Friday, June 21, 2013
शिव कुमार मिश्र चले गए
Sunday, June 9, 2013
यह बुलडोजर समय है
वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले जी से मिलने का पहला मौका आकशवाणी इंदौर के एक कार्यक्रम के सिलसिले में मिला जब हम लोग दूरदर्शन के गेस्ट हाउस में एक रात ठहरे. उनसे मिल कर बहुत अच्छा लगा. वे बहुत सहज हैं और दूसरे व्यक्ति को भी पूरी तरह से सहज बना देते हैं. दूसरी सुबह मैंने देवताले जी से छोटी सी बातचीत रिकार्ड करने का अनुरोध किया. वे सहजता से मान गए. उस समय उनके एक मित्र भी उनसे मिलने आए हुए थे. यह बातचीत चिंतनदिशा के ताजा अंक में छपी है.
प्रश्न |
देवताले जी बातचीत शुरू करने से पहले आप अपने मित्र का परिचय हमें दीजिए, क्योंकि यह एक दुर्लभ संयोग है.
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उत्तर |
यह विट्ठल त्रिवेदी हैं, मेरे बचपन के दोस्त. जीवन के बहुत से उतार-चढ़ाव, संघर्ष हमने साथ-साथ देखे हैं. ये एक एक्टिविस्ट हैं और जनता और किसानों के बीच विचार के क्षेत्र में काम करते हैं. हम जब भी मिलते हें तो हमें ऐसा लगता है जैसे हम अपने बिछड़े हुए भाई से मिल रहे हैं.
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बिट्ठल त्रिवेदी | ये जय प्रकाश नारायण के शताब्दी समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर आए, पर इस ढंग से मैं नहीं सोचता, यह मेरे हृदय का टुकड़ा हमेशा से रहा है और बड़े बड़े कार्यक्रमों में भी यह अपनी बात जिस ढंग से कहता है वह बड़ी बात है. मैं इन्हें बहुत मानता हूं. मैं पत्रम्-पुष्पम् के रूप में हूं. ये मुझे बहुत प्यार देते हैं. यही मेरे जीने का कारण है. | |
प्रश्न | धन्यवाद त्रिवेदी जी. अब देवताले जी मैं आपसे जानना चाहता हूं कि आप उम्मीद कहां से पाते हैं क्योंकि आजकल हम लोग प्रायः निराशा बहुत ज्यादा देखते हैं. | |
उत्तर | उम्मीद तो हमें जगह जगह से मिलती है. बचा-खुचा जो पर्यावरण है, पशु-पक्षी हैं, पेड़ हैं, इन सब में जो संगीत है, सृष्टि की प्रेरणा है. और यह धरती माता जहां पत्थरों के बीच भी दूब उग आती है. रेत का प्रदेश (मरूस्थल) जहां पानी की दो बूंद आ जाती है. बेचैन हो रहे मनुष्य जो दुखों के बावजूद हत्यारे नहीं हैं, बल्कि उन्हें बर्दाश्त कर रहे हैं और दूसरों को दुआएं दे रहे हैं. उम्मीद तो रचनाकार के भीतर एक स्थाई भाव है. अगर स्थाई भाव नष्ट हो जाएगा तो न तो आदमी बचेगा, न उम्मीद बचेगी और जीवन अजीब तरह का हो जाएगा. वैसे कवि का अपना कोई देश नहीं होता है. वह सबका होता है. हमारे हिंदुस्तान में अभी भी बहुत सी आशाजनक स्थितियां मौजूद हैं. बस दिक्कत यह है कि उम्मीद के जो कण हैं, दूब है, घास है, आवाज है, वह बहुत कम है. और नाउम्मीदी के आक्रमण बहुत ज्यादा हैं इसलिए असहायता का बोध होता है. इसका कोई रेडिमेड जबाव नहीं दिया जा सकता. | |
