटफार्म पर भी धक्के कम देने पड़ते हैं। स्कूल-कालेजों की छुट्टियों की वजह से लोग सपरिवार शहर से बाहर चले जाते हैं। मुंबई की भीड़ पहाड़ी चश्मों जैसी हो गई है। गर्मियों में पानी सूख सा जाता है। वेग भी कम हो जाता है। लेकिन यह परिवर्तन वेसा ही है कि आमतौर पर तिल धरने को जगह नहीं होती तो अब अखरोट धर सकते हैं। 

19 मई, 2005

कई बार दफ्तर में ए सी का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है। ठंड लगती है। हाथ सिकुड़ने लगते हैं। सुमनिका कहती है कोट पहन जाओ। दफ्तर में कोट पहनना, मुंबई में अटपटा लगता है। टाई भी। ये अफसरों के परिधान हैं। ड्रेस कोड का हिस्सा। यूटीआई में वासल साहब कहते थे, यार शाम को डिनर पे जाना है, कोट पहन के चले गए और चेयरमैन कमीज पेंट में आ गया तो तौहीन हो जाएगी। क्या पता अगला क्या समझे। निकलते वक्त पता चल जाए या दिख जाए तो कोट दफ्तर में ही छोड़ दो। या फिर सफारी ही ठीक है। कोट की कमी भी नहीं खलेगी, बुरा भी नहीं लगेगा।

कारपोरेट अफ्सर काले या नीले रंग के सूट पहनते हैं। मैं तो यहां कॉन्ट्रैक्ट पे हूं। कोट पहनना अजीब ही लगेगा। हिन्दी अफ्सरी के दौरान ठंडे इलाकों में जाने पर ही कोट पहना। टाई मीटिंगों में पहननी पड़ी। पर दम घुटता है।

रेडियो में कपड़ों के प्रति लोकतांत्रिक रवैया था। वहां लेखकों वाला झोला ले के चलता था। सुमनिका अभी भी वैसा ही झोला ले के कालेज जाती है। आकाशवाणी की नौकरी के शुरुआती दौर में ब्रीफकेस की हसरत थी, खरीद लिया। पर ट्रेन में बड़ी असुविधा होती थी। लगता था उसे ढो रहा हूं। एक बार उसमें से बटुआ चोरी हो गया। अब वो अलमारी के ऊपर शोभाएमान है। कपड़े भी वहां मन मर्जी के पहन सकते थे। टीशर्ट, कमीज, कुर्ता, चप्पल, सेंडिल, जूता, कुछ भी। आईडीबीआई और यूटीआई में यह संस्कृति नहीं थी। कमीज भी पेंट के अंदर ही खोंसी जाती है। मतलब पेटी भी बांधनी होगी। मोजे जूते पहनने होंगे। झोला नहीं चलेगा। बाद में कंधे पर टांगने वाले बरसाती बैग आए। उन्होंने बाबुओं को ब्रीफकेस से उबार दिया। फिर कंधे वाले बैंगों की जगह बैगसैक आ गए, जिन्हें पिछले जमाने में पिट्ठू कहा जाता था।

स्मार्ट किस्म के बाबू एक जोड़ी जूता दफ्तर में रखते थे। ट्रेनों, बसों के धक्कों के लिए मैला कुचैला जूता, दफ्तर के अंदर चकाचक गुरगाबी। कुछ शौकीन तो अपनी दराज में परफ्यूम भी रखते हैं।

आकाशवाणी की नौकरी के दौरान, एक बार मंहगे जूते खरीद लिए, चमड़े के सोल वाले। हमारे उद्घोषक साहनी साहब ने देखा तो कहने लगे, बाऊजी ये कालीन से चलकर गाड़ी में बैठकर आने वाले जूते हैं, सड़क पर चलने वाले नहीं। ये चलेंगे नहीं।

असल में कोट, टाई, जूते जैसी वर्दी को बचाकर रखना हो तो कार में जाना चाहिए। कारों वाले लोग चुनिंदा होते हैं। यूं तो इधर मध्य वर्ग का हर कोई कार रखने लगा है, लेकिन परिधान का यह शौक वही लोग पूरा करते हैं जिन्हें दफ्तर की गाड़ी मिलती है। क्योंकि कार दिखाने के लिए ज्यादा रखी जाती है, चलाने के लिए कम। हां, नव-एक्जिक्यूटिवों की बात और है। जिन्हें दफ्तर गाड़ी देता है, वे गिने-चुने होते हैं। जेब से धेला नहीं खरचते, रहते शान से हैं। मुंबई जैसी गर्म और उमस भरी जगह में कोट टाई उन्हीं को शोभा देते हैं। सर्द इलाकों में कोट जरूरी है। हालांकि वहां भी स्वैटर, कोट पर भरी पड़ता है। स्वेटरों के अलग-अलग डिजाइन कारपोरेट वर्दी की हवा निकाल देते हैं।    

15 जून, 2005

कल सुबह गोरेगांव स्टेशन पर ट्रेन में चढ़ा तो एक व्यक्ति की तरफ ध्यान गया। कुछ समानता थी। फिर खुद को देखा। समझ में आया। हम दोनों की कमीजें एक जैसी थीं। हरा सफेद चारखाना। मैंने रेमण्ड का लिया था सिला-सिलाया। उन्होंने भी रेमण्ड से ही लिया होगा। अजब संयोग है। पहली बार। एक जैसी कमीजें पहने दो अपरिचित लोग गाड़ी के एक ही डिब्बे में हैं। मैं और घूरता तभी उनकी पत्नी बोल उठीं, एक जैसी कमीज। उसके बाद मुझे संकोच होने लगा। उस तरफ देख नहीं पाया। उन्हें खिड़की के साथ वाली सीट मिली और वे लपक लिए। तब मैंने कनखियों से देखा उस व्यक्ति का चेहरा। मुझसे थोड़े बड़े, लंबे भी। बाल कम। तगड़े पर मोटे नहीं। 

24 जून, 2005

गोरेगांव (पश्चिम) में स्टेशन के बाहर एक डाकघर है। यूं गोरेगांव का स्टेशन से बाहर का सारा का सारा बाजार ही पुराना सा है, पर यह डाकघर और भी प्राचीन है। दफ्तर से लौटते समय देखा, शाम के सात बजे यह खुला था। एक दो लोग काम में लगे थे। ग्राहक नहीं थे। एक बाबू बैठे थे। सब पोस्ट मास्टर। पुराना मेज। पुराने कागज। पुरानी इमारत। धूल-धूसरित पुराने बाबू। वे कोई अश्वेत से लगते थे। भारी-भरकम। मंद-मंथर। चौड़ा चश्मा। बड़ा सा मुंह। अरे भई! रात को सात बजे भी काम में लगे रहते हैं? एक आदमी पीछे दरवाजे की तरफ आ-जा रहा था। वहां रोशनी थी। जैसे वो दरवाजा कहीं गली में खुलता था।

अगले दिन सुबह आठ बजे वहां फिर गया। सब पोस्ट मास्टर वहीं अपने मेज पर विराजमान थे। उन्हें देख कर लगा, यह व्यक्ति दिन-रात यहीं बैठ कर काम करता रहता है। यह कोई पराजीव है। भूख-प्यास, नींद-थकान से परे सिर्फ बैठा-बैठा काम करता रहता है।

