Sunday, November 20, 2016

मुद्रित शब्द के परे : आभासी संसार में उथल-पुथल



अक्‍तूबर 2016 में छपे चिंतनदिशा पत्रिका के पत्रिका-परिक्रमा स्‍तंभ में पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर मुनि मुक्तकंठ की टिप्‍पणी छपी है। दैनिक समाचार समाचारों को एक दिन बाद रद्दी में बदलता है लेेकिन फेसबुक दैनिक अखबारों से भी ज्‍यादा तेजी से चलता है और दिन के असंख्‍य हिस्‍सों में समय को रद्दी में बदलता है। जिन घटनाओं का यहां जिक्र है, वे वहां कब की दफ्न हो चुकी हैं। लेकिन प्रिंट में छपने वाली पत्रिका इसका नोटिस ले रही है और दो तीन महीने बाद अपनी बात पाठकों तक पहुंचा रही है। सोशल मीडिया को समझने का यह भी एक तरीका है। 



खासकर फेसबुक में हिंदी साहित्य को लेकर उबाल आता रहता है। लेखकों के बीच कुछ गंभीर, कुछ चुहुलबाजी, कुछ कीच युद्ध, कुछ जूतम पैजार, कुछ गाली-गलौज, चर्चा-कुचर्चा का आलम बना रहता है। यह आभासी फूहड़बाजी है। पुराने किस्म की अड्डेबाजी या प्रतिगोष्ठियों में भी यह सब होता था, लेकिन वरिष्ठता और उम्र का थोड़ा लिहाज रख लिया जाता था। एक-दूसरे के गिरेबान पकड़े जाते थे, पर अपवादस्वरूप ही। आमने-सामने यानी एक्चुाअल की  अड्डेबाजी के बरक्स आभासी यानी वर्चुअल अड्डेबाजी में खुला खेल फर्रुखावादी चलता है। युवा लेखकों के सिर तोहमत मढ़ी जाती है, तो यह गलत भी नहीं है, क्योंकि वे जब बकने पे आते हैं, तो किसी का लिहाज नहीं करते। भाषा की शालीनता और सभ्यता के परखच्चे उड़ जाते हैं और उनकी सारी भड़ास सामने आ जाती है। इनका गुस्सा वरिष्ठों पर निकलता है। अब देखा जाए तो वरिष्ठ भी कम घाघ नहीं  हैं। उनकी गिरोहबाजी, भितरघात और चालाकी भी यत्र-तत्र दिखती रहती है। सोशल मीडिया इन दोनों ही पीढ़ियों को माफिक आ रहा है। यह नंगई भरा, गंधाता हुआ, गैर जिम्मेदार किस्म का लोकतांत्रिक स्पेस है। पर यह हमारे समय की सच्चाई भी है और एक मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षी ‘पढ़ीक’ इस गंद को मुट्ठी में लिए घूमता रहता है।

सोशल मीडिया में इधर दो बातें कुछ दिनों तक खबदाती रही हैं। युवा कविता के लिए भारत-भूषण अग्रवाल पुरस्कार एक तरह से कुख्यात हो चुका है, फिर भी हर महत्वाकांक्षी युवा कवि इससे विभूषित भी होना चाहता है। इस बार के निर्णायक उदय प्रकाश थे और उन्होंने शुभम् श्री की एक कविता इसके लिए चुन ली। कविता के बारे में उनका वक्तव्य तो बाद में सामने आया, कविता की शामत पहले आ गई। कुंठित कवियों ने अपनी कुपढ़ता को जगजाहिर करते हुए पहले पुरस्कृत कविता को नोंच-चोंथ खाया, फिर उसकी अन्य कविताओं की मिट्टी पलीद की, फिर कवयित्री पर भी कीचड़ उछालने से परहेज नहीं किया। उधर दो-तीन वरिष्ठ कवि, कवयित्री और कविताओं का बीच-बचाव करते रहे। फेसबुक पर आई इस पंक-वृष्टि का कुछ प्रसाद वट्स ऐप पर भी गिरा। यहां चूंकि चर्चाएं समूहों में चलती हैं, इसलिए इसका चरित्र किंचित भिन्न है। पर उबाल तो यहां भी आता रहता है। 
इस परखच्चे-उड़ाऊ चर्चा के कुछ ही दिन बाद द्रौपदी सिंघार नाम की कवयित्री फेसबुक पर अवतरित हुई और उन्होंने तेजस्वी, धारदार, तकलीफदेह, सच्ची-सी लगने वाली मारक कविताओं की झड़ी लगा दी। झड़ी के लगते ही  उनके फेक होने पर बहस छिड़ गई। रचनाकार के नकली होने के साथ-साथ कविताओं के नकलीपन पर भी बहस होने लगी।

अब सवाल यह उठा कि छद्म नाम से पहले से भी लिखा जाता रहा है तो इसमें क्या हर्ज है। लेकिन कागजों के पुलिंदे से मशाल बनाने की कोशिश करने की तरह इन माओवादी क्रांतिकारी कविताओं की राख दो ही दिन में हवा हो गई। आग की लपट की तो बात ही क्या करनी। उससे तो बीड़ी जलाना भी मुमकिन नहीं लगता। यहां सोशल मीडिया का चरित्र अपना खेल खेल गया। वो हर बात को, हर विमर्श को, हर संजीदगी को पलभर में चकनानूर कर देता है। अगर प्रयोक्ता उसका समझदारी से इस्तेमाल न करे तो उसके हाथ का खिलौना ही बन जाएगा।  इलेक्ट्रॉनिक लोक का यह नया स्पेस स्वभाव में जितना चंचल है, प्रयोक्ता को उतना ही बड़ा चूतिया बनाता है। 

Monday, November 7, 2016

छोटी सी सहित्य सभा

हृदयेश जी को विनम्र श्रद्धांजलि

कई बरस पहले हृदयेश जी जब मुंबई आए थे, जीतेंद्र भाटिया और सुधा अरोड़ा ने अपनी वसुंधरा में उनका कहानी पाठ रखा था। गोष्ठी के बाद मैंने एक कविता लिखी, जो हृदयेश जी को समर्पित की। उन्हें भेजी और उनका आशीर्वाद भी मिला। उनकी याद में यहां यह कविता रख रहा हूं। यह कविता कवि की दुनिया श्रृंखला में लिखी कविताओं में पहली कविता है।


