बाल कवि बैरागी ने एक जगह कहा है, 'अकेली हिंदी ऐसी भाषा है, जिसके पास 14 सितंबर 1949 के कारण उसका जन्मदिन है, राजभाषा के तौर पर। ... किसी भी राजभाषा के पास अपना जन्मदिन नहीं है। यह इसे संविधान से मिला है।' जन्मदिन मनाना, एक भला विश्वास है। जन्मदिन मनाना और मगन रहना, यह भोला विश्वास है। बच्चे भी बारह चौदह की उमर तक आते आते इस पार्टीबाजी से आजिज आने लगते हैं। यूं शोशेबाजी और सत्ता का जलवा दिखाने के लिए भी इस खास दिन का इस्तेमाल होता है। ऐसे मामलों में उमर माने नहीं रखती। लेकिन आमतौर पर पचास पचपन की उमर कुछ कर दिखाने के लिए काफी होती है। सवाल यह है कि क्या हिंदी ने हर साल नियम से अपना जन्मदिन मनाते रहने के बावजूद कुछ हासिल किया है या सिर्फ इसकी पूजा अर्चना ही होती रही है।
इस सारे अनुष्ठान को पाखंड कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि यह तो श्राद्ध दिवस है। उन्हें यह तोहमत लगाने का बहाना इसलिए भी मिल जाता है क्योंकि 14 सितंबर पित्र पक्ष में आता है। असल में ऐसा कहना खीझ का इजहार है। जहां सारा साल सारा काम अंग्रेजी में होता हो और सिर्फ एक दिन हिंदी का गुणगान किया जाता हो, वहां सच्चाई का इस तरह प्रकट होना स्वाभाविक है।
हिंदी की स्थिति असल में ही बड़ी विचित्र है। ‘बेचारी’ विशेषण लगाए बिना कोई बात शुरू नहीं करता। गरियाए बिना खत्म नहीं करता। रचनात्मक हिंदी का परचम लहराने वाले सरकारी हिंदी की ऐसी तैसी करते रहते हैं। यह अनुवाद की नहीं भ्रष्ट अनुवाद की भाषा है। हिंदी की प्रकृति इसमें नहीं है। अपठनीय है। हिंदी का ही नुकसान कर रही है। इन बातों में बड़ी सच्चाई है। पर कुछ बातें इस निंदा जोश में छूट जाती हैं।
व्यवहार में सरकारी कामकाज की भाषा अभी भी अंग्रेजी है। कानूनी तौर पर अंग्रेजी के साथ हिंदी को चालू रखने की नीति बरकरार है। चूंकि काम अंग्रेजी के बिना नहीं चलता इसलिए कानूनी खानापूरी करने के लिए हिंदी अनुवाद किया जाता है। इस काम में भी कोताही होती रहती है। गंभीरता भी नहीं है। क्योंकि न करो तो भी फर्क नहीं पड़ता। जब संसदीय समिति वगैरह का दबाव पड़ता है तो हिंदी का गाना गा लिया जाता है। अगर पता चले कि कल से हिंदी का कानून खारिज हो रहा है, तो सरकारी हिंदी आज ही से बंद हो जाएगी। फिर जिन दफ्तरों के बोर्डों पर आज कम से कम नाम हिंदी में दिख जाता है, वह भी ओझल हो जाएगा। गाहे बगाहे जो फार्म हिंदी में मिल जाता है, वह भी अंग्रेजी में ही होगा। हिंदी भाषी प्रदेशों में जो लोग इसी दुरूह, कठिन, भ्रष्ट हिंदी का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं, उन्हें भी अंग्रेजी की शरण में जाना पड़ेगा। भाषा के तौर पर वह अंग्रेजी कितनी सही होगी, अंदाज लगाया जा सकता है।
