Thursday, December 31, 2009
Wednesday, December 30, 2009
Wednesday, December 23, 2009
शहर को पीठ
पिछले पोस्ट में जहां से खड़े होकर निर्माल्य कलश दिख रहा था, जहां कूड़ा कलश के बाहर था और कूड़ा बीनते बच्चे कलश में घुसे से हुए थे। मानो उनके महानगर में शामिल होने का रास्ता निर्माल्य कलशों से होकर ही जाता है। इसी जगह से नजर ऊपर उटाई जाए तो सड़क और महानगर दिखने लगता है। लेकिन जैसे ही हम शहर को पीठ दिखा दें तो नजर आक्षितिज उठ जाती है। तब जो नजारा दिखता है वो कुछ ऐसा है -
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Friday, December 18, 2009
निर्माल्य कलश
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAGCAtD_O55xXQPmszHk3Pl6JVG8lwhNEPkrnNoQlFITJe3myBoKoSPR4mz0gijquUpMvr1ldCLFzHm64OlbWhE0LY_o_xKHBnOV2Vi46MGsQcr6ywvL7VFcd8PuvpnLETrNAoje7KQwI/s400/22102009624.jpg)
यह चित्र मुंबई के वरली इलाके का है. समुद्र इस जगह से सटा हुआ है. थोड़ी थोड़ी दूर पर नेहरू सेंटर, स्पोर्ट्स स्टेडियम, रेस कोर्स है. गर्दन घुमाएंगे तो हाजी अली की दरगाह दिखेगी. ईंट की दीवार के उस तरफ सड़क है जो बहुत व्यस्त रहती है और ऐसी गाडि़यां ज्यादा होती हैं जो अमूमन एक गाड़ी में एक जन को ढोती हैं. चित्र के बारे में कहने की हिम्मत नहीं है. यह तो खुद ही हमारी कहानी बयान कर रहा है.
Tuesday, December 15, 2009
अम्मा पुछदी
मोहित चौहान का एक मनमोहक पहाड़ी गीत अम्मा पुछदी कबाड़खाना पर रखा गया था. उसमें कुछ पाठ भेद हो रहा था. गीत मां बेटी के बीच संवाद है. मां पूछती है कि धीए तू इतनी बड़ी कैसे हो गई. बेटी कहती है कि पारली तरफ मोर बोलते हैं जिन्होंने नींद उड़ा दी है. मोर का बोलना और नाचना बड़ा रोमांटिक बिंब है. मतलब बेटी प्यार में पड़ गई है. मां इन्ा मोरों को मार देना चाहती है, बेटी पिंजरे में डालना चाहती है. प्रेम में चांद तारों की तरह लुका छिपी का खेल है. पर मां जानती है कि चांद तारे तो छुप जाते हैं, दिलों के प्यारे छुपाए नहीं छिपते. संयोग से यह गीत और मोहित चौहान पर थोड़ी सी सामग्री हमने हिमाचल मित्र के शरद अंक में दी है. इस पूरे गीत को फिर से पढ़वाने और पत्रिका के इस पन्ने को यहां रखने का मोह छूट नहीं रहा. इसलिए आप भी इसे देखें और पढ़ें. वैसे मोहित के नए एलबम फितूर में भी एक पहाड़ी गीत है, वह भी बहुत मधुर है.(ठीक से पढ़ने के लिए नीचे चित्र पर क्लिक करें.)
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Wednesday, December 9, 2009
हिंदी का बुद्धिजीवी
लेखक संगठनों के पुनर्गठन का मसला
हिमाचल मित्र के इस संपादकीय के साथ
जोड़ कर देखा जाएगा
तो परिवर्तन की जरूरत और शिद्दत से महसूस होगी.
