विष्णु खरे जी की यह बातचीत चिंतनदिशा के हाल के अंक में यानी 2019 अंत में छपी है। इसकी शुरुआती रिकॉर्डिंग 2012 में रमेश राजहंस के घर पर रात के खाने पर हुई। बातचीत करने के लिए पत्रिका से जुड़े हुए लेखक थे - हृदयेश मयंक, विनोद श्रीवास्तव, रमेश राजहंस, शैलेश सिंह। रिकॉर्ड करने की जिम्मेदारी मेरी थी। करीब दो घंटे चली बातचीत थोड़ी देर में ही पटड़ी से उतर गई। उसे कागज पर भी उतारा गया। खरे जी भी उससे असंतुष्ट थे। बाद में तय हुआ कि खरे जी को प्रश्न भेजे जाएं, वे उनके उत्तर लिख कर देंगे। प्रश्न बनाने और भेजने की जिम्मेदारी मुझे दी गई। वह प्रश्नावली इस बातचीत के संदर्भ के लिए दे रहा हूं। खरे जी चूंंकि सब जगह सतर्क और सक्रिय रहते थे, और मत भिन्नता होने पर भिड़ भी जाते थे, एक प्रश्न मैंने और भेजा। खरे जी ने इन प्रश्नों को मूल बातचीत के ढांचे में ही ढालकर उत्तर देने शुरू किए। सत्रह हस्तलिखित पृष्ठ मेरे पास ईमेल से आए। वही उत्तर पत्रिका में छपे और यहां दिए जा रहे हैं। इस प्रक्रिया के दौरान मेरी उनसे पुरस्कार आदि को लेकर शब्दिक मुठभेड़ भी हुई। वह भी खासी दिलचस्प है। अभी तो यह बातचीत पढ़ें।
अनूप सेठीः आपकी वह
पारिवारिक पार्श्वभूमि क्या है जिसकी वजह से आपका लेखन में आना संभव हुआ ?
विष्णु खरेः मेरे दादा या आजा (पिता के पिता) मुरलीधर खरे
मुलाजमत की तलाश में बुंदेलखंड के प्राचीन इलाके भांडेर के हरपा लपुर वगैरह होते
हुए मध्यप्रदेश (जो तब सेंट्रल प्रोविंसेज सी. पी. या मध्यप्रांत कहलाता था) के
छिंदवाड़ा जिले के सदर मकाम छिंदवाड़ा में आकर टिके। शुरू में शायद जिला अदालत में बाबू रहे होंगे क्योंकि
रिटायर होते होते नाजिर के अपेक्षाकृत बड़े ओहदे पर पहुंच चुके थे। जिला अदालत में
किसी अंग्रेज जज के तबादले का एक ग्रुप फोटो मेरे पास है जिसमें वे गोरे साहबों और
मेमों की कतार के ठीक पीछे साफा लगाए बैठे हुए हैं। उन्हें सारा शहर नाजिरजी कहता
था। यहां तक कि उनकी 1939 में अत्यंत असामयिक मृत्यु के बाद से अभी तक छिंदवाड़ा
में एकाध बुजुर्गवार ऐसे मिल जाते हैं जो मेरे पिता (1968 में दिवंगत) सुंदरलाल को
नाजिरजी का बेटा कहकर याद करते हैं या मुझे नाजिर जी का नाती संबोधित करते हैं। पोते की जगह नाती भी चलता है। नाजिर जी की
दिलचस्पी अभिनय और रामलीला में भी थी। वे छिंदवाड़ा के छोटा बाजार इलाके के प्रसिद्ध
राममंदिर के सामने होने वाली वार्षिक रामलीला के संस्थापकों में से थे। इतने अहम
कि कुछ वर्षों जब शायद दूसरे विश्व युद्ध की मंदी के कारण रामलीला बंद रही तो
उसका सारा सामान - धनुष-बाण, हनुमानजी की गदा, चारों रघुकुल भाइयों के मुकुट,
बंदरों, राक्षसों,
रावण आदि के मुखौटे सीताजी आदि के आभूषण, तलवारें आदि – हमारे घर में नीचे एक निस्बतन
बड़े कमरे में सुरक्षित बंद रहा और शायद 1952-53 में दोबारा रामलीला शुरू होने पर
ले जाया गया। नाजिरजी कभी-कभी उपयुक्त
अभिनेत्री न मिलने पर सीता का अभिनय करते भी सुने गए हैं। वे (नाजिर होने की वजह
से भी) उर्दू-फारसी खूब जानते थे और रामलीला के कारण तुलसी रामायण के कई अंश उन्हें
कंठस्थ थे। शायद या कवि होने के उनके कोई प्रमाण नहीं हैं।
मेरे पिता का जन्म (1917) छिंदवाड़ा
शहर का है सभी लोग कहते थे कि वह बहुत मेधावी थे-वर्ना1938 में नागपुर
विश्वविद्यालय से सेकंड डिवीजन में केमिस्ट्री, बॉटनी, जूऑल्जी में बी.एस.सी.कैसे
कर पाते। यह तो बताया जाता है, और कुछ मैंने बाद में देखा भी है, कि वे
डिबेटर थे,
क्रिकेट, हॉकी, बैडमिंटन के
खिलाड़ी थे, लेकिन इन
चीजों का, या कभी
अभिनय करने का, जिक्र
उन्होंने नहीं किया - उन्होंने आजीवन अपने
बारे में कोई जिक्र नहीं किया।पिता की अंग्रेजी और हिंदी लिखावट सहित बेहतरीन थीं,उर्दू भी
उन्होंने बचपन में पढ़ी थी। वह हिंदी में लिमरिक शैली में कविता कर लेते हैंयह
मुझे तब मालूम पड़ा जब वे द्वितीय विश्व युद्ध में बर्मा मोर्चे पर फौजी नौकरी से
छंटनी के बाद उस स्कूल में साइंस टीचर होने को बाध्य हुए जिसमें कभी वे पढ़े थे और
तब मैं पढ़ रहा था और उन्हें शायद उन्हीं के सुझाव पर निकली हस्तलिखित स्कूली
वार्षिक पत्रिका का अध्यापक - संपादक बनाया गया। मेरे बड़े भाई साहब और मेरा हस्तलेख
भी अच्छा था सो हम तीनों और अन्य कुछ छात्रों नेमिलकर पूरी पत्रिका को ‘लिखा’। उसी के
आसपास मुझे यह भी मालूम पड़ा कि बड़े भाई समस्या पूर्ति की और स्वतंत्र गीत और
उद्बोधन शैली की कविताएं लिखते हैं। पिता और भाई की तुकबंदियां मेरे लिए एक
हैरतअंगेज खोज थीं। मैं तब तक मिडल स्कूल स्तर का डिबेटर हो चुका था,निबंध
प्रतियोगी भी, किंतु कविता
लिखने की चुनौती मुझे परिवार के इन वरिष्ठों से ही मिली।
घर में नाजिर जी और
सुंदर लाल बीएससी को मिलाकर उर्दू, अंग्रेजी, हिंदी की
कानूनी किताबें सारे स्तरों और विषयों की पाठ्य-पुस्तकें, चैंबर्स की
सचित्र इंग्लिश-इंग्लिश डिक्शनरियां, ‘हातिमताई’, ‘किस्सा चार
दरवेश’, गुलबकवाली’, ‘तिलिस्मी
होशरुबा’, ‘पैरिस का कुबड़ा’, बहू-बेटी
बालोचित कहानी-संग्रह और उपन्यास, ‘कल्याण’, ‘चाँद’, ‘माधुरी’, ‘बाल सखा’, ‘माया’, ‘मनोहर
कहानियां’, प्रभूलाल
गर्ग काका हाथरसी का ‘संगीत’, ‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘श्रीमद्
भागवत’ आदि घर में
कहीं न कहीं पड़े रहते। छिंदवाड़ा में हिंदी प्रचारिणी सभा नामक संस्था का एक
हिंदी अंग्रेजी पुस्तकालय था- आज भी दोनों हैं लेकिन दुर्दशा और कुपात्रों की
शिकार हैं और - उसने मुझे वह बनाने में जो मैं आज हूं वह भूमिका निभाई है जिस पर
एक लंबा निबंध या संस्मरण लिखा जा सकता है।
विष्णु खरे का हस्तलेख |
अनूप सेठी: लेकिन यह तो
कह लें, बचपन की बात
हुई। उसके बाद?
