Sunday, December 11, 2011

ब्‍लॉग चर्चा




10 दिसंबर को यहां मुंबई के एक उपनगर कल्‍याण में एक कालेज में हिंदी ब्‍लॉगिंग पर एक सेमिनार में भाग लेने का मौका मिला। इसमें कई ब्‍लॉर आए थे। अकादमिक जगत के लागों के बीच यह चर्चा इस दृष्टि से अच्‍छी थी कि अगर हिंदी विभाग ब्‍लागिंग में रुचि लेने लग जाएं तो हिंदी ब्‍लागिंग को और आयाम मिलेंगे. इसमें मुझे भी अपनी बात रखने का मौका मिला. मैंने पावर प्रजेंटेशन बनाया था, उसी जानकारी को यहां दे रहा हूं. स्‍लाइड बनाने का फायदा यह होता है कि बात बिंदुवार चलती है. बहकने का खतरा नहीं रहता. वि‍षय को साहित्यिक ब्‍लागों तक केंद्रित रखा था.  

ब्‍लॉग का चरित्र

  •        रीयल टाइम में घटित होता है
  •        भौगोलिक सीमाओं से परे है
  •        जनतांत्रि‍क है
  •        स्‍वायत्‍त है
  •        क्षैतिज चलता है 
  •       इसलिए कोई छोटा बड़ा नहीं
  •        इसलिए छोटे बड़े की लिहाज नहीं
  •        इसलिए मुंहफट और मुंहजोर
  •        और कभी कभी बदतमीज भी हो जाता है
  •       सार्वजनिक अभिव्‍यक्ति का सहज सुलभ माध्‍यम
  •        चाहे जितने मर्जी ब्‍लॉग बनाओ
  •        अभी महंगा है
  •        मध्‍यवर्ग में पैठ बना रहा है
  •       उम्‍मीद करें यह मुफ्त ही बना रहे
  •        बेथाह मुनाफा कमाने वाली आई टी कंपनियों के जोर के बावजूद
  •        इसे मुफ्त कराने की मुहिम सफल हो
  •        ऐसी कामना करें 
  •       ढूंढने चलो तो हर दिन कोई नया ब्‍लॉग या पत्रि‍का मिल जाती है
  •        सामग्री की बमवारी है
  •        एग्रिगेटरों को देखिए  पल पल नई पोस्‍टें अवतरित होती हैं
  •       साहित्‍य में कुछ स्‍थापित लेखकों के ब्‍लॉग है
  •       कुछ युवा लेखकों के, और कुछ नव लेखकों के
  •       ज्‍यादातर अपनी रचनाएं लगाते हैं
  •        अपनी पसंद की दूसरे लेखकों की रचनाएं लगाते हैं.
  •        कुछ अपने ब्‍लाग पत्रि‍काओं की तरह पेश करते हैं
  •       कुछ ब्‍लॉगर सामूहिक रूप से ब्‍लॉग चलाते हैं
  •       इस तरह हरेक ब्‍लॉगर लेखक भी है संपादक भी
  •  यह एक महत्‍वपूर्ण बिंदु है क्‍योंकि संपादक
    •  कड़ाई बरतने वाला हो    क्‍या पोस्‍ट नहीं करना है
    •  सजग रहने वाला हो     क्‍या पोस्‍ट करना है
    • बहुपठित हो            पिष्‍टपेषण से बचेगा चुनिंदा सामग्री रखेगा
    • सौंदर्यबोध संपन्‍न हो     उसे शब्‍द रंग रेखा और स्‍पेस की समझ हो
       
