Thursday, September 18, 2014

मुक्तिबोध और हम

                      कागज पर पेंसिल से रेखांकन : मुदित





अर्ध शती पर मुक्‍तिबोध को याद करते हुए 

काल-प्रस्‍तर पर प्रहार मुक्तिबोध की छेनी से ही किया जा सकता है

हमारा समय जिस तरह से विचारधारात्‍मक विसंगतियों का शिकार हुआ है; सूचना क्रांति का विकराल और वाचाल घटाटोप हमें घेरे हुए है; व्‍यक्ति और लेखक दोनों स्‍तरों पर मध्‍यवर्गीय जकड़बंदी अगम्‍य होती जा रही है, ऐसे त्रासद, उदासीन, स्‍वार्थ-नद्ध, नित्‍य-प्रति बढ़ती बहुस्‍तरीय असमानता, और ऊपर से राष्‍ट्रवादी उभार के कठिन समय में, मुक्तिबोध एक लाइटहाउस की तरह उपस्थित रहते हैं। एक तरफ  मुक्तिबोध का प्रखर विचारधारापरक आग्रह, दूसरी तरफ वैयक्तिक और सामूहिक अवचेतन के अवगाहन और संधान का गंभीर उपक्रम, और तीसरी तरफ एकदम निजी संशय, उलझनें, वेदनाएं, उनसे उबरने की तड़फ, छटपटाहट एक ऐसा त्रिकोण बनता है जो अंधेरे अरण्‍य में भले ही क्षीण किंतु अनबुझ किरण की तरह चमकता है। भरोसा जगता है कि भले ही तमाम तरह के भटकाव हैं, शक्ति और अभिप्रेरणा को लकवा मार गया है, फि‍र भी काल-प्रस्‍तर पर प्रहार मुक्तिबोध की छेनी से ही किया जा सकता है।      

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