विष्णु खरे: 1954-55 में जब
मध्यप्रदेश के स्कूलों में ‘हायर सेकेंडरी’ या कथित ‘मल्टीपरपज’ शिक्षा को
लागू किया जाना था और कुछ वरिष्ठ अध्यापकों को, जिनमें मेरे
पिता भी थे, लैक्चरर के
नाम से पदोन्नति दी गई, तो ऐसे शिक्षकों के तबादलों का एक सिलसिला
चला जिसकी लपेट में अपने जन्म-स्थान छिंदवाड़ा में चैन मास्टरी कर रहे मेरे पिता
के एकसाल में या शायद अठारह महीनों में चार ट्रांसफर हुए, पिपरिया, बैतूल, खंडवा और
अंबिकापुर। पहले तीन अहेतुक थे, चौथे के लिए मेरे पिता का ज्वालामुखी स्वभाव
जिम्मेदार था। बहरहाल चूंकि खंडवा में मैं स्कूल के अंतिम वर्ष में था वहां आगे की
पढ़ाई के लिए कॉलेज भी था, इसलिए मैं बारह तेरह सौ किलोमीटर दूर
तत्कालीन छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के उस सदर मुकाम नहीं गया। यह फैसला कई दृष्टियों
से मेरे लिए जीवन-परिवर्तनकारी रहा। एक तो यही कि मैं खंडवा रहकर ही ‘लेखक’ या ‘कवि’ बना, विशेषत:1956-57 के अपने
अंतिम स्कूली वर्ष में। उस ग्यारहवीं कक्षा में ‘गवर्नमेंट
मल्टीपरपज हाई सेकेंडरी स्कूल’ जैसे भारी भरकम नाम किंतु वाकई उसके लायक
प्रतिष्ठा वाले मदरसे के प्रिंसिपल ज. प्र. या जगन्नाथ प्रसाद चौबे थे जो अंग्रेजी
के एम. ए. थे, बढ़िया
शिक्षक थे, किंतु हिंदी
में ‘वनमाली’ उपनाम से
कहानियां लिखते थे। (1912 में जन्मे, यह उनका
जन्म शती वर्ष है) चौबे जी प्रेमचंद और जैनेंद्र जैसों के कनिष्ठ समकालीन थे। जब
उन्हें मालूम पड़ा कि मैं लिखने की कोशिशें कर रहा हूं तो उन्होंने बुलाया और
पूछताछ की। मैंने बताया कि कविता कहानी का अभ्यास करता हूं। सो उन्होंने मुझे लगभग
नियमित अपने निवास आने की आजादी दे दी। वे बहुत जागरूक ढंग से, तराशी हुई
रोजमर्रा की भाषा और ग्राह्य शैली में नफीस कहानियां लिखते थे। उन्होंने खुद अपने
पर स्तर की ऐसी शर्तें आयद कर रखी थीं कि बहुत कम लिखते थे, यद्यपि वे
कहीं भी छप सकते थे। तब उनका एक ही संकलन आया था किंतु अब मेधा प्रकाशन से शायद उनकी
सारी उपलब्ध कहानियां एक जिल्द में आ गई हैं। गल्पकार शिक्षाविद् संतोष चौबे
उन्हीं के एकमात्र पुत्र और शायद सातबेटियों के बाद अंतिम संतान हैं। शायद इसीलिए
वनमाली ने उनका नाम ‘संतोष’ रखा - उनमें
अपना परिहास कर लेने तक की ‘सैंस और ह्यूमर’ थी। तकनीकी
रूप से मैंने संतोष को गोद में खिलाया है। बहरहाल चौबे जी ने मेरे साथ बराबरी का, लगभग समवयस्क, व्यवहार
किया। मुझे उन्हें अपनी ‘रचनाएं’ दिखाने में
संकोच होता था लेकिन वे अपनी नई-पुरानी कहानियां मुझे पढ़ने देते थे और संसार का
कोई सैक्स, स्त्री-पुरुष
संबंध सहित, विषय ऐसा न
था जिस पर वे मुझसे एक स्वाभाविक खुलेपन से बात न करते हों। तब मैंने एक कविता
लिखी जिसे नागपुर से प्रकाशित साप्ताहिक ‘सारथी’ में भेजा
जिसके संस्थापक प्रकाशक संपादक कथित लौह पुरुष द्वारिका प्रसाद मिश्र थे, जो उस समय
रविशंकर शुक्ल और जवाहरलाल नेहरू से बगावत किए हुए थे। मुक्तिबोध, जो उन दिनों
नागपुर में थे, सारथी के
बेनामी साहित्य संपादक थे क्योंकि वे सरकारी मुलाजिम थे और पत्रकारिता, विशेषत: एक
विद्रोही कांग्रेसी के लिए, नहीं कर सकते थे। ‘‘मौत और उसके
बाद’’(उसका यह
शीर्षक ही उसके बारे में सब कुछ बता देने के लिए काफी है) सारथी के 3 फरवरी 1957 अंक में मेरे
पूरे नाम उपनाम विष्णु कांत खरे ‘‘शैलेश’’ (यह भी
तत्कालीन मेरे विषय में बहुत कुछ कह देता है) से छपी मेरी
पहली प्रकाशित कविता है और अब कात्यायनी के परिकल्पना प्रकाशन द्वारा शाया मेरे
पिछले संग्रह ‘पाठांतर’ में एक ‘क्यूरियो’ की मानिंद
शामिल है। यह ब्योरा इसलिए दिया गया है कि हिंदी के कुछ ‘वरिष्ठ’ कवि अपनी
किसी पहली रचना को 13-14 आदि की उम्र में लिखे जाने का दावा तो करते
हैं, छपा प्रमाण
नहीं दे पाते। इस तरह के ‘प्रि डेटिंग’ के धंधे
बहुत चले हैं। सारथी का उपरोक्त अंक सप्रे संग्रहालय, भोपाल में
सर्वजन हिताय उपलब्ध है।
उसके बाद एक अद्भुत
घटना घटी। मैंने अपने जीवन की पहली व्यंग कथा लिखी। वह खंडवा के प्रसिद्धतम
कांग्रेसी नेता भगवंतराव मंडलोई पर थी जो उस समय मंत्री थे, शायद राजस्व
के। बाद में व प्रदेश के मुख्यमंत्री भी हुए। उनके और उनके निकटवर्तियों के कारनामे सबको मालूम थे। कांग्रेसी
भ्रष्टाचार आजादी से पहले से लेकर अब तक उग्रतर ही होता गया है; हमारी
राजनीति और हमारा देश कभी भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं रहे। बहरहाल, उस व्यंग
कथा का खुलासा (हिंदी के अधिकांश जाहिल उर्दू के इस शब्द का अर्थ उद्घाटन समझते
हैं जबकि है वह सार संक्षेप) यह है कि लेखक को बाजार जाते समय एक घूरे पर भूल से
फेंकी गई एक मिनिस्टर की डायरी मिलती है जिसमें उसने अपने रोजमर्रा कार्य-कलाप को दर्ज
कर रखा है। वह सारथी में छप गई। मेरे पास कोई लिखित प्रमाण नहीं है कि मुक्तिबोध