सीमाएं
 
  •       अथाह भंडार है
  •        एग्रिगेटरों की भूमिका असंदिग्‍ध है
  •        कुछ और छलनियों की जरूरत है
  •        जैसे वि‍षय आधारित
  •        काल आधारित
  •        स्‍थान आधारित
  •        नाम आधारित 
  •       जो हैं वो लेखक हैं और स्‍वनामधन्‍य हैं
  •        क्‍वालिटी कंट्रोल नहीं है
  •        यह सोशल माडिया का चरित्र भी है
  •        संक्ष‍िप्‍त, तुरंत, उच्‍छृंखल, इसलिए
  •        गंभीरता और जिम्‍मेदारी की कमी
  •       और जिम्‍मेदारी के बिना साहित्‍य क्‍या होगा पता नहीं

अपेक्षाएं
 
  •       जितना है बेथाह है पर कम है
  •        और की जरूरत है
  •       अभी भी सर्च करते हैं तो हिंदी    साहित्‍य की सामग्री नहीं मिलती
  •        सतही चलताऊ माल मिलता है
  •        गहराई और विस्‍तार दोनों चाहिए
  •        टिप्‍पणी पाने के मोह से ऊपर उठना होगा
  •        टिप्‍पणी टीआरपी की तरह है
  •        क्‍लासीफाइड सर्च की सुविधा बने
  •        ज्‍यादातर ब्‍लॉगर युवा लेखक और पत्रकार हैं
  •        अब शिक्षक वर्ग आए
  •       शिक्षक वर्ग आएगा तो
  •        छात्र वर्ग आएगा
  •        प्रत्‍येक विभाग को कम से कम एक पीसी मिलना चाहिए
  •        प्रत्‍येक विभाग अपना ब्‍लॉग बनाए
  •        क्‍लासिक साहित्‍य को डाले
  •        कर्तव्‍य की तरह
  •       लिखें और लिखना सीखें
  •        हर लिखे शब्‍द को अपलोड करने का मोह त्‍यागें
  •        अपना श्रेष्‍ठ लेखन ही अपलोड करें
  •        अपनी भड़ास से ब्‍लॉग को न भरें 
इस सेमिनार मे विविध भारती के उद्घोषक यूनुस खान ने संगीत संबंधी ब्‍लागों की जानकारी दी. यूनुस खुद रेडियोनामा और रेडियोवाणी ब्‍लाग चलाते हैं. सेमिनार की बाकी जानकारी यहां पर मिलेगी.  

Saturday, November 12, 2011

काल को सम पर लाना

 



पिछले दिनों मुंबई में जहांगीर कला दीर्घा में संजय कुमार की 
चित्र एवं मूर्ति-शिल्प प्रदर्शनी लगी थी। संजय मूलतः इलाहाबाद के हैं और 
पिछले कई वर्षों से मंबई में रह कर स्वतंत्र रूप से काम कर रहे हैं।  
'टाइम्स ट्रांसमिशन' शीर्षक की इस प्रदर्शनी में समय को एक प्रभावशाली रूपक में ढाला गया है।

द अल्टीमेट रोटेशन
चित्रकला दीर्घाओं में जाना हमेशा ही अच्छा लगता है। इस बार काला घोड़ा स्थित जहांगीर आर्ट गैलरी में बापू की जयंती (2 अत्तूफ्बर 2011) के दिन जाने का मौका मिला। जहांगीर के मुख्य हॉल में तीन प्रदर्शनियां लगी थीं। हम शुरू में ही लगी संजय कुमार की प्रदर्शनी को ही किंचित रस लेकर देख पाए। किंचित इसलिए क्योंकि चित्र और शिल्पकृतियों को देखने भर से काम नहीं चलता। उनके अभिप्रायों तक पहुंचने के लिए, उन कला  रूपों का रसास्वादन करने के लिए काफी समय चाहिए। कई बार कोई कृति एक भेंट में पर्याप्त नहीं खुलती, उसके पास बार बार जाना पड़ता है। यह भी संभावना बनी रहती है कि हर भेंट में कृति का एक नया पाठ बने या पहले पाठ में परिवर्तन परिवर्धन हो। पर हमारी जीवन शैली ऐसी है कि समय की कमी प्रायः बनी रहती है। इस बार भी बस एक ही झलक हम ले पाए। पर इस  झलक का प्रभाव गहरा था। यहां संजय कुमार के तैल चित्र और फाइबर ग्लास में बने मूर्ति-शिल्प थे। लगभग इन सभी कृतियों में घड़ी का प्रयोग हुआ है। चित्रकार ने प्रदर्शनी की विवरण-पुस्तिका में काल को इस तरह देखा है