आज सुबह फिर वहां गया तो भी सब पोस्ट मास्टर वहां बैठा था। वह कागज देख रहा था। बीच-बीच में नाक में उंगली डालता था।

मुझे एक स्पीड-पोस्ट करना था। लेकिन वह बाबू दिल्ली का भाड़ा नहीं बता पाया। जल्दी में मैं वहां से निकल के एक आदमी की सलाह पर गोरेगांव (पूर्व) में चला गया। पर इधर पोस्ट आफिस चार जगह पूछने पर मिला। पहली मंजिल पर। काउंटर पर महिला से पूछा – स्पीड पोस्ट। नंबर 1 पर जाइए। वहां कोई नहीं था। मैंने पूछा कहां हैं? बोली, अभी आए नहीं। क्या पता कहां होंगे। ट्रेन में होंगे। मैं क्या जानूं! मैंने पूछा दफ्तर खुलता कितने बजे है? बोली- नौ बजे। मैंने कहा बड़ी अच्छी बात है।

और अपना पैकेट लेकर उल्टे पैर लौट पड़ा। नीचे उतर कर ऑटो लिया। दफ्तर पहुंचने के लिए 45 रुपए खर्च करने पड़े। ऑटो में बैठते ही गर्दन की नस खिंच गई थी। अभी तक खिंची हुई है।  

21 जुलाई, 2005

बहुत दिन बाद कांदिवली से 300 नंबर बस में वही कंडक्टर दिखा। बेस्ट का बेस्ट कंडक्टर। जो भीड़ के बीच बस से उतर कर बस के लिए रास्ता बनाता है। मैं-मैं करती भेड़ों की तरह बिछलते बिखरते फुदकते ऑटो रिक्शों के बीच में से। आज उसने ठाकुर क्म्प्लेक्स में घुसने पर भी ट्रैफिक को विसल बजा-बजा कर तितर-बितर किया। यह उसका अतिरिक्त प्रयास है जो उसे कंडक्टर से बेस्ट कंडक्टर बनाता है। ऐसी पहल हम में से कितने लोग करते हैं। यह वही सज्जन है जो मेरे बस में चढ़ने-उतरने पर मुस्कुराता-बतियाता है। मुसाफिरों से दोस्ताना करने वाला मित्र कंडक्टर। जैसे दिल्ली में एक ट्रैफिक पुलिस चौराहे पर भरतनाट्यम् करता था। यह भी वैसा ही है, नौकरी की मोनॉटनी में रचनात्मकता और मानवीयता ढूंढ़ लेने वाला। 

28 फरवरी, 2006

कल सुबह ऑफिस के लिए कांदिवली स्टेशन से बस के बजाए ऑटो लिया। जरा देर चलने के बाद ऑटो वाला कुछ लोगों को देखकर रुक गया। उसने उन्हें पुकारा। दो जन आ गए। एक आगे एक पीछे बैठ गए। वे तीनों बहुत जोश में गप्पें मारते रहे। मेरा अहं आहत हो चुका था। ऑटो का किराया मैं दे रहा हूं, शेयर ऑटो थोड़ी है। यह भाई क्यों किसी तीसरे को बिठा रहा है, बल्कि दोस्तों को बिठा रहा है। मैं कुढ़ता रहा। हाई वे पर आकर वे उतर गए। मैंने मन ही मन सोचा, कुछ न कुछ बोलूंगा जरूर। यूं नहीं जाने दूंगा। जब दफ्तर के गेट पर उतर गया तो जरा साहबी अंदाज में कहा, उन लोगों को क्यों बिठाया? पूछना चाहिए था न? ऑटो वाला एकदम खिसिया गया। वो ड्राइवर लोग थे न

खिसियाई हंसी ने मुझे जमीन पर ला पटका। यह आदमी कितना भोला है। कितनी जल्दी शर्मिंदा हो गया। मैं खुद से पूछने लगा, बड़ा चला था अपना हक झाड़ने।   

आज अपने बॉस (आईबीपीएस के निदेशक) से मिला। बात करते समय धड़कन तो हमेशा ही बढ़ जाती थी पर इतनी ज्यादा? आवाज भी रुंधने लग जाती है। मानो बोल ही न निकलेगा। यह क्या हो रहा है अनूप सेठी? फिसल के कहां गिर रहे हो? और घर में क्या करते हो, सोचो? सुमनिका से, बीजी से, अरु से बात-बात पे चिल्ला पड़ते हो। पल भी नहीं लगता, पता भी नहीं चलता। वहां बॉस बने फिरते हो? यहां पता चल रहा है कैसे होता है सामना बॉस से   

30 अगस्त, 2006

आज ट्रेन में तीन लोग दिखे। कांदिवली उतर रहे थे। एक युवा था, एक्जिक्यूटिव क्लास का सा। एक प्रौढ़ था, वृद्धावस्था की तरफ बढ़ता हुआ, पर चुस्त-दुरुस्त। दोनों, बातों में तल्लीन थे। एक तीसरा युवा एक्जिक्यूटिव भी लाइन में लग गया, उतरने के लिए। तीनों ने कॉटन के ट्राउजर्स पहने थे। इन्हें सूती कपड़े की पेंट या पतलून कहने से काम नहीं चलेगा। कॉटन की पेंट या कॉटन की पतलून भी नहीं। ट्राउजर शब्द ही इस नए ब्रांड के परिधान को साकार कर सकता है। एक खाकी, एक फीका सलेटी और हरे की तरफ का खाकी। यह आज के उच्च मध्यवर्ग का पहरावा है। ब्रांडेड शर्ट, ब्रांडेड ट्राउजर्स। अब टैरीकॉट जरा निम्न मध्यवर्ग और बूढ़ों की तरफ सरक गया है।

ख्याल आया इन तीनों रंगों के ट्राउजर्स मेरे पास भी तो हैं। सुमनिका के परिवार के रेमण्ड के सौजन्य से। तो क्या मैं भी उनकी तरह का उच्च मध्यवर्ग का एक्जिक्यूटिव हूं? अपने रंग-ढंग से लगता तो नहीं। पर अरु अक्सर इन्हीं पेंटों को पहनने को कहती है। उसे कमीज के साथ कॉम्बीनेशन बनाना भी आता है। मतलब नए जमाने का कॉम्बीनेशन।    

Tuesday, October 19, 2021

विश्व के कुछ श्रेष्ठ कवि और उनकी कविताएं

 


वे घास की तरह झुकते हैं, चट्टान की तरह अड़ते हैं

विश्व के कुछ श्रेष्ठ कवि और उनकी कविताएं : विनोद दास के अनुवाद की जरिए। 

यह लेख चिंतनदिशा पत्रिका के विनोद दास अंक में प्रकाशित है।   


 