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माहौल को गरियाना, राजनीति को लतियाना, युवा पीढ़ी पर बिगड़ जाने के फतवे जारी करना और फिर व्यवस्था के मत्थे दोष मढ़ देना एक फैशन है। हर कोई खुद को हर चीज का एक्सपर्ट समझता है इसलिए उसे लगता है हर मसले का समाधान उसके पास है। बिनमांगी सलाहों का जखीरा हर किसी के पास होता है जिसमें राजनेताओं को तड़ीपार करने से लेकर डिक्टेटरशिप लागू करने तक के अव्यवहारिक और विचारहीन फंडे कढ़ी में उबाल की तरह उफनते रहते हैं। इस तरह की चकल्लस में हमारे पुरुष ज्यादा लिप्त रहते हैं और घर-घर में चक्रवर्ती सम्राट बनके घूमते रहते हैं। महिलाएं चूंकि एक के बाद एक शिफ्ट में बेगार करती रहती हैं, इसलिए वे इस चर्चा-चर्वण में कम ही शामिल होती हैं। हम दूसरों से तो बहुत उम्मीद लगाए रखते हैं पर अपनी तरफ भूलकर भी नहीं देखते। समाज के प्रति हमारी क्या जिम्मेदारी है, इस पर लच्छेदार भाषण तो दे सकते हैं पर अमल करते वक्त हम कन्नी काट लेते हैं। कथनी करनी में समानता हमने महात्मा गांधी जैसे महात्माओं के लिए छोड़ दी है।
हरेक जन अपने आचार-व्यवहार से अपने समय की सभ्यता-संस्कृति की रचना करता है। अगर हम कहेंगे कुछ, और करेंगे कुछ, तो विचार-व्यवहार की यह फांक हमारी सामूहिक चेतना में भी फैलती जाएगी। यह ठीक है कि हरेक प्राणी अपने सर्वाइवल के लिए जीता है। लेकिन लाखों वर्षों की विकास यात्रा में हमने सामाजिकता के मूल्य भी तो विकसित किए हैं। वे हमारे खून में या कहें जीन्स में आ गए हैं, हमारे चित्त में बैठे हैं, हमारी चेतना को रोशन करते हैं। ऐसी विकासमान और आत्मिक धरोहर को धता बताकर अगर हम खुद से ही लिथड़े रहें, खुद को अपनी इंस्टिंक्ट्स के शिकंजे में फंसाए रखें, लेकिन सारी सदाशयता, परमार्थ और सामाजिक उत्तरदायित्व की उम्मीद दूसरे से करते रहें तो ऐसे दोफाड़ व्यक्तित्व को वैचारिक सिजोफ्रेनिया का शिकार ही कहा जाएगा। और खंडित व्यक्तित्व एक रोग होता है। इस पंगुता को हम अपनी सभ्यता-संस्कृति में संक्रमित करते जाते हैं।
यह भी ठीक है कि आदर्श समाज तो एक यूटोपिया है। लेकिन हर युग ने इस यूटोपिया को फलित करने के प्रयत्न तो किए ही हैं। सभ्यता-संस्कृति के निर्माण में यूं तो मजदूर, किसान, कारीगर, इंजीनियर, आर्कीटेक्ट, डॉक्टर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, राजनेता, बच्चे, बूढ़े, युवा, प्रौढ़, कन्या, युवती, माता, पिता, दादी, नानी सबका योगदान है। प्रकृति के प्रत्येक प्राणी से ही नहीं, जड़ वस्तु और मानव निर्मित वस्तु से भी हमारे रिश्ते इसके डीएनए के निर्माण में योगदान देते हैं। ये संबंध आपस में भीतर तक गुंथे हुए हैं। इतने गझिन कि हमें पता ही नहीं चलता कि हम क्या दे रहे हैं और बदले में क्या पा रहे हैं।