''समय सिर्फ रोजमर्रा के कामों को तरतीब देने की वस्तु मात्र नहीं है। समय भौतिक और पराभौतिक को जोड़ने वाली चेतना की अद्भुत ऊर्जा है। यह एक से दूसरे रूप में संचरित होने की अवस्था है, जीवन के विकास की एक प्रक्रिया है। यह एक सत्ता के भीतर से उद्भूत होती है। विविधता के बावजूद जीवन के चक्र को चलाए रखने के लिए दिमाग ऊर्जा को बचा लेता है। फिर वहां यही अस्तित्व का रूप ले लेता है।''
संजय ने काल की अपनी इस अवधारणा को चित्रों और मूर्ति-शिल्पों के माध्यम से रूपायित किया है। चित्रों में काले और नीले रंग की छटाओं के बीच मन भावन फीके सफेद रंग की अठखेलियां हैं। असल में हम सभी प्रदर्शनियों में चित्रों को एक बार देखते हैं, उसके बाद स्मृति में उन्हें बार बार देखते हैं। स्मृति में देखने में स्‍वैर-कल्पना (फैंटेसी) की भी पूरी संभावना रहती है। भीतर अलग ही तरह की रम्य-रचना होती रहती है। आधिक्य की तरफ झुकी हुई। 

द इनकारनेशन
यहां मूर्तियां फाइबर ग्लास की हैं पर धातु से बने होने का प्रभाव देती हैं। धूसर मिट्टी सा रंग और ऊपर से चमकीली तैलीय परत। देखने में भारीपन का एहसास होता है। 'द अल्टीमेट रोटेशन' में तीन मानव आकृतियां एक धुरी के गिर्द अधर में लटकी हुई हैं। मानों वे एक वृत्त में तैर रही हैं। उनकी नृत्य-निमग्न हुई सी भंगिमाएं हैं। सिर के ऊपर चपटा काल है, सपाट चंदोबे की तरह, घड़ी के  डायल की शक्ल में, जो इन्हें बांधे हुए है। यूं वे ठोस एंगलायरन की धुरी से भी बंधे हुए हैं जिस पर डायल खड़ा है। यह धुरी एक तरह से सहारा ही है। एक तरह से ये काल से बंधे हुए जीव हैं लेकिन उसके अधीन फैले दिक् में स्वतंत्र और निर्बंध भी हैं। यहां भौतिक बंधन के भीतर अभौतिक किस्म की मुक्ति है। हो सकता है यह वस्तुस्थिति न हो, केवल मानव मन की अवस्थिति हो, जिसकी थाह हम बार बार पाना चाहते हैं या जिस तक पहुंचना चाहते हैं। क्या यही आनंद है? 'द इनकारनेशन' में ईसा मसीह की देह छरहरी है। धड़ में तीन घडि़यां धंसाई गई हैं, गोल पुराने फैशन की, और रुकी हुई। चरणों में एक आवक्ष मूर्ति वंदना के भाव में बैठी हुई है। जिसका झुका हुआ सिर और कंधे ही दिखते हैं। विराटता के समक्ष समर्पण का भाव। ईसा गहन प्रशांति में डूबे हैं। विचार और आवेग से परे। तीन घडि़यों की तरह तीन लोक से परे यानी दिक् और काल के परे उनका अवतरण हो रहा है। काल से परे या कालहीनता के आकाश या अवकाश में ही प्रशांति संभव है? क्या यह प्रस्तुति इसी तरह के संकेत दे रही है? दो अन्य चित्र हैं 'ट्रांसफारमेशन' और 'साल्वेशन' शीर्षक के। इनमें भी घडि़यां हैं और उनमें कहीं मानव आकृतियां निकल रही हैं, कहीं घुस रही हैं और कहीं घुल-मिल रही हैं - मानो मनुष्य दिक् और काल में रूपांतरण की सतत प्रक्रिया से गुजर रहा है। 