हम किसी कविता को कब, कैसेकिस माहौल में पढ़ते हैंइसका असर उस कविता के हमारे पाठ पर पड़ता है; कविता का रसास्वाद लेने या उसे समझने में।  किसी पत्रिका या पुस्तक में या सिर्फ किसी पन्ने पर, या कंप्यूटर या मोबाइल पर कविता पढ़ने के प्रभाव हम पर अलग अलग हो सकते हैं।  हमारी  मन:स्थिति और  आसपास के माहौल का भी खासा असर होता है। मसलन हम उद्विग्न या उखड़े हुए से हों तो कविता से जुड़ना आसान नहीं। हालांकि कविता कई बार हमारे मन को उबार भी देती है। जरूरी नहीं कि सिर्फ तथाकथित रोमांटिक और गीतात्मक कविता ही मन को उत्फुल्लता की ओर ले जा सकती है, गहन संवेदना की लहर या विचार की कौंध भी हमारे भीतर ऊर्जा भर दे सकती है। कौन सी कविता किस समय किस तरह का रसायन रच दे, कुछ नहीं कहा जा सकता। इस तरह यह प्रदर्शनधर्मी कलाओं की भंगुरता और तत्क्षणता के बीच अनुभव की लुकाछिपी से अलग नहीं होती। यह कविता और काव्य रसिक के बीच की जैविकता है। 

कविता का अपना स्पेस

अब कंप्यूटर और मोबाइल का जमाना है, वह भी कोरोनाकाल में। ट्यूब लाइट की तरह चमकती और चलायमान स्क्रीन पर आभासी कागज पर कविता पढ़ना पारंपरिक तरीके के तुलना में भिन्न है। इस नए माध्यम का अभ्यास करना पड़ता है। इसके साथ एक रिश्ता बनाना पड़ता है वैसे ही जैसे जिल्दबंद किताब से या बंधनमुक्त पन्नों से हमारा पाठकीय रिश्ता बनता आया है। मतलब यह कि आज पाठकीय संदर्भ में कविता का दो तरह का स्पेस निर्मित हो रहा है। एक तो पारंपरिक यानी छपे हुए कागज के जरिए और दूसरा आभासी संसार के साधनों पर फिसल फिसल जाता, पर है यह भी वास्तविक।  

ये बातें मैं विनोद दास की अनूदित कविताओं के संदर्भ में कह रहा हूं। इस दायरे में वही कविताएं हैं जो उन्होंने पिछले एक-डेढ़ साल में फेसबुक पर साझा की हैं। सोशल मीडिया पर जब हम कोई रचना पढ़ते हैं, तो पाठक समुदाय का दबाव भी बनता है जैसे लाइक के रूप में पसंदगी जाहिर करना, तुरंत उस पर टिप्पणी करना। लेकिन बहुत बार तुरंत टिप्पणी लिखने का मन भी नहीं होता। पर पाठक प्रेशर बना रहता है। यह काफी हद तक (भले ही सच्चा-झूठा) पाठ-पाठक रिश्ते को मजबूत करता है। कुछ हद तक बाधा भी खड़ी करता है। पर वहां भी एक काव्य स्पेसतो निर्मित होता ही है। 

चिंतनदिशा में टिप्पणी लिखने के लिए मैंने विनोद दास जी की यही अनूदित कविताएं फेसबुक से डाउनलोड कीं और उनकी एक वर्ड फाइल बनाई ताकि मैं उन्हें एकाधिक बार आसानी से पढ़ सकूं। यह कोई बयालीस पन्नों का दस्तावेज बना। पर्यावरण की चिंता के चलते इसका कागज पर प्रिंट नहीं लिया, हालांकि क्ंप्यूटर पर पढ़ना इतना सुविधाजनक नहीं। तो भी पूरी फाइल को आदि से अंत तक स्क्रोल करने में भी एक स्पेस निर्मित होता है। उसके साथ आप पाठक की तरह जुड़ने लगते हैं। 

इन बयालीस पन्नों में बारह कवियों की कविताएं हैं। उत्तरी अमरीका की लुइस ग्लुक और दक्षिणी अमरीका के पाब्लो नेरुदा को मैंने एक ही बार पढ़ा और छोड़ दिया। शेष कवि यूरोप और मध्य एशिया के हैं। प्राय: सभी बीसवीं सदी के हैं। इस सदी में यूरोप ने खूब उथल-पुथल झेली है। दो विश्व युद्ध देखे हैं। वहां के मुल्कों ने आपसी लड़ाइयां लड़ी हैं। जातीय हिंसा, नाजियों का कहर झेला है। साम्यवादी क्रांति, सर्वसत्तावाद और तानाशाहियां देखी हैं। और यूरोप इस सब से उबरा भी है। 

विनोद जी के इस अनूदित कवि संसार और काव्य स्पेस में रूस के मरीना त्स्वितायेवा (1892-1941) और ओसिप मंदेलश्ताम (1891-1938), पोलैंड के विस्लावा शिंबोर्स्का (1923-2012) और जिबग्न्यू हर्बर्त (1924-1998), हंगरी के मिक्लोश राद्नोती (1909-1944), स्पेन के फेदरिको गार्सिया लोर्का (1898-1936), यूनान के यानिस रित्सोस (1909-1990), तुर्की के नाजिम हिकमत (1902-1963), सीरिया के मुहम्मद अल मगूत (1934-2006) और फिलिस्तीन के महमूद दरवेश (1941-2008) कवि शामिल हैं। 

ये सभी कवि अपनी अपनी तरह से व्यवस्था से टकराते हैं। मरीना त्स्वितायेवा का जीवन जलावतनी और अभाव में बीता। उसने 1917 में रूसी क्रांति देखी और उसके बाद का अकाल भी। एक बेटी भुखमरी के कारण अनाथालय भेजी जहां वह मर गई। 1922 में रूस छोड़ दिया, पेरिस, बर्लिन, प्राग में रही और 1939 में रूस वापस लौटी। जासूसी के इलजाम में पुत्री और पति गिरफ्तार हुए। पति को फांसी हुई और खुद मरीना ने आत्महत्या कर ली। उसका लिखा बीसवीं सदी के महानतम रूसी साहित्य में शुमार किया जाता है। मरीना अपनी कविता में गीतात्मकता, वृत्तांतता, भावप्रवणता, साफगोई, दृढ़ता और प्रयोगशीलता के लिए जानी जाती है। रूस के दूसरे कवि ओसिप मंदेलश्ताम के बारे में विनोद दास ने अपने अनुवाद में लिखा है, ‘यहूदी परिवार में पैदा हुए ओसिप मंदेलश्ताम की जिंदगी संघर्षभरी रही। रूस में क्रांति के बाद संस्कृति मंत्री लूनाचर्स्की के साथ काम किया। 1918 में ख़ुफ़िया विभाग के एक अधिकारी से विवाद के कारण क्रान्ति विरोधी बताकर उन्हें गोली मारने का आदेश। फिर हस्तक्षेप से बचे। 1920 में फिर गिरफ्तार किये गये। लेखकों के हस्तक्षेप से फिर छूटे। 1934 में स्टालिन विरोधी कविता लिखने के लिए गिरफ्तार किये गये। साइबेरिया सज़ा के तौर पर भेजा गया। फिर कवि बोरिस पास्तेरनाक की सिफारिश पर स्टालिन ने उन्हें वरोनिझ में सज़ा काटने के लिए भेजा। 1938 में क्रांति विरोधी काम के लिए 5 साल के लिए यातना शिविर में रहने की सजा सुनायी गयी। 27 दिसम्बर 1938 को वहीं बीमारी से देहांत। कई कविता संग्रह और गद्य की किताबें प्रकाशित जिसमें पत्थर, त्रिस्तीया आदि चर्चित। 