छोटी सी सहित्य सभा
(हृदयेश जी के लिए)
छोटी सी सहित्य सभा थी
छोटी सी जगह
छोटे छोटे लोग
एक कथाकार था सीधा सच्चा
दुनिया जहान उसने पतह नहीं किया था
अपनी धुन का पक्का था
कथा वांची खुद के जैसी सीधी सरल
थोड़ी ठोस थोड़ी तरल
एक रचनाकार ने बहस चलाई
बीज शब्द उठाया आजादी
बोला आजादी जब वाक्य में पिरोकर
आंख उसकी लरज गई
चेहरे ने दी बेमालूम जुंबिश
आवाज भी औचक थरथराई जरा सी
किसी की नजर में किसी के सुनने में अनायास आई
वाह! एक शब्द में समाई क्या बिल्लौरी समीक्षा थी
थोड़ी ठोस थोड़ी तरल
छोटी सी सहित्य सभा थी
छोटी सी जगह
छोटे छोटे लोग
बड़ी सी सभा होती
बड़ी सी जगह में
छोटे छोटे लोगों की बेमालूम ये बात
नामालूम कहां तलक जाती।

Sunday, October 2, 2016

सिरकटा लैटर बॉक्स



सब्‍जी के बीच और सब्‍जी के बोझ से दबा यह लैटरबॉक्‍स मुंबई के एक उपनगर में भाजीवाले की शरण में है। भाजीवाला कहता है कि चिंता की कोई बात नहीं, डाक यहां से रोज निकलती है, मैंने तो इसे संभाल रखा है। मैंने यह फोटो खींचकर टाइम्‍स ऑफ इंडिया के सिटीजन रिपोर्टर को भेजी, जो पिछले हफ्ते छपी थी। शायद डाक विभाग का ध्‍यान इस तरफ जाए। 
लैटर बॉक्‍सों के हाल पर सन 2005 में मैंने एक कविता लिखी थी जो अन्‍यथा में छपी थी। 
आप यहां उसे फिर पढ़ सकते हैं।   


सिरकटा लैटर बॉक्स
(एक टूटे हुए लेकिन सेवारत लैटर बॉक्स के सूखे हुए आंसू)


खोपड़ा फट चुका है पर चिट्ठियां डलती हैं
ताला खुलता है डाक निकलती है ताला बंद होता है
लैटर बॉक्स नुक्कड़ पर खड़ा रहता है अहर्निश
चिड़ियां उड़ पहुंचती हैं दिग् दिगंत

फूटा कपाल दिन लद गए इस सेवा के
खत लिखने वाले अब नहीं रहे
उन बाबुओं के भी भाग फूटे
जिनकी अंगुलियों पर था गणित
कलम से मोती पिरोते थे
खिल खिल पड़ती थी अंग्रेजी की सुंदर लिखाई
इस लियाकत पर नौकरी मिली थी

रजिस्टरों के पेट भरे ताउम्र

आज भी पीठ सीधी करके बैठते हैं
तह लगा रुमाल जेब में होता है
पत्नी के हाथ का फूल कढ़ा
ध्यान मग्न
धूल भरे जाले लगे दड़बे नुमा डाकखानों में
सोचते हुए से सोचते से ही रह जाते से लगते हैं
इमारतों और स्टेशनरी जितने ही पुरातन

क्या वे उनकी ही संतानें हैं जो घूमने लगीं
मल्टी नेशनल कूरियर कंपनियों के झोले लटकाए
पिताओं ने खरीद दी हैं टोपियां धूप में कपाल बचाने को
माताएं भाग भाग बनाकर बांध देतीं रोटियां भिनसारे
बहनों ने इनकी काढ़े रुमाल
सोखेंगे पसीना जीवन पर्यंत
चप्पल चटकाते नए जमाने के इन हरकारों का

आएगा कबाड़ी एक दिन चार कहारों को लेकर
सिरकटे लैटर बॉक्स को रस्सों से बांध के ले जाया जाएगा घसीटते हुए
सरकारी विभाग के परखचे उड़ेंगे
संसद में इसकी सुनवाई का वक्त नहीं आएगा कभी
                  यहां दफ्तर खुलेंगे शेयर दलालों के कल।  

Tuesday, September 13, 2016

भरम का सांप




कल फिर हिन्‍दी दिवस है, हर साल की तरह। भाषा अपनी जगह, भाषा का खेल अपनी जगह चल रहा हैै। यूटीआई की नौकरी छोड़ने के बाद डायरी और हिन्‍दी पर कुछ कविताएं पहल के पिछले दौर में छपी थीं। 
 कविताओं में से एक अब पढ़िए।
   


हो तो गया काम तमाम 
अब क्या चाहिए
खुला है द्वार
हो आइए पार

बैसाखियों के सहारे चले कम
पीटते रहे भरम का सांप ज्यादा
तुम्हारे ही माई बाप
बने रहे आस्तीन का सांप
नेता नीति और रीति ने
जना विषधर

अब जाओ
बचेगी भाषा तुम्हारी लाडली
अगर होगी कूबत
बेजुबानों की बनेगी बानी
गरीब की दौलत
हारे हुए का नूर

अच्छा है ख्याल दिल के बहलाने को

बाजार बढ़ता है आगे
कमतर की पीठ पर पग धर
बाजार में क्या क्यों कैसे बेचना है
उसकी कल औ कला हमारे पास है
नकेल हमारे हाथ है

पूत पितरों सबको साध के
लगा लो जोर जी भर

जाओ कूदो अखाड़े में
पैसा फैंक हम देखेंगे
               जीत का खेल तमाशा

Saturday, September 10, 2016

लोकनाट्य : अभिनेयता और संभावनाएँ


यह लेख मैंने शायद सन 1981 में लिखा था। मैं उन दिनों गुरु नानक देव विश्‍वविद्यालय अमृतसर में एम. फिल. में पढ़ रहा था। धर्मशाला कालेज के मेरे प्रोफैसर डॉ गौतम व्‍यथित लोक साहित्‍य के विशेषज्ञ थे और उन्‍होंने कांगड़ा लोक साहित्‍य परिषद भी बनाई थी जो काफी सक्रिय थी। उसका एक सेमिनार लाेेक साहित्‍य पर आयोजित हुआ और गुरु जी ने मुझे भी पर्चा पढ़ने के लिए बुलाया। वहां मैंने यह पर्चा पढ़ा और कुछ समय बाद छपने के लिए नटरंग के संपादक नेमिचंद्र जैन जी को डरते डरते भेज दिया। कुछ समय बाद उनका टंकित पत्र मिला जिसमें लेख की तारीफ और छपने की स्‍वीकृति थी। मेरी खुशी का पारावार न रहा। छात्र होते हुए नटरंग जैसी पत्रिका में लेख स्‍वीकृत होना एक बड़ी उपलब्‍धि लग रहा थाा। उन्‍होंने लेख को टाइप करवाकर वापस पढ़ने के लिए भेजा। और यह लेख सन 1983 में नटरंग के अंक 41 में छपा। तब तक मैं आकाशवाणी में नौकरी पा गया था और मुंबई आ गया था।   