टयूनिंग द टाइम
हॉल के एक कोने में एक बड़ा ही दिलचस्प मूर्तिशिल्प रखा था - 'टयूनिंग द टाइम'। क्या हम इसे 'काल का सुर मिलाना' कह सकते हैं! इस बिंब की व्यंजना गहरी है, और मूर्ति अद्भुत। यह एक दर्जी है जो पैर से चलने वाली सिलाई मशीन पर बैठा सिलाई कर रहा है। सिले जा रहे कपड़े की जगह उसके पास घड़ी है जिसका एक सिरा सिलाई मशीन की सुई और दंदे के बीच फंसा है। घड़ी यानी घड़ी का डायल जैसे कपड़े की तरह लचीला और सिलवट पड़ा है। बल्कि चमड़े की तरह मोटा और अकड़ा हुआ है पर धातु की तरह कड़ा नहीं दिख रहा है। जबकि कमाल का प्रभाव यह है कि सारा शिल्प धातु निर्मित ही लगता है।

इसे देखने पर एक अद्भुत रूपक की सृष्टि होती प्रतीत होती है। व्यक्ति वक्त की सिलाई कर रहा है। मानो वक्त इतना पुराना पड़ गया हो कि फट गया हो या उधड़ गया हो और कोई कारीगर उसे सिल रहा हो। पर मूर्तिकार ने इस काम को सिलाई करना न कह कर 'टयूनिंग करना' कहा है। काल को जोड़ने की क्रिया तो दो काल खंडों को जोड़ने की क्रिया होगी। यह टयूनिंग है। साज का सुर मिलाने जैसी। सामंजस्य पैदा करने की क्रिया। काल से सामंजस्य या संगति बिठाना या काल को सम पर लाना कितनी प्रासंगिक उक्ति है! 

दर्जी पूरी तरह अपने में तल्लीन है। एक हाथ सिलाई मशीन के हैंडल पर रुका हुआ है, मानो अभी चक्का चलने लगेगा। दूसरे हाथ ने घड़ी के चिथड़े को थाम रखा है। नीचे पैर भी दिख रहे हैं। सारा शरीर काम करने की लय में डूबा हुआ है। पूरा ध्यान काम पर लगा हुआ है। समय को मिलाने का काम निमग्न हो के ही किया जा सकता है। पीठ, गर्दन, सिर, आंखें झुकी हुई हैं। किसी शिल्पी की विनम्र और कर्मठ देह की तरह। और शिल्पी पूरी तन्मयता से काल की रचना विरचना संरचना में लगा है। यह मानवीय कृत्य की अद्भुत उठान है। 

यह प्रदर्शनी देख कर मन में अजब स्फूर्ति आई। कलाकार से मिल कर भी अच्छा लगा। ऊर्जा और उत्साह से भरपूर संजय कुमार अपने बारे में बताने लगते हैं -