ऐसी जटिल संरचना के बीच रहते हुए बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका नि:संदेह महत्वपूर्ण हो जाती है। इनमें भी भाषा, साहित्य और कला के क्षेत्र में सक्रिय बुद्धिजीवियों का कार्यक्षेत्र बहुत जिम्मेदारी भरा है। लेखक, अध्यापक, पत्रकार, भाषा अधिकारी, सांस्कृतिक अधिकारी को कथनी-करनी में भेद करने की छूट किसी भी कीमत पर नहीं मिल सकती। लेखक कलाकार की कला-जन्य स्वायत्तता अपनी जगह है पर हम यह नहीं भूल सकते कि इन बुद्धिजीवियों के काम का संबंध आगे आने वाली कई पीढ़ियों से है। लेखक-कलाकार ज्ञान और संवेदना के औजार लेकर जीवन जगत की पुनर्रचना करता रहता है; अध्यापक अगली पीढ़ियों को जीना सिखाता है; पत्रकार के ऊपर सारे समाज को बाखबर और खबरदार रखने की जिम्मेदारी है; उनसे भी अहम भूमिका नौकरशाही के उन आला अफसरों की है जो केंद्र और राज्य सरकारों की सांस्कृतिक, भाषाई और शिक्षा संबंधी नीतियों और संस्थाओं के नियंता और संचालक हैं।
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इसकी तुलना में आज के अदबी हालात देखकर आंखें फटी की फटी रह जाती हैं। तकरीबन हर लेखक परेशान है कि उसे उसकी प्रतिभा के बराबर महत्व नहीं मिलता। पुरस्कारों, फैलोशिपों, पदों और पीठों के आबंटन पर थुक्का-फजीहत चली रहती है। कभी किसी आयोजन पर विचारधारात्मक हमला होता है, तो कभी किसी लेखक या संगठन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगता है। एक कवि गाली-गलौच पर उतर आता है तो दूसरा हाथापाई करने से नहीं हिचकता। और हिंदी साहित्य की दुनिया अपनी लघु पत्रिकाओं में ललकारती रहती है। पाठकों की कमी मुंह बाए खड़ी एक सच्चाई है। अभी तक हम पुस्तक बिक्री का नेटवर्क ही खड़ा नहीं कर पाए हैं। उल्टे थोक खरीद के जमींदोज नाले का नेटवर्क ज्यादा पुख्ता हो गया है। यह किसका किया धरा है? बुद्धिजीवी का ही न। जो करना था वो नहीं किया, जो नहीं करना था वह करते चले आए। अगर साहित्य की पैठ व्यापक पाठक वर्ग तक हो तो लोकप्रियता के मानक बदल जाएंगे। किसी भी लेखक को पाठक लोकप्रिय बनाएंगे, पुरस्कार या मित्र-लेखक नहीं। पाठकों के कम होने के कारण लेखक वर्ग की एकाउंटेबिलिटी तय नहीं हो पाती।
भाषा से जुड़े तकरीबन सभी पेशे इसी के कारण स्वच्छंद और लगभग स्वेच्छाचारी हैं। अकादमिक जगत पर नजर डालिए तो निराशा घेरने लगती है। स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों के पाठयक्रमों का मसला हो, पाठयपुस्तक उद्योग हो या उच्च स्तरीय शोध हो, खुला खेल फर्रुखाबादी चलता है। अकेले या गिरोहबंदी करके मनमानी की जाती है। तू मुझे पोस मैं तुझे पोसूं का खेल चलता है। अधिकार का दुरुपयोग करना मानो मौलिक अधिकार बन गया हो। चाहे कक्षा पांच का पाठ हो, चाहे एमफिल पीएचडी के शोध, भ्रष्ट भाषा के नमूने हर कहीं मिल जाएंगे। ऐसे ऐसे लेखकों पर शोध हुआ मिल जाएगा, जिन्हें सही भाषा लिखने का अभ्यास भी नहीं है। हमारे यहां तकरीबन तीन सौ विश्वविद्यालय हैं। यानी इतने ही हिंदी विभाग होंगे जहां