आज भी अगर हिंदी के कानून का पालन सही ढंग से होने लग जाए तो अगले दस वर्षों में हिंदी सब जगह दिखेगी ही नहीं, उसका रूप-स्वरूप भी सुधर जाएगा। अगर लिखने वाले पर यह दबाव रहे कि उसका लिखा पढ़ा जाएगा तो, या तो भाषा शुद्ध और समझ में आने लायक हो जाएगी या फिर उसका भ्रष्ट और अपठनीय रूप ही प्रचलन में आ जाएगा। कानून यह कहता है कि जिस दफ्तर में अस्सी फीसदी से ज्यादा लोगों को हिंदी आती हो, वहां चिट्ठी पतरी हिंदी में ही भेजी जाए। अंग्रेजी अनुवाद, न भेजा जाए, न किया जाए। जहां इससे कम लोग हिंदी जानने वाले हों, वहीं अंग्रेजी अनुवाद भेजा जाए। नुक्ते की बात है - हिंदी का अंग्रेजी अनुवाद। मतलब मूल चिट्ठी हिंदी में लिखी जाए। अगर खतो खिताबत मूल हिंदी में होने लग जाए तो भाषा की तासीर बची रह जाएगी। भले ही टूटी फूटी हो या मानक न हो। व्यवहार में होता इसके उलट है। मूल अंग्रेजी में लिखा जाता है। फिर उसका तर्जुमा होता है। जो खानापूरी के लिए होता है, पढ़े जाने के लिए नहीं। बहुत दफा तो सुना है तर्जुमे का तर्जुमा होता है। मानो किसी हिंदी भक्त ने हिंदी में चिट्ठी लिख दी। जब तक उसका अंग्रेजी में अनुवाद न हो जाए, उस पर कार्रवाई नहीं हो सकती। कार्रवाई, जाहिर है अंग्रेजी में होगी। उसका जवाब भी अंग्रेजी में बनेगा। पिर अगर कानून याद रह गया कि हिंदी में मिली चिट्ठी का जवाब हिंदी में जाएगा तो उसका हिंदी में अनुवाद होगा। इस कवायद में भाषा का कितना कचूमर निकलेगा, कोई क्या कह सकता है।
दफ्तरों में हिंदी के इम्तिहान भी पास कराए जाते हैं। इनके बारे में आम राय यह है कि इन्हें पुरस्कार पाने के लिए पास किया जाता है। हिंदी में काम करने के लिए नहीं। अगर स्कूल में हिंदी जरूरी तौर पर पढ़ाई जाए तो थोड़ी मदद मिलेगी। हालांकि जो पढ़ के आए होते हैं, वे भी धीरे धीरे भूल जाते हैं। क्योंकि भाई लोगों को कभी हिंदी में लिखने का मौका ही नहीं मिलता। और पढ़ने की फुर्सत किसे है। ऊपर से शान के भी खिलाफ है। अब इसकी काट यह है कि जब तक सारी पढ़ाई और ऊंची पढ़ाई का माध्यम हिंदी नहीं होता, हिंदी सही माने में लागू नहीं हो सकती। इस बारे में कोई बात नहीं करता। मसला ऐसा है कि सिर्फ हिंदी से भी काम नहीं चलेगा। सारी भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना चाहिए। अगर बिजनस, डाक्टरी, इंजीनियरी, कानून, विज्ञान, कामर्स वगैरह की पढ़ाई मनचाही भारतीय भाषा में होने लग जाए तब तो नक्शा ही बदल जाए। लोकतंत्र बच जाए। विकास को नई दिशा मिले। ग्रामीण भारत का कायाकल्प हो जाए। भाषाओं को प्राणदान तो मिल ही जाएगा। अगर बच्चा अपनी भाषा में पढ़ाई करके नौकरी पा जाएगा तो समाज की नजर में भाषा का महत्व बढ़ जाएगा। वो जमाना बीत गया जब साहित्य के बल पर भाषाएं महान हुआ करती थीं। अब तो यही देखा जाता है कि भाषा में सूचना कौशल कितना है। तो बनाइए भाषा को वैसा। उस तरह की भाषा को स्वीकार करने वाला समाज भी तो बनाना पड़ेगा।
आंदोलन करके ऐसा हो जाए तो सर्वोत्तम। लेकिन आंदोलनों का जमाना भी क्षीण पड़ गया लगता है। अगर सरकार ही कुछ सख्त और ठोस कदम उठा ले तो शायद भाषा को कुछ विटामिन मिल जाएं। सरकारी नीति आंकड़ेबाजी के तिलिस्म से बरी हो जाए। हिंदी विभाग संस्कृति कर्मी की तरह काम करें। सिर्फ हिंदी में काम करना जरूरी हो जाए। लेकिन इच्छाशक्ति किसमें है? यह तो जागते में सपना देखने जैसा है।