'' बचपन से ही मुझे औपचारिक शिक्षा में कोई रुचि नहीं थी। इसलिए मैं कभी भी इसमें सफल नहीं रहा। मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म लेने के कारण सभी मुझसे यह उम्मीद करते कि मैं पढ़ूं और जीविका का कोई अच्छा साधन ढूंढूं। मेरे पिता श्री रामेश्वर प्रसाद को साहित्य में गहरी रुचि थी। वे फिराक गोरखपुरी के शिष्य थे, धर्मवीर भारती और गोपेश्वर आदि के साथ परिमल में सक्रिय थे। कमलेश्वर उनके मित्र थे। उनके कारण मेरी कला को एक दिशा मिल सकी। टैगोर, टॉलस्टॉय, शरत, प्रेमचंद और बंकिंम चंद्र के बारे में उनसे सुनता तो मुझे एक अजीब सी खुशी मिलती। सबसे पहले उन्होंने मुझे वैन गॉग, गौगन, एल-ग्रेको और लियोनार्डो के विषय में बताया। शायद यही वह बिंदु था जब छवियां मेरे मन में अपना काल्पनिक रूप लेने लगी थीं। यह करीब 37-38 साल पहले की बात है। उस समय के रेखाचित्र और जलरंग देख कर शायद उन्हें लगा हो कि मैं इससे बेहतर और कुछ नहीं कर सकता। ढेर सारे चित्रों के साथ 1982 में जे जे स्कूल ऑफ आट्र्स में प्रवेश लेने के लिए पहली बार मुंबई आया लेकिन कुछ न हो सका। फिर दिल्ली और बाद में हार कर आगरा कालेज से एम ए की डिग्री लेकर थोडे़ दिन जीविका की तलाश में भटकता रहा। मेरे भाई चूंकि यहां (मुंबई में) थे इसलिए एक मॉरल सपोर्ट था जिसके सहारे मैं यहां तक कला यात्रा कर सका।
''जीवन से बड़ी कोई किताब नहीं और सबसे ज्यादा उसी को पढ़ने की कोशिश की। मेरा मानना है कि जो भी स्वाभाविक रूप से प्रेरित करे वही शक्तिशाली अभिव्यक्ति होती है, उसमें एक कलाकार की सोच और संकल्पना का समावेश होता है।''
कला वीथि की इस संक्षिप्त यात्रा के अंतिम पड़ाव पर संजय से विदा लेते समय उनसे अगली योजना के बारे में पूछा तो उनका कहना था कि अगला काम 'मेट्रो साउंड' नाम की एक शृंखला हो सकती है, जिसमें जीवन के आसपास की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का समावेश होगा।

Friday, October 28, 2011

रेगिस्तान में पानी


कुछ समय पहले अमृतसर में पंजाब नाटशाला देखने का मौका मिला.  
उत्‍तर भारत में शिमला में गेयटी थियेटर और चंडीगढ़ में टेगोर थियेटर के अलावा 
और कोई नाम ध्‍यान में नहीं आता है. अमृतसर की पंजाब नाटशाला  
अपनी तरह का नवीन नाट्यगृह है. खासियत यह है कि यह 
एक अकेले व्‍यक्ति का उद्यम है. उम्‍मीद है कि‍ 
पंजाब नाटशालाआने वाले समय में 
कलाओं का एक सुगढ़ संकुल बन जाएगी. 

हिंदी भाषी क्षेत्रों में नाटक खेलने की परंपरा एक लगभग सूखी हुई नदी की तरह है. रामलीला को छोड़ दीजिए तो नाटक कुछ ही शहरों में होते हैं. प्रायः न नाटक होते हैं, न ही लोगों में नाटक देखने की रुचि का ही विकास हुआ है. जो नाट्यकर्म होता भी है उसमें अधिकतर कलानुरागी (एमेच्‍योर) किस्‍म का होता है. नाटक नहीं हैं तो नाट्यगृह भी नहीं हैं. सरकार ने किसी जमाने में राज्‍यों की राजधानियों में कविगुरू रवींद्र के नाम पर प्रेक्षागृह बनवाए थे. लेकिन बाकी शहरों में सन्‍नाटा है. जैसे साहित्यिक किताबों की दुकानों का अकाल है. ऐसे माहौल में जब कोई अकेला व्‍यक्ति पहल करता है तो उम्‍मीद जगती है कि धीरे धीरे कला आस्‍वाद की परंपरा बनेगी. 