के अवलोकन-अनुमोदन के बाद या किसी और के। अंक के खंडवा पहुंचने के बाद मुझे चौबे
जी का बुलावा आया - वे मेरे पिता से पांचवर्ष बड़े थे। पीतल की पतली कमानी के
फ्रेम वाले चश्मे के पीछे उनकी आंखें नाच रही थीं और चेहरे पर एक नकली
गांभीर्य और क्रोध था। बोलेयह क्या लिख मारा भाई तुमने! सारे शहर
में तहकीकात की गई है। मालूम पड़ चुका है कि मेरे स्कूल के एक लड़के ने यह लिखा है।
खुदमंडलोई जी ने मुझे बुलाकर फटकारा है कि तुम ऐसे छात्रों का निर्माण कर रहे हो, उससे कहो कि
ऐसा लिखना बंद करें वर्ना तुम ही से उसे ‘रेस्टीकेट’ करवाउंगा।
जब मैंने कहा कि आप ही कहते हैं कि लिखना तो डरना मत, तो चौबे जी
से तब तक रोकी गई हंसी फूट पड़ी। बोले, भैया ऐसा लिखने के
बारे में नहीं कहा था, जैनेंद्र जी जैसे लेखन के बारे में कहा था। खैर, इस बार तो
मैं संभाल लूंगा लेकिन अगली बार ऐसा कुछ किया तो अपन दोनों मुश्किल में पड़ेंगे।
तुम जब तीन चार महीने बाद कॉलेज चले जाओ तो वहां से ऐसा लेखन दिया करो। लेकिन याद
रखना, वहां सारे
मंडलोई जी के आदमी गवर्निंग बॉडी में हैं।
रमेश राजहंस (दाएं से पहले) के घर पर, शैलेश सिंह, हृदयेश मयंक, विनोद श्रीवास्तव और विष्णु खरे |
लेकिन वह कहानी खत्म
नहीं हुई। मंत्री महोदय के निकटस्थ तत्वों ने सारथी पर दबाव डालकर ‘घूरे की दौलत’ उस व्यंग्य
कथा पर एक भर्त्सनापरक पत्र अगले अंक में छपवा लिया और उसके साथ संपादक की क्षमा
याचना जैसी शर्मिंदगी भी। मेरे लिए यह एक सदमा था। लेकिन अगले हीअंक में फिर मेरी
एक कहानी छाप दी गई और उसके बाद भी मेरी कुछ और रचनाएं -शायद संपादकों की ओर से यह
संकेत था कि वह चिट्ठीबाजी एक नाटक थी और तुम बेधड़क लिखते रहो। जो भी हो, इस
प्रारंभिक सबक से ही मैं समझ गया कि हिंदी में
निर्भय लिखने के कितने स्तरों पर क्या (दुष्)परिणाम हो सकते हैं। सारथी की इस
घटना ने मुझे मेरे लेखन में हमेशा अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने और मठ तोड़ने की
प्रेरणा दी है -उससे कहीं बड़े हादसे मुझ पर गुजरे हैं। वनमाली जी का मित्र पितृ वत्नैतिक
समर्थन भी इसीलिए अविस्मरणीय है।
अनूप सेठी: तो आपने एक
कविता और व्यंग कथा से शुरुआत की और उसके बाद बाकायदा कहानी लिखी?
विष्णु खरे: कहानियां
मैंने 1962
तक
लिखीं। सन बासठ
की
शायद ‘फालतू’ शीर्षक
कहानी मेरी अब तक की अंतिम कहानी है जो मनोरमा में छपी थी। 1958-59 में मेरी दो
कहानियां भैरव प्रसाद गुप्त जी के संपादन में श्रीपत राय द्वारा प्रकाशित संपादित
कहानी मासिक‘कहानी’ में
प्रकाशित हुई। उनका अलग-अलग पारिश्रमिक शायद 25-30 रुपएआया था। 30 रूपए में
मैं खंडवा के मारवाड़ी भोजनालय में महीने भर दो वक्त खाना खाता था। दूसरी कहानी के
परिश्रमिक में जब देर हुई तो मेरी चिट्ठी के उत्तर में भैरवजी का पत्र आया कि भाई
मालिक (श्रीपतजी) गर्मियों में पहाड़ पर हैं, जब लौटेंगे
तब आपका पैसा भेजा जाएगा। उस जमाने की ‘कहानी’ पत्रिका की
कल्पना आज का कोई अधेड़ या युवा लेखक कर नहीं सकता। शायद 40-50 हजार प्रतियां
छपती थीं। ‘कहानी’ में सारी
भारतीय भाषाओं की (और विदेशी) कहानियां भी आती थीं और उसमें प्रकाशित होने का मतलब
अखिल भारतीय ख्याति होता था। छपते ही देश के कोने-कोने से पत्र आते थे,अनेक तो
संपादकों के कि हमें तत्काल कहानी भेजिए। भैरव- श्रीपत संपादकीय में लिखते थे इन
युवा लेखकों को पत्र लिखकर प्रोत्साहित कीजिए। छपते ही कहानी के अनुवाद दो तीन
भाषाओं में अगले ही महीने हो जाते थे। मुझ सरीखे अनहोनहार
कहानीकार की 1958
की
कहानी ‘भिखमंगे’ के उर्दू और गुजराती
अनुवाद तीन महीने में छप गए, वह रेडियो इंदौर से प्रसारित भी हो गई। ‘कहानी’ के दो विशेषांकों
पर हिंदी नई कहानी का इतिहास टिका हुआ है - वैसा काम ‘नई कहानियां’, ‘सारिका’ और वर्तमान ‘हंस’ तीनों मिलकर
नहीं कर पाए हैं। ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह
उस समय या तो थे ही नहीं या सुगबुगा रहे थे लेकिन मार्कंडेय, अमरकांत, शेखर जोशी, कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेंद्र
यादव, रांगेय राघव, निर्मल
वर्मा, रामकुमार, रेणु, विष्णु
प्रभाकर, मन्नू
भंडारी, उषा
प्रियंवदा आदि पहली बार या प्रमुखता से ‘कहानी’ में ही छपे
हैं। नामवर सिंह को (कहानी का) आलोचक ‘कहानी’ ने ही बनाया।
उसमें महत्वपूर्ण कहानीकार और आलोचक संपादक के नाम पत्र लिखते थे। यूं कहानी के
क्षेत्र में ‘माया’ ने भी
ऐतिहासिक योगदान दिया किंतु यदि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की सौ उल्लेख्य कहानियों का
संकलन बनाया जाए तो शायद आधी से ज्यादा ‘कहानी’ में
प्रकाशित निकलेंगी। श्रीपतजी के सरस्वती प्रेस ने ही ‘उपन्यास’ नामक पूरे
उपन्यासों की पत्रिका भी निकाली।
हमारे घर पर विष्णु खरे और विजय कुमार, सन 2004 |
रमेश राजहंस: उस समय के
संपादकों के बरक्स आज के संपादकों को कैसा पाते हैं?