प्रश्न | तो इस स्थिति से पार कैसे पाएं ? | |
उत्तर | उम्मीद हमें अपने भीतर से पैदा करनी पड़ेगी. इसके लिए परिस्थितियों से हमें जूझना पड़ेगा और उनमें परिवर्तन करना पड़ेगा. उम्मीद को हम कहीं से उधार नहीं मांग सकते, कि आप हमें पांच सौ करोड़ डॉलर की उम्मीद भेज दीजिए. वो उम्मीद अगर आएगी तो उसमें जहर होगा. वह हमें नष्ट कर देगी. | |
प्रश्न | तो क्या हमारी सभ्यता और तंत्र की भूमिका उम्मीद को नष्ट करने में ज्यादा रहती है? | |
उत्तर | उसे यह समझ नहीं आता कि वह उम्मीद को पनपा रहा है या उम्मीद को नष्ट कर रहा है. उसको यही समझ में आता है कि वह अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है. और शब्दों का, भाषा का प्रपंच रचते हुए वह मनुष्य को धोखा दे रहा है. और उसके मन में यह भी भ्रम होता है कि वह इसे आगे बढ़ाने का काम कर रहा है. वो यह नहीं जानता कि वह आगे की धरती को नष्ट कर रहा है. क्यों ? क्योंकि इसमें ईमानदारी, प्रतिबद्धता, जनता के प्रति समर्पण नहीं बचा है. यह एक बीमार समाज का समय है. | |
प्रश्न | जबकि हम उम्मीद यह करते हैं कि समाज आगे तरक्की करेगा. | |
उत्तर | वो दिखाते भी यही हैं कि समाज आगे आगे तरक्की कर रहा है. लेकिन हकीकत वह नहीं हे. वो एक भ्रम पैदा करते हैं. और वो सच्चाई को छुपाने के वास्ते भ्रम का ऐसा प्रपंच रचते हैं कि सच्चाई दब जाती है और भ्रम सच हो जाता है. यह उनकी खूबी है. और वो कोई बहुत समझदार नहीं हैं. यह उनका कपट है. जैसे बाबा लोग करते हैं, वैसे ये कर रहे हैं. ये राजनैतिक बाबा हैं, कुर्सी पर बैठने वाले. वो मंदिर मस्जिद और अखाड़े में बैठने वाले बाबा हैं. सब करोड़पति हैं. | |
प्रश्न | यह कैसा सा समय है? | |
उत्तर | यह बुलडोजर टाइम है... विस्थापित करने वाला समय... और ऐसे समय में कवि जैसा कि तुकाराम ने कहा, निरंतर अपने आप से संवाद करते हुए सबसे संवाद कर रहा है. एक युद्ध उसका भीतर अपने आप से और दूसरा बाहर जमाने से. | |
प्रश्न | यही मैं पूछना चाह रहा था कि एक कवि के नाते इस समय के साथ आप कैसे तालमेल बिठाते हैं ? | |
उत्तर | यह द्वंद्वात्मक संबंध है उसका. वह खुद से भी लड़ता है और समाज से लड़ने की भी कोशिश करता है. एक कवि के लिए यह संभव नहीं है कि वह पूरे मैदान को बचा ले. वह बित्ता भर जमीन को बचा ले, उसके लिए वही काफी है. और हर आदमी को चाहिए कि वह अपने आसपास की बित्ता भर जमीन को बचा के रखे. और जमीन का मतलब जमीन ही नहीं है, मतलब मनुष्यता को बचा के रखे. | |
प्रश्न | आपकी अपनी कविता के बारे में पूछना चाहता हूं कि आप कविता का कच्चा माल कहां से पाते हैं और उसे कविता में तटदील कैसे करते हैं ? | |
उत्तर | कविता मेरे लिए कमोडिटी नहीं है. इसलिए कच्चा माल या रॉ मैटीरियल इक्ट्ठा करना मेरा काम नहीं है. जो उत्पादक होता है वह कच्चा माल इकट्ठा करता है. मेरे लिए मनुष्य होने और कवि होने के बीच में कोई फर्क नहीं है. जैसे मनुष्य होना मेरा पेशा नहीं है, इसी तरह कवि होना भी मेरा पेशा नहीं है. | |