पोलैंड की कवयित्री विस्लावा शिंबोर्स्का हिंदी साहित्य समाज के लिए परिचित नाम है। विस्लावा ने शुरुआत में पाठ्यपुस्तकों के रेखांकन बनाकर जीविका कमाई है। पोलिश साहित्य और समाजविज्ञान की पढ़ाई पर आर्थिक मजबूरी के चलते डिग्री नहीं ली। शुरु में समाजवादी विचारों के प्रभाव में रहीं, बाद में इससे अलग हो गईं और उस समय के अपने राजनैतिक लेखन को नकार दिया। वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पक्षधर रहीं; विपक्ष में रहीं। नब्बे के दशक में गैर साम्यवादी सरकार पर अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन किया। उनके लेखन में विडंबनात्मक सटीकता, विरोधाभास, अंतर्विरोध और दार्शनिक विचारों को प्रकट करने में मितकथन जैसी विधियों का प्रयोग हुआ है। विस्लावा शिंबोर्स्का ने लिखा बहुमत कम है, सिर्फ साढ़े तीन सौ कविताएं। इसकी वजह पूछने पर उनका कहना था, ‘मेरे घर में कूड़ेदान है। विस्लावा शिंबोर्स्का के ही समकालीन जिबग्न्यू हर्बर्त का लेखन अपेक्षाकृत देर से सामने आया, हालांकि वे हैं उन्हीं की पीढ़ी के, यानी शिंबोर्स्का, ताद्युज रोजविच, क्रिस्तोफ कमिल बैकिन्स्की के समकालीन। हर्बर्त के लेखन में मिथकों, मध्यकालीन नायकों और कलाकृतियों का प्रयोग हुआ है। हर्बर्त एक खास तरह से गैर मिथकीकरण का प्रयोग करते हैं – जहां तक संभव हो सांस्कृतिक परतों को उतार कर आद्य बिंबों तक पहुंचते हैं और प्राचीन नायकों का सामना करते हैं। उनके यहां अतीत को किसी दूर दराज की या बंद चीज की तरह नहीं माना जाता। पुनरुज्जीवित किए गए चरित्र और घटनाएं इतिहास ही नहीं, मौजूदा क्षण को समझने में भी सहायता करते हैं। 

हंगरी के कवि मिक्लोश राद्नोती के बारे में विनोद दास ने लिखा है, ‘यहूदी परिवार में 1907 में जन्मे राद्नोती की कविता की दूसरी किताब “आधुनिक गड़रिये का गीत” को अश्लीलता के आरोप में जब्त किया गया और इसके लिए कुछ दिन उन्हें जेल में रहना पड़ा। 1934 में हंगारी साहित्य में उन्होंने पीएचडी की। इसी वर्ष फानी गार्मती से शादी की। उन्होंने वर्जिल, शेली, रेम्बा, मलार्मे, एलुआर सरीखे अनेक कवियों की कविताओं के अनुवाद हंगारी में किये। यहूदी होने के कारण उन्हें तीसरी बार जबरन यूगोस्लाविया स्थित बोर के यन्त्रणा शिविर में भेजा गया जहाँ उन्होंने तांबे की खदानों में काम किया। रूस की रेड आर्मी के आने की ख़बर से यंत्रणा शिविर खाली कराया गया और इक्कीस साथियों के साथ उन्हें जबरन कूच करने को कहा गया। यह उनकी मौत की कूच थी। राद्नोती जब पोस्टकार्ड शीर्षक से कविताएँ लिख रहे थे तभी उन्हें पीटा गया। पीटने से घायल और चलने से लाचार मात्र छत्तीस साल के राद्नोती को उनके इक्कीस साथियों के साथ गोली मार दी गयी। जंग खत्म होने के बाद उन कब्रों को खोदा गया। उनकी लाश की जेब में उनकी पत्नी को पेंसिल से लिखी कविताएँ मिलीं जो बाद में “फोमिंग स्काई” नामक कविता संग्रह में संकलित की गईं । 

स्पेन के कवि फेदरिको गार्सिया लोर्का ने संगीत प्रेम के कारण किशोरावस्था में छह साल तक पिआनो सीखा। युवावस्था में मैड्रिड में एक रिहायशी स्कूल में रहते हुए उनकी सल्वाडोर डाली सहित कई चित्रकारों, कवियों और नाटककारों से दोस्ती हुई। अगले कुछ साल लोर्का स्पेन के आवां-गार्दआंदोलन में शामिल रहे। स्पेन के एक नृत्य फ्लेमेंकोके बारे में लोर्का ने अपने एक व्याख्यान में कहा है कि इसमें कलात्मक प्रेरणा के एक ढांचे को परिभाषित करने की कोशिश होती है, और यह कि महान कला मृत्यु के बारे में स्पष्ट जागरूकता, देश की मिट्टी के साथ संबंध और तर्क की सीमाओं को पहचान लेने पर निर्भर करती है। छात्र-थियेटर कंपनी के निदेशक के तौर पर लोर्का स्पेन के देहात में थियेटर दिखाने के लिए निकले। उन्होंने निर्देशन भी किया अभिनय भी। उनका कहना था, ‘‘मैड्रिड के बाहर थियेटर लगभग मर चुका है। लोगों को इस वजह से वैसा ही नुकसान हुआ है मानो वे देखने, सुनने और स्वाद लेने का एहसास खो चुके हों। हम उन्हें यह वापस हासिल करवाएंगे।’’ गरीब ग्रामीण स्पेन और न्यूयॉर्क में खास तौर से नागरिकता से वंचित अफ्रीकी अमरीकी आबादी के बीच की गई यात्राओं से मिले अनुभवों ने लोर्का को सामाजिक कार्रवाई (सोशल एक्शन) वाले थियेटर के एक उत्कट पक्षधर में बदल दिया। उन्होंने लिखा, ‘‘थियेटर रोने और हंसने की पाठशाला है, एक मुक्त मंच, जहां आप गले सड़े और गलत समझे गए तौर-तरीकों पर सवाल उठा सकते हैं और इंसानी दिल के सनातन तौर-तरीकों के जीते-जागते उदाहरणों से समझा सकते हैं।’’ कहा जाता है कि राष्ट्रवादियों ने लोर्का को मार दिया था। 

यूनान यानी ग्रीस के कवि यानिस रित्सोस साम्यवादी विचारों के थे। यूनान के साम्यवादी दल में भी रहे, लेकिन उन्हें खुद को राजनैतिक कवि कहलाना पसंद नहीं था। इनके शुरुआती दो काव्य संग्रह साम्यवादी हलके में कविता की अलंकृत भाषा के कारण ज्यादा पसंद नहीं किए गए। 1936 में तंबाकू मजदूरों के विशाल प्रदर्शन के दौरान एक मृत प्रदर्शशनकारी के चित्र से प्रभावित होकर लिखी गई उनकी कविता एपिटाफियोसअपने में कीर्तिमान बन गई। (पारंपरिक रूप से एपिटाफियोसका संबंध गुड फ्राइडे और ईस्टर से है।) इस कविता ने पारंपरिक लोकप्रिय काव्य ढांचे को तोड़ दिया। लोगों को जोड़ने का संदेश देने वाली इस कविता की भाषा स्पष्ट और सरल थी। इसी साल दक्षिणपंथी तानाशाही ने इस कविता की शेष प्रतियां जला दीं। कवि रित्सोस ने फिर अपनी दिशा बदली और अतियथार्थवाद की तरफ बढ़ गए। 1946-49 के गृहयुद्ध में वाम पक्ष का समर्थन किया। चार साल जेल काटी। जो कविता जला दी गई थी, 1950 के दशक में वही यूनानी वाम का एंथम बनी। यूनान के महानतम कवियों में से एक माने जाने वाले रित्सोस के बारे में पाब्लो नेरुदा ने कहा था कि रित्सोस नोबल के ज्यादा हकदार हैं। 