विष्णु खरे: क्षमा करें, संपादक यहां
भी बैठे हुए हैं किंतु बातें यदि हो तो साफ-साफ हों। मैं इतना प्राचीन नहीं की ‘चांद’, ‘माधुरी’, ‘सरस्वती’ (प्रेमचंद
के) ‘हंस’ आदि के
जमाने की बात कर सकूं। हां, उन पत्रिकाओं के काफी अंकों को देखा अवश्य है।
1950-60 के आस-पास
की जिन पत्रिकाओं को देखा है उनमें ‘कल्पना’, ‘ज्ञानोदय’, ‘प्रतीक’, ‘पाटल’, ‘नई कहानियां’, ‘सारिका’ (पुरानी), ‘वसुधा’, ‘माध्यम’, ‘नई कविता’, ‘आधुनिक
कहानियां’,
‘लहर’ आदि हैं।
इनमें शायद ‘आधुनिक
कहानियां’ को छोड़कर
सभी ने यहां तक कि 1953 तक की ‘माया’ और ‘मनोहर
कहानियां’ ने भी, संपादन और
शुद्ध मुद्रण के मानदंड स्थापित किए। ‘प्रतीक’ के छ: अंक
ही निकले किंतु अज्ञेय वाले संपादक-मंडल ने अपने रचना-चयन, लेखों, सिने-समीक्षा
आदि साहित्यिक पत्रकारिता के हर विभाग में स्पृहणीय मानदंड स्थापित किए। ‘कल्पना’, प्रारंभिक ‘ज्ञानोदय’,‘कृति’ आदि में
छपना जितने गौरव का विषय था उतना कठिन भी था। आज के अधिकांश कथित संपादक उन
पत्रिकाओं के संपादकों के मुकाबले बुद्धिहीन, अयोग्य, उचक्के और
माफिओसी लगते हैं। मैं समझता हूं कि ‘सरस्वती’ से लेकर 1970-80 की अधिकांश
महत्वपूर्ण पत्रिकाएं बहुत उत्तरदायित्व, ज्ञान, जानकारी, जागरूकता, आत्मसम्मान, एक न्यूनतम
नैतिकता, भाषा पर एक
पैनी, निर्मम
निगाह के साथ संपादित की जाती थीं। पत्रिकाएं निकाली भी कैसे नामों ने -सुमित्रानंदन
पंत, धर्मवीर भारती, उपेंद्र नाथ अश्क, भैरव प्रसाद गुप्त, श्रीपत राय, बद्री
विशाल पित्ति, (प्रकाशक) शरद देवड़ा, लक्ष्मीचंद्र जैन, जगदीश, रमेश बक्षी,
श्रीकांत वर्मा, नरेश मेहता, जगदीश गुप्त, विजय देवनारायण साही, बालकृष्ण राव,
श्रीराम वर्मा, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, कमलेश्वर, मनोहर श्याम
जोशी, नलिन विलोचन
शर्मा,
कुंवरनारायण, शमशेर
बहादुर सिंह आदि ने। इनके संपादन में आंदोलन, लेखक, पुस्तकें और
नए विचार स्थापित हुए। आज ‘वागर्थ’ एक संपादक-
मुखापेक्षी गिरगिट हो चुका है - हर नए संपादक के साथ उसका सब कुछ बदल जाता है, सिर्फ
प्रकाशक-मालकिन की जूतीपरस्ती नहीं बदलती। ‘ज्ञानोदय’ सफल है
किंतु एक घटिया संपादक के मैंनिप्यूलेशंस से। गांधी विश्वविद्यालय, वर्धा की
सारी पत्रिकाएं उनके संपादकों के दिमागों सहित कूड़ेदानों से मिलती-जुलती हैं। हरिनारायण
‘कथादेश’ का कोई
जागरूक संपादन नहीं करते, जो साली सामग्री आ गई, छाप दी।
कथित छोटी पत्रिकाओं में से अधिकांश इतनी घटिया हैं, स्वयं को
वामपंथी कहने वाली सहित, कि उनका नामोल्लेख भी उन्हें आदर देना होगा।
विज्ञापन-दरें इतनी ऊंची हो चुकी हैं और कुछ संस्थाएं और सरकारें गुणवत्ता की
नितांत उपेक्षा कर, दो-दो कौड़ी की पत्रिकाओं को हजारों के
विज्ञापन दे रही हैं और यह एक बड़े फायदे का धंधा बन चुका है। सुना है कुछ परिवार (वहां
तक तो ठीक है) और कुछ गाड़ियां (यह कुछ गड़बड़ है) उसी पर चल रहे हैं। इस देश में
सदाशय से सदाशय, विराटतकम से
लघुतम सरकारी योजना को भ्रष्ट होते-करते देर नहीं लगती। कई मित्र मुझे ‘तद्भव’ के
विज्ञापनों को लाखों में बताते हैं किंतु मैं कहता हूं कि पत्रिका तो सर्वोत्तम वही
है। आनुपातिक रूप से यह क्यों नहीं पूछा जाता कि अपेक्षाकृत छोटी पत्रिकाएं इतनी
घटिया क्यों निकल रही हैं? दरअसल आगे के संपादकों पर अपनी ही
मीडियोक्रिटी, मित्र-मंडली, समान- धर्मा
लेखक-दलों-गुटों से एकात्मता,ओछी महत्वाकांक्षा,
सर्वस्वीकृति की लिप्सा आदि इतनी छाई हुई हैं कि वे प्राप्त घटिया सामग्री को बहुत
कम अस्वीकार कर पाते हैं। मुंबई से वर्षों से एक भी स्तरीय साहित्यिक पत्रिका के न
निकल पाने के यही कारण हैं।
शैलेश सिंह: क्या प्रतीक
में इतर कलाओं का प्रतिनिधित्व होता था?