प्रश्न | तो कवि होना आपका स्वभाव है. | |
उत्तर | यह मेरी मनुष्यता से जुड़ा हुआ है, उससे भिन्न नहीं है. मैं यही कहूंगा कि मैं मनुष्य हूं और कवि और आदिवासी जनपद से आया हुआ. इतने भौतिक विस्फोट, आधुनिकीकरण, भूमंडलीकरण, यंत्र सभ्यता, मशीनों और ताम-झाम... उसके बीच भी एक कवि के सरोकार आदिवासी की तरह होते हैं. उसकी चिंता अपनी भाषा, अपने जन, अपने दरख्तों को बचाने की होती है जिसमें उसकी देशीयता, अस्मिता और पहचान भी है. क्योंकि किसी भी आदिवासी की चिंता यही होती है. | |
प्रश्न | कविता अगर आपका स्वभाव है तो भी आप कविता किस तरह लिखते हैं ? | |
उत्तर | जीवन के अनुभव, रोजमर्रा की घटनाएं, हर चीज जो आती है और मेरे अंदर जैसे अंकुर फूटते हैं, वैसे फूटती है. तैयार हो जाती है तो बड़ी मुश्किल से मैं उसे कागज पर उतारता हूं. | |
प्रश्न | कागज पर पहले ही ड्राफ्ट में हो जाती है या.. | |
उत्तर | हो जाती थी. पिछले कुछ समय से, विस्मृति के कारण, बहुत देर तक रखी रहती है और फिर उसमें काट-छांट भी होती है. बन जाए तो ठीक, नहीं तो में उसे छोड़ देता हूं. | |
प्रश्न | कितनी कविताएं ऐसी होंगी जो छोड़नी पड़ीं ? | |
उत्तर | (हाथ से अंदाजा देते हुए)
इतना बड़ा गट्ठर है, करीबन पांच-छः किलो का. उसको मैं किसी को दे तो सकता नहीं. फेंक भी नहीं सकता
( इस बीच हम तीनों की हंसी निकल जाती है)
मुझे पता है कि विस्लावा शिंबोर्स्का पचास साल से कविता लिख रही थी और उसने सिर्फ ढाई सौ कविताएं लिखी हैं. एक साल में पांच छह कविताएं. यह जानकर मुझे इतना अद्भुत लगा कि यह है इंसान और कवि का एक साथ होना. मैं साक्षात्कार दे रहा हूं, आपकी वजह से. वो महान कवयित्री साक्षात्कार देने से भी बचती थी.
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प्रश्न | आपकी लगभग कितनी कविताएं होगीं ? | |
उत्तर |
बनिए की तरह कविताओं का हिसाब नहीं रखता.
(फिर से हंसी और इसी बीच उनके मित्र कहते हैं यह उनकी किताबों की सूची से पता चल जाएगा. तो मैं कहता हूं यह तो मैं ऐसे ही, शिंबोर्स्का की बात निकली इसलिए, पूछ रहा था).
उसकी तो फोटो देखकर ही मेरे मन में मां के जैसे भाव आए और हाथ प्रणाम में उठ गए. मदर टेरेसा, शिंबोर्स्का और सड़क पर हमारी ग्रामीण बूढ़ी औरतें जो बैठी रहती हैं न, उन्हें देखकर मेरे हाथ अपने आप छाती पे (प्रणाम मुद्रा में) आ जाते हैं, मेरी इस बात पे आप भरोसा करना. और आपने मुझे इतने घंटों से देखा है तो आप समझ सकते हैं कि इस पर भरोसा किया जा सकता है. आप इतने बड़े बॉम्बे शहर से आए है. अगर आप में चीजों की परख है तो आदमी की भी परख होगी. (देवताले जी की इस चुटकी से भी हंसी की फुलझड़ी खिल उठी).
