Saturday, September 24, 2011

पलायन के दौरे


अचानक स्लिप डिस्क वाली दर्द उभर आई है। जुकाम तीसरे दिन भी शांत नहीं हुआ। जिस कारण दफ्तर नहीं गया। सोचा। होम्योपैथी दवाएं पढ़ीं। अमरकांत का उपन्यास सूखा पत्ता पढ़ना शुरू किया। डायरी लिखते समय एक ख्याल हमेशा आता है कि अमूमन डायरी रात में लिखने की धारणा क्यों है? या यह सिर्फ मेरे मन में बैठी बात है या तमाम तमाम चीजों से सामना रात के निस्तब्ध अंधकार में ही संभव है। दिन का उजाला, हरकत, खलल चीजों को बेपर्दा देखने नहीं देते।

तीन एक दिन पहले सतना से कमला प्रसाद आए थे। अपने बेटे की स्लिप डिस्क के इलाज के सिलसिले में। शुक्रवार को विनोद श्रीवास्तव के दफ्तर में मिलना तय था। लेकिन पलायनवाद का ऐसा घनघोर दौरा पड़ा कि सारी बातें भूलकर घर आ घुसा। मन भारी बना रहा। सुमनिका को भी दुखी किया। पलायन की यह वृत्ति नई नहीं है। बहुत वर्ष पहले बंबई में एक संबंधी आंनद की शादी में गया था। थोड़ी देर वहां रह कर भाग खड़ा हुआ। खाना खाने की हिम्मत नहीं हुई। संजय खाती नवभारत टाइम्स में रात की पाली में था। उसके पास गया। कल्पना रेस्टोरेंट में हम दोनों ने खाना खाया।

इधर पढ़ने लिखने का काम संतोषजनक ढंग से न कर पाने के कारण उदासी स्थाई भाव बन गया है। इससे और ज्‍यादा गड़बड़ हो रही है। काला चिकना दलदल है। जो अपने भीतर खींचता ही जाता है। सुमनिका बराबर कोशिश करती रहती है। तरह तरह से। पर खुद से ही कुछ बन नहीं पाता।

कमला जी से शुक्रवार को न मिल पाने का अपराध बोध तब और बढ़ गया जब इतवार को उनका फोन आ गया कि आज (इतवार) रात वे वापिस जा रहे हैं। तभी तय कर लिया कि मैं और सुमनिका उनसे मिल के आएंगे। रमन जी से भी कहा। वे तैयार भी हुए, पर ऐन मौके पर ठिसर गए। वीटी तक जाते समय मैं और सुमनिका लोकल में इसी उदासी, नाकारापन के बारे में बात करते रहे। उसका मत है कि हमेशा नेगेटिव ही क्यों देखा जाए। और कुछ न कुछ अवश्य लिखते रहना चाहिए। कुछ दिन पहले तो वह मुझे पहाड़ी जीवन पर एक उपन्यासिका लिखने की सलाह दे रही थी। मैं इस बात से चिढ़ गया कि मैं तो कविता लिखना चाहता हूं। उपन्यास क्यों लिखूं? हालांकि यह एक और मूर्खतापूर्ण सोच है।

आचर्श्य है कि कमला जी से जो थोड़ी देर बात हुई, उसमें भी निष्कर्ष यही था, बल्कि उनकी सलाह थी कि लिखने का अभ्यास बंद नहीं करना चाहिए। कुछ न कुछ अवश्य लिखते रहना चाहिए।
27-7-98