विष्णु खरे: बाकायदा।
पेंटिंग छपी हैं। कलाओं पर लेख, टिप्पणियां आदि हैं। पुरातत्व भी शायद अछूता
नहीं है। फिल्म समीक्षाएं हैं। एक जमाने में अमृतराय फिल्म-रिव्यू भी लिखते थे।
अपने अंतिम वर्षों में ‘कहानी’ ने हर अंक
में एक विश्वविख्यात कलाकृति को मुखपृष्ठ पर छापा और भीतर उसका संक्षिप्त परिचय भी
दिया। गड़बड़ी महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल से
लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर सिंह तकने की है।चूंकि ये दूसरी कलाओं को
जाना नहीं चाहते थे इसलिए इन्होंने कलाओं के अंतर्संबंधों को कभी छुआ-देखा ही नहीं।
साहित्य तक को एक प्रैक्टिसिंग, क्रिएटिव आर्ट के रूप में विश्वविद्यालयों
में स्थापित करने के लिए कुछ नहीं किया।‘सृजनात्मक लेखन’ जैसे विभाग
खोलना तो इनके सीमित, संकुचित दिमागों से बहुत बाहर की बात थी, अपने
समसामयिक लेखकों को विद्यार्थियों से इंटरेक्ट करने, उनके बीच रचना-पाठ
करने तक के लिए नहीं बुलाया - अमेरिकी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में 50 वर्षों से
क्रिएटिव राइटिंग विभाग और पीठ हैं, हमारे यहां कहीं नहीं।
विजय कुमार जी के नवी मुंबई आवास के टैरेस पर बाएं से मैंं (अनूप सेठी), विजय कुमार और विष्णु खरे, सन 2003 |
शैलेश सिंह: पत्रिकाओं
में जो अवेयरनैस आपको 1950-60 में दिखता है वह आपके
अनुसार 1980
तक
अपने पतन की ओर कैसे चला जाता है? क्या मूल्य बदल जाते हैं, जीवन-बोध बदल जाता
है?
विष्णु खरे: यह प्रश्न
जटिल है और इसका संबंध सिर्फ पत्रिकाओं से नहीं है। विडंबना यह है कि गुलाम होते
हुए भी हम 1947
तक
शेष, विशेषत:
पाश्चात्य, विश्व से
कहीं अधिक जुड़े हुए थे लेकिन आजादी की हमारी आकांक्षा में उससे मुक्ति के साथ-साथ
हमारी बौद्धिक होड़ भी शामिल थी। गुणवत्ता का एक एहसास, अवेयरनैस था।
आप देखें उस जमाने में सारे महानगरों के विश्वविद्यालयों, यहां तक कि
इलाहाबाद, आगरा,नागपुर जैसे
शहरों की यूनिवर्सिटियों पर भी हमें कितना जायज नाज था। यही देख
लीजिए कि 1947
तक
जो हमने नोबेल पुरस्कार प्राप्त किए वे उसके बाद कहां गए? आजादी के
पहले तक हमने पश्चिम के कई गुण भय, डिसिप्लिन और प्रतियोगी भावना के तहत लिए।
विश्व स्तर पर हमें कुछ कर दिखाना है इस भावना के प्रतीक और प्रेरणा स्रोत
जवाहरलाल नेहरू थे। 1964में उनकी मृत्यु और 1967 तक इंदिरा
गांधी के प्रादुर्भाव का सीधा परिणाम गुणवत्ता और उसे हासिल करने के आदर्शों पर
पड़ा। ‘एक्सीलेंस’ में किसी को
भरोसा न रहा। हिंदी पट्टी में
यह पतन सबसे ज्यादा हुआ। हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के स्तर में उत्तरोत्तर ह्रास
हुआ जो अब तक
तीव्रतर होता जा रहा है। नामवर-नगेंद्र-केदारनाथ सिंह को अखिल भारतीय स्तर पर जाना
तो जाता था। और भी कुछ प्राध्यापक थे। लेकिन आज अधिकांश विश्वविद्यालयों के हिंदी
प्राध्यापकों को न तो कोई जानता है ना जानना चाहता है - दिल्ली स्थित किसी वर्तमान
प्रोफेसर की प्रोफाइल क्या विश्वनाथ त्रिपाठी, नित्यानंद
तिवारी या दिवंगत देवीशंकर अवस्थी के नजदीक भी फटक पाती है? किन्ही भी
मानदंडों की कोई मांग, चिंता या कद्र नहीं की जा रही है। ऐसे माहौल
में साहित्यिक संपादकी का पतन होना ही था। सभी जानते हैं कि जब हिंदी में एम. ए. और
पीएच.डी. का पतन होगा, और पिछले पचास वर्षों से मैं वही देख रहा हूं, तो यदि कोई
प्रतिभावान लेखक या आलोचक संपादक ही न हो तो पत्रिकाओं का संपादन भी घटिया होगा।
यह मान लिया गया है कि पांडुलिपि की सारी जिम्मेदारी लेखक की है, संपादक को
यथासंभव उसके प्रूफ भी पढ़े-पढ़वाए बिना छपा देना भर है। गुणवत्ता पर न कोई
नियंत्रण है न कोई रखना चाहता है। 1965-70 के लघु-पत्रिका
भेड़ियाधसान युग में भी ऐसी फूहड़ संपादकी नहीं थी। आज के अधिकांश संपादक
प्रूफरीडर होने लायक भी नहीं हैं।
शैलेश सिंह: अन्य भारतीय
भाषाओं से अनुवाद मुख्यतः साहित्य अकादेमी की पत्रिका ‘समकालीन
भारतीय साहित्य’ में पढ़ने
को मिलते हैं। शेष हिंदी पत्रिकाओं में ऐसा क्यों नहीं हो पाता?
विष्णु खरे: देखिए, अकादेमी की
वह पत्रिका ऐसे अनुवादों को ही समर्पित (डेडीकेटेड) है। उसका यह घोषित कर्तव्य है
और श्लाघ्य है। किंतु शानी और गिरधर राठी के बाद उसे कोई काबिल संपादक नहीं मिला
-उसका फॉर्मेट अभी भी इन दो प्रारंभिक संपादकों की देन है। लेकिन वहां भी रोना यह
है कि अन्य भारतीय भाषाओं से हिंदी में अच्छे अनुवादक लगातार कम हो रहे हैं। जब शानी संपादक थे तब
मैं अकादेमी में प्रकाशन तथा पुरस्कार का प्रभारी उप-सचिव था। मैंने देखा है कि शानी
को आए हुए अनुवाद ओं पर कितनी मिहनत करनी पड़ती थी - वे लगातार हर अंक में रुआंसे
हो जाते थे। वही दुर्दशा गिरधर राठी की होती थी। ऐसे काम बहुत कसाले के होते हैं।
फिर चूंकि अकादेमी ने अनेक भाषाएं स्वीकृत कर रखी हैं तोउनका दबाव लगातार रहता है
कि इतने अंकों से हमारे साहित्य से अनुवाद नहीं छपे। सो घटिया मूल के घटिया अनुवाद
छापने ही पढ़ते हैं, क्योंकि फलाँ अंक में अमुक भाषाओं का नंबर है।
हिंदी में विडंबना यह आ गई है कि अब उसके अपने लेखक इतने हो गए हैं कि अन्य भाषाओं
के लिए गुंजाइश कहां से निकले और इसी कारण 1980-90 तक हम जिन
अन्य भाषाओं के लेखकों को जानते थे उसके बाद की पीढ़ियों
से हम अपरिचित हैं। अब तो बांग्ला से भी कितने कम अनुवाद हो रहे हैं। मराठी की
हालत अपेक्षाकृत अच्छी है लेकिन अन्य भाषाओं से हमारी दूरी बढ़ती जा रही है और
हमें इसका मलाल भी होता नहीं दिखता। आप यह भी देखिए कि समसामयिक सारे भारतीय
साहित्य के समग्र आलोचना सिद्धांतों पर हमारे यहां कोई भी एक ‘यूनिफाइंग’ ग्रंथ नहीं
है।
रमेश राजहंस:
1960 के
दशक तक आप कहते हैं अच्छे लेखक भी थे और वे स्वयं या उनसे स्वतंत्र अच्छे संपादक
भी थे। आज ऐसा क्यों नहीं है?