मंच पर नाटक का पूर्वाभ्‍यास चल रहा है
ऐसा ही एक अकेला बंदा गुरुओं की तीर्थ नगरी अमृतसर में है जिसने वहां नाटक का एक तीर्थ निर्मित कर दिया है. जतिंदर बरार ने 1998 में पंजाब नाटशाला की नींव रखी और धीरे धीरे इसे एक शानदार नाट्यगृह में बदल डाला है. पेशे से इंजीनियर श्री बरार कई साल विदेश में रहे. देश का प्रेम और नाटक का शौक उन्‍हें वापस हिंदुस्‍तान खींच लाया. अमृतसर शहर के पुतलीघर इलाके में लगी अपनी फैक्‍ट्री को शहर से बाहर ले गए और वहां एक प्रेक्षागृह बना दिया. 


बरार की इंजीनियरी आंख ने इस सभागार को तकनीकी रूप से अत्‍याधुनिक प्रेक्षागृह बना दिया है. इसका मंच घूमने वाला (रिवाल्विंग) है. हमारे देश में घूमने वाले मंच  कम ही हैं. इस तरह के मंच में दृश्‍यबंध बदलने में आसानी होती है. पार्श्‍व में दृश्‍यबंध तैयार रखा जाता है. जैसे ही एक दृश्‍य खत्‍म होता है और अंधेरा होता है तो बिजली चालित मंच घूम जाता है. पिछला हिस्‍सा आगे अगला पीछे चला जाता है. मंच आलोकित होने पर दर्शक के सामने नया दृश्‍य संसार साकार हो जाता है. आम तौर पर नाटक में अभिनेता अगल बगल से प्रवेश करते हैं, लेकिन पंजाब नाटशाला के मंच पर जरूरत पड़ने पर पात्र मंच फाड़ कर यानी नीचे से भी प्रकट हो सकता है. नाटशाला में इस सुवि‍धा को एक नया आयाम कहा जा सकता है. एक हाइड्रालिक लिफ्ट लगाई जा रही है जिसके जरिए दृश्‍यबंध उठाकर मंच तक पहुंचाया जा सकेगा. जिन नाटकों में बड़े और ज्‍यादा सेटों की जरूरत हो, उनके लिए यह लिफ्ट फायदेमेद रहेगी. दृश्‍य परिवर्तन में समय कम लगेगा और नाटकीय प्रभाव भी पड़ेगा. बरार साहब को नाटक के दौरान और भी कई तरह के चामत्‍कारिक किस्‍म के यथार्थवादी प्रभाव पैदा करने का शोक है. ऐसी व्‍यवस्‍था की गई है कि अगर नाटक में बरसात का दृश्‍य हो तो छींटे दर्शकों पर भी पड़ जाते हैं. रसोई में पंजीरी बन रही हो तो खुशबू दर्शकों को भी आ जाती है. श्री बरार इन प्रभावों का जिक्र बड़े चाव से करते हैं. उनके लिखे नाटकों में इस तरह के दृश्‍य रहते हैं. नाटक में आम तौर पर दर्शक की सुनने और देखने की इंद्रियों का प्रयोग होता है. बरार साहब अपने दर्शक को सूंघने और छूने का सुख भी देना चाहते हैं. इस तरह वे दर्शक को यथार्थ का सांगोपांग किस्‍म का अनुभव देना चाहते हैं. उन्‍होंने एक नए नाट्य प्रभाव का जिक्र भी किया जिसमें नदी या तालाब यानी पानी के होने का वास्‍तविक प्रभाव पेदा किया जा सकेगा. इतना ही नहीं सैलोरामा पर पानी में झिलमिलाती रौशनियों का प्रभाव भी आ सकता है. यथार्थवादी और ऐतिहासिक नाटकों के लिए इस तरह की सुविधाओं की जरूरत पड़ती है.  