अब हम तुर्की की तरफ बढ़ें तो नाजिम हिकमत सामने आते हैं जिन्हें रोमांटिक कम्युनिस्टऔर रोमांटिक क्रांतिकारीकहा जाता है। नाजिम हिकमत ने भी अपना बहुत सा जीवन जेलों में और मुल्क से बाहर बिताया है। नाजिम तुर्की के आवां-गार्दके करिश्माई लीडर रहे, नई-नई तरह की कविताएं, नाटक और फिल्में लिखने वाले। इस कवि ने भी हमारे निराला की तरह छंद के बंध को तोड़ा। नाजिम हिकमत को लोर्का, मायकोव्स्की और पाब्लो की बराबरी का माना जाता है। 1950 में हिकमत ने भूख हड़ताल शुरु की जिससे सारे देश में आंदोलन छिड़ गया। इनकी मां और कई कवि भी भूख हड़ताल में शामिल हो गए। जिस कानून को पास कराने के लिए कवि ने आंदोलन किया, नई सरकार ने उसी एमनेस्टी कानून को पास करके कवि को जेल से रिहा किया।

सीरिया के शहर सलामैयाह् के कवि मुहम्मद अल मगूत को अरबी की मुक्त छंद कविता का जनक माना जाता है। उन्होंने कविता के पारंपरिक रूप को बदल दिया। कवि ने अपनी शुरुआती कविताएं जेल में सिगरेट की पन्नी पर लिखीं। थे तो ये निजी संस्मरण लकिन बाद में ये क्रांतिकारी कविताएं सिद्ध हुईं । मगूत की औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी। उनके लेखन के केंद्र में हाशिए की दुनिया के संघर्ष हैं। 

फिलीस्तीनी कवि महमूद दरवेश का जन्म गलीली में अल बिरवा गांव में हुआ था जिसे बाद में इस्राइली फौज ने ढहा दिया। इस्राइली जनगणना में न आने की वजह से दरवेश और उनके परिवार को आंतरिक शरणार्थी माना गया। बिना परमिट गांवों में यात्रा करने और कविता पढ़ने पर उन्हें जेल हुई। उनकी पहचान पत्रनाम की कविता प्रतिरोध गीत बन गई तो उन्हें नजरबंद कर दिया गया। काहिरा और बैरूत में रह कर अपने मुल्क के लिए महमूद दरवेश ने रिसाले निकाले। इन्हें इस्राइल के खिलाफ अरब जगत का प्रवक्ता माना जाता है। उन्होंने कहा था कि मेरे पास इस्राइल से मुहब्बत करने की कोई वजह नहीं है पर मैं यहूदियों से नफरत नहीं करता हूं। वे अरबी भाषा के लेखक थे और उन्हें हिब्रू बहुत अच्छी आती थी। उनकी कविताओं के हिब्रू में अनुवाद भी हुए हैं। (कवियों के बारे में यह जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध विभिन्न स्रोतों से ली गई है।) 

काव्य अनंत काव्यार्थ अनंता

विनोद दास द्वारा प्रस्तुत इस वैश्विक कवि मंडल पर एक सरसरी निगाह डालने के बाद काव्य-वस्तु और वास्तु की ओर रुख करते हैं। हम ये कविताएं हिंदी में पढ़ रहे हैं। ठेठ हिंदूस्तानी लहजे में। पढ़ते हुए ये मूल भाषा से अंग्रेजी के माध्यम से अनुवादक तक पहुंची हैं। फिर उन्हें हिंदूस्तानी चोला पहनाया गया है। मनुष्य की वेदना, संवेदना और सत्ता से टक्कर लेने का जज्बा इन्हें हमारा अपना बनाता है। 

रूसी कवयित्री मरीना त्स्वितायेवा की टूटते हुए प्रेम पर लिखी कविता में जैसे वॉयलिन की तीव्र और मंद्र, चीरती हुई सी स्वर लहरियां हैं; एक बदहवासी और बेबसी। मंदेलश्ताम की कविताओं में भी तल्खी, तंज, तिरस्कार, धिक्कार और बयान की बेबाकी है। वह लेता रहता है / अपने दुमछल्लों की लल्लोचप्पो के मज़े / कोई बजाता है सीटी / दूसरा मिमियाता है / तीसरा रिरियाता है / वह अंगुली करके उन्हें गुदगुदाता रहता है / और सिर्फ़ वही बम बम करता रहता है (ओसिप मंदेलश्ताम)। ये काव्य पंक्तियां हमारी भाषा के हिसाब से भी बेहद देशज और प्रासंगिक हैं। विनोद जी ने लिखा है कि बम बमकरती कविता के कारण कवियों को गिरफ्तार किया गया था। जानने का मन होता है कि दुमछल्लों’, ‘लल्लो-चप्पो’, ‘बम बमजैसे पद अंग्रेजी और रूसी के किन पदों के लिए इस्तेमाल किए गए होंगे। 

शिंबोर्स्का का हिंदी में काफी अनुवाद हुआ है। अनुवाद भी एक से बढ़ कर एक हुए हैं। वे अपने ही काव्य समाज की सदस्य लगती हैं। उम्मीद को / तरानों में सुनने से बेहतर / दुनिया उसे अमली जामे में देखना चाहेगी (विस्लावा शिंबोर्स्का) । पोलैंड के ही कवि ज़िबग्न्यू हर्बर्त की मुकदमा कविता धाराप्रवाह चलती है और किसी नाटक या सिनेमा की तरह दृश्य खुलता जाता है। पात्रों, उनकी साज़िशों, उनके मंसूबों और इंसान की बेचारगी पंक्ति दर पंक्ति बेपर्दा होती जाती है। उफ! कितनी करख्त है यह हुकूमत! लेकिन कवियों का भी माद्दा कम नहीं है। वे घास की तरह झुकते हैं, चट्टान की तरह अड़ते हैं। 

हंगारी कवि मिक्लोश राद्नोती यंत्रणा शिविर का शिकार हुआ। वहीं उसे मार दिया गया। उफ़ ! इस धरती पर मैं ऐसे वक्त में रहता था / जहाँ इंसान इस कदर गिर गया था / कि वह सिर्फ़ हुक्म की तामील के लिए नहीं / बल्कि लुत्फ़ उठाने के लिए हत्या करता था। यह मिक्लोश राद्नोती की जबरन कूच (फोर्स्ड मार्च) कविता का अंश है। यह यंत्रणा शिविर से बलात् ले जाए जाने के वक्त की कविता है। जरा सोचिए, आतंक और भय के अत्यधिक त्रासद समय में कवि छिप कर पोस्टकार्ड पर कविता लिखता है। उसे नहीं पता वह जिंदा बचेगा या नहीं। उसकी कविता किसी पाठक किसी सहृदय किसी सगे तक पहुंचेगी या नहीं। पर वह लिखता है और जिंदगी को याद करता है। जिजीविषा की पराकाष्ठा है यह। विपरीत और विकराल परिस्थितियों में जीवन राग लय और तुक में। जो शिकार हो चुकी कवि देह की जेब में महफूज थी। यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि विनोद दास ने इस कविता के अनुवाद में भी लय और तुकांत का कौशल दिखाया है।