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प्रश्न | जब आप पूरी न हो सकी कविताओं को छोड़ देते हें तो पता चलता है आप कितने निर्मम हैं कविता को कविता मानने में. इस संबंध में मैं यह जानना चाहता हूं कि आप अपनी कविता से कितने संतुष्ट हैं ? | |
उत्तर | मैं असंतुष्ट नहीं रहता. मेरी कविता हो गई, मेरा काम हो गया. परफेक्शन करना, उसको काट-छांट के सुंदर बनाना, मोहक बनाना और कविताओं के स्वर्ण गुंबद खड़े करने में मेरा यकीन नहीं है. मैं जमीन पर खड़ा हूं, आज की परिस्थितियों ओर दबावों के बीच हूं और आज की बात कह रहा हूं. मेरी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं कि पचपन साल बाद या मेरे जाने के बाद किसी को मेरा नाम याद रहेगा या नहीं. हमें किस-किस के नाम याद हैं ? | |
प्रश्न | तो क्या आप यह यकीन भी करते हैं कि कविता क्लासिक हो जाती है ? | |
उत्तर | प्रमुख कवियों की कविताओं में यकीन करता हूं. गालिब का दीवान, तुकाराम के ग्रंथ, कबीर के पद, गुप्त जी की पंक्तियां, और सियारात शरण की एक कविता तो ताजिंदगी याद रहने वाली कविता है. बचपन में उसने मुझे इंसान बनाने में मदद की- 'फूल की चाह' और नवीन जी की पंक्तियों ने कि 'जिस दिन मैंने नर को देखा लपक चाटते जूठे पत्ते, दस दिन सोचा क्यों न लगा दूं आग आज दुनिया भर में''. नास्तिक बनने के लिए मुझे भगत सिंह का निबंध नहीं पढ़ना पड़ा. मेरी मौसी जब गांव से आती थी और मैं दस बारह साल का था तो मेरी मां कहती थी, सुखिया यह मेरा सबसे छोटा बेटा चंदू एकदम नास्तिक है. और मुझे बहुत अच्छा लगता था कि मैं नास्तिक हूं. और मैंने अपने मां के शब्दों को सार्थक करने की पूरी जिंदगी भर कोशिश की. | |
प्रश्न | यह अनायास हुआ या... | |
उत्तर | हां.. मेरी बच्चों वाली कविता में है कि अगर भगवान होता तो अब तक तेजाब के कुंड में कूद जाता. आप सोचो, एक बहुत बड़ा आदमी है और दानी है और उसने एक आश्रम बनाया है और लोग भूखे मर रहे हैं तो वो कैसा दानी है ? वो कृपावंत है और वो इतना ताकतवर है तो लोग भूखे क्यों मर रहे हैं ? नरक में होने जैसा अन्याय यहां क्यों हो रहा है. तो स्वर्ग क्या सिर्फ भगवानों के वास्ते है ? | |
प्रश्न | जब आप इस तरह बोलते हें तो लगता है कविता की पंक्तियां ही कह रहे हैं. | |
उत्तर | इसलिए तो कहा न कि मेरे कवि होने और मनुष्य होने में कोई फांक नहीं है. मैं जब पति होता हूं तब भी कवि पति होता हूं, शिक्षक था तब भी कवि शिक्षक था, बाजार में सब्जी खरीदता हूं तो कवि सब्जी खरीद रहा है. ग्राहक की तरह नहीं खरीदता हूं. | |
प्रश्न | अच्छा यह तो आपने बताया कि एक कविताओं की इन पंक्तियों से आपका जीवन बदल गया, यह बताइए कि कविता शुरू कब हुई ? | |
उत्तर | मैंने 1952 में पहली कविता लिखी, तब आठवीं में पढ़ता था. यह नर्मदा किनारे बड़वाह की बात है. नर्मदा में हम नहा रहे थे, तैराकी करके आया तो सूरज को देख कर कविता उमची. वो कविता जैसी तैसी थी. उसको बाद में कुछ ठीक किया और कापी में उतार दिया. फिर नौवीं में पढ़ने के लिए मुझे इंदौर शहर में आना पड़ा. तब इंदौर भी बहुत छोटा था. मेरे भाई बी. ए. में थे क्रिश्चियन कालेज में. एक भाई बी. कॉम. हो चुके थे. हमारे घर में