पिछले दिनों हमारे एक चचेरे भाई का फोन आया कि वे मुंबई पहुंच गए हैं, कई दिन के सफर के कारण बच्चे बडे़ सभी बीमार पड़ गए हैं और रात को ही लौट भी जाना है, इसलिए घर नहीं आ पाएंगे। चाची जी के लिए कुछ सामान लाए थे, यहीं छोड़ रहे हैं, तुम आ कर ले जाना। सुबह का वक्त था। मैंने तैयार होते-होते ही फोन सुना था। यह भी बोल नहीं पाया कि कोई बात नहीं, मैं ही आता हूं मिलने। या शाम को प्लेटफार्म पर विदा करने आउंगा। दफ्तर से छुट्टी लेना नामुमकिन था। शाम को जाना भी बस में नहीं था। अच्छा अपना ख्याल रखिए, इतना भर कह पाया।
करीब दो महीने पहले से पता था वे आने वाले हैं और हिमाचल मित्र मंडल के गेस्ट हाउस में ठहरेंगे। भाई रिटायर हो गए हैं और हर साल पर्यटन पर निकलते हैं। पिछले साल भी आए थे तब नासिक में टिके थे। चाची को मत्था टेकने के वास्ते मुंबई का फेरा लगा के लौट गए। समझदारी यह की थी कि इतवार का दिन चुना था या क्या पता संयोग रहा हो।
इस बार संयोग नहीं बना। हफ्ते के बीच का दिन पड़ गया। एक ही शहर में होने के बावजूद मेरे और उनके बीच कई घंटों की दूरी थी। इस दूरी को इतवार के दिन ही पाटा जा सकता था। पर इतवार तक वे वापस हमीरपुर पहुंच चुके थे। इतवार के ही दिन मैं उनके रखे सामान को लेने हिमाचल मित्र मंडल पहुंचा। मंडल में और कुछ हो न हो, भाषा सुख खूब मिलता है। वहां आने वाले तकरीबन लोग अपनी बोली में बतियाते हैं। मुंबई में रहते हुए घर में मैं बीजी (मां) के साथ पहाडी़ बोलता हूं। फोन पर हिमाचल में बडे़ भाई से, यहां हिमाचल मित्र के संपादक कुशल से। पांच साल हमने यह पत्रिका निकाली और खूब भाषा सुख लूटा। हिमाचल मित्र मंडल में बाकी माहौल तो मुंबइया ही है, सिर्फ कानों को लगता है आप हिमाचल में हैं। और वहां पहुंच कर मन हलका हो जाता है।
भाई जिस थैले को उठाए-उठाए पूरा दक्षिण घूम आए थे, वह मेरा इंतजार कर रहा था। उसे उठा कर चलने लगा तो कई तरह के ख्याल मन में आए। मैंने थैले को नहीं, परंपरा को हाथ में उठाया है। यह परंपरा मुझे ले कर चल रही है या परंपरा को मैं चला रहा हूं। या जो परंपरा चली आती है, मैं उसका हरकारा हूं। तो क्या मैं परंपरा का बोझा उठा कर चल रहा हूं ? क्या यह सच में ही बोझ बन गई है।
बरसात का मौसम था। एक हाथ में छाता, एक में थैला लिए मैं चल निकला। आटो से विद्याविहार स्टेशन आया, वहां से लोकल ट्रेन पकड़ कर दादर। वहां से दूसरी ट्रेन लेकर गोरेगांव। वहां से फिर आटो। तब पहुंचा अपने घर। मतलब चार पडा़व के बाद आया घर। थैले को अपने सामने पाकर अस्सी वर्षीया बीजी इस तरह सजग हो गईं मानो डेढ़ हजार मील दूर से उनका कोई अपना उनके रू-ब-रू आ बैठा हो। सामान भरे थैले ने उनके तार जोड़ दिए और वे अपने लोगों से जुड़ गईं। वे सामान भेजने मंगवाने की परंपरा को आज भी नि:संकोच अमल में लाती हैं। वे इस तरह नहीं सोचतीं कि इससे दूसरे को असुविधा भी हो सकती है। खैर, सामान में क्या निकला – वड़ियां शायद घर की बनी हुईं, मक्की का आटा, चुख माने गलगल (बड़े नींबू) की काढ़ी हुई खटाई और उनके लिए सलवार कमीज का कपड़ा। सामान के उपयोग की उनकी योजनाएं शुरू हो गईं। मेरा आकलन यह था कि वड़ियां यहां मिल जाती हैं, मक्की का आटा ताजा पिस जाता है। यह सूट बीजी पहनेंगी नहीं। सिर्फ चुख ही नायाब चीज है। पर खटाई खाने से वैसे भी परहेज करने का दबाव बना रहता है क्योंकि उनके घुटने जवाब दे चुके हैं।