Tuesday, September 13, 2011

हिंदी का जन्मदिन



बाल कवि बैरागी ने एक जगह कहा है, 'अकेली हिंदी ऐसी भाषा है, जिसके पास 14 सितंबर 1949 के कारण उसका जन्मदिन है, राजभाषा के तौर पर। ... किसी भी राजभाषा के पास अपना जन्मदिन नहीं है। यह इसे संविधान से मिला है।' जन्मदिन मनाना, एक भला विश्वास है। जन्मदिन मनाना और मगन रहना, यह भोला विश्वास है। बच्चे भी बारह चौदह की उमर तक आते आते इस पार्टीबाजी से आजिज आने लगते हैं। यूं शोशेबाजी और सत्ता का जलवा दिखाने के लिए भी इस खास दिन का इस्तेमाल होता है। ऐसे मामलों में उमर माने नहीं रखती। लेकिन आमतौर पर पचास पचपन की उमर कुछ कर दिखाने के लिए काफी होती है। सवाल यह है कि क्या हिंदी ने हर साल नियम से अपना जन्मदिन मनाते रहने के बावजूद कुछ हासिल किया है या सिर्फ इसकी पूजा अर्चना ही होती रही है।

इस सारे अनुष्ठान को पाखंड कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि यह तो श्राद्ध दिवस है। उन्हें यह तोहमत लगाने का बहाना इसलिए भी मिल जाता है क्योंकि 14 सितंबर पित्र पक्ष में आता है। असल में ऐसा कहना खीझ का इजहार है। जहां सारा साल सारा काम अंग्रेजी में होता हो और सिर्फ एक दिन हिंदी का गुणगान किया जाता हो, वहां सच्चाई का इस तरह प्रकट होना स्वाभाविक है।

हिंदी की स्थिति असल में ही बड़ी विचित्र है। बेचारी विशेषण लगाए बिना कोई बात शुरू नहीं करता। गरियाए बिना खत्म नहीं करता। रचनात्मक हिंदी का परचम लहराने वाले सरकारी हिंदी की ऐसी तैसी करते रहते हैं। यह अनुवाद की नहीं भ्रष्ट अनुवाद की भाषा है। हिंदी की प्रकृति इसमें नहीं है। अपठनीय है। हिंदी का ही नुकसान कर रही है। इन बातों में बड़ी सच्चाई है। पर कुछ बातें इस निंदा जोश में छूट जाती हैं।

व्यवहार में सरकारी कामकाज की भाषा अभी भी अंग्रेजी है। कानूनी तौर पर अंग्रेजी के साथ हिंदी को चालू रखने की नीति बरकरार है। चूंकि काम अंग्रेजी के बिना नहीं चलता इसलिए कानूनी खानापूरी करने के लिए हिंदी अनुवाद किया जाता है। इस काम में भी कोताही होती रहती है। गंभीरता भी नहीं है। क्योंकि न करो तो भी फर्क नहीं पड़ता। जब संसदीय समिति वगैरह का दबाव पड़ता है तो हिंदी का गाना गा लिया जाता है। अगर पता चले कि कल से हिंदी का कानून खारिज हो रहा है, तो सरकारी हिंदी आज ही से बंद हो जाएगी। फिर जिन दफ्तरों के बोर्डों पर आज कम से कम नाम हिंदी में दिख जाता है, वह भी ओझल हो जाएगा। गाहे बगाहे जो फार्म हिंदी में मिल जाता है, वह भी अंग्रेजी में ही होगा। हिंदी भाषी प्रदेशों में जो लोग इसी दुरूह, कठिन, भ्रष्ट हिंदी का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं, उन्हें भी अंग्रेजी की शरण में जाना पड़ेगा। भाषा के तौर पर वह अंग्रेजी कितनी सही होगी, अंदाज लगाया जा सकता है।