बहुत सी किताबें थीं, गुप्त जी, बच्चन जी, सियाराम शरण गुप्त और नवीन जी की कविताएं घर में थीं. कुछ साहित्यकार घर पर आते थे. मेरे बड़े भाई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, गिरफ्तार हो चुके थे. और दूसरे भाई ने बाद में हिंदी में एम. ए. किया था. मतलब घर में साहित्य का माहौल था. पिताजी रामायण पढ़ते थे और मेरे नंबर दो के भाई, मुन्ना भैया मां को साकेत वगैरह पढ़ कर सुनाया करते थे, उसका आठवां सर्ग. मेरे भाई के एक मित्र थे प्रहलाद पांडेय शशि, वे मुझे 51-52 में एक किताब भेंट कर गए. छोटी सी किताब थी. चार आने कीमत थी उसकी और नाम था तूफान. और वो मेरी गतिविधियों के कारण मुझे तूफान कहा करते थे. उस पर उन्होंने लिख दिया चंद्रकांत तूफान को यह तूफान आशीर्वाद सहित भेंट. मैं उसको वांचता था. वो बहुत विद्रोही कवि थे. दूसरी कविता नौंवी की मैग्जीन में छपी. मजदूर शीर्षक था उसका. तो मेरी कविता की जमीन यही है – साधारणता की. मेरे बारे में कहते हैं कि यह तो अकविता से आया हुआ कवि है, तो मैं चकित हो जाता हूं. जो अकविता की शुरुआत का समय था तब मैं होशंगाबाद जिले की सुहागपुर तहसील के पिपरिया टप्पे में (जहां से पचमढ़ी और छिंदवाड़ा जाते हैं) में हिंदी का व्याख्याता या कहें सहायक प्राध्यापक था. तब तक मेरी बहुत सी कविताएं ज्ञानोदय और धर्मयुग में छप चुकी थीं. | |
प्रश्न | थोड़ा सा पीछे लौटें, अभी जो आपने कहा था कि कविता जैसी आती है, मैं कह देता हूं. मैं जानना चाहता हूं कि आप कविता में क्राफ्ट को कितना महत्व देते हैं. | |
उत्तर | मेरा जो कथ्य है या मेरी बात है वही तय करती है मेरी अभिव्यक्ति और भाषा. और शिल्प शब्द से मेरा कोई घनिष्ट वास्ता नहीं है. मैं हिंदी का प्राध्यापक भी रहा पर मैंने कविता को इस तरह से कभी नहीं पढ़ाया. डोरिस लेसिंग (नोबल पुरस्कार प्राप्त ब्रितानी उपन्यासकार) से मेरी सितंबर 1987 में इटली में बातचीत हुई थी. | |
प्रश्न | तो डोरिस लेसिंग से क्या चर्चा हुई ? | |
उत्तर |
जब उन्होंने पूछा क्या करते हो तो मैंने कहा बीस साल से साहित्य का प्राध्यापक हूं. वो कुछ पूछना चाहती थीं. मैंने कहा मेरी अंग्रेजी अच्छी नहीं है. उन्होंने कहा घबराओ मत मैं भी अफ्रीका में पढ़ी हूं और बहुत संघर्षपूर्ण जीवन बिताया है. मैं भद्र समाज की अंग्रेजी बोलने वाली नहीं हूं. और उससे मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता. फिर उन्होंने कहा कि साहित्य पढ़ाते हो तो सब विद्यार्थी साहित्य से विमुख हो जाते होंगे. पढ़ने के बाद कविता से उनका कोई रिश्ता नहीं बचता होगा. तो मैंने कहा, नहीं मैं वैसे नहीं पढ़ाता. जिन छोटी छोटी जगहों में मैंने पढ़ाया वहां साहित्य के प्रति अनुराग जगाया. पत्रिका, साहित्य, कविता पढ़ने वाले मेरे छात्र वहां मिल जाएंगे. मैंने अपनी पत्रिकाएं उनको दीं. कई जगह मैंने वादा लिया कि मेरे जाने के बाद पत्रिका निकले. राजगढ़, पिपरिया से निकलीं. पिपरिया से वंशी माहेश्वरी तनाव अब तक निकालते हैं. ये बीए में थे उस समय. आकंठ निकला. मैंने पहली बार वहां मुक्तिबोध दिवस मनाया था. वहां भवानी प्रसाद मिश्र आए, हरि शंकर परसाई आए, मुकुट बिहारी सरोज आए. हमने वहां कई आयोजन किए.