लोकनाट्य  जन-जीवन के उल्लास का सामूहिक अनुष्ठान है। इसका स्वभाव रंजनकारी है, रंजन सहज, सरल एवं उन्मुक्त है। इस उन्मुक्तता की अभिव्यक्ति हास्य से युक्त है। यही हास्य जब सामाजिकता से जुड़ता है, या नाटय का आधार या कथावृत्त समाज या समकालीन जीवन की समस्याओं से उद्भूत होता है तो नाटय की प्रकृति व्यंग्यात्मक  हो जाती है। एक तरफ यह व्यंग्य सटीक होता है, दूसरी तरफ तरफ इसकी अभिव्यक्ति इतनी निश्छल होती है कि साधारण अनपढ़ लोग हँसी-हँसी में ही अपनी, अपने परिवेश की, विसंगतियाँ या कमजोरियाँ देख-सुन लेते हैं, अप्रत्यक्ष रूप से अपने को 'कन्फ़ेस' करते हैं। इस प्रकार लोकनाट्य  समाज एवं जीवन को आंदोलित करके विकासशील करता है। विकास की इसी यात्रा के द्वारा लोकनाट्य  संस्कृति को समृध्द करता है तथा जीवन को कलात्मक और सरस बनाता है।
यह स्पष्ट है कि लोकनाट्य  कलात्मक अभिव्यक्ति तो है ही, साथ ही जीवन या समाज में दखलअंदाजी भी करता है। विशिष्टता यह है कि सामाजिक कथावृत्त या स्थिति-प्रस्तुतियाँ स्थितियों का तटस्थ चित्र प्रस्तुत करती हैं जिनमें उपदेश नहीं, व्यंग्य की सरस चटकीली धारा होती है।
अभिनय अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। अभिनेता संप्रेषण के शब्देतर अभिव्यक्ति माध्यमों का प्रयोग करता है। इसके साथ कलात्मकता जुड़ जाती है तो वह अभिनय हो जाता है। अभिनेयता  नाटयभाषा का एक महत्वपूर्ण घटक है। शब्द, अभिनय, दृश्यबंध, प्रकाश, वेशभूषा, रूपसज्जा आदि मिलकर नाटयभाषा का संश्लिष्ट निर्माण करते हैं। ये घटक स्वायत्त भी हैं और सम्बद्ध भी।  
भारत में प्रचलित लोकनाटयों में दृश्यबंध और प्रकाश का योगदान काफी कम है। सामान्यत: खाली जमीन काम आती है, या लकड़ी के चबूतरे या मंडप बना लिये जाते हैं। आकर्षण के लिए मंडपों को सजा भी लिया जाता है। पर मंचोपकरण के रूप में दृश्यबंध का प्रयोग नहीं के बराबर होता है। प्रकाश के लिए पहले तो पैट्रोमैक्स प्रयोग में लाये जाते थे। समय के साथ-साथ बिजली की जगमगाहट अधिक हो गयी है, पर लोकनाटयों में अब भी बिजली के प्रकाश का रचनात्मक और कलात्मक प्रयोग नहीं होता। हिमाचल के कई लोकनाट्य  रूपों में 'धूनि' या 'ध्याना' (अलाव) का प्रचलन है जो अनुष्ठान को धार्मिकता से तो जोड़ता ही है, विशिष्ट वातावरण का निर्माण भी करता है, और प्रकाश-प्रभाव का प्रयोजन सरलता से पूरा हो जाता है।
लोकनाट्य  की नाटयभाषा में शब्द और अभिनय का ही बाहुल्य है। नाटक अभिव्यक्ति ही इन दो घटकों से प्राप्त करता है। जगदीशचंद्र माथुर ने वाचिक अभिनय और गान या शब्द को ही केंद्र बताया है। अभिनय बहुधा नृत्य के साथ मिलकर आता है जिसमें शास्त्रीयता  की छटा विद्यमान रहती है। शब्द या संवाद अभिनय के आधार पर खड़ा रहता है, पर अभिनय के आयामों या संभावनाओं को सीमित कर देता है। लोकनाट्य  संगीत के बिना कभी पूरा नहीं हो पाता। सुरेश अवस्थी ने एक लेख में लिखा है, 'प्रदर्शन की दृष्टि से भी लोकनाट्य  में बड़ी विविधता है और उसके व्यवहार और रूढ़ियाँ बहुत रोचक हैं। उसमें कथानक की गरिमा और रोचकता है, काव्य का सौंदर्य है, नृत्य और संगीत का बड़ा ही प्रौढ़ रूप है, और सज्जा और वेशभूषा का आकर्षक सौंदर्य है।' अर्थात संवाद पद्म या कविता में बोले जाते हैं। यही लोक संगीत और लोक काव्य नृत्य का आवाहन भी करता है।
इन सब पक्षों के संदर्भ में ज्ञातव्य है कि यहाँ शास्त्रीयता की नियम-बोझिलता नहीं होती। हालाँकि संगीत में रागों का प्रयोग होता है, कविता में छंद होते हैं, और नृत्य-मुद्राओं में शास्त्रीय नृत्य के प्रक्षिप्त अर्थात जनमानस द्वारा तोड़े-मोड़े गये अंश होते हैं। लेकिन इनकी विशिष्टता यह है कि ये जनमानस के मनोविज्ञान के अनुकूल होते हैं। ये संगीतबध्द संवाद सामान्यत: तार सप्तक में गाये जाते हैं, जो मुखाभिनय या हाव-भावों को अपेक्षाकृत  कम करते हैं। तार सप्तक में गाये जानेवाले संवादों का प्रयोग दूर दूर तक बैठे दर्शकों को सुनाने के लिए होता है। उसके साथ मेल खाती अभिनय गतियाँ (मूवमेंट्स) प्रमुख हो जाती हैं। इसी कारण अतिरंजनाका समावेश होता है।
स्वाँग, करियाला, नक़ल आदि नाटय रूपों में ऐतिहासिक उपाख्यानों के अतिरिक्त छोटे सामाजिक कथानक प्रस्तुत किये जाते हैं। ये संगीत की लक्ष्मण-रेखाओं से बाहर आ जाते हैं। इस तरह के प्रयोगों में एक तो आशु संवाद बोले जाते हैं; दूसरे, अभिनय भी स्वच्छंदता से किया जाता है। जिस तरह ये संवाद व्यंग्यप्रधान होते हैं, उसी प्रकार अभिनय स्वाभाविक न हो अतिरंजित हो जाता है। इस प्रकार का अभिनय अश्लीलता और अभद्रता के सीमांतों को भी छूता है। यह अतिरंजित अभिनय नाटयशास्त्र के चित्राभिनय से मेल खाता है। दृश्यबंध बिना केवल संवादों के द्वारा स्थान और समय की सूचना दी जाती है। इस तरह की स्थापना करने के लिए शरीर की मुद्राओं और भंगिमाओं के प्रयोग से तथा संवादों से प्रेक्षक की कल्पना को जाग्रत किया जाता है। नाटयशास्त्र का 'लोकधर्म' इसी प्रकार पुष्ट होता है। यहाँ पर रेखांकनीय है कि लोकनाट्य  नाटयशास्त्र के बाद का नहीं है, बल्कि नाटयशास्त्र लोकनाट्य  का संस्कृत या परिनिष्ठित या सैध्दांतिक संस्करण है। बाद का संस्कृत रंगमंच फिर आभिजात्य प्रवृत्ति का हो गया था, और लोकनाट्य  अपनी स्वतंत्र नीर-गति से प्रवाहित रहा।
