पिछले कुछ महीनों में पूना में भारतीय फिल्म टेलिविजन संस्थान में तीन चार बार जाने का मौका मिला। कालेज यूनिवर्सिटी छोडे़ हुए करीब तीन दशक हो गए हैं। उसके बाद ऐसी जगहों पर जाने का खास मौका नहीं मिला। रस्मी तौर पर या मेहमान की तरह तो कभी कभार जाना हुआ, पर आम आदमी की तरह, और ज्यादा वक्त तक जाना न हुआ। एक समय में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, पृथ्वी थियेटर, श्रीराम सेंटर, टाटा थियेटर में जाने की एक खास तरह की ललक रहती रही है। धीरे धीरे कई तरह की छायाएं इन जगहों पर पडी़ं, इनके रूप-स्वरूप, काम-धाम में तब्दीली आई। नतीजतन इनके प्रति खिंचाव भी नए सिरे से परिभाषित होने की मांग करने लगा।
पूना के फिल्म टीवी संस्थान में जाने पर एक ठहरे हुए से समय से मुलाकात हुई। मुझे तीन दिन वहां यूं ही बिताने थे, कुछ न करते हुए। इसलिए मैं कैंटीन में, पेड़ के नीचे, सड़क किनारे बेंच पर या सीढ़ियों पर अपना दिन बिताता रहा। इस ठहरे हुए समय में मुझे अपने कालेज के दिन याद आ गए। हिमाचल में धर्मशाला के सरकारी कालेज की दीवारें पत्थर की थीं, छतें निर्मल वर्मा वाली लाल टीन की थीं और ढलवां थीं। बरामदे चौड़े थे। मैदान हरियाले थे। वो युवा लोगों और युवा मनों की चहल-पहल, जोश और उम्मीद भरे दिन थे। यहां फिल्म संस्थान में एक आध दीवार ही पत्थर की है, बाकी जगह प्लास्टर लगा है। पत्थर की दीवार गेरू जैसे रंग में पुती है। बरामदे नहीं हैं, बन्नी सी है। एसबेस्टस की धंसती हुई सी ढलवां छत है। पेड़ हालांकि काफी हैं पर पहाड़ जैसी गदगद हरियाली मानसून के बाद यानी सितंबर महीने में भी नहीं है। प्लास्टर वाली दीवारों पर फिल्मी हस्तियों के चित्र बनाए गए हैं जो अलबत्ता दूर से ही ध्यान खींच लेते हैं। इसके अलावा लोक निर्माण विभाग की वास्तुकला प्रेरित नहीं कर पाती है।
मेरे तार वहां की बाहरी रफ्तार से जुडे़। एक तरह की सुस्ती, पस्ती, उदास सी दिखती चुप्पी, और इस सब में एक तरह की पिनक भरी मस्ती इस रफ्तार पर तारी रहती है। संस्थान में लगता है समय अभी भी झोला छाप बुद्धिजीवियों के समय में ही अटका है। लैपटॉप, बैकसैक, बाइक और बाइसैप्स वहां कम दिखते हैं। हालांकि संस्थान तकनीकी तौर पर समकालीन है। यह बाहरी लद्धड़ रफ्तार भले ही बीते हुए समय ही है, पर अपनी सी लगती है। शायद मैं भी वहीं अटका हूं।
संस्थान को थोडा़ नजदीक से देखने पर पता चला कि यहां छात्र ज्यादा नहीं हैं। इसलिए भी शायद गहमा गहमी कम है। यह संस्थान विधिवत् रूप से फिल्म निर्माण सिखाता है पारंपरिक से लेकर स्टेट ऑफ द आर्ट तकनीक तक। पर यहां के लोगों में बालीवुड की हीरो टाइप जगर-मगर नहीं है। सिर्फ अभिनय सीखने आए छात्र धुले-धुले से दिखते हैं, बाकी सब 'गुआचे' (खोए) हुए से पाए जाते हैं। इस खोए-