तो फिर बाबू किस्म का एक भाई हजार किलोमीटर तक इसे ढोता रहा। यहां बाबू किस्म का दूसरा भाई महानगर की सड़कों पटड़ियों को लांघ कर घर तक लाया। बिना भावुक हुए सोचने की बात है कि पहाड़ के इस बुजके (बोझ) को लादे रखा जाए या छोड़ दिया जाए। आज टेलिफोन क्रांति चरम पर है। बीजी भी अपने सगे संबंधियों की सुबह शाम की खबर नियमित रूप से रखे रहती हैं। थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ हमारे घर पर खाना भी तकरीबन उन्हीं के स्कूल का बनता है। रसना के दोनों सुख हमें मिल जाते हैं। मैं और बीजी पहाडी़ में बतियाते हैं और दाल भात खाते हैं। सिर्फ रहने की जगह फर्क है। छोटी जगहों के घरों में बरामदा आंगन होता है, यहां माचिस की डिबिया जैसे फ्लैट हैं।
आज चालीस पहले जैसा वक्त नहीं है। तब वहां पर सौ किलोमीटर दूर अपने ननिहाल भी बाकायदा प्रोग्राम बनाकर जाना पड़ता था। आज लोग सुबह जाकर शाम को लौट आते हैं। आवागमन तेज और आसान हुआ है। यह अगल बात है कि जाने की फुर्सत कम मिलती है। संपर्क रहता है, पर आना जाना उतना नहीं होता। सोयशलाइजिंग कम हो गई है। उसकी जगह आभासी सामाजिकता अमर बेल की तरह फैल रही है। कुल मिलाकर अलग-अलग इलाकों में रहन-सहन, खान-पान में ज्यादा अंतर नहीं रहा। शहर भी ग्लोबल, गांव भी ग्लोबल। इसलिए अब इस बोझे में से कुछ सामान हटा देना ठीक नहीं रहेगा ? सारे के सारे अतीत को बुहार देने की जरूरत नहीं है पर थोड़ी बहुत छंटाई बीनाई तो हमें करते रहना चाहिए। जैसे थैले के बारे में ही सोचो, कपडे़ की जगह सिंथैटिक ने ले ली है। झोले की जगह पिट्ठू ने ले ली है। उसे पिट्ठू कहते भी नहीं, बैकसैक या बैगपैक कहते हैं क्योंकि पिट्ठू बड़े आकार का होता था और लंबी, खासकर पैदल यात्राओं में काम आता था। अब तो बैक सैक को बच्चे बूढे़ सब अपनी पीठ पर गांठ के चलते हैं। अगर सामान ढोने वाला बदल रहा है, सामान ढोने का साधन बदल रहा है तो उसके अंदर के सामान को भी बदलना चाहिए।
दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता
आपने लिखा....हमने पढ़ा....
ReplyDeleteऔर लोग भी पढ़ें; ...इसलिए आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल में शामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा {रविवार} 13/10/2013 को हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल – अंकः 024 पर लिंक की गयी है। कृपया आप भी पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें। सादर ....ललित चाहार
ललित जी, चर्चा में शामिल करने के लिए धन्यवाद
Deleteजीने का रंग बदल डाला है, पर हृदय तो अब भी वैसे ही धकड़ता है।
ReplyDeleteप्रवीण जी, आपने सही नब्ज पकडी़ है।
Deletebahut khoob Anupji
ReplyDeleteशुक्रिया ओमा जी
Deletebahut badhiya ji
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteधन्यवाद उपासना जी
Deleteआपने अच्छा विषय चुना है पुनर्विचार के लिए . परम्पराओं में भावनाओं की गर्माहट को समेट सकने वाले समय से शायद बहुत आगे बढ़ गए हैं हम . बदल चुके समय और जीवन शैली के साथ उसकी टकराहट ऐसे ही होती है और एक दिन थैला बुज्के में बदल जाता है . हमारे एक मित्र गांव के आत्मीय परिवेश की तुलना शहर के वातावरण से करने लग जाते हैं . एक दिन इन कारणों पर उनसे विस्तार में बात हुई तो उन्हें भी लगा कि इस तरह की तुलना करना कितना निरर्थक है . परिवेश और समय बहुत सारी परम्पराओं को 'बुजका' बना देता है . इस पर खुल कर बात होनी चाहिए .
ReplyDeleteआप सही कह रहे हैं निरंजन जी,
ReplyDeleteऐसी बहुत सी चीजें हैं जिन्हें हम ढोते रहते हैं। ब्याह शादियों में 'बरतन' एक ऐसा ही मसला है। आत्मीयता नहीं रहती, औपचारिकता घेरे रहती है1
खाली असुविधा ही नहीं होती , मँहगा भी खूब पडता है . लक्जरी आईटम सम्झो भाई जी इस बुचके को . सर्वहारा तो अफोर्ड ही नहीं कर सकता. यह अब इलीट के चोंचलों में शुमार है .
