नई
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Saturday, November 29, 2014
जूते
Thursday, October 30, 2014
कुत्ताघर
कागज पर पेंसिल : मुदित सेठी |
यह कहानी 1989 में वर्तमान साहित्य में छपी थी। और यह तब की मुंबई में कुत्ता पकड़ने के सच्चे करतबों का लगभग आंखों देखा हाल ही है। कुत्ते का यह रेखांकन कला के धनी मुदित ने खास तौर से इसी कहानी के लिए हाल ही में बनाया है।
भोंसले खुश है कि उसे कुत्तों को पकड़ने का काम मिल गया है। यूं काम
बहुत झंझट का है। एक-एक कुत्ता पकड़ने के लिए कुत्ते की तरह ही भागना पड़ना है। उसने
कहीं सूंघ लिया कि उसे पकड़ने के लिए आदमी आया है तो गए काम से। ऐसे भागेगा जैसे किसी
दुश्मन ने हमला बोल दिया हो। ये कुत्ते आदमी को दोस्त नहीं समझते। आदमी भी तो
उन्हें फालतू जानवर ही मानता है। दोस्त कुत्ते दूसरे होते हैं,
जिनके गले में पट्टे बांधे जाते है। पालतू होने के बाद ही वे
आदमी के दोस्त बनते होंगे।
भोंसले को पालतू नहीं फालतू कुत्तों को पकड़ने का काम मिला है।
म्यूनिसिपैलिटी का दिहाड़ीदार मजदूर इस झंझट भरे काम से खुश हो तो हैरानी की कोई
बात नहीं है। उसने इस बार इंतजाम पक्का कर लिया है। कुछ दिनों का यह झंझट जिंदगी
भर के लिए चैन में बदल सकता है अगर किस्मत रूपी इन कुत्तों ने उसका साथ दे दिया।
बरसात में सीवरेज का काम बंद हो गया था और भोंसले को खाने के तकरीबन
लाले ही पड़ गए थे। उसने हारकर बाबू के आगे हाथ जोड़े, दे दो कुत्ते पकड़ने का काम ही दे दो साब। भला हुआ कि जब मिन्नत कर रहा
था, वार्ड आफिसर उधर से गुजरा। अफसर अपने इलाके के आवारा
कुत्तों से परेशान था। लोगों की शिकायतें भी सुन चुका था। भोंसले ने बिना
मौका चूके अपनी सामर्थ्य दांव पर लगा दी -
साब मैं आपके इलाके को चकाचक साफ कर दूंगा। पर एक विनती है साब, दस सालों से डेली पर मजूरी करता हूं, मेरे को
परमानेंट कर दो। एक-एक कुत्ते को पकड़ कर ले आऊंगा। उसने सिफारिश करने के लिए बाबू
की ओर ताका था। बाबू ने पीठ पर थपकी देकर
पुष्टि कर दी - पुराना आदमी है साहिब, ईमानदार है। ठीक है
रख लो, अफसर मूड में था, हिदायत
देकर चला गया।
सारी रात भोंसले ठीक है रख लो का मतलब निकालता रहा। उसके दिल दिमाग
ने कोई दूसरा मतलब निकाला ही नहीं, सिवा
इसके कि वह अब कमेटी का पक्का मुलाजिम हो जाएगा। इसी जोश में बड़े सवेरे उठकर घर से
निकल आया।
आठ बजे सालुंके ड्राइवर को कुत्ता-गाड़ी के साथ मिलना था,
भोंसले साढ़े सात बजे ही पहुंच गया। आधे घंटे तक इंतजार करना उसे
मुश्किल नहीं लगा। वह परमानेंट होने के
बाद अपनी जिंदगी बदल जाने के
सपने देखता रहा। सपने पूरे होने के बीच बस कुछ एक कुत्ते हैं जिन्हें अगर वो पकड़
ले तो मानो जिंदगी को पकड़ लेगा। चार दिन की मजदूरी और पांच दिन भूख के नहीं देखने
पड़ेंगे। कुछ सालों में खोली खरीद लेगा, बच्चों
को स्कूल भेजेगा, और भी कई कुछ.....।
सालुंके ने गाड़ी में से ही आवाज देकर भोंसले को बुलाया। उसकी खुशियों
की गाड़ी उसके सामने है। वह ड्राइवर के साथ वाली सीट पर आ बैठा। कुत्तागाड़ी यानि