आज भी अगर हिंदी के कानून का पालन सही ढंग से होने लग जाए तो अगले दस वर्षों में हिंदी सब जगह दिखेगी ही नहीं, उसका रूप-स्वरूप भी सुधर जाएगा। अगर लिखने वाले पर यह दबाव रहे कि उसका लिखा पढ़ा जाएगा तो, या तो भाषा शुद्ध और समझ में आने लायक हो जाएगी या फिर उसका भ्रष्ट और अपठनीय रूप ही प्रचलन में आ जाएगा। कानून यह कहता है कि जिस दफ्तर में अस्सी फीसदी से ज्यादा लोगों को हिंदी आती हो, वहां चिट्ठी पतरी हिंदी में ही भेजी जाए। अंग्रेजी अनुवाद, न भेजा जाए, न किया जाए। जहां इससे कम लोग हिंदी जानने वाले हों, वहीं अंग्रेजी अनुवाद भेजा जाए। नुक्ते की बात है - हिंदी का अंग्रेजी अनुवाद। मतलब मूल चिट्ठी हिंदी में लिखी जाए। अगर खतो खिताबत मूल हिंदी में होने लग जाए तो भाषा की तासीर बची रह जाएगी। भले ही टूटी फूटी हो या मानक न हो। व्यवहार में होता इसके उलट है। मूल अंग्रेजी में लिखा जाता है। फिर उसका तर्जुमा होता है। जो खानापूरी के लिए होता है, पढ़े जाने के लिए नहीं। बहुत दफा तो सुना है तर्जुमे का तर्जुमा होता है। मानो किसी हिंदी भक्त ने हिंदी में चिट्ठी लिख दी। जब तक उसका अंग्रेजी में अनुवाद न हो जाए, उस पर कार्रवाई नहीं हो सकती। कार्रवाई, जाहिर है अंग्रेजी में होगी। उसका जवाब भी अंग्रेजी में बनेगा। पिर अगर कानून याद रह गया कि हिंदी में मिली चिट्ठी का जवाब हिंदी में जाएगा तो उसका हिंदी में अनुवाद होगा। इस कवायद में भाषा का कितना कचूमर निकलेगा, कोई क्या कह सकता है।

दफ्तरों में हिंदी के इम्तिहान भी पास कराए जाते हैं। इनके बारे में आम राय यह है कि इन्हें पुरस्कार पाने के लिए पास किया जाता है। हिंदी में काम करने के लिए नहीं। अगर स्कूल में हिंदी जरूरी तौर पर पढ़ाई जाए तो थोड़ी मदद मिलेगी। हालांकि जो पढ़ के आए होते हैं, वे भी धीरे धीरे भूल जाते हैं। क्योंकि भाई लोगों को कभी हिंदी में लिखने का मौका ही नहीं मिलता। और पढ़ने की फुर्सत किसे है। ऊपर से शान के भी खिलाफ है। अब इसकी काट यह है कि जब तक सारी पढ़ाई और ऊंची पढ़ाई का माध्यम हिंदी नहीं होता, हिंदी सही माने में लागू नहीं हो सकती। इस बारे में कोई बात नहीं करता। मसला ऐसा है कि सिर्फ हिंदी से भी काम नहीं चलेगा। सारी भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना चाहिए। अगर बिजनस, डाक्टरी, इंजीनियरी, कानून, विज्ञान, कामर्स वगैरह की पढ़ाई मनचाही भारतीय भाषा में होने लग जाए तब तो  नक्शा ही बदल जाए। लोकतंत्र बच जाए। विकास को नई दिशा मिले। ग्रामीण भारत का कायाकल्प हो जाए। भाषाओं को प्राणदान तो मिल ही जाएगा। अगर बच्चा अपनी भाषा में पढ़ाई करके नौकरी पा जाएगा तो समाज की नजर में भाषा का महत्व बढ़ जाएगा। वो जमाना बीत गया जब साहित्य के बल पर भाषाएं महान हुआ करती थीं। अब तो यही देखा जाता है कि भाषा में सूचना कौशल कितना है। तो बनाइए भाषा को वैसा। उस तरह की भाषा को स्वीकार करने वाला समाज भी तो बनाना पड़ेगा।

आंदोलन करके ऐसा हो जाए तो सर्वोत्तम। लेकिन आंदोलनों का जमाना भी क्षीण पड़ गया लगता है। अगर सरकार ही कुछ सख्त और ठोस कदम उठा ले तो शायद भाषा को कुछ विटामिन मिल जाएं। सरकारी नीति आंकड़ेबाजी के तिलिस्म से बरी हो जाए। हिंदी विभाग संस्कृति कर्मी की तरह काम करें। सिर्फ हिंदी में काम करना जरूरी हो जाए। लेकिन इच्छाशक्ति किसमें है? यह तो जागते में सपना देखने जैसा है।