तो डोरिस लेसिंग ने कहा कि साहित्य को पढ़ाने की जो विधि है, जिसमें यांत्रिक ढंग से पढ़ाया जाता है, परिभाषा, तत्व आदि.. जैसे जीव विज्ञान के लाग चीर-फाड़ करते हैं उस तरह से पढ़ाया जाता है. यह तरीका साहित्य के सौंदर्य को, उसकी अनुभूति को, उसके मनोभाव और मनोजगत को नष्ट करता है. परीक्षा के वास्ते पढ़ाया जाता है. कुंजी की तरह. मैंने कहा मैंने ऐसा कभी नहीं पढ़ाया. अपने पढ़ाने से मुझे बहुत संतोष भी है. मैं तो कविता को अभिव्यक्ति मानता हूं कि कवि कैसे बात कह रहा है.
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प्रश्न | आप पिछले पांच दशकों से लिख रहे हैं, अपनी कविता में आपने इस दौरान किस-किस तरह के बदलाव महसूस किए हैं. | |
उत्तर | मैं तो एक निरंतरता में लिख रहा हूं. मैं चीजों को काट काट कर कि पांच साल बाद, दस साल बाद क्या हो गया, उस तरह से नहीं देख पाता. जो परिवर्तन होता है, नया घटित होता है, वह उसी निरंतरता में समाहित होता है. घटनाओं को अलग करके नहीं सोचता कि अमुक जगह आतंकवादी हमला हो गया तो वह अलग घटना है. सब निरंतरता में ही चलता है. आतंकवादी महाभारत और रामायण युग में भी थे. और अंग्रेजों ने हम पर जो आक्रमण किया, वह तो भद्र आतंकवाद था, जो मैकाले ने हमारी रीढ़ की हड्डी तोड़ी. उसने 1835 में ब्रिटिश संसद में भाषण दिया था कि हिंदुस्तानी बहुत अच्छे हैं, मैं इस कोने से उस कोने, उस कोने से इस कोने में चारों ओर घूमा हूं. उन्हें मैंने भीख मांगते नहीं देखा, वे बहुत निष्ठावान हैं, समर्पित हैं, सीधे सच्चे हैं, और एक दूसरे को ठगते नहीं हैं. हम हिंदुस्तान को जीत नहीं सकते. किंतु यदि उन्हें जीतना है तो इनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ना पड़ेगी. इनकी भाषा, इनके विचार आरैर इनकी जमीन से इनको उखाड़ना पड़ेगा. अंग्रेजों ने यह किया और वो इसमें कामयाब हो गए. और हम बेवकूफों की तरह उस कामयाबी को बर्दाश्त करते रहे. | |
प्रश्न | और आजादी के बाद उसी पथ पर चलते रहे. | |
उत्तर | हां. और आजादी तक जो हमारा सांस्कृतिक आंदोलन था, उसको हमने समझा कि 15 अगस्त 1947 को हमारा काम पूरा हो गया. जबकि वह प्रारंभिक चरण था. उसको आगे बढ़ाना था. हम उससे भटक गए. और गांधी जी को अप्रासंगिक समझ बैठे. ठीक है हमें दुनिया की समझ को ग्रहण करना था, हमें तरक्की करना थी. वैचारिक समृद्धि करना थी. पर उधार लेकर नहीं. जो चीजें थीं, उन्हें आत्मसात करके, अपना बना के करना था. वो हमने नहीं किया. | |
