Sunday, April 17, 2016

तर्पण

छायांकन: अरुधती


भृकुटियां तनी रहीं सोच की प्रत्‍यंचा पर सालों साल
फसल कटे खेतों के खूंटों पर चलना होता था

जब झुके कंधे तुम्‍हारे
खिलने लगीं करुण मुस्‍कान की कोमल कलियां
पराभव की प्रज्ञा में झुकी जातीं शस्‍य वनस्‍पतियां 
ओ पिता!

अभी उस दिन बटन बंद कॉलर में शर्मा जी
अपने में मगन बैठे आकर सामने सिर झुकाए
लगा बुदबुदाएंगे अभी गायत्री मंत्र ओंठ तुम्‍हारे
ओ पिता!!

एक समय तुमने कंधे पर उठाया
एक समय मैंने कंधे पर लटकाया
बीच के तमाम साल क्‍यों गूंजती रही
केवल प्रत्‍यंचा की टंकार
कितना ज्‍यादा खुद को माना
कितना कम तुमको जाना
             ओ पिता!!!

गेहूं

छायांकन: अरुधती

मुझे बोरी में मत भरो लोको
बाजार में लुटेरों सटोरियों के हाथ बिकने से बचा लो
खाए अघाए का कौर बनने को
सरकारी गोदामों में सड़ने को
मजबूर मत करो भाइयो

उससे अच्छा है खेत में ही खाद बन गलूं
ओ लोको बोरियों में मत भरो मुझे

कोई जांबाज बचा नहीं
बेजान की जान बचाए
बच जाए दाना
भूखे के मुंह दाना जाए

रोको लोको रोको
इस धर्मी कर्मी दुनिया में सरेआम
मौत को गले लगाता मारा जाता
मेरा जीवनदाता
              रोको लोको कोई रोको लोको 

रोजनामचा

छायांकन: अरुधती

मैं 365 दिन वही करता हूं जो
उसके अगले दिन करता हूं
मुझे मालूम है कि मैं 365 दिन वही करता हूं और
मुझे 365 दिन यही करना है
वही वही नई बार करता हूं
हर बार वही वही नई बार करता हूं
कई कई बार नई नई बार करता हूं
नए को हर बार की तरह
हर बार को नए की तरह करता हूं
वार को पखवाड़े पखवाड़े को महीने महीने को साल साल को दशक दशक को सम्वत् की तरह
सम्वत् को सांस की तरह भरता हूं
फांस की तरह गड़ता हूं सांस सांस
फांस फांस सांस फांस
न अखरता हूं न अटकता हूं
भटकने का तो यहां कोई सवाल ही नहीं
अजी यहां तो सवाल का ही कोई सवाल नहीं
उस तरह देखें तो यहां ऐसा कुछ नहीं
जो लाजवाब नहीं
, मेरे पास लाल रंग का कोई रुमाल नहीं
न मैं गोर्वाचोव हूं जिसने  फाड़ दिया था
न वो बच्चा हूं जिसके पास था
और कि जो 365 दिन की  रेल को रोक दे
कोई खटका नहीं झटका नहीं
कभी कहीं अटका नहीं
ऐसी बेजोड़ है 365 दिन की
अनंत सुमिरनी
घिस घिस के चमकती
कहीं कोई जोड़ नहीं
न सिर न सिरफिरा
बस गोल गोल फिरा फिरा मारा मारा फिरा
और फिर यहीं कहीं कहीं नहीं गिरा
गिरा गिरा गिरा