दृश्‍यबंध से सजा मंच
 पिछले दस बारह सालों में उन्‍होंने इस प्रेक्षागृह को एक नाट्य संकुल का रूप दे दिया है. बड़े बड़े ग्रीन रूम बनाए गए हैं. वस्‍त्राभूषण का एक भंडारगृह है. बाहर से आने वाली मंडलियों के लिए अतिथिशाला है. प्रेक्षागृह भी अब वातानुकूलित हो गया है. पंजाब नाटशाला को जतिंदर बरार ने घर की तरह स्‍नेह और चाव से खड़ा किया है. लगभग हर वस्‍तु में उनकी छाप नजर आती है. इंजीनियर होने के नाते उन्‍होंने तकनीक के नए नए प्रयोग किये हैं, प्रेक्षागार के अंदर भी और बाहर भी. बरार सा‍हब नाटशाला को एक सामाजिक जिम्‍मेदारी की तरह लेते हैं. उनके खुद के लिखे नाटक सामाजिक समस्‍या प्रधान नाटक हैं. नाटक के दर्शकों में अभिरुचि जगाने के अलावा परिसर की सफाई और सजावट पर भी उनका ध्‍यान रहता है. यहां तक कि मध्‍यांतर में परोसे जाने वाले चाय नाश्‍ते की नफासत में भी उनकी छाप दिख जाती है. नाटशाला की एक और खासियत है कि हरेक प्रदर्शन के बाद राष्‍ट्रगान गाया जाता है. समय की पाबंदी यहां की एक और खासियत है. समय की यह पाबंदी तब भी बरकरार रही जब पंजाब के मुख्‍यमंत्री कैप्‍टन अमरेंद्र सिंह नाटक देखने आए. मुख्‍यमंत्री नाटक और परिसर से इतने प्रभावित हुए कि सारे राज्‍य को नाटक पर ल्रगने वाले मनोरंजन कर से छूट मिल गई. 


प्रकाश व्‍यवस्‍था
एक बार को ऐसा लगता है कि बरार साहब का झुकाव ऐंद्रिक यथार्थपरकता की तरफ ज्‍यादा है. लेकिन इसका अपना महत्‍व है. दर्शक को आकर्षित करने में ये तरकीबें काम आती हैं. इस तरह की ऐंद्रिक यथार्थपरकता से दर्शक के नाट्य अनुभव में भी गहनता आती है. जिस तरह हास्‍य नाटक दर्शकों को खींचते हैं. तकरीबन सभी रंगमंडलियां उसमें मिर्च मसाला भी डालती ही हैं. पंजाब नाटशाला में भी हास्‍य नाटक होते हैं. टेलिविजन के लाफ्टर चैलेंज वाले राजीव ठाकुर और भारती सिंह इसी नाटशाला से निकले हैं. अगले दौर में हम एम्‍मीद कर सकते हैं कि पंजाब नाटशाला से कुछ और नए अभिनेता, निर्देशक और नाटककार निकलेंगे.

अब यहां दूसरे शहरों की रंगमंडलियां भी नाटक करने आती हैं. कई पाकिस्‍तानी नाटकों का मंचन भी हुआ है. नाटशाला ने अपना एक दर्शक वर्ग बना लिया है. स्‍कूली बच्‍चों के लिए भी नाटक के प्रदर्शन किए जाते हैं. हमारे समाज को जतिंदर बरार जैसे कई धुनी लोगों की जरूरत है.

यह टिप्‍पणी पिछले दिनों जनसत्‍ता में भी छपी है.  पंजाब नाटशाला की और अधिक जानकारी यहां है.

कुछ और चित्र- 

भीतरी दीबारें 
सभागार में प्रवेश
बांस के दरवाजे









 
 

 

जतिंदर बरार अपने दफ्तर में

जतिंदर बरार और सुरेंद्र मोहन मेहरा के साथ