विष्णु खरे : बात उसी ‘मिशनरी जील’ की है जो
गांधी-नेहरू युग में राजनीतिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता को लेकर था।
सोचिए कि राममोहन राय से लेकर बीसवीं सदी तक हमने कितनी महान प्रतिभाएं पैदा कीं।
साहित्य में किसी भी बड़े हिंदी साहित्यकार को पत्रिका निकालने से गुरेज न हुआ
बल्कि उसने इसे अपना कर्तव्य, अपना धर्म समझा। लेकिन जब स्वतंत्रता-प्राप्ति
का बड़ा अजेंडा हासिल कर लिया गया तो शेष सब सबआल्टर्न हो गया। प्रतिष्ठित लेखकों
ने पत्रिका निकालते रहने को शायद इंफ्रा डिम समझ लिया। ‘अज्ञेय’ की संपादन
प्रतिभा भी चुक गई, ‘नया प्रतीक’ कितने
शर्मनाक ढंग से स्तरहीन निकला। यह भी है कि यदि 1966 में मैं वयम्
पत्रिका की 1000
प्रतियां
150-200
रुपए
में निकाल लेता था, यद्यपि तब भी वह मेरे आधे महीने की तनख्वाह
थी, लेकिन आज डैस्कटॉप
पब्लिशिंग के युग में भी वह खर्च हजारों रुपयों तक पहुंचेगा, क्योंकि
कागज, स्टिचिंग, कवर और डाक
या कूरियर की लागतें गगनचुंबी हो गई हैं। यदि हिंदी में अच्छे लेखक हैं तो वे या
तो मैगजीन प्रोडक्शन जानते नहीं, जान सकते नहीं, या जानना
चाहते नहीं क्योंकि यह भी है कि अधिकांश कथित संपादकों ने संपादकी और पत्रिका
प्रकाशन को कई किस्म की सौदेबाजी और दुकानदारी में बदल दिया है। संपादकी आज एक
मतिमंद धूर्तों की महत्वाकांक्षा बन गई है। वैसे पत्रिका-प्रकाशन को इंटरनेट और
ब्लॉग-फेसबुक-टि्वटर ने भी सतही तौर पर ‘सुपरफ्लुअस’कर दिया है -
एक ऐसा जनतंत्रीकरण हुआ है जिसमें अनपढ़, फूहड़, उचक्के, उठाईगीर भी
वर्ल्ड वाइड वैब पर हैं और सुसंयत, गंभीर, प्रतिभावान
लेखक भी। बुरे और अच्छे दोनों किस्म के लोगों पर एक ‘काता और ले
दौड़े’ वाली
मानसिकता तारी है - किसी चीज पर कोई लंबा काम करने को राजी नहीं है, पुनर्विचार
और संशोधन का कोई प्रश्न नहीं है, जो कुछ भी अभी मूल लिखा है उसे शाम तक ब्लॉक
या फेसबुक पर चढ़ा दो, इसमें बहुत-सारी आत्म-रति, सेक्सुएलिटी, होमो-इरॉटिक
तत्व, अनाचार और
अहो रूपम् अहो ध्वनि शामिल हैं। हिंदी साहित्य पर विदेशी प्रभाव के सही-गलत आरोप
निराला के मुक्त-छंद युग से लगाए जा रहे हैं किंतु आज की युवा और अधेड़ पीढ़ी
इंटरनैट की वजह से जितने विदेशी लेखकों को दैनिक आधार पर पढ़ रही है, उनसे असर ले
रही है, उनके ‘अनक्रिटिकल’, अंधाधुंध अधपचे
अनुवाद ब्लॉगों पर उगल रही है उनसे हिंदी साहित्य का नफा कम नुकसान ज्यादा होता
दिखाई दे रहा है। मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि मेरे पास 1993 से फैक्स
मशीन थी,1997
से
डायल अप इंटरनैट वाला (तब 128 एमबी रैम का) नेहरू प्लेस का 42000 रुपयेवाला
कंप्यूटर था, जिसका
परिवार अब बदलते-बढ़ते डैस्कटॉप, तीन लैपटॉप, एक
ब्रॉडबैंड और एक डोकोमो कनेक्शन तथा एच.पी. के प्रिंटर-कॉपियर-स्कैनर में
बदल चुका है। कभी रखने की इच्छा है लेकिन आज मेरा कोई ब्लॉग नहीं है, अलबत्ता
इनबॉक्स-आउटबॉक्स में कोई 8000 पत्र अंग्रेजी-हिंदी में हैं। और
सैकड़ों डाउनलोडेड लेख, पत्रिकाएं आदि होंगी। मतलब यह है कि नैट से
मुझे न भय है ना नफरत। ऐसा नहीं है कि हिंदी में पत्रिकाएं (जाल पत्रिकाएं) नहीं
हैं लेकिन उनमें से वाकई पठनीय शायद पांच भी नहीं हैं। पश्चिम में स्तरीय नैटजींस
बहुत हैं,
कुछ
तो सिर्फ एक व्यक्तीय हैं, किंतु वे लगभग वहीं की मुद्रित पत्रिकाओं के
स्तर की हैं। लेकिन नैट के लगातार बिग बैंग और एक्सपैंडिंग यूनिवर्स के बावजूद
वहां उम्दा पत्रिकाएं बंद नहीं हो रही बल्कि बढ़ रही हैं,और सिर्फ
साहित्य की नहीं, मानविकी के हर विषय की। आज हिंदी में साहित्य
की अधिकांश पत्रिकाएं कूड़ेदान के लायक हैं और समाज-शास्त्र, अर्थशास्त्र, दर्शन, मनोविज्ञान, भूगोल, इतिहास, संगीत, नृत्य, चित्रकला, पुरातत्व, सिनेमा, फोटोग्राफी
आदि की एक पत्रिका नहीं है। आज यूरोप की किसी पुस्तक की दुकान में घुसिए और
ग्राउंड फ्लोर पर ही उसका पत्रिका विभाग देख लीजिए। आपका दिल करेगा कि आत्महत्या
किए बिना बाहर ही ना आएं।
अमेरिका से निकलने
वाली साहित्यिक पत्रिकाओं में शायद 40 प्रतिशत विश्वविद्यालयों
से निकलती होंगी। हर प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी की एक पत्रिका तो है ही। सभी तरह के
नाम गिनाना इसलिए बेकार है कि वे सौ से भी अधिक होंगी -लिटिल मैगजींस’ मिलाकर तो
आंकड़ा शायद एक हजार तक पहुंच जाए। अमेरिका, कनाडा, दक्षिण
अमेरिका, यूरोप आदि
में एक अघोषित सर्वसम्मति है कि साहित्य का और साहित्यिक पत्रिकाओं का एक न्यूनतम
वांछनीय स्तर क्या होता है और होना चाहिए। व्यावहारिक आलोचना या पुस्तक-समीक्षा
वहां सैकड़ों वर्ष पुरानी है। वही हाल साहित्यिक अनुवादों का है। हमारे यहां जब
स्वयं भगवान शंकर तुलसी रामायण का दैवीय अनुमोदन कर रहे
थे तो शेक्सपियर वहां अपने नाटकों की रॉयल्टी ले रहा था, गोस्वामी जी
अपने मांगकर खाते रहे, मस्जिद में सोते रहे।
शैलेश सिंह: हिंदी संसार
विदेशी पत्रिकाओं से कब परिचित हुआ?