सलेटी रंग का टेंपो, पिछले हिस्से को लोहे के सरियों से पिंजरे की
शक्ल में बदल दिया गया है। पीछे दरवाजा है जो हर हरकत के साथ खड़खड़ करता है।
करीब बीस मिनट चलने के बाद मुख्य सड़क से अंदर जाकर नाके पर टेंपो
रुका। मन में काम करने की मुस्तैदी और आंखों में संकल्प की चमक लिए भोंसले छलांग
मार कर उतरा। गाड़ी में से एक बोरा भी उसने निकाला, जिसके मुंह पर करीब दस फुट लंबी रस्सी बंधी है। उसने मुंह के अंदर हाथ
डालकर एक नजर भर झांकी लिया,
ठीक है। वह अपने अभियान पर चलने के लिए तैयार होने लगा। चूना
तंबाकू मलते हुए आंखें इधर-उधर दौड़ती रहीं, पेड़ के नीचे,
घूरे के ढेर के आसपास, टूटी हुई दीवार
के साथ। सब सूना था। टेंपो का एक चक्कर लगाया। तंबाकू गाल के अंदर स्थापित किया।
ड्राइवर ने हाथ बढ़ाकर उससे तंबाकू की
डिब्बी ली। भोंसले बोला, लगता है सब साले टेंपो की आवाज
पहचानते हैं, पर कम से कम दस तो जमा करवाना ही पड़ेंगा,
क्यों सालुंके? और वह किनारे के फुटपाथ
पर आकर बैठ गया। ड्राइवर खिड़की खोलकर बैठा था - दस क्यों बीस करो।
-पन इदर तो कोई नजर ई च नई आता।
-तुम्हारे पास चल के आएगा क्या,
हम छुट्टा घूमता है हमकू ले चलो सेठ। सालुंके
ने थूक निगल कर दांत भी दिखा दिए।
-चलके हमकू ई च जाना पड़ेगा,
सालुंके सेठ, पन जाएं किदर को।
भोंसले उठ खड़ा हुआ। पैंट झाड़ी बोरा उठाया और चलने लगा।
इस इलाके में चार मंजिल से ऊंचे मकान नहीं है। हाउसिंग बोर्ड की
इमारतें करीब दस साल पहले बनी थीं। शक्ल से ही सरकारी लगती हैं,
वो भी बीस साल पुरानी। दीवारों पर जगह जगह काई के चकत्ते,
कोनों पर उखड़े हुए पलस्तर, इमारतों के
आगे पीछे घिसे हुए पैदल रास्ते, बीच-बीच में गंदे पानी के
छपड़े। कुछ लोगों ने बाड़ लगाकर सब्जी वगैरह भी लगा रखी है। छोटी
सड़क अंदर जाती है और आगे तीन चार बहुमंजिला इमारतें बनी हैं। डील-डौल और चमक-दमक
से ही पता चल जाता है रख-रखाव पर पूरा
ध्यान दिया जाता है। वैसे भी तीन चार साल पहले ही इस धरती पर आकर खड़ी हुई हैं।
नामी गिरामी बिल्डरों को चैक के अलावा हाथों हाथ दिए पैसे का दमखम बनावट में झलक
जाता है। नवधनाढ्यों
पर चर्बी, खुमारी और मुस्कान की पर्तों की तरह। सड़क आगे
समुद्र की तरफ खुल जाती है। भोंसले का साहब इन्हीं इमारतों के एक फ्लैट में रहता है।
भोंसले को वहां नहीं जाना है। वहां आवारा नहीं पट्टेदार पालतू कुत्ते रहते हैं।
उसे बिना पट्टे के जाहिल कुत्ते पकड़ने हैं जो धरती पर भार बने हुए हैं जिनका कोई
मालिक नहीं है। जिनका आदि, अंत पता नहीं है। वे तो बस होते हैं और होते रहते
हैं और कभी खत्म नहीं होते।
मकानों के आगे झाड़ झंखाड़ में कुछ नहीं है। वह पिछवाड़े की ओर बढ़ता है।
एक टहलती हुई कुतिया उसे नजर आती है। वह ठिठक जाता है। उंगलियां बोरे के रस्से को
कस के पकड़ लेती हैं, बाँहों की नसें तन जाती हैं, पैर चौड़े होकर जम जाते हैं, जीभ ओठों से बाहर
निकल आती है और दांत उसे दबा लेते हैं। ध्यान केंद्रित करने के लिए जीभ को चबाना भोंसले की