शोध होता है। असल में शोध तो अनवरत चलती हुई फैक्ट्री है, जहां भारी संख्या में पुस्तकों, लेखकों और आलोचकों की कच्चे माल की तरह निरंतर खपत होती है। यहां अकादमिक अध्यापक, शोध निर्देशक और आलोचक स्वायत्त होकर काम करता है। वह क्या करता है, कैसे करता है, क्यों करता है, इसका लेखा जोखा करने वाला कोई नहीं। कमोबेश इसी रास्ते पर हमारा मीडिया चल रहा है। वह तो सत्ता के और भी करीब है। इसलिए मुंह जोर है। आज हर कोई प्रिंट और टीवी को पानी पी पी कर कोसता है। लेकिन मालिकों को छोड़ दें तो इन्हें चलाता कौन है? हिंदी के बुद्धिजीवी ही न? क्या वे इतने पंगु और मूढ़ हैं या भीरु और कायर हैं या मोटी तनख्वाहों और सुविधाओं के गुलाम हो गए हैं कि चलताऊ, भड़काऊ, उबाऊ खबरों से परे कुछ देख सोच ही नहीं पाते? एक एक करोड़ पाठक और आपको विश्लेषण के लिए अंग्रेजी की शरण में जाना पड़े? या कालम लेखक भी अनुवाद करके लाने पड़ें? हिंदी में कितने कालमिस्ट होंगे, जिनके शब्दों को नीति-निर्माता तवज्जो देते होंगे? टीवी पर तो खबरों तक को सनसनीखेज सीरियल बनाने में कोई कोर- कसर नहीं छोड़ी जाती। हमारा पत्रकार तबका हिंदी समाज को बौड़म, ठरकी और पतित ही मानता है इसलिए उसी तरह की लुगदी परोसता चला जा रहा है। आत्मान्वेषण तो छोड़िए, न तो कोई वाचडॉग इन मीडिया-मेधावियों पर नजर रखने को तैयार है और न ही कोई मीडिया संस्थान विचार-विश्लेषण करने को। हिंदी को राजभाषा बनाए जाने के कारण सरकारी हल्कों में हमें हिंदी अधिकारी मिला। यह एक विलक्षण अवसर था। हिंदी अधिकारी नौकरशाही और प्रशासन के मकड़जाल में सांस्कृतिक चेतना फैला सकता था। पर वह अंतर्विरोधों और हीनताग्रंथी में उलझ कर रह गया। नौकरशाही के जो अफसर भाषा-साहित्य-संस्कृति की नीतियां बनाने और उन्हें चलाने के लिए तैनात किए जाते हैं, वे ज्यादातर सत्ता के मुहरे बन कर ही रह जाते हैं।
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जब मशाल लेकर चलने वाले ही दिशाहीन होकर लड़खड़ाने लगें, तो वे व्यापक हिंदी समाज पर उदासीनता, अपढ़ता, कूढ़मग्जी, संस्कारविहीनता आदि के दोष किस मुंह से मढ़ सकते हैं? यह दोषारोपण बंद होना चाहिए। सारे बुद्धिजीवी वर्ग को आत्मान्वेषण करना चाहिए; और ऐसा इंतजाम करना चाहिए जिसमें लेखक, अध्यापक, पत्रकार, संपादक और अधिकारी का सोशल ऑडिट हो। उसकी जिम्मेदारी तय हो और उसे जवाबतलब किया जाए। यह काम कैसे किया जाए कि रचनात्मक स्वायत्तता का हनन भी न हो और उच्छृंखल हरकतों की छूट भी न मिले, बल्कि जिम्मेदारी की चेतना का प्रसार हो, यह मिल बैठकर तय किया जाना चाहिए। लेकिन वाग्विलास से परे, चर्चा-चर्वण से हटकर, आंतरिक और अनिवार्य जरूरत के तहत, एक आत्मिक पुरुषार्थ और परमार्थ की तरह।
चित्रः प्रभु जोशी. खंडित करने के लिए क्षमा करेंगे. अंदर बाहर की कटी फटी चिडि़या तकलीफ देती है. जीवन जगत का सौंदर्य साथ रहने में ही है.