खोए पन में सुबह सिद्धांत पढा़ए जाते हैं, दोपहर बाद प्रैक्टिकल। शाम, रात, देर रात फिल्में दिखाई जाती हैं। इसी धंसी हुई सी ढलवां छत के नीचे। संस्थान के शासी मंडल के मौजूदा अध्यक्ष सईद मिर्जा एक दिन इसी हॉल के बाहर किसी सहयोगी के साथ कुछ योजना बनाते समझाते दिखे। मेरे मन में आया क्या पता ये भी एसबेस्टस की छत को लाल टीन में बदल देने के बारे में चर्चा कर रहे हों। एक प्रोफैसर कहते हैं, छात्रों को हॉस्टल में ही रहना चाहिए वरना दिन ढलने के बाद जो चर्चाएं यहां होती हैं, उस लर्निंग अनुभव से वे वंचित रह जाएंगे। बाहर से 'सोतड़' से दिखने वाले संस्थान की दिनचर्या सुबह आठ बजे योग और मेडिटेशन से शुरू होती है और आधी रात को फिल्म प्रदर्शन से खत्म होती है। क्या पता इसीलिए यहां के बाशिंदे उनींदे से या टहलते हुए से चलते हैं। कल्पनाशीलता और रचनात्मकता के बादलों में स्लो मोशन में डग भरते हुए। प्राय: यहां छात्र दिखते नहीं हैं जबकि करीब दर्जन भर पाठ्यक्रम यहां पढा़ए जाते हैं। एक, दो और तीन साल लंबे। और तीन साला कोर्स पर्वतों में गूंजती आवाजों की तरह एक एक और साल तक लटके रहते हैं। मतलब पहले साल के नए छात्र अगले साल दूसरे साल में प्रवेश करते हैं। पर उनके आगे उनसे सीनीयर दूसरे साल वाले भी डटे रहते हैं। दूसरे साल वालों के सुपर सीनियर तीसरे साल में मोर्चे पर रहते हैं। जब तक उनके प्रोजेक्ट जमा नहीं हो जाते, डिप्लोमा पूरा नहीं होता। मतलब आवक मुस्तैद है, जावक ढीली। अपने अपने कामों को निपटाने के जुगाड़ में वे अदृश्य हुए रहते हैं और अधर में अटके रहते हैं। ![DSC_1456-1 DSC_1456-1](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEin17nT_9yvsR9YSluXjuyAAvAfcXRmaZ8uKrsqrsfYl9pTzJ2xW18kDVLyQIGCdMuwmNlc38HAoUpuKsHcGWbnfHYeVSm0Kym7dS5WsIJF2wioJReR23bi4OYlsQyGRg84rt5s_v40zy8/?imgmax=800)
संस्थान सरकारी है, इसका सकारात्मक पहलू यह है कि यहां देश के तकरीबन हर कोने के छात्र को मौका दिया जाता है और नियमानुसार आरक्षण भी मिलता है। फीस अपेक्षाकृत कम है इसलिए मध्यवर्ग की प्रतिभाओं को मौका मिल जाता है। सरकारी होने के कारण ही छात्रों की तुलना में प्रशासन अधिक दृश्यमान है। अखैं जी मैं कौण ? जी मैं चौधरी खामखाह। सारे कामकाज फाइलों से होकर ही पूरे हो पाते हैं। प्रशासन को लगता है, संस्थान उसके चलाए ही चलता है। पर कलाओं के स्थल प्रशासन के चलाए नहीं चलते। छात्रों की ललक और लपट दरार पडी़ दीवारों में उगते पीपल की तरह सिर उठाने लगती है। नौकरशाही के धूसर में छात्रशाही का वही हरियाला होता है। जड़ में वही चेतन होता है। जब संगठित हो जाता है तो दिशा भी देने लगता है, धक्का भी। कोई बस न चले तो दखल तो देने ही लगता है। छात्र संघ संस्थान की लस्टम-पस्टम चाल को सहारा देने का काम भी हाथ में ले लेता है।
इसका एक अनूठा उदाहरण हाल में सामने आया है। निनान वर्गीस यहां की मेस में करीब तीन दशक तक ठेके पर काम करने के बाद रिटायर हुए। इस दौरान वर्गीस ने पैसा देने वाले छात्रों को तो खाना खिलाया ही, जिनके पास पैसे नहीं होते थे उन्हें भी भूखे नहीं सोने दिया। इतना ही नहीं, यह दिलदार बंदा हर क्रिस्मस को छात्रों को अपने गरीबखाने पर बुलाकर खाना खिलाता था। इसके रिटायर होने पर छात्रों की बारी थी। नए पुराने कई छात्रों ने मिलकर करीब तीन लाख रुपए इकट्ठे करके इस क्रिस्मस के दिन वर्गीस को दिए। मदद करने वालों में स्लमडॉग मिलिनेयर वाले रेसुल पोकुटी और मुन्ना भाई वाले राजकुमार हिरानी भी थे। छात्र जब इस तरह अपने गुरुकुल से जुड़ते हैं तो लगता है सीमेंट की दरारों में उगे पीपल के पत्ते जरा सा और सिर और उँचा करके फहराने लगे हैं।
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