स्वाभाविक क्रिया है। उसकी नजर कुतिया पर टिकी हुई है। उसकी हरकतों के साथ-साथ
पुतलियां हिल रही हैं। झपाक से बोरे को फेंकता है। भोंसले के मुंह से आवाज निकलती
है.... वऊ..ऊ..ऊ और बोरा सीधा कुतिया के मुंह पर गिरता है। कुतिया के अगले पांव
बोरे के अंदर फिसल जाते हैं। कुतिया के मुंह से भी वऊ..ऊऊ..ऊऊ की आवाज निकलती है,
बहुत जल्दी डूब भी जाती है। भोंसले सधे हाथों से रस्सी खींच लेता
है। बोरे का मुंह बंद हो गया है। बोरा फुदक रहा है। अंदर से बुड़-बुड़ , भौंकने रोने जैसी सम्मिलित आवाजें आ रही हैं।
---जै बिट्ठला, बोहनी हो गई फस्सकलास। ए सालुंके,
गेट कू खोल। विजय भाव से चहकता भोंसले दूर से
ही ड्रायवर को आदेश देता है। बोरे को पिंजरे में आकर खोलता है।
भोंसले अबकी दूसरे मकानों की तरफ बढ़ता है। एक कुत्ते पर नजर पड़ते ही
जोश में पीछे भागता है। वह आगे को झुककर
जिस तरह भागता है और सूखे हुए टखने जल्दी-जल्दी उठते हैं तो कुल दृश्य तो
सुंदर नहीं ही बनता। ऐसे ही लगता है जैसे एक कुत्ता दूसरे के पीछे भाग रहा है। इस
भागमभाग में कुत्ता शायद अपने दुश्मन को भांप गया है। भोंसले ने निशाना साधा पर
बोरे का मुंह कुत्ते की पूंछ छू कर फिसल गया। कुत्ता डर के मारे बंद सीढ़ियों की तरफ भागा। भोंसले जान
गया अब आ गई मौत, साला समझदार होता तो खुले में भागता। एक बार फिर
बोरा हवा में उछला पर कुत्ते की बजाय सीढ़ी के थम्मे में जा फंसा। कुत्ता हवा के
लपाटे से ही चिचिया पड़ा। भोंसले बोरे को छुड़ाने के लिए आगे बढ़ा, घबराया हुआ कुत्ता बाहर की ओर भागा, गोली की
तरह, भोंसले की टांग को छू गया। छूने से और घबराया और
फिसल गया। उधर कुत्ते की छुअन से भोंसले की टांग उछल पड़ी। छलांग सी लगी और
गिरते-गिरते बचा। हाथ में बोरे की रस्सी फंसी थी थम्मे से खिची हुई। कुत्ता अब तक
संभल चुका था और चंपत हो गया। भोंसले के मुंह से बुड़-बुड़ आवाज निकलने लगी,
धड़कन तेज हो गई। वह बोरे को छुड़ाने लगा- साला किस्मत वाला निकला।
अब कोई फायदा नहीं उसके पीछे जाने में।
कुत्तों में सहयोगी भावना कितनी होती है पता नहीं पर भोंसले को यकीन
है अगर ये और कुत्तों से जा मिला तो सबके सब भोंकने लग पड़ेंगे या उस प्राईवेट
कालोनी में जा घुसेंगे जहां भोंसले का जाना वर्जित है। इसलिए वह कुत्ते से पहले
बाकियों पर धावा बोल देना चाहता है।
लगभग दौड़ते हुए दूसरे मकान के पिछवाड़े गया। वहां पहुंचते ही पांच
पिल्ले मिल गए। उन्हें कभी भी उठाया जा सकता है पर अब वो मौका चूकना नहीं चाहता।
इन पर बोरा क्यों फेंकना, मरे चूहों की तरह पूंछ से पकड़ कर बोरे में भर
लिया और लाकर गाड़ी में छोड़ दिया। ले मौसी तेरी औलाद। मरने से पहले औलाद को प्यार
कर ले। क्या याद रखेगी भोंसले ने पकड़ा तो बच्चे-कच्चे भी साथ लाकर दिए।
कूं कूं
करते पिल्ले कुतिया से जा चिपकते हैं। कुतिया भूल जाती है कि वह पिंजरे में है। वह
पिल्लों को अपने जिस्म से खेलने देती है।
सालुंके ड्राइवर ने भोंसले की हौसला आफजाई की- सारे खानदान को
ही पकड़ लाया भोंसले?