Tuesday, December 1, 2009
संगठन, लेखकों के कवच-कुंडल बनें
लेखन भले ही ऐकांतिक कार्य हो लेकिन उसकी एक महत्वपूर्ण सामाजिक भूमिका भी है। रचना का पाठक तक पहुंचना निश्चित रूप से एक सामाजिक गतिविधि है। आज हिंदी लेखक बहुत ज्यादा हाशिए पर आ गया है। उसकी प्रासंगिकता का भी संकट खड़ा हो रहा है, जबकि अगर आज की शब्दावली में लेखन एक प्रोफेशन भी है। शौकिया भी है और प्रतिबद्ध प्रोफेशन भी है। हर प्रोफेशन की एसोसिएशन होती है जो उनके हितों की रक्षा करती है। उनके लिए आचार संहिता बनाती है क्योंकि उसके सदस्य जिम्मेदारी का काम कर रहे होते हैं, जैसे प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया आदि। ये संस्थाएं अपने सदस्यों के हितों की रक्षा भी करती हैं और उनकी भूमिका पर नजर भी रखती हैं। विचार करने की बात है कि लेखक संघों को भी इसी तरह चुस्त-दुरुस्त होना चाहिए और वर्तमान कठिन समय में लेखक का कवच-कुंडल बन जाना चाहिए। अतः लेखक संघों की जरूरत बनी रहेगी। लेखक, पाठक, प्रकाशक, पुस्तक वितरण, पाठ्य पुस्तक, शोध, भाषा प्रचार-प्रसार, प्रौद्योगिकी जैसे हर मुद्दे पर सुविचारित और सामूहिक आधार पर काम करने की जरूरत है। संघ इस सब में महती भूमिका निभा सकते हैं। तीनों ही लेखक संगठनों की ओवरहालिंग की जरूरत है। इधर प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जनसंस्कृति मंच के स्पष्टीकरण छपे हैं। अब इसके आगे जाने की जरूरत है। जरा सोचें कि लेखक संघों ने अब तक क्या क्या किया है और आगे क्या कैसे करना है।
सभी संघों के लिए किए जाने वाले कामों की एक सरसरी सूची प्रस्तावित की जा रही है। अनुरोध है कि संघों की प्रासंगिकता पर सुधी जन विचार करें:-
- प्रत्येक संघ अपने अपने सदस्यों की सूची जारी करे।
- आमदनी और खर्चे का हिसाब किताब सार्वजनिक किया जाए।
- अपने काम में पारदर्शिता कायम रखी जाए।
- युवा लेखकों को जोड़ा जाए।
- संभावनाशील छात्र लेखकों के लिए कार्यक्रम और प्रतियोगिताएं की जाएं।
- रस्मी गोष्ठियों से हटकर कार्यक्रमों में नवीनता लाई जाए।
- गोष्ठियां और कार्यक्रम सिर्फ लेखकों के लिए ही नहीं, पाठकों के लिए भी किए जाएं।
- पाठ्यक्रमों के निर्माण में हस्तक्षेप करें।
- लेखकों को लेखकों के बीच ही नहीं, जनता के बीच भी ले जाएं।
- संघ लघु पत्रिकाओं और पुस्तकों के वितरण में मदद करें।
- लेखक-प्रकाशक रिश्तों को सुधारें और लेखक के हितों की रक्षा करें।
- पाठ्यपुस्तक व्यवसाय की निगरानी करें।
- हिंदी सेवी संस्थाओं की देखभाल/निगरानी करें।
- लेखक सहायता कोष बनाएं।
- संघों को सामंती और नौकरशाही वृत्तियों से मुक्त कराएं।
- पहले लक्ष्य निर्धारित करें और उन्हें पूरा करें। अब आगे जाने की जरूरत है। जरा सोचें कि लेखक संघों ने अब तक क्या क्या किया है और आगे क्या कैसे करना है।
नई दुनिया 20 नवंबर, 2009
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