हमारी बात आशु संवाद और स्वतंत्र अभिनय के संदर्भ में हो रही थी। इस तरह के प्रक्षेपण के लिए रूढ़ चरित्र- जैसे, नट, सूत्रधार, भाँड, नकलची, करियालवी आदि पात्र-लोक रंगमंच ने दिये हैं। ये चरित्र रूढ़ हो गये हैं। इससे अभिनय की संभावनाएँ कम होती हैं, पर आशु आख्यानों के  साथ इनमें नवीनता आ जाती है। इन चरित्रों का बाहरी ढाँचा या बनावट या (स्ट्रक्चर) तो एक ही रहता है, लेकिन क्योंकि अभिनेता मंडलियों और काल के साथ बदलते रहते हैं तब आशु संवादों के साथ अभिनेता चरित्र को भी नये ढंग से सजाता है। इससे रूढ़ चरित्र का भीतरी रूपबंध या बुनावट या (टैक्सचर) बदलता है। यह बुनावट गतिशील है। यही इसकी जीवंतता है। इसमें अभिनेता की मौलिकता झलकती है। संभवत: इसी तरह के चरित्र दर्शकों को आकर्षित करते हैं।
लोकनाट्य  की महत्वपूर्ण विशेषता उसका आत्मपरकीयकरण या निरपेक्षीकरण (एलिनेशन) है। यह विशिष्टता लोकनाट्य  के स्वरूप को प्रतिष्ठित करती है। यह भरत मुनि के नाटयशास्त्र से भी भिन्न है। इसका व्यावहारिक रूप नौटंकी, स्वांग, नकल, करियाला आदि में दर्शनीय है। पात्र मंच पर या दर्शकों में  कहीं भी बैठे रहते हैं। अपनी बारी आने पर वे अभिनय करके फिर सामान्य व्यक्ति हो जाते हैं। अभिनय के बीच भी वे घोषणा कर देते हैं कि यह फ़लाँ व्यक्ति की भूमिका निभायी जा रही है। दर्शकों की फ़रमाइश पर भी दृश्य प्रक्षेपित किये जाते हैं। इस प्रकार यहाँ अभिनय और अभिनेता, अभिनेता और व्यक्ति, अभिनेता और दर्शक तथा रंगमंच और दर्शक का एक नया रिश्ता नजर आता है। ऐसी स्थिति में न तो दर्शक , न ही अभिनेता, नाटक के साथ तादात्म्य स्थापित करता है। दर्शक जानता है कि वह भगत, स्वाँग या कोई अन्य नाटय देख रहा है, और अभिनेता अपने को चरित्र न मानकर मूल रूप में अभिनेता ही मानता है, जिसे चरित्र विशेष की भूमिका निभानी है।
अभिनेयता की इस प्रकृति के कारण दर्शक, नाटक और अभिनेता के आपसी संबंध बहुत अनौपचारिक हो जाते हैं। इसीलिए इसमें सरलता स्पष्ट रूप से आ पाती है। लोक नाटकों की लोचशीलता का भी यह एक कारण है। दर्शक को खेल अपने बीच का ही लगता है, और अभिनेता अपने को मनोरंजन करनेवाला उपकरण समझता है। आत्मपरकीयकरण की पुष्टि पुरुषों के द्वारा स्त्री भूमिकाएँ निभाने से भी हो जाती है। हो सकता है कि लोक कलाकार इस दृष्टि से अनभिज्ञ हों। उन्होंने व्यावहारिक समस्याओं के कारण ही सारी व्यवस्था की होती है। पर अभिनेयता को समझने और उसकी संभावनाएँ तलाश करने के लिए इस विश्लेषण से सहायता मिल सकती है। आत्मपरकीयकरण की इसी प्रवृत्ति का प्रयोग ब्रैश्ट ने अपने नाटकों में किया है और इसी विशेषता के आधार पर परिवर्तित एवं नयी अभिनय प्रणाली प्रस्तुत की है।
साज-सज्जा भी अभिनेयता को समझने में सहायक होती है। लोकनाट्य  में सजावट का ताम-झाम तथा रंगीनी मिलती है। इसमें वे सहज उपलब्ध साधनों का ही उपयोग करते हैं। आगरा में प्रचलित भगत में साज-सज्जा पर बहुत ध्यान दिया जाता है। उसमें अभिनेता बहुत कीमती आभूषण पहनकर मंच पर आते हैं। आभूषणों का प्रदर्शन इसका मुख्य आकर्षण होता है। साज-सज्जा का एक तो नाटयार्थ के संदर्भ में महत्व है; दूसरे, यह उत्सवता या उल्लास प्रदर्शित करती है। यदि साज-सज्जा न की जाये, तो नाटक विशिष्ट खेल नहीं हो पायेगा। वह एक सामान्य घटना की हास्यप्रद प्रस्तुति रह जायेगी। इसके साथ उसकी व्यंग्यात्मकता और अतिनाटकीयता का शोख रंग भी फीका पड़ जायेगा। वस्त्रों का प्रयोग नाटयार्थ में पात्र को वास्तविक बनाने के लिए भी होता है, जैसे थानेदार के लिए वर्दी, आदि। हस्तोपकरणों का प्रयोग भी इसी अर्थ-सिध्दि के लिए किया जाता है, जैसे, साधु के हाथ में कमंडल, गाँव के बूढ़े के हाथ में हुक्का, आदि।
इनकी रूपसज्जा थोड़ी अतिरंजित होती है, जैसे आजकल पाउडर, काजल, रूज या सिंदूर, आदि का प्रचुर प्रयोग। यह नाटक में अतिनाटकीयता  या अतिरंजना लाने में सहायक होता है। रूपसज्जा का यह अति-प्रयोग ही मुखौटों में बदला है। इससे, एक तो, कलाकारों की मेहनत कम हो गयी; दूसरे, संगीत में तार स्वरों के प्रयोग के साथ अभिनय का तारतम्य बैठ गया। दूर-दूर तक बैठे दर्शकों को संवाद भी सुनायी दे गये, और हाव-भाव भी आसानी से दर्शनीय हो पाये। तीसरे, इस गहरे संगीत और रूपसज्जा के कारण एक विशिष्ट अभिनय-प्रणाली विकसित हुई जो अतिनाटकीयता के चरम को स्पर्श करती है। मुखौटों का प्रयोग दक्षिण भारत और हिमाचल के कुछ नाटयरूपों के अतिरिक्त सामान्यत: नहीं होता, लेकिन संगीत, वस्त्र और रूप की अतिरंजना रहती है।
इस प्रकार अभिनेयता के संदर्भ में कुछ एक निष्कर्ष हमारे सामने आते हैं :
(1) संवादों का उच्च स्वर में कवितामय प्रयोग और मुखाभिनय कम;
(2) आशु संवाद और मौलिक, सूक्ष्म एवं संवेदनपूर्ण अभिनय;
(3) दृश्य-निर्माण में संवाद, संगीत और अभिनय का कल्पनात्मक प्रयोग;
(4) अभिनय में अतिरंजकता;
(5) आत्मपरकीय अभिनय;
(6) वस्त्रों और रूप की अतिरिक्त सजावट।