विष्णु खरे: इंग्लैंड
में लोकप्रिय पत्रिकाएं लगभग तीन सौ वर्षों से प्रकाशित हो रही थीं और साहित्यिक
पत्रिकाएं दो सौ वर्षों से। अंग्रेजों के आने के बाद हमारे यहां लोकप्रिय अंग्रेजी
पत्रिकाएं तो आई होंगी लेकिन कोई साहित्यिक पत्रिका छायावाद के दौर तक जानी जाती
या पढ़ी जाती हो इसके प्रमाण नहीं हैं। यदि बीसवीं सदी की लगभग हर प्रारंभिक
पत्रिका पर विदेशी असर देखा जा सकता है यद्यपि इस पर हिंदी के मूर्ख प्राध्यापकों
ने शायद ही कोई काम करवाया हो। गुलेरी जी अवश्य विदेशी पत्रिकाएं पढ़ते थे और अब
तक किसी ने भी शायद ‘उसने कहा था’ कि तकनीक
तथाकथ्य का अध्ययन उस दृष्टिकोण से नहीं किया है। आजादी के पहले विदेशी साहित्य नइतना
मांगा था और न उसका आयात इतना कठिन कि उसे यहां पढ़ा न जा सके। हमारे यहां विदेशी
साहित्यों की कोई अपनी अंग्रेजी पत्रिका न थी - आज भी ‘अच्छी’भारतीय
अंग्रेजी पत्रिकाएं चार-पांचसे ज्यादा नहीं हैं और बाहर तो उन्हें भी कोई घास नहीं
डालता।
शैलेश सिंह: छायावाद के
बाद हिंदी में विदेशी पत्रिकाएं कैसे पढ़ी गईं ?
विष्णु खरे: मुझे लगता
है कि जैसे राजनीतिक प्रतिबद्धता के वैश्वीकरण के लिए मार्क्सवाद को श्रेय दिया
जाना चाहिए इसी तरह साहित्यिक प्रतिबद्धता और उसके वैश्वीकरण के लिए प्रगतिशील
साहित्य और पत्रिकाओं को। सोवियत संघ उसके प्रभाव के अंतर्गत आने वाले राष्ट्रों
तथा चीन से बहुत सारा साहित्य अंग्रेजी में या भारतीय भाषाओं में अनुदित होकर
हमारे यहां आया। खुद हमारे लेखकों अनुवादकों और प्रकाशकों ने, विभिन्न
कारणों और उद्देश्यों से, संसार के प्रगतिशील या प्रतिबद्ध कहे जा सकने
वाले साहित्य का अनुवाद तथा प्रकाशन किया। सारे कम्युनिस्ट विश्व से पैम्फलेट, पत्रिकाएं
और पुस्तकें भारत आने लगे। यह सामग्री बहुत सस्ती भी हुआ करती थी। इसे पढ़ा भी
बहुत जाता था। शमशेर बहादुर सिंह के संबंद्ध गद्य को पढ़कर जाना जा सकता है कि
तत्कालीन सोवियत, चीनी, चेकोस्लोवाक, पोलिश, पू. जर्मन
और हंगारी पत्रिकाओं को पढ़कर वे कितने प्रेरित और अह्लादित हो जाते थे।1940-60 के बीच
वामपंथी बौद्धिक और रचनाकारों के लिए यह मानसिक-कलात्मक, सैद्धांतिक, साहित्यिक -
खुराक थी। वामपंथी विदेशी प्रकाशन-गृहों ने भारतीय और हिंदी साहित्य पर कितना असर
डाला है इसका कोई अध्ययन नहीं हुआ है। ‘लोटस’ और ऐसी ही, उससे पहले
की, पत्रिकाओं
से माइकोव्स्की, नाजिम हिकमत, पाब्लो
नेरुदा, कारेल चापेक, ल्वी अरागों
और अन्य यूरोपी, अमेरिकी तथा
लातीनी अमेरिकी प्रतिबद्ध लेखकों को हम, भले ही अपर्याप्त, असंतोषप्रद
हिंदी-अंग्रेजी अनुवादों में, जान पाए। इस बहुत बड़े योगदान को कभी भुलाया
नहीं जाना चाहिए - बाद में तो मुख्यधारा पश्चिमी प्रकाशन-गृहों ने भी ऐसी साहित्य
भी छापना शुरू कर दिया जो अब तक जारी है। लेकिन 1960-70 तक भी, एक ‘एनकाउंटर’ के अपवाद के
सिवा, कोई बड़ी
पाश्चात्य साहित्यिक पत्रिका हमारे यहां आती नहीं थी और अब भी
नहीं आती। कुछ कॉलेज-यूनिवर्सिटियों में ‘टाइम्स
लिटरेरी सप्लीमेंट’ जो एक आलोचना-टैबलॉइड है, मंगाया जाता
था, वह भी
अंग्रेजी के प्रोफेसरों की स्नॉबरी को पुष्ट करने के लिए,लेकिन यह एक
हैरतअंगेज तथ्य है कि खंडवा के मेरे 1957 के प्राइवेट
नीलकंठेश्वर कॉलेज में उसकी फाइलें थीं। ‘क्राइटीरियन’ या ‘स्क्रूटनी’ तो कहीं
देखने तक को उपलब्ध नहीं थे। आज सभी जानते हैं कि ‘एनकाउंटर’ के पीछे सी.आई.ए.
थी किंतु उसमें संसार भर के सभी किस्म के लेखक और बुद्धिजीवी छपते थे। इंदौर में
मैं 1961
में
उसे एक या दो रुपये में खरीद सकता था, और उसने भारतीय
पाठकों को अमेरिका या पूंजीवाद समर्थक नहीं बनाया बल्कि एक प्रगतिकामी आधुनिकता से
ही परिचित करवाया। मैं कई वर्षों तक पुराने ‘एनकाउंटर’ खरीदता रहा
और आज भी उसकी पूरी फाइल किसी कंप्यूटर फ्रेंडली पद्धति से अपने पास रखना चाहूंगा।
आज कम-से-कम यह तो है कि सैकड़ों विदेशी पत्रिकाएं या तो सकुशल ऑनलाइन उपलब्ध हैं
या उनके कुछ पृष्ठ या सारे पुराने अंक मुफ्त नैट पर पढ़े जा सकते हैं, वैबजींस, जैसा कि मुहावरा
है, मूषक के एक
खटके भर दूर हैं। यह बात अलग है कि हम में से कितने डैस्कटॉप या लैपटॉप रख सकते
हैं और उनका भी सही इस्तेमाल करने की लगन या अक्ल हममें है या
नहीं।‘किंडल’ सरीखी कई
तख्तियों ने यह और भी आसान कर दिया है - जिससे याद आया कि पिछले दो वर्षों से
मेरे पास ‘किंडल’ भी है। मैं
मजबूर हूं कि यह मेरी बहुत गहरी,‘फंडामेंटल’ रुचियों का
मामला है।
रमेश राजहंस: प्रगतिशील
धारा के सतही बने रहने से भी बहुत नुकसान हुआ - क्या मेरी यह राय सही है?