Saturday, September 10, 2011

श्याम बेनेगल की चार फिल्में


इच्छा दब ही नहीं, शायद मर भी गई थी। एनसीपीए के फिल्म सेंटर की सदस्यता का नवीनीकरण तो करवा लिया था, पर देखने जाने की इच्छा नहीं होती थी। प्रभात चित्र मंडल की सदस्यता लेकर फिल्में देखने का ख्याल भी करने की हिम्मत नहीं होती थी। बचते चले जाने की मानसिकता बन गई थी।

इस बार श्याम बेनेगल की सारी फिल्में दिखाई जाने लगीं तो उत्सव के दूसरे दिन अचानक जोश आ गया और साल भर की सदस्यता ले ली। इतना ही नहीं, जुलाई महीने की चार फिल्में भी देख डालीं। यह अनुभव अच्छा रहा। फिल्में देखीं, चरणदास चोर, निशांत, मंथन और भूमिका।

श्याम बेनेगल अपने माध्यम के मास्टर हैं। हर फिल्म अपने आप में संपूर्ण है। उद्वेलित करती है। चरणदास चोर काफी हद तक हबीव तनवीर के नाटक पर आधारित है। संगीत वही है, कलाकार वहीं हैं। पर कल्पना की उड़ान नाटक से कहीं ज्‍यादा है। खूब खेलते हैं और मानव स्वभाव पर अनजाने में टिप्पणियां करते चले जाते हैं।

निशांत सामंती दरिंदगी को तहस नहस करने की शुरूआत करने की फिल्म है। नायक की पत्नी का जमींदार के बेटों द्वारा उठा लिया जाना, नायक की लाचारी और फिर धीरे धीरे शोषित लोगों को इकट्ठा करना और बदला लेना। हालांकि यह लगा कि पीड़ा, दुख-तकलीफ दरिंदगी का चित्रण जितना सघन और सजीव है, परिवर्तन की शक्तियों को इकट्ठा करने के प्रयासों का चित्रण संकेतात्मक है। उसकी तैयारी जो वास्तव में कहीं बहुत दुष्‍कर कार्य है, लगभग असाध्य, वह गुपचुप होता चला जाता है और एक छोटी सी क्रांति भी हो जाती है। संघर्ष की इस तैयारी की भीतरी दुनिया या नजदीक से, माइक्रोस्कोपिक स्टडी उसमें नहीं दिखती। 

मंथन सहकारिता आंदोलन पर बड़ी कलात्मक और श्रेष्ठ फिल्म है। इस तरह के राजनीतिक विषय पर एक कलाकृति तैयार करना एक बड़ी प्रतिभा के दर्शन करवा देता है। समाज की भीतरी तहें बहुत साफ हो के  सामने आती हैं।

भूमिका बहुत तनाव देने वाली फिल्म है। हमारे समाज में स्त्री कलाकारों की जो हालत रही है, पुरुष वर्चस्व में वे जिस तरह जकड़ी रहती हैं, उसका बहुत सटीक और मार्मिक चित्रण इसमें है। कला-संस्कृति समाज और स्त्री की व्याख्या संपूर्ण गंभीरता से की गई है। स्त्री को स्त्री होना ही नसीब नहीं है। वह अंत तक भटकती रहती है। उसकी किस्मत में अंतत: अकेलापन ही है।
22-7-98

Thursday, September 1, 2011

सहजता का अप्रतिम रूप



सुमनिका से आज बात होने लगी पाठकता के बारे में, कि कविता के पाठक कवि लेखक ही हैं। वह भी मित्र कवि लेखक। उसने कहा कि नहीं पाठक हैं। अध्यापन यानि छात्रों के अनुभव के आधार पर यह कि उन्हें उपन्यास कहानी की बजाये कविता अच्छी लगती है। हालांकि कविता पढ़ने के लिए ट्रेनिंग की जरूरत भी है। ये बात तो ठीक है, लेकिन मुझे यह लगता है कि कविता के पाठक नहीं हैं। हैं भी तो बहुत थोड़े।