-खानदान कभी खतम होगा साला इनका। कहकर भोंसले
आगे बढ़ गया।
अब की वो बोरे को घसीटता हुआ गाड़ी तक लाया। उसके अन्दर बंद कुत्ता
अपने पैरों से बोरे को रोकने की बेकार कोशिश कर रहा था। अचानक घिसटता हुआ बोरा रुक
गया। रास्ते के गङ्ढे में पंजा फंसाने में कुत्ता सफल हो गया। थोड़ी देर के लिए
जैसे दो पत्थरों के बीच एक रस्सी तन गई। एक तरफ बोरे में कुत्ते की पीठ और पिछला
हिस्सा उभरा हुआ गोल पत्थर की तरह, दूसरी
तरफ भोंसले की दोहरी होती पीठ। दोनों ने अपनी-अपनी दिशा में जोर लगा रखा है। बोरे
के अन्दर से कुत्ते ने भयंकर भौंक लगाई। भौंक गुम गूंज सी लंबी खिंच गई। उधर
भोंसले ने भी हांक लगाई हो.....सालुंके। घरघराती सी गंभीर ध्वनि सालुंके बनते-बनते
पतली और लंबी हो गई। झटका सा लगा और बोरा भोंसले के पास आ गिरा। जमा दीं उसने तीन
चार लातें। ले कर याद अपने बाप को, बचाएगा तेरे कू आ के।
ड्राइवर समझ गया कुत्ता आसानी से गाड़ी के अन्दर नहीं जाएगा। फट्ट से
पिंजरे का दरवाजा आधा सा खोल के खड़ा हो गया। भोंसले ने बोरे का मुंह दरवाजे में
ठूंसा, रस्सा ढीला किया और सालुंके ने पीछे से लात जमा
दी। एक चीख पिंजरे के अगले हिस्से तक बह गई। खट्ट से दरवाजा बंद हो गया। यह कुत्ता
काफी बड़ा था। कुतिया पर झपट पड़ा। पिल्ले चिल्लाने लगे। भोंसले वापिस मकानों की तरफ
चला गया। सालुंके सीखचों से कुत्ता कौतुक देखने लगा।
करीब डेढ़ घंटे में पांच कुत्ते पकड़ लिए गए। अगर भोंसले ने शाम को
यानी दोपहर बाद छुट्टी करनी है तो पांच और लाने होंगे। सूरज खूब गरम हो रहा है।
भोंसले की बाहों पर पसीना चमक रहा है। बदन पर कसी हुई कमीज चिपक रही है। भूख
कुनमुनाने लगी है, पर साथ लाए हुए डिब्बे को अभी नहीं खाया जा सकता
क्योंकि वो अपनी खोली में साढ़े आठ के बाद ही पहुंच पाएगा इसलिए खाना एक बजे से
पहले खाने का सवाल ही नहीं उठता। वह गाड़ी के पास जाकर तंबाकू मलने लगता है। पर
कुत्तों की गुर्राहट उसे अच्छी नहीं लग रही। न जाने क्यों ये आवाजें सुनकर उसका
गला भी अपने आप गुर्राने लग जाता है। पेड़ के नीचे जाकर सुस्ताना चाहता है कि तभी
मरियल सा एक कुत्ता नजर आ जाता है। तंबाकू मुंह में रख वो उसकी ओर लपक लेता है।
कुत्ते को गाड़ी में छोड़ने के बाद भोंसले फिर अपने शिकार बेचैनी से
ढूंढ़ने लगा। तभी उसे भूरे रंग का वह कुत्ता दिखा जो उसकी गिरफ्त से भाग निकला था।
भोंसले की जीभ बाहर निकल आई और दांत ने उसे जकड़ लिया। वह सरपट भाग
रहा है। कुत्ता शायद पदचाप पहचान लेता है। भोंसले को दो तीन मकानों के चक्कर लगवा
देता है और उसके बाद छकाते हुए प्राइवेट कालोनी में ले जाता है। एक बिल्डिंग की
बेसमेंट के खंभों में कुत्ता चक्कर लगवाए जा रहा है।
भोंसले को अपनी नाकामी और कुत्ते की चालाकी पर बेहद गुस्सा आ रहा है।