प्रश्न | तो आज के भूमंडलीकरण के दौर में, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पूंजी के दौर में गांधी जी आपको कहीं उम्मीद की तरह दिखते हैं या आज भी प्रासंगिक लगते हैं ? | |
उत्तर | गांधीजी, लोहिया, कबीर, तुकाराम, जेपी, ये कभी अप्रासंगिक होंगे ऐसा मुझे नहीं लगता. यदि मनुष्य जाति की सहजता, सादगी, जीवंतता, मानवीयता, प्रेम, सद्भाव, करुणा को बचाना है और स्वार्थ से या माया, लोभ से बचना है तो ये हमारे स्थाई प्रेरक तत्व हैं. | |
प्रश्न | मैं आपसे यह जानना चाहता हूं जिसकी हालांकि साहित्यिक हलकों में प्रायः चर्चा भी होती है कि आपके हिसाब से बुजुर्ग और युवा साहित्यकारों में परस्पर किस तरह का संवाद होना चाहिए ? | |
उत्तर | बुजुर्ग को न समझना चाहिए बुजुर्ग और युवा को न समझना चाहिए युवा. उनमें मित्रवत्, आत्मीय रिश्ता होना चाहिए किंतु अतिनिकटता से सम्मान नष्ट होता है, इसकी जिम्मेदारी युवाओं की है. अगर एक बुजुर्ग कवि उनको प्यार अधिकार और सम्मान देता है तो युवा उसकी टोपी न उतारने लग जाएं. और बुजुर्ग की जिम्मेदारी है कि युवा को निरक्षर समझ कर अपनी हर बात उस पर थोपने न लग जाए. | |
प्रश्न | आखिर में सनातन किस्म का सवाल है, हालांकि आपने शुरू में मनुष्य होने और कवि होने की व्याख्या की, पर क्या जो अच्छा मनुष्य होगा वही अच्छा कवि होगा ? | |
उत्तर | अच्छा मनुष्य है और अच्छा कवि अगर नहीं भी है तो वह हमारे लिए ज्यादा वरेण्य है. बुरा आदमी अच्छी कविता नहीं लिख सकता. वो कविता तैयार कर लेता है. जेसे मिलावटी व्यापारी अच्छा पेटेंट तैयार कर लेता है. हमें सावधान रहना चाहिए. और हमें तमीज होना चाहिए कि हम फर्क कर सकें. अगर फर्क करने की तमीज नहीं है तो हमारे लिए सब एक सरीखे हैं. | |
प्रश्न | मतलब यह एक बुनियादी शर्त की तरह हो जाता है... | |
उत्तर | अच्छा आदमी हुए बिना कविता काहे को करेगा कोई ? उसको बुखार आ रहा है ? क्या किसी वैद्य ने कहा है ? | |
प्रश्न | कई लोग तो कर लेते हैं न ... | |
उत्तर | वो करते हैं तो उन पर डाउट करो. संदेह शब्द काहे के वास्ते है ? बहुत बडा़ शब्द है. हर चीज पर अपुन संदेह ही तो कर रहे हैं. यह सारी बहस संदेह के कारण है क्योंकि हमें ठगा जा रहा है. और हम संदेह नहीं कर रहे. | |
अनूप | जी. इतना समय निकालने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद. |
Sunday, June 2, 2013
असगर अली इंजीनियर को सलाम
लेबल:
असगर इली इंजीनियर,
पहल,
बातचीत,
विमर्श,
सुमनिका
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