सुमनिका से ऐसे मुद्दों पर बहस हो जाती है। मैं किसी बात का एक पक्ष रखता हूं, वह दूसरा पक्ष रखती है। और बात कुछ ऐसा मोड़ लेती है कि हम एक-दूसरे के विरोधी हो जाते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि मेरे किसी विचार पर अगर विरोध की इतने गुंजाइश है या सहमति से इतना दूर है तो मेरी तर्क पद्धति में कोई गड़बड़ है। इससे लगता है कि चीजें जिस तरह समझ में आ रही है या जो समझ उनके लिए बन रही है, वह गलत है। अब समझ का तर्क ही गलत है तो उस पर आगे कैसे बढ़ा जाए।

सुमनिका को भी विरोध की या असहमति की गुंजाइश दिखती होगी, तभी तो वह बहस करती है। हालांकि ये भी है कि चूंकि हम सहजता से बात कर लेते हैं तो वह बहस के मूड में आकर मेरे द्वारा रखे गए विचार के दूसरे पहलू खोजने लगती है। यह बात वह कहती भी है। यह सहजता का एक लक्षण भी है। दूसरे लोगों से बहस करते समय वह शिष्टाचार का ख्याल रखती है जिसके कारण मन की बात नहीं कह पाती। या हां में हां मिलाती जाती है।

तो क्या मैं यह चाहता हूं कि वह मेरे साथ भी हां में हां मिलाए। कतई नहीं। मैं चाहता हूं वह अंतर्मन से सहज रहे। जैसा उसे लगता है वैसा ही कहे। लेकिन ऐसा भी न हो जो बात कही गई है उसका प्रतिवाद ढूंढना ही है। तर्क तो असल में ऐसा सिक्का है जिसका दूसरा पहलू होगा ही होगा। लेकिन हमारा मकसद तो सच्चाई तक पहुंचना है। बहस में जीतना जिताना नहीं।

सुमनिका ने यह भी कहा कि पुरुष वृत्ति है कि मेरी बात मानी जाए। यह गलत है। मैं चेतन स्तर पर अपनी बात थोपने की बात सोच भी नहीं सकता। अवचेतन में कोई बात हावी रहती हो तो वह बस के बाहर होगी।

स्त्री-पुरुष के भेद से परे रहने की भरसक कोशिश करता हूं। जीन्स में व्याप्त पुरुष वृत्ति हावी होती होगी, तो उसके प्रति सचेत भी रहना चाहता हूं। इस बात का निर्णय वही कर सकती है। सुमनिका ही बता सकती है मैं कितना हावी होता हूं। शायद होता भी हूं। पुरुष होने के नाते भी। स्वभाव के नाते भी।

इन सारी बहस-मुबाहसों के होते हुए भी एक बात तय है कि हम बने हैं एक-दूसरे के लिए ही। दुनिया के, दुनिया के क्यों, दुनिया के परे के भी तमाम मुद्दों पर हमारी सोच एक सी ही है। मकसद एक है, सरोकार एक है। उसकी समझ पर मुझे गर्व है। भरोसा है। उसकी सादगी पर मैं न्यौछावर हूं। भलमनसाहत का उसका गुण, दिलेरी का उसका स्वभाव, पारदर्शिता से भरा पाक साफ स्फटिक मन उसकी ऐसी पूंजी है जो मुझे सराबोर करती है। प्यार से लबालब भरती है। यह अलग बात है कि उसे यह लगता रहता है कि मैं उससे प्यार नहीं करता। लेकिन ये विपरीत विचार शायद इसी नुक्ते का हिस्सा है कि पक्ष है तो प्रतिपक्ष रखा जाए। इस नुक्ते का भी अपना ही मजा है। सहजता का रूप भी अप्रतिम है। 

8-3-98