संभावना की दृष्टि से लोकनाट्य  की अभिनेयता को दो तरह से देखा जा सकता है। एक तो, लोकनाट्य  की अभिनय-कला में विस्तार या नयी समझ का समावेश; दूसरे, लोकनाट्य  की अभिनय कला का व्यावसायिक या अव्यावसायिक नागर अभिनय में उपयोग। साथ ही यह भी जान लेना जरूरी है कि नागर अभिनय और लोकनाट्य  के तत्व कहाँ पर मेल खाते हैं। ब्रैश्ट ने अपने अभिनेताओं को जाग्रत किया ताकि वे जानते रहें कि लोग नाटक देखने आये हैं और वे अभिनय कर रहे हैं, जिससे नाटक मनोरंजन मात्र न रहकर वैचारिक आंदोलन का हिस्सा बना। उसने शास्त्रीय संगीत को छोड़कर लोकप्रिय संगीत का उपयोग अपने नाटकों में किया। अपने अभिनेताओं का रूप-विन्यास अतिरंजित किया। ब्रैश्ट ने विश्व के लगभग सभी लोकनाटयों का अध्ययन किया था, इसीलिए वह अपने नाटकों को लोकधर्मी विशेषता दे पाया। लोकनाट्य  के अभिनय को इस प्रकार भी विकसित किया जा सकता है। ऐसा करने से अतिरंजित अभिनय और रूप-विन्यास तो वहाँ रहेगा, पर अभिनेता और दर्शक की सामाजिक जागरूकता बढ़ जायेगी। इस प्रकार अभिनय का प्रयोग लोक-चेतना को सक्रिय करने के लिए किया जा सकता है। अभिनेता के सचेत हो जाने से लोकनाट्य  के कथ्य में धनात्मक असर पड़ेगा, अर्थात सामाजिक दायित्व की भावना अधिक आयेगी।
पोलैंड निवासी ग्रोटोव्स्की ने एक नयी अभिनय-पद्धति विकसित की है, जिसे शरीराभिनय के रूप में जाना जाता है। अर्थात् रंगमंच पर प्रमुख भूमिका शरीर ही निभाता है। उसका शरीर भी एक उपकरण की तरह प्रयुक्त होता है। नुक्कड़ नाटकों में इस विधि का प्रयोग बहुतायत में हो रहा है। नुक्कड़ नाटक और लोकनाट्य  में रंगमंचीय और अभिनेयता संबंधी काफ़ी समानताएँ हैं। जैसे, खुले स्थान पर अभिनय; बिना दृश्यबंध के प्रस्तुति; मुखौटों का प्रयोग; ऊँचे स्वर में संवाद; शरीराभिनय की प्रमुखता, आदि। यह पद्धति नाटयशास्त्र के चित्राभिनय से भी साम्य रखती है। अत: लोकाभिनय में भी यह पद्धति आसानी से खप सकती है। संभवत: इसका विकास हुआ ही लोकनाट्य  से है। इसे पुन: लोकनाट्य  में समेट लिया जाये तो अभिनय का सौंदर्य बढ़ जायेगा।
ब्रैश्ट की आत्मपरकीयता और ग्रोटोव्स्की के शरीराभिनय को यदि लोकटनाट्य में समाविष्ट कर दिया जाये तो यह अभिनय विसंगत नाटकों-जैसा नहीं होगा। विसंगत नाटकों के अभिनय को कथ्य परिचालित करता है। इसीलिए वह निरर्थकता और फूहड़पन में डोलता रहता है। यदि लोकचेतना में से कथावृत्तों का चयन किया जायेगा तो अभिनय प्रारूप और मंच-संरचनाएं (Stage composition) नये रूप में सामने आयेंगी। संभवत: इससे लोकनाट्य की स्वच्छंद प्रवृत्ति पर भी कम असर पड़ेगा, क्योंकि संभावनाओं को तलाश करने का यह मतलब भी है कि लोकनाट्य के पारंपरिक रूप को सुरक्षित रखा जा सके। वह तो बहुमूल्य सांस्कृतिक संपत्ति है।