उसकी आंखों में जुगनू चमकने लगते हैं। वो बेतहाशा दौड़ रहा है। जीभ दांतों के चंगुल
में है। नाक से हुं-हुं की आवाज निकल रही है। उसे तल्ख रोशनी में भूरे रंग का
कुत्ता दिख रहा है जो उसके आगे-आगे दौड़ रहा है। भोंसले के सम्मान का सवाल है,
कुत्ते से वो हारेगा नहीं। हाथ की रस्सी यंत्रवत् कसी हुई है और
खुलकर उछलने के लिए मौके की तलाश में है। बेसमेंट के खंभे घूमे जा रहे हैं,
घूमे जा रहे हैं।
तभी सीढ़ियों से भूरे रंग का एक लकदक साफ चिट्टा कुत्ता जमीन सूंघते
हुए नीचे उतर कर बड़े गेट की तरफ भागता है किसी छूटे हुए कैदी की तरह।
भोंसले को दौड़ता हुआ भूरा रंग दिख रहा है और गेट पर पहुंचते ही चीकट
बोरा उस भूरे रंग पर झपट पड़ता है।
रस्सी खींचने के साथ भोंसले को अपनी फूली हुई सांस और उठती हुई खांसी
महसूस होती है। जीभ दांत के शिकंजे से बाहर निकल गई है। रस्सी को खींचकर वो पलभर
रुकता है और दो चार उखड़े हुए खंसखंसाते दम मारता है। विजय भाव उसके पसीने के साथ
चमक रहा है और सफलता के प्रमाद में चलता, इस
मुश्किल शिकार को लाकर गाड़ी में धकेल देता है। गाड़ी में एक बार फिर शोर उठता है।
भोंसले और सालुंके दोनों इस शोर से बेखबर हैं।
गाड़ी में शोर कम नहीं होता। जगह-जगह
भटकने वाले कतूरे अपने बीच साफ चिट्टे सहजीव को पाकर एक कुतूहल के साथ अपनी
सहज हरकतों के जरिए परिचय बढ़ाना चाह रहे हैं। उनके सूंघने से वो घबरा रहा है। जगह
ऐसी नहीं है कि कहीं छुपा जा सके। उसे बदले में सूंघने की प्रेरणा भी नहीं हो रही।
वह तो जैसे अजनबी महसूस कर रहा है। कुतिया उसकी पूंछ को अपने थूथन से उचकाती है,
भूरा फिरकी की तरह घूमता है। सामने बिगड़ैल भेड़ की तरह काला
कुत्ता खड़ा है। भूरा एक और फर्राटा मारता है। जब बस नहीं चलता तो गुर्राहट से शुरू
होती जोर की भौंक लगाता है। कुतिया उसका जवाब पंजे से देती है। वो बचाव में नीचे
लेट जाता है। काला भेड़ा उसकी टांगें खींचने लगता है। पिल्लों को तो जैसे खिलौना
मिल गया, कूदनी लगाते हुए कानों को खींचते हैं, पूंछ को चबाते हैं। उस भूरे खरगोश ने पूरा जोर लगाकर अलग होना चाहा,
वह उचका ही था कि काले भेड़े ने कान दांतों से भींच लिया। खरगोश
का रोना निकल आया। वो दो एक कदमों का फासला घसीट कर निढाल हो गया। वार सहने के
सिवा कोई चारा न था।
वापसी में टेंपो में बैठते हुए भोंसले संतुष्ट था। सबसे बड़ा चैन यह
था कि आधा दिन बच गया। अब दोपहर बाद दफ्तर का पुराना गोदाम साफ करेगा। एक-दिन में
दो दो डेली मिल जाएंगी। गोदाम साफ करने को आदमी मुश्किल से मिलता है इसलिए हेडक्लर्क किसी दूसरे के
नाम पर उससे काम करवा लेता है। एक पूरे दिन की पगार भोंसले को मिल जाती है। इससे
भी ज्यादा खुशी की बात यह है कि अब वार्ड आफिसर खुश हो जाएगा। उसके इलाके के इतने