गिर चुकी हैं दीवारें गिर चुका है बेर का हरा वह दरख्त

पहले लगती थीं रातें मीठी अब डरा रहीं हैं वो कमबख्त

हाय यकीं नहीं होता अब भी है ख़ाली मेरा यह दिल

बसी है मेरी जन्मभूमि जाकर वहां मेरा मन जाता है खिल  (मिक्लोश राद्नोती) 

स्पेन के कवि लोर्का संगीत, अतियथार्थवादी कला के माहौल से लेकर नाटक की दुनिया तक विचरते रहे। विनोद दास ने ठीक ही चेताया है कि उनकी कविताएं जटिल लग सकती हैं। और बाजदफा जटिलता एक तरह के आकर्षण का जाल भी बुनती है। 

यूनानी कवि रित्सोस की एक कविता में एक स्त्री का कुरूप और हास्यास्पद सा वृत्तांत है जो अंतिम पंक्ति में क्रांति के बाद की कविता के रूप में प्रकट होता है। कविता की ऐसी दशा का दंश गहरे गड़ता है। दूसरी कविता हमारे पुरखों की मजारमें शहीदों को मौत के बाद भी बचाकर रखने के बारे में बुनी गई है। सोचने की बात है कि दुश्मन (और कोई नहीं, व्यवस्था ही, क्योंकि लड़ाई तो अपने ही हुक्मरानों से है) कितना भयभीत होगा जो लाशों को भी चुरा ले जा सकता है। इसलिए शहीदों की मजारों को गुमनाम रखना ही बेहतर है। इतिहास से भय और इतिहास को नष्ट करने, और दूसरी तरफ बेनाम ढंग से इतिहास को बचाने जैसी चिंगारियां भी फूट रही हैं। 

यूरोप के इन उस्ताद, जुझारू और प्रतिभाशाली कवियों के बाद तुर्की के नाजिम हिकमत की तरफ रुख करते हैं। तुर्की वैसे भी यूरोप और एशिया का संधिस्थल है। तुर्की होते हुए हम सीरिया और फिलिस्तीन के कवि के पास चलेंगे। नाजिम हिकमत को रोमांटिककहा गया है। जो कविता विनोद जी ने चुनी है वह कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन का पक्ष चुनती है। फर्ज़ कीजिए पचास साल की उम्र के इर्द - गिर्द / हम क़ैदखाने में हैं / और उसके लोहे के फाटक को खुलने में अभी अठारह साल और बाकी हैं / फिर भी हमें ज़िन्दगी जीनी होगी / बाहरी दुनिया के लोगों, जानवरों, संघर्षों और हवाओं के साथ / मेरा मतलब दीवारों के उस तरफ़ दुनिया के साथ जीने से है / कहने का मतलब सिर्फ़ इतना है / कि हम कैसे और कहीं भी हों / हमें जिंदगी ऐसे जीनी चाहिए गोया हम कभी मरेंगे ही नहीं (नाजिम हिकमत) कवि गीतात्मकता, सरलता और सपाटता के साथ हमसे मुखातिब होता है। 

आगे बढ़ने पर देखिए, सीरिया के अरबी कवि मुहम्मद अल मगूत और भी लिरिकल हो उठते हैं। वे अपनी और उनकी दुनिया को परिभाषित करते हैं- वे फांसी के तख्ते के मालिक हैं / हमारे पास गर्दनें हैं /  वे मोतियों के मालिक हैं / हमारे पास मस्से और चकत्ते हैं (मुहम्मद अल मगूत) आदमी की तकलीफों की एक बड़ी फाइल तैयार की जा रही है जिसे वे ईश्वर को सौंपेंगे। ऐसा लगता है कि मगूत की आवाज दिल से निकल रही है। कवि सारी कायनात को बाहों में भर लेना चाहते हैं। 

अंत में हम निर्वासित फिलीस्तीनी कवि महमूद दरवेश को कविताओं से गुजरते हैं। क्या विडबंना है कि फिलीस्तीन है पर नहीं है, जबकि इस्राइल है और इस्राइल ही है। यह सभ्यता की छाती पर मवाद से भरा हुआ एक नासूर आज भी रिसता है। एक कवि है जो इस धरती का है पर निर्वासित है। यह सच्चाई है कि नागरिकता कैसे सिद्ध की जाए। वे मुझे पहचान न पाये/ पासपोर्ट के काले धब्बों ने/ मेरी तस्वीर की रंगत को उड़ा दिया था । कवि गुहार लगाता है - पेड़ों से उनके नाम मत पूछो / घाटियों से उनकी माँ के बारे में मत पूछो…. / मेरा मुल्क शोकगीतों और कत्ले आम में बदल रहा है …. / उन्होंने उसकी छाती की तलाशी ली / पर वहां मिला फ़कत उसका दिल / उन्होंने उसके दिल की तलाशी ली / लेकिन वहां मिले सिर्फ़ उसके लोग । दरवेश की अति लोकप्रिय पहचान पत्रकविता नागरिकता और अपनी जमीन के हक का उद्घोष है-   मेरी भूख से होशियार रहिये / मेरे गुस्से से बचिये

 इदन्नमम

इस तरह इन कविताओं को एक साथ पढ़ने से एक और स्पेस निर्मित होता है। हमारे पास रूस, पोलैंड, हंगरी, स्पेन आदि से होते हुए फिलीस्तीन तक की कविता की बानगी को इस क्रम में पढ़ने पर जुड़े हुए महाद्वीपों, जातीयताओं, भाषाओं और उनके नायाब शब्दकारों की दुनिया की वस्तु और वास्तु निर्मित होते हैं। अगर हम इन कविताओं के पढ़ने के क्रम में उलट फेर कर दें तो रसास्वाद के लिए अलग तरह का काव्य वास्तु निर्मित होगा। एक आंतरिक तार इनके सबके बीच जुड़ा हुआ है। अन्याय की पहचान करना और अपार कष्ट सह कर भी अपनी आवाज बुलंदी से उठाना। इस तरह के वास्तु निर्माण के पीछे अनुवादक का बड़ा योगदान है। असल में कवियों और कविताओं का चुनाव तो उसी का है। यहां वही बड़ा सर्जक है। एक तो चयन के स्तर पर, दूसरे उसे हमारी हिंदी में प्रस्तुत करके। इन कविताओं में विदेशी होने का बेगानापन और अनुवाद की बोझिलता नहीं है। बल्कि वह हमारे भाषाई मुहावरे में घुलमिल कर साकार होता है मानो यह हमारे ही खालिस समाज की उपज हो।

Saturday, October 2, 2021

हाशिए की मुश्किलें


 