लोकनाट्य  या इसकी अभिनय शैलियों का प्रयोग इधर के हिंदी नाटकों में किया जा रहा है। बहुत बार इनके साथ न्याय नहीं हो पाता। लोकनाटयों का सार्थक उपयोग न करके प्रदर्शन मात्र हो जाता है। ऐसी स्थिति में लोकनाट्य  की समृद्धि और सुरक्षा पर आघात होता है। कई बार शहरों में ऐसी शैलियों को देखने का वैसा ही प्रयोग हो जाता है, जैसे अभिजात वर्ग के लोग ग्रामीण या 'रफ़' सौंदर्य पर मर-मिटते हैं। इसका सार्थक प्रयोग होना जरूरी है, जिससे नयी अभिनय-पद्धति  विकसित हो सके। हबीब तनबीर इस दिशा में उचित ढंग से सक्रिय हैं। उन्होंने आगरा बाज़ार तथा कई अन्य नाटक छत्तीसगढ़ी लोक कलाकारों के साथ किये हैं। राष्ट्रीय नाटय विद्यालय की शांता गाँधी ने भी इस तरह के प्रयोग किये हैं।
नये नाटककारों ने लोकनाटयों को ग्रहण करके नये नाटक लिखे हैं, पर उनकी नाटयशैली या 'फ़ार्म' नया रूप धारण कर लेता है, जैसे सगुनपंछी, बकरी, एक था गधा, आदि। इन सब प्रयोगों से अभिनेयता को परिष्कृत करने में एक-दो बातें और सामने आती हैं, यथा, लोक-नाटकों के आलेख तैयार करने की प्रथा। आलेख तैयार करने से लोकनाट्य  की स्वच्छंदता पर तो बंधन लगेगा, लेकिन अभिनय को सुनियोजित और विविधायामी बनाने में सहायता मिल सकेगी। इसी प्रकार अभिनय में हाव-भाव तथा गतियों या स्पेस के सुनियोजित उपयोग के लिए निर्देशक की सहायता ली जा सकती है। लोकनाट्य  में आधुनिक निर्देशक  के घुस जाने से वही खतरा है जो आलेख लिखने से। लेकिन सामान्यत: लोकनाटयों का अभिनय रूढ़ होता है। एक ही तरह की अभिनय-रूढ़ि वर्षों तक चलती है। एक दृष्टि से ये रूढ़ियाँ ही लोकनाट्य  के स्वरूप को निर्दिष्ट करती है। लेकिन यदि सुविचारित ढंग से अभिनेताओं को निर्देशित किया जाये तो लोक-अभिनय की आत्मा को बचाकर परिष्कृत किया जा सकता है।
शांता गांधी ने उत्तर प्रदेश की नौटंकी और गुजरात की भवई नाटय शैलियों में दो प्रयोग किये हैं। उनके बारे में उन्होंने लिखा है कि प्रदर्शन शैली को ध्यान में रखते हुए नौटंकी में नक्कारे का प्रयोग प्रसंग की आवश्यकताओं के अनुरूप किया। सामान्यत: नौटंकी में नट गाता है और नक्कारा उसका पार्श्वगामी होता है। संवाद के बाद नक्कारा बजने की इस अवधि में निर्देशिका ने पात्रों को मूर्तिवत निश्चल रखने की विधि अपनायी, जिससे एक नयी और स्पष्ट अभिनय शैली उभरी। इसी प्रकार भवई नाटक जस्मा ओडन के विषय में वे लिखती हैं, 'इस नाटयरूप में आनुष्ठानिक तत्व, यथार्थवादी हास्योत्पादक उछल कूद और शैलीबद्ध अंश तीनों में हैं। इन सबको सादगी के साथ सरल नृत्य-रचना मूलक युक्तियों द्वारा नियंत्रित किया गया।' निर्देशक की संयमित भूमिका लोकनाट्य  के अभिनय और सारे ही रूपबंध को निखार सकती है। लेकिन अगर वह आजकल के हिंदी नाटकों की तरह सारे प्रदर्शन पर हावी हो जाये तो लोकनाट्य  की सारी संभावनाएँ समाप्त हो जायेंगी। अर्थात निर्देशक को अनुशासन में रहकर पर्याप्त संयम और संवेदनशीलता के साथ लोक-नाटकों के अभिनय को पकड़ना होगा।
     आज के नाटकों में प्रकाश की महत्वपूर्ण भूमिका है। एक व्यक्ति पर प्रकाश को केंद्रित करने से फ़िल्म के 'क्लोज अप' का प्रभाव पड़ता है। प्रकाश नाट्यार्थ को विकसित करता है तथा प्रतीकात्मक भी बनाता है। लेकिन प्रकाश ही नहीं, नाटयभाषा के अन्य घटक, दृश्यबंध, ध्वनि-प्रभाव, आदि, अभिनेयता को पारंपरिक परिप्रेक्ष्य में विकसित नहीं कर सकते। इन प्रयोगों से नाट्यरूप परिवर्तित हो जायेगा।