सारे बेकार कुत्ते आज उसने पकड़ लिए हैं। दो दिन और आएगा तो सारा इलाका चकाचक साफ
हो जाएगा। उसे पक्की उम्मीद है, बल्कि यकीन है
कि वार्ड आफिसर खुश हो के पक्की नौकरी पर रखवा देगा। साहब ने खुद कहा था रखने को। जितनी
मेहनत की है वो सफल हो जाएगी। सालुंके को उसने गर्व के साथ पूरा किस्सा सुनाया कि
उस भूरे मवाली ने कितना छकाया, लेकिन बच के
कहां जाता। रास्ते भर उसकी आंखों में विजय की चमक तैरती रही।
गाड़ी कुत्ताघर के सामने आकर रुकी ही थी कि दफ्तर से एक बाबू और
चपरासी भोंसले को ढूंढ़ते हुए आ पहुंचे। डांट खाया और खीझा हुआ बाबू बोला
- क्यों भोंसले, मालूम है न
प्राइवेट कुत्ता नहीं पकड़ने का साला गिनती के वास्ते कुछ वी पकड़ के लाएगा।
भोंसले को कुछ समझ नहीं आया - प्राइवेट कुत्ता हमने नई पकड़ा साब। सब
बिना पट्टे का छुट्टा कतूरा है।
- पट्टा खोल के फेंकता होएंगा,
क्या मालूम। क्यों सालुंके तू बोल।
- मेरे सामने ऐसा नई किया साब
- सामने क्या पीछू वी हम ईमानदारी से काम करता
साब। देख लो सब आवारा कुत्ता है।
- वार्ड आफिसर देखेगा अब तेरे कू
- बोले तो?
- और किसी का कुत्ता नई मिला तेरे कू। वार्ड
आफिसर का कुत्ता काहे को पकड़ा। बाबू झल्ला उठा।
- ये क्या बोल रहे साब।
- साब के बच्चे। साब के बिल्डिंग के नीचू गेट पर
पकड़ा न तू ?
- वो तो
- पैले बोल पकड़ा न....।
-........
- अब बोल उदर काहे को गया ?
- ओ तो एक कुत्ता लेके गया हमकू।
- कुत्ता इ च लेके जाएगा तेरे कू अब। मुंह क्या
देखता है निकाल अपने बाप को बाहर। साब उदर आफिस में बोम मारता है।
भोंसले को कुछ समझ नहीं आ रहा था। गेट पर उसने पकड़ा जरूर था,
पर वो साब का कैसे हो सकता है।
- जल्दी करो साब वेट कर रहा है। घर से फोन आया है
उसको कि कुत्ता नीचू उतरा और आदमी बोरा में डाल के ले गया।
भोंसले के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उसे इसमें कोई बड़ा घपला
लगा पर समझ नहीं आया उसका दुश्मन कौन हो सकता है। पर ये बाबू भी गलत क्यों बोलेगा?
वह एक-एक करके कुत्तों को कुत्ताघर में छोड़ने लगा। उसके हाथ-पैर कांप
रहे थे।
गाड़ी खाली हुई तो कोने में भूरे रंग का एक कुत्ता निढाल पड़ा हुआ था।
भोंसले को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। अरे ये इतना साफ....यहाँ कैसे हो सकता
है। सावधानी से वो गाड़ी में चढ़ा। कुत्ता जख्मों से भरा हुआ था। भोंसले ने उसे
हाथों में उठा लिया। कुत्ते ने कोई विरोध नहीं किया।
...
वे सब लोग लौटकर दफ्तर आ गए। वार्ड आफिसर इन्तजार कर रहा था। भोंसले
बेहद डरा हुआ था। गोद में कुत्ता था। क्या
करे क्या न करे कुछ पता नहीं। उसने धीरे से कुत्ते को मेज पर रख दिया।
वार्ड आफिसर कुत्ते को देखकर फट पड़ा- ये किसने किया?