हिमाचल प्रदेश के दैनिक समाचार पत्र 'दिव्य हिमाचल' में इन दिनों प्रदेश के साहित्यिक माहौल और लेखन पर विचार विमर्श चल रहा है। रेखा डढवाल इस श्रृंखला का संपादन कर रही हैं। 26 सितंबर के रविरायीय परिशिष्ट में इस विमर्श में मैंने भी अपनी बात रखी जो 'हाशिए की मुश्किलें' शीर्षक से छपी और यहां नीचे प्रस्तुत है। 


यूं तो साहित्य की समाज में उपस्थिति नजर नहीं आती पर रहती जरूर है, भले ही अगोचर हो। इसी तरह, दूसरी तमाम चीजों की तरह साहित्य की भी अपनी सत्ता होती है। यह आम आदमी को सीधे नहीं दिखती। ज्यादातर इसकी जद में केवल वही व्यक्ति आता है जो साहित्य कर्म में लगा हो। साहित्य के भी सत्ता केंद्र बनते हैं, जिनके केंद्र में साहित्यकार होते हैं, लेकिन वे ताकत अन्य कई प्रकार के उपक्रमों से पाते हैं। जैसे विश्वविद्यालय, प्रकाशन गृह, पत्रिकाएं, पुरस्कार, सरकारी योजनाएं, आदि। इसी तरह जैसे पहले इलाहाबाद एक बड़ा केंद्र था, फिर दिल्ली पहले साहित्य का केंद्र बना और फिर साहित्य का गढ़ बन गया। चूंकि साहित्य के पाठक ज्यादा नहीं हैं, इसलिए वे साहित्य की सत्ता का कारक नहीं बन पाते हैं। इसके अलावा हिंदी में लोकप्रियता को श्रेष्ठ साहित्य का विलोम मान लिया जाता है। इसलिए और भी लोकतांत्रिकीकरण नहीं हो पाता है। 

ऐसे परिदृश्य में साहित्य के केंद्र और परिधियां बनती हैं। जो लेखक केंद्र से जितना दूर है, यानी परिधि पर है या परिधि से बाहर है या हाशिए पर है, उसके लिए साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना उतना ही कठिन है। हालांकि यह छल-छद्म सरीखा विभाजन है। साहित्य कर्म में इसकी उतनी भूमिका नहीं है। 

इसी तरह साहित्य की मुख्य धारा होती है। मुख्यधारा के लेखन की प्रवृत्तियों के आधार पर लेखन की श्रेणियां बनती हैं। यहां भी मुख्यधारा और गौण धारा जैसा विभाजन हो जाता है। मुख्यधारा का संबंध ज्यादातर अपने समकाल से होता है। कोई भी दौर अपने वक्त के बड़े मसलों पर फोकस करता है या कहें कि हर दौर की अपनी बहसें चलती हैं, उसी से मुख्यधारा बनती है। यह मुख्यधारा अपनी साहित्य परंपरा का हिस्सा ही होती है। 

मुझे लगता है कि साहित्य के बड़े केंद्रों से दूर बैठा व्यक्ति कई स्तरों पर जूझता है। वह उत्साह बढ़ाने वाले बाहरी माहौल के लिए तरसता है। वैसे यह कमी बड़े केंद्रों में भी बनी रहती है। वहां भी कई ऐसे कोने अंतरे होते हैं जहां कई साहित्य कर्मी दुबके रहते हैं। निजी तैयारी का माहौल, मौका और साधन जुटाना भी आसान नहीं है। यूं देखा जाए तो आज के दौर में हिमाचल प्रदेश तमाम साधनों की दृष्टि से मुख्यधारा के समकक्ष ही है। फिर भी जो गतिविधि शिमला और मंडी में चलती है, और कुछ सालों से कुल्लू में चल रही है, वह कांगड़ा, ऊना, सोलन, हमीरपुर या बिलासपुर में नहीं है। यूं हर शहर में देखें तो कवियों कहानीकारों की संख्या कम न होगी; भाषा अकादमी के रजिस्टर में भी संख्या भरपूर होगी। 

हमारे प्रदेश के उन्हीं लेखकों की आवाज वृहत्तर हिंदी समाज तक पहुंच सकी है, जो अपने युगबोध के प्रति सजग रहे हैं; जिनकी रचनाओं में समकाल के साथ मुठभेड़ है; अपनी बात को सलीके से कहने की बेचैनी है; जिन्होंने अपनी भाषा को मांजने के गहन प्रयास किए हैं। यूं सत्ता केंद्रों में जगह-जगह लटकी खूंटियों के सहारे किंचित जगह पाने वाले भी बहुतेरे हैं, पर उनका लेखन मुख्यधारा में शामिल हो सकने की गवाही नहीं देता है। ऐसे लेखकों की भी कमी नहीं है जो साहित्य कर्म से शौक की तरह जुड़े होते हैं। वे अपने रचे हुए आनंद संसार में विचरण करते रहते हैं। 

परिधि पर रह रहे लेखकों की कई शिकायतें होंगी। सत्ता केंद्रों और मुख्यधारा की मौजूदगी के बावजूद कहीं कोई अदालत नहीं है, जहां पीड़ित या दर-किनार पड़ा साहित्यकार न्याय की मांग कर सके। उसकी शिकायतें हो सकती हैं, बहुत सी जायज भी हो सकती हैं। लेकिन उसे खुद ही उनका हल ढूंढ़ना होता है। इसके उलट साहित्य कर्मी से अपेक्षाएं कहीं ज्यादा होती हैं। वह अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा, तभी उसकी बात दूर तक पहुंचेगी। 

इस बिंदु पर आकर हम कह सकते हैं कि इस पृष्ठभूमि में साहित्य कर्मी का आंतरिक संघर्ष ही उसे रास्ता दिखा सकता है। संघर्ष में सफलता उसकी आंतरिक तैयारी पर निर्भर करती है। बने-बनाए ढांचे से साहित्यकार नहीं बनते। हर एक को अपना रास्ता खुद बनाना पड़ता है। मेरा मानना है कि इस तैयारी में उसे अपनी परंपरा को आत्मसात करना पड़ता है; अपने समकाल को समझने की हरचंद कोशिश करनी पड़ती है। बने-बनाए ढांचे और सांचे उसकी इस यात्रा को भरमाते हैं, रोकते हैं, उसे पीछे खींचते हैं। इस आंतरिक तैयारी में हर लेखक को अपनी भाषा पर मेहनत करनी पड़ती है। यह आसान नहीं है। भाषा सिर्फ शब्दावली और व्याकरण और वाक्य रचना नहीं है। अभी हाल में असगर वजाहत ने स्वयं प्रकाश के संदर्भ में जिंदा भाषा का मर्म समझाया था। हर लेखक को अपनी जिंदा भाषा अर्जित करनी होती है। वह सारी परिधियों, हाशियों, सत्ता केंद्रों, गढ़ों, मठों और मठाधीशों को पार करते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज करवा ही लेती है। उसे कोई रोक नहीं सकता।


Friday, September 10, 2021

कहानी फिल्म और याद


 सन 2020 के मई महीने में भी कोरोना की दूसरी लहर का कहर जारी था। हमारा परिवार अप्रैल में इसकी चपेट में आ चुका था और धीरे धीरे उससे उबर रहा था। किसी काम में मन लगता नहीं था। 4 मई को फेसबुक पर मैंने कथाकार एस आर हरनोट की पोस्ट देखी और उनकी एक कहानी में उलझ गया। उसी दिन प्रिय कथाकार चित्रकार प्रभु जोशी को कोरोना ने लील लिया। उस दिन का जिक्र मैंने 5 मई को अपनी डायरी में किया।  