Sunday, September 4, 2016

विजेताओं का आतंक



इतनी जोर का शोर होता था कि खुशी की भी डर के मारे चीख निकल जाती थी 
असल में वो खुशी का ही इजहार होता था जो शोर में बदल जाता था   
खुशी को और विजय को पटाखों की पूंछ में पलीता लगा कर मनाने का चलन था 
सदियों से 
ये सरहदों को रोंद कर दूसरे मुल्‍कों को फतह करने वाले नहीं थे 
ये तो अपनी ही जमीन पर ताजपोशी के जश्‍नों से उठने वालों का कोलाहल होता था
धमाके इतने कर्णभेदी होते थे कि पटाखे चलाना कहना तो मजाक लगता था 
विस्‍फोट ही सही शब्‍द था बेलगाम खुशी और महाविजय के इस इजहार के लिए 
ए के फॉर्टी सेवन की दनदनाती हुई मृत्‍यु वर्षा की तरह 

धुंए और ध्‍वनि का घटाटोप था आसमान में ऐसा कि हवा सूज गई थी 
गूमड़ बन गए थे जगह जगह, कोढ़ के फोड़ों की तरह
जिस भूखंड में जितनी ज्‍यादा खुशी वहां के अंबर में उतना ही बड़ा और सख्‍त गूमड़

प्राचीन सम्राटों के अट्टहास ऊपर उठ कर पत्‍थरों की मानिंद अटके हुए थे 
पृथ्‍वी की गुरुत्‍वाकर्षण की सीमारेखा पर
उनके नीचे बादशाहों के फिर 
राजाओं रजवाड़ों सामंतों जमींदारों सरमाएदारों के ठहाकों के रोड़े
हैरानी तो यह थी लोकतंत्री राजाओं जिन्‍हें जनता के प्रतिनिधि कहा जाता था
उनकी पांच साला जीतों का विस्‍फोट भी 
आसमान में चढ़ कर सबके सिरों पर लटक  गया था  
गूमड़ दर  गूमड़ 

वायुमंडल में बनी इस ऊबड़-खाबड़ लोहे जैसी छत में
परत दर परत पत्‍थर हो चुकी खुशियां थीं 
असंख्‍य विजेताओं पूर्वविजेताओं की  
धरती से ऊपर उठती 
आसमान का इस्‍पाती ढक्‍कन बनी हुई 

दंभ का सिंहनाद 
गूमड़दार लोहे की छत की तरह था 
जिसमें से देवता क्‍या ईश्‍वर भी नहीं झांक सकता था 

दनदनाते विजेताओं के रौंदने से उड़ रही धूल ने सब प्राणियों की आंखों को लगभग फोड़ ही डाला था 
पीढ़ी दर पीढ़ी
जीत की किरचों से खून के आंसू बहते थे अनवरत
जिसे आंखों में नशीले लाल डोरे कहा जाता था 
जड़ता के खोल में बंधुआ होती जनता को 
हर दिन महाकाय होते जश्‍न का चश्‍मदीद गवाह घोषित किया जाता था 
सदियों से

यह कविता अकार के ताजा अंक में छपी हैं 

Sunday, August 28, 2016

स्‍टेट औफ होमलैंड

रणवीर सिंह बिष्‍ट
सलमान मासाल्‍हा की मूल कविताओं के ये हिंन्‍दी अनुवाद
विवियन ईडन के अंग्रेजी अनुवाद से किए हैं । ये कविताएं नया ज्ञानोदय और विपाशा में छपी हैं। 



खिलती हुई फुंसियां
हालांकि साइप्रस की कतारों वाले रास्‍ते नहीं हैं
जेरुसलम शहर में। और ना पक्‍के रास्‍ते
पैदल चलने वालों को, ना
हैं लकडी़ के बेंच राह किनारे, और ना
हैं औरतें स्‍कर्ट पहने पर्णपाती हवाओं में
फुटपाथ को रंग डालती हैं जो
संतरी पत्‍तों से, ना है
उसमें स्‍वाद और खुशबू
हालांकि मैं नहीं हूं अतिसंवेदी
साइप्रस की धूल से जो है नहीं
ना आते हुए वसंत से
न गर्मियों और न गर्मी से, न जाती हुई सर्दियों से। सिर्फ पतझड़
घूम रही निर्दयी और अंधड़
काट देता आत्‍मा को उस्‍तरे की तरह
देती मुझे फुंसियां
आंखों में।

स्‍टेट ऑफ होमलैंड

रणबीर सिंह बिष्‍ट
सलमान मासाल्‍हा की मूल कविताओं के ये हिंन्‍दी अनुवाद 
विवियन ईडन के अंग्रेजी अनुवाद से किए हैं । ये कविताएं नया ज्ञानोदय और विपाशा में छपी हैं। 

रत्‍नज्‍योति [1]
फिलीस्‍तीनी गीत
झील
बहुत ऊपर चढ़ आई है
पेडो़ं की शाखों तक।
किसान
जोत रहा हे खेत
नंगे पांव। भोर
की बेला में उसे नहीं दीखता वसंत का आना।
रत्‍नज्‍योति
खिल खिल पड़ती है
लाल खपरैल की छतें।




[1] एक जगली फूल। हमारे यहां के पहाडो़ं में इसकी छाल का मसालों के साथ प्रयोग होता है।



Saturday, August 27, 2016

स्‍टेट ऑफ होमलैंड

रणवीर सिंह बिष्‍ट


तीतर की पूंछ
मेरे होठों में है एक छोड़ा हुआ वतन
अपने कंधों से झाड़ता गेहूं की बालियां
जो चिपक गईं उसके सिर के बालों से
जैतून के झुरमुट में
किसान यादों का हल चलाता है
और बिसर जाता है जंगली पंछियों की आरजू
अन्‍न के दानों के लिए
पहाड़ी गोल पत्‍थरों की हथेलियों पर
टपके भोर के बादल
पहाड़ियों से चारसूं दबे हुए
शिकारी आत्‍मसमर्पण से मना करता है
गूदडो़ं से भर लेता है अपना झोला
और खोंसता है उसमें तीतर की पूंछ
ताकि लोग समझ जाएं
वो है जबरदस्‍त शिकारी। 

स्‍टेट ऑफ होमलैंड

एल मुनुस्‍वामी


आपने हिब्रू और अरबी कवि सलमान मासाल्‍हा की कविताएं यहां पहले भी पढ़ी हैं। 
अब पेश हैं कुछ और कविताएं। ये हिंन्‍दी अनुवाद विवियन ईडन के अंग्रेजी अनुवाद से किए हैं । 
ये कविताएं नया ज्ञानोदय और विपाशा में छपी हैं। 

आत्‍मचित्र
आदमी अपनी छड़ी पर झुका हुआ
एक हाथ में, दूसरे में थामे गिलास एक
शराब का। वक्‍त, जो बदल गए
उसकी टांगों के बीच तकती जगह में
उड़ गए उसके कांपते हाथ से।
वह गायब होता जा रहा
बेसमेंट में रखी
बोतलबंद सौंफ की खुशबू की तरह।
एक, अरबी