ReplyDeleteअजेय जी, सर्वहारा की बात तो समझ में आई पर इलीट तक छलांग जरा ज्यादा लग गई। इलीट इसे बुजका नहीं फूल ही मानेगा। यह स्यापा तो मध्यवर्ग का है। वही इस छछोपंज में फंसा है।
Deleteसही कहा आपने , ढोता मध्यवर्ग है , लेकिन मूल्य तो इलीट के ही बनाए हैं . वे इसे *एथनिक* फूड कहते हैं .
Deleteऔर ध्यान से देखें तो वह मातृ भाषा , जिसे आप *पहाड़ी* कहते हो ; भी तो बुचका ही है ..... कब तक अफोर्ड करोगे ? हिन्दी अंग्रेज़ी के चलते.... आप कर भी लोगे , बच्चे तो नहीं कर पाएंगे . ऐसे ही इमोशनल मामले हैं . निरंजन, खुल कर बोलसे से हताशा होगी !
ReplyDeleteजाहिर है जो मेरे लिए सदरी है, वो मेरे बच्चों के लिए बुजका ही होगा। जब तक ठंड लगेगी, सदरी पहनूंगा। बच्चों को नहीं रुचेगा, फेंक देंगे। मेरे भाई, भाषा और खाना आदत की तरह हमारे बजूद का हिस्सा होते हैं। इनकी बेकदरी न करो। यह हो सकता है मेरी पहाड़ी लग तेरी पहाड़ी लग। उससे क्या फर्क पड़ता है। जैसे संस्कृत एक 'सीर' (सोता) है, वैसे ही पहाडी़ भी एक सीर है, जहां भाषा के जल-कण फूटते हैं और मेरे अंदर नमी बनाए रखते हैं। यह हो सकता है कि संस्कृत आज हिमपिंड बन गई हो। और पहाडी बिन पानी की खड्ड बनने की प्रक्रिया में हो, हिंदी की नदी, बलिक नहर कहना चाहिए, अभी सूखी नहीं है। भले ही हम पानी अंग्रेजी के नल का पी रहे हों।
Deleteपर बंधु जैसे पानी मुझे जीवन का जेनेसिस समझाने लग जाता है, वैसे ही भाषा स्मृति के अथाह भंडार के गुहा द्वार खोल देती है। जो भी जितनी भी बची है, उसे घुट के जप्फी पाओ।
समझ सकता हूँ आप उस भाषा में रमते भी खूब हैं . सच पूछो तो जान डाल देते हैं . लेकिन जो सामान आप का भाई लेके आया उस के अन्दर भी वही खुशबू और वही स्वाद है उसे आप बदलने में कुछ ज़्यादा परहेज़ नहीं करते दीखते
Deleteहां, मैंने तो यह टिप्पणी लिखी ही इसलिए थी कि जो चीज बोझा लगे उसे बदलने पर विचार करना चाहिए। मेरी पिछली पीढ़ी को उसकी ज्यादा कद्र है। मैं उस पर तर्क का न
Deleteश्तर चलाने की सोच रहा हूं। पर मैं भाषा को उस खाने में नहीं रखता। हालांकि अजेय जी, यहां बहुत से लोग हैं जिनके लिए इन चीजों की उपयोगिता है। (हमारे लिए तो यह भावना का छन्ना है)। एक बोरी गेहूं, चावल बड़े आराम से ले आते हैं, साल छह महीने के राशन की तरह।
यह अजब है . मुझे लगता था यह बहुत मँहगा पड़ जाता होगा , माने किराया की लगालें तो .....
Deleteएक तो मुंबई में राशन महंगा हे दूसरे थोड़ा नॉसटेल्जिया भी रहता होगा। उत्तर प्रदेश के बहुत से लोग हैं, हिमाचल के भी हैं पर थोड़े, जो छुट्टी लेकर मुलुक (गांव) में खेती बो आते हैं, दुबारा जाकर काट आते हैं।
Deleteअजेय जी आप का कहना बिल्कुल ठीक है। समय बीतने के साथ मॉं-बाप भी बुजका लगने लगते हैं और आपने यह हिंदी-हिंदी क्या लगा रखी है। इस देश के उच्च वर्ग के लिए तो अब वो भी राष्ट्रभाषा नाम का एक बुजका है जिसे ढोना उन बेचारों की मजबूरी है।
ReplyDeleteबदलते समय के साथ जीने की कहानी। अच्छी पोस्ट और टिप्पणी-प्रतिटिप्पणी।
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