कल फेसबुक पर एसआर हरनोट ने अपनी एक कहानी 'लाल होता दरख़्त' का जिक्र करते हुए देवकन्या ठाकुर द्वारा उस पर बनाई फिल्म का लिंक दिया था। आधे घंटे की यह फिल्म यूट्यूब पर मैंने देखी। फिर हरनोट की कहानी भी पढ़ी। दोनों माध्यमों में कहानी को देखना पढ़ना अलग-अलग अनुभव रहे। यह मैंने ऐसे समय में किया जब साथ ही प्रभु जोशी के निधन की खबर फेसबुक पर आग की तरह फैल चुकी थी। महामारी के दुष्काल में रोज ऐसी ही खबरें आ रही हैं। संवेदना सुन्न सी हो गई है। जिन साहित्यकारों से परिचय रहा है या जिनसे मिलना जुलना रहा है, उनके जाने की खबरें ज्यादा आघात पहुंचाती हैं। लेकिन विवशता है कि कर कुछ नहीं सकते। उल्टे खुद को बचाए रखने की जद्दोजहद सी चली रहती है। रोजमर्रा के काम भी चलते रहते हैं। भीतर कुछ टीसता भी रहता है। तरह तरह से खुद को अवसाद, दुख, जड़ता से बचाने के खेल भी करते रहने पड़ते हैं। 

इसलिए कल जब हरनोट जी की कहानी देखी और फिर पढ़ी तो प्रभु जोशी साथ-साथ थे। उनसे हुई मुलाकातें, उनका बोलना, उनकी अदाएं, उनकी हंसी, बार-बार दिख रही थी। हम लोग तो आकाशवाणी के कुनबे के भी रहे हैं। वह भी एक तार था जो जोड़े रहता था। हरनोट की कहानी 'लाल होता दरख़्त' पर पहले फिल्म देखी। अपनी बोली के लहजे के बलाघात के साथ बोली जाने वाली हिंदी ने ध्यान खींचा। पहाड़ी दृश्यावलियों की ताजगी भरी हरियाली भी आकर्षक है। ग्रामीण इलाका, घरों और मंदिर का वास्तु शिल्प, पहरावा, जीवन शैली, फिल्म को प्रामाणिक बनाती है। हरनोट अपनी कहानियों के माध्यम से स्थानीय लोक जीवन की विषमताओं को उभारने वाले कथाकार हैं। विशेष मकसद लेकर भी चलते हैं कि समस्या का समाधान करना है। और उसी योजना के तहत अंत तक पहुंचते हैं। इस कहानी में तुलसी और पीपल के विवाह की परंपरा को निभाने का दबाव मुख्य किरदार मथरू पर है। तुलसी के विवाह के लिए वह अपने खेत को गिरवी रख चुका है। अब बेटी और पीपल के विवाह के लिए बाकी जमीन को भी गिरवी रख देगा। पंडित होने के कारण अपनी जमीन में उग आए पीपल का विवाह करने की परंपरा को निभाने या ढोने का दबाव उसके ऊपर है।  

तुलसी के विवाह के लिए वह अपने खेत को गिरवी रख चुका है। अब बेटी और पीपल के विवाह (जिसे वह करना ही चाहता है) के लिए बाकी जमीन को भी गिरवी रख देगा। यह समझ नहीं आया कि वह पुश्तैनी ही सही, पर पुरोहिती कैसे करता है? क्योंकि वह निरक्षर है, जमीन के कागजों पर वह अंगूठा ही लगाएगा। वह जंत्री कैसे पढ़ता होगा? तो क्या वह वाचिक परंपरा का पुरोहित है? लेकिन क्या यह परंपरा अब जीवित है? कहानी में बताया गया है कि वह मजदूरी भी कर लेता है पर फिल्म के किरदार को देखकर नहीं लगता कि कलाकार की देह को मजदूरी का अथ्यास है। बरहाल! बेटी जमीन को गिरवी नहीं रखने देना चाहती है इसलिए थोड़ी कश्मकश के बाद सुबह-सुबह शादी का जोड़ा पहन कर पीपल से खुद ही शादी कर लेती है। यानी पीपल के पत्ते पर से सिंदूर डालकर अपनी मांग भर लेती है। यह समाधान हमें वास्तविक जीवन में कहीं नहीं ले जाता। शादी के प्रपंच और रूढ़ियों के सांकेतिक विरोध के संकेत जरूर देता है। साथ ही जिस तरह से इस प्रसंग का फिल्मांकन किया गया है वह लोक कथा की तरह लगता है और काव्यात्मक हो उठता है। शायद यह फिल्म माध्यम की ताकत है। फिल्म में लोकगीतों का भी सरस और सार्थक प्रयोग है। 

यह कहानी मैंने पहले भी पढ़ी थी, कल फिर पढ़ी तो नए सिरे से पढ़ने जैसा ही हुआ। पढ़ते समय देखी हुई फिल्म के दृश्य भी भीतर घुमड़ रहे थे और प्रभु जोशी तो विद्यमान थे ही। वे तो आज यह डायरी लिखते समय भी उपस्थित हैं।  कहानी पढ़कर लगा कि कहानी में बारीकी ज्यादा है। वर्णन में चरित्र ज्यादा खुलते हैं। मुख्य पात्र मथरू का द्वंद्व और बेटी की उहापोह विस्तार से प्रकट होती है। फिल्म में यह एक घटना सी बन कर रह जाती है। फिल्म की प्रमाणिकता की अलग खूबियां हैं लेकिन जो बारीकी हरनोट जी ने कहानी लिखने में बरती है, वह व्यक्ति के भीतर के रेशों को ज्यादा खोलती है। 'दारोश और अन्य कहानियां' संग्रह में यह कहानी का संशोधित रूप है। हरनोट जी ने 1986 में लिखी इस कहानी को यहां दोबारा लिखा है। हो सकता है देवकन्या जी ने पुरानी कहानी के आधार पर फिल्म बनाई हो इसलिए उसमें सपाटता ज्यादा दिखती है। यह मेरा निजी मत है। हर दर्शक फिल्म को अपनी तरह से देखेगा। 

देख रहे हैं प्रभु जोशी! आप भाषा के महीन कारीगर थे। बोलियों के माहिर और रंगों-रेखाओं के मास्टर। आपने जिस दिन शरीर छोड़ा या इस महामारी के वक्त में चरमराई हुई व्यवस्था ने आपको शरीर छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उस दिन आपको याद करते हुए मैंने कहानी के एक और शिल्पी की कहानी दो माध्यमों में देखी। जैसे आपके कई माध्यम थे - शब्द, रंग, रेखाएं, रेडियो, टेलीविजन, और सबसे बड़ा अपनेपन से लबालब भरा आपका प्यारा व्यक्तित्व। मैं आपके जाने के शोक में डूबूं या आपके होने को महसूस करूं!

देवकन्या ठाकुर की फिल्म : लााल होता दरख्त  

दिव्य हिमाचल 29 अगस्त 2021