सुबहों में, पसर जाता है वह अपनी कुरसी पर
मसरूफ गली में छोड़ता
राहगीरों के वास्‍ते कुछ प्रेतात्‍माएं।

एक वक्‍त था, प्रेत गर्व से खड़े रहते थे उसकी टांगों के बीच
शराबखाने की मेज पर। और आज
उसके ओठों से शराब जा चुकी है
मेज अब रहा नहीं। सिर्फ रेखाएं
यायावर कारीगर की, उसके चेहरे की झुर्रियां बनीं
ये निशान हैं उस आदमी के जो
उतरा मयखाने के गोदाम में और लौट के नहीं आया।
ऐसे चले गए उसके हाथ
अपने अपने रास्‍ते
एक सौंफ की भभक के साथ स्‍वर्ग को
दूसरा बेंत की छड़ी के साथ धूल में।
सिर्फ आदमी जिसने पी अपनी जिंदगी धीमे धीमे
लटका लिया उसने खुद को दीवार पर
नीचे उतारने वाला उसे कोई नहीं।
जैसे अनार पर्ण छोड़ता है। और मैं बदलते मौसमों की तरह
हरी यादें मेरी देह से गिरती हैं जैसे बर्फ
बादल से
और कई बरसों के दौरान मैंने यह भी सीखा
अपनी केंचुल छोड़ना
जैसे सांप फंस जाता हो कैंची और कागज के बीच।
इस तरह मेरा भाग्‍य नत्‍थी था शब्‍दों में
दर्द की जड़ों से कटे हुए। ज़बान
दो हिस्‍सों में बंटी हुई
मां की याद को जिंदा रखने के लिए
दूसरी, हिब्रू
सर्दियों की रात में प्रेम करने के वास्‍ते 

Friday, August 5, 2016

पुरस्‍कृत कविता

कल भारत भूषण अग्रवाल पुरस्‍कार शुभम् श्री की 'पाेएट्री मैनेजमेंट' कविता  को देने की घोषण्‍ाा हुई और जैसा अक्‍सर होता है, सोशल मीडिया पर अच्‍छे-बुरे, सही-गलत की बहस छिड़ गई। पहली प्रतिक्रिया में मुझे लगा कि कविता की गिरी हुई सामाजिक स्‍िथति को कविता के केंद्र में लाकर कविता का दायरा संकुचित कर दिया गया है, यह क्‍या बात बनी। एक तो वैसे ही कविता समाज के हाशिए पर पड़ी है और जब उसी सीमित समाज यानी कवि या कविता पर कविता लिखी जाती है तो ऐसा लगता है कवि अपना ही रोना रो रहा है। हालांकि बहुत लोगों ने इस विषय पर कविताएं लिखी हैं, मैंने भी लिखी हैं। फिर भी यह एक संकरी गली लगती है। एक पत्रकार मित्र ने टिप्‍पणी भी मांगी पर मुझे इस तरह की बहस में पड़ने का मन नहीं करता। हम लोग रचना को सराहने या खारिज करने की रस्‍साकशी में पड़ जाते हैं। कल से सोशल मीडिया में यही अखाड़ेबाजी चल रही है। इसमें ज्‍यादातर लेखक ही शामिल हैं। पाठक तो प्रतिक्रिया देते दिखते नहीं। इसका मतलब लेखकाें का कवि, कविता, पुरस्‍कार, पुरस्‍कारपाता, पुरस्‍कारदाता, संस्‍था आदि से भरोसा उठ चुका है। उन्‍हें हर चीज जुगाड़, सेटिंग, ढकाेंसला आदि लगती प्रतीत होती है। ऐसे भी होंगे जिन्‍हें ऐसा न लगता हो, पर उनकी उपस्‍थिति नेपथ्‍य में रह जाती है। 

इस अखाड़ेबाजी की प्रेरणा से कविताकोश पर और समालाेचन समूह पर शुभम् श्री की कुछ और कविताएं पढ़ीं। आश्‍वस्‍त हुआ। भाषा में एक तेज-तर्रारी, और खिलंदड़ापन है। कथ्‍य और कहन में चौंकाऊभाव इफरात में है। शब्‍द बहुत हैं, उन पर काबू कम है। तोड़-फोड़ का मोह सा है। कविताएं मंचों के लिए उपयुक्‍त हैं। यह  खामी नहीं है, पाठक तक पहुंचने का एक सशक्‍त माध्‍यम है। नई पीढ़ी के पाठक तक पहुंचने वाली भाषा है। यह एक बड़ी खूबी है। 

शाम को घर में मैंने सुमनिका (मेरी पत्‍नी, हिंदी की प्राेफेसर, सौंदर्यशास्‍त्र की अध्‍येता) और अरुंधती (मेरी बेटी, जिसने हाल ही में अंग्रेजी साहित्‍य में एमए किया है) से चर्चा की। हम तीनों ही कविता प्रेमी तो हैं ही। उन दोनों को कविता पढ़ कर सुनाई। बुखार और ब्रेकअप वाली भी। दोनों को ही कविताएं पसंद आईं। चर्चा चर्वण हुआ। मेरे किंतु परंतु को बगलें ही झांकनी पड़ीं।

Sunday, April 17, 2016

तर्पण

छायांकन: अरुधती


भृकुटियां तनी रहीं सोच की प्रत्‍यंचा पर सालों साल
फसल कटे खेतों के खूंटों पर चलना होता था

जब झुके कंधे तुम्‍हारे
खिलने लगीं करुण मुस्‍कान की कोमल कलियां
पराभव की प्रज्ञा में झुकी जातीं शस्‍य वनस्‍पतियां 
ओ पिता!

अभी उस दिन बटन बंद कॉलर में शर्मा जी
अपने में मगन बैठे आकर सामने सिर झुकाए
लगा बुदबुदाएंगे अभी गायत्री मंत्र ओंठ तुम्‍हारे
ओ पिता!!

एक समय तुमने कंधे पर उठाया
एक समय मैंने कंधे पर लटकाया
बीच के तमाम साल क्‍यों गूंजती रही
केवल प्रत्‍यंचा की टंकार
कितना ज्‍यादा खुद को माना
कितना कम तुमको जाना
             ओ पिता!!!