सब स्तब्ध।
- हू इज दैट बास्टर्ड।
भोंसले कहना चाहता था, साब
मैंने तो दूसरा पकड़ा था, पर जबान दांतों के अन्दर ही फंसी
रही।
- बोलते क्यों नहीं?
बाबू ने घिघियाते हुए कहा, सर....
भोंसले।
- कौन भोंसले?
- सर कैजुअल लेबर.... आवारा कुत्ते पकड़ने को भेजा
था।
- ये आवारा कुत्ता है?
कुत्ते पकड़ने भेजा था या मवालीगिरी करने। पकड़ा
ही नहीं मार भी दिया। इसे मारने गए थे तुम वार्ड में?
भोंसले ने बहुत जोर लगाया, पर
इतना ही कह पाया.... नहीं साब।
- नहीं साब के बच्चे,
दो टके के आवारा आदमी,
कुत्ते को भगाया उस पे हाथ उठाया,
मुझसे जबान लड़ाता है।
- नई....
- बास्टर्ड ! गेट आउट,
निकल जा यहां से। मेरी आंखों के सामने नहीं
पड़ना आज के बाद।
वार्ड आफिसर की ऊंची आवाज सुनकर भोंसले की सांस फूलने लगी। उसकी जीभ
ओठों के बाहर निकल आई। उसने उसे दांतों से भींच लिया और वह आफिसर की ओर झुका।
बोलने के लिए पूरा जोर लगा दिया -
साब मैंने नई किया, पता नई कैसे हो
गया। मेरे कू निकालो नई साब।
आफिसर ने भोंसले को अपनी ओर आते देख पीछे को धकिया दिया। भोंसले मेज
के नीचे लुढ़क गया। वह बड़बड़ाने लगा....मेरे कू मार लो पन निकालो नई....साब बोत गरीब
आदमी हूं....साब .... उसकी बड़बड़ाहट पतली और लम्बी होकर खिंचने लगी। भोंसले का सिर घूमने
लगा....बेसमेंट के खम्बों के गिर्द वो घबराया हुआ घूम रहा है। वो बहुत अकेला है और
चिल्ला रहा है.... उसकी आंखों में अन्धेरा छाने लगा।
वार्ड आफिसर ने कुत्ते को सहलाया और बाबू को कहा। वेटर्नरी डॉक्टर को
फोन करो। चपरासी को घुड़का, जाओ टैक्सी लेकर आओ। और उसने कुत्ते को गोद में
उठा लिया।
Thursday, September 18, 2014
मुक्तिबोध और हम
कागज पर पेंसिल से रेखांकन : मुदित |
अर्ध शती पर मुक्तिबोध को याद करते हुए
काल-प्रस्तर पर प्रहार मुक्तिबोध की छेनी से ही किया जा
सकता है
हमारा समय जिस तरह से विचारधारात्मक विसंगतियों का शिकार हुआ है; सूचना
क्रांति का विकराल और वाचाल घटाटोप हमें घेरे हुए है; व्यक्ति और लेखक दोनों स्तरों
पर मध्यवर्गीय जकड़बंदी अगम्य होती जा रही है, ऐसे त्रासद, उदासीन, स्वार्थ-नद्ध,
नित्य-प्रति बढ़ती बहुस्तरीय असमानता, और ऊपर से राष्ट्रवादी उभार के कठिन समय
में, मुक्तिबोध एक लाइटहाउस की तरह उपस्थित रहते हैं। एक तरफ मुक्तिबोध का प्रखर विचारधारापरक आग्रह, दूसरी
तरफ वैयक्तिक और सामूहिक अवचेतन के अवगाहन और संधान का गंभीर उपक्रम, और तीसरी तरफ
एकदम निजी संशय, उलझनें, वेदनाएं, उनसे उबरने की तड़फ, छटपटाहट एक ऐसा त्रिकोण
बनता है जो अंधेरे अरण्य में भले ही क्षीण किंतु अनबुझ किरण की तरह चमकता है। भरोसा
जगता है कि भले ही तमाम तरह के भटकाव हैं, शक्ति और अभिप्रेरणा को लकवा मार गया
है, फिर भी काल-प्रस्तर पर प्रहार मुक्तिबोध की छेनी से ही किया जा सकता है।
लेबल:
अंतर्नाद,
कवि बंधु,
काव्यक्षेत्रे,
मुक्तिबोध
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