विष्णु खरे: मुझे यह
लगता है कि प्रगतिशीलता और प्रतिबद्धता की एक सतही, सीमित, मताग्रही, ‘फंडामेंटलिस्ट’ समझ के कारण
हमने पश्चिम को आपादमस्तक पूंजीवादी और प्रतिक्रियावादी समाज मान लिया और वहां के
प्रबुद्ध प्रगतिवादी लेखकों, आलोचकों, दार्शनिकों, पत्रकारों, कलाकारों को
भी जन-विरोधी करार दे दिया, जबकि विडम्बना यह है कि सी.आई.ए. ने हमेशा
उनकी जासूसी की और आश्चर्य नहीं कि आज भी कर रही हो। विदेशी लेखकों को पढ़ते समय
हमने अपने विवेक को एक कठमुल्लावाद के हवाले कर दिया जो कतई प्रगतिशील नहीं था।
आखिर पश्चिमी पूंजीवाद का सबसे ज्यादा समझदार, तार्किक, ‘अंदरूनी’ पर्दाफाश और
विरोध वहीं के बुद्धिजीवी करते हैं, हमें तो वे बारीकियां तभी समझ में आती हैं जब
वहां
रहस्योद्घाटन
हो चुकते हैं। ‘न्यू लैफ्ट
रिव्यू’ के लिए तो
स्वाभाविक है लेकिन ‘कॉमन्ट्री’ और ‘न्यूयॉर्क
रिव्यू ऑफ बुक्स’ तक में नोबेल पुरस्कार विजेता स्तर के
बुद्धिजीवियों के बहुत उपयोगी लेख छपते हैं। इधर हमारे यहां एक थोक पश्चिम - या विदेश-विरोध
रूपी सतही वामपंथी वर्णाश्रम-धर्म का एक दौर-दौरा अभी भी चालू है। हालांकि एक बड़ी
समस्या यह भी है कि विदेशी पुस्तकें आदि आसानी से उपलब्ध हो भी जाएं तो उन्हें
अंग्रेजी में हमें ही समझना होगा। अनुवाद के मोर्चे पर भारत जैसे विपन्न और
पराजित देश बहुत कम हैं। क्या हमारे पास विश्व के साहित्यलोचन पर आधारभूत लेखों का
कोई संकलन है?
रमेश राजहंस:आपकी इस बात
से प्रश्न उठता है कि इतने वर्षों से निकल रही पत्रिका आलोचना का क्या योगदान रहा
है?
विष्णु खरे: मैं जब 1968 में दिल्ली
पहुंचा तब पुरानी आलोचना ही निकल रही थी लेकिन नामवर सिंह उसके संपादक थे। दिल्ली
के तत्कालीन कई वरिष्ठ लेखकों, विशेषत: भारत भूषण अग्रवाल, के माध्यम
से, जो उन दिनों
साहित्य अकादमी के उपसचिव (कार्यक्रम) थे, नामवर सिंह
से भी परिचय हुआ। वे उन दिनों दिल्ली में स्ट्रगल कर रहे थे।
(अधूरा साक्षात्कार)
चिंतनदिशा में
प्रकाशनार्थ
विष्णु खरे जी के
लिए प्रश्नावली
व्यक्तिगत
- आपको अपनी माता की क्या क्या स्मृति है ? (जिस पर आपकी एक अत्यंत कोमल कविता है)
- जीवन में दूसरी मां के आने से आपके भीतर कैसी प्रतिक्रिया रही ?
- इन परिस्थितियों ने आपके जीवन पर क्या प्रभाव डाला ?
- पिता के साथ कैसा संबंध था ? (जिनकी हंसी आपकी ट्रेन वाली कविता में गूंजी)
- परिवार के बाकी सदस्यों के साथ भाई, बहन बुआ (कविता वाली) और बच्चों से आपका कैसा संबंध रहा / है ?
- तमाम तरह की नौकरियों और उथल पुथल के बीच प्रेम विवाह का जीवन राग केसा रहा ?
- क्या पारिवारिक जीवन में कवि होना आड़े आता (रहा) है ?
- साहित्य, फिल्म, संगीत और कलाओं के संस्कार कब और किस किस से मिले ?
- कभी छिंदवाड़ा में बसने का मन नहीं बना ?
लेखन
- कविता के संदर्भ में आपके लिए पाठक का स्थान क्या है ? कवि सम्मेलनों में आपकी कविता पाठक के साथ कैसा संवाद स्थापित करती है ?
- एक रचना कब कविता बनती है और कब निरा गद्य रह जाती है ?
- आपकी कविता में गद्यात्मक विस्तार रहता है, साथ ही करुणा जगाने वाली गहन संवेदना भी। विवरण में ही जीवन की सांद्रता और संवेदना गुंथी चली आती है। दूसरी तरफ महाभारत के प्रसंगों की पुनर्रचना है जो वर्तमान की भयावहता की व्याख्या करती है। क्या इसे उक तरह की प्रबंधात्मक कविता कह सकते हैं ? इनके बरक्स छत्तीसगढ़ राज्य बनने पर लिखी गई कविता भी है जिसमें कवित्व नजर नहीं आता। उसकी संरचना की व्याख्या आप कैसे करते हैं ?
- आपकी कविता का शिल्प देखने में सरल है, इसलिए अनुकरण भी खूब हुआ है। लेकिन अधिकांश उसे साध नहीं पाते। इसका रहस्य क्या होगा और आपकी कविता का रसायन क्या है ?
- एक कवि में आप किस तरह की तैयारी की अपेक्षा करते हैं – बौद्धिक, वैचारिक, भावनात्मक, अनुभवजन्य – क्या कितना हो ? क्या अब सच में कागद की लेखी (बौद्धिकता) का जमाना है, आंखन देखी का नहीं ?
- कवि के लिए तमाम तरह के ज्ञान-विज्ञान और दूसरे अनुशासनों के ज्ञान या जानकारी का कितना महत्व है और साहित्यिक परंपरा की क्या और कितनी भूमिका है ?
- आप हिंदी कविता को विश्व साहित्य से टक्कर लेने वाला मानते रहे हैं। क्या अब भी इस धारणा पर कायम हैं।
- क्या कविता हमारे समय का ही बखान होती है या इसमें भविष्य की आहटें भी हो सकती हैं। कविता में परिवर्तनकामी चेतना की कितनी जगह है ?
- पुरस्कारों की राजनीति और उनके स्तर में गिरावट पर आप मुखर चिंता वयक्त करते रहे हैं। भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार में अगर इतनी स्तरहीनता थी तो आपने अपनी बात कहने में इतने वर्ष क्यों लगाए ? जल्दी कहा होता तो या तो उसका स्तर सुधर जाता या युवा यशकामी कवियों के लिए इतना लुभावना न रहता।
- आपने परिवार पुरस्कार ले लिया और फिर ग्लानि में भी डूब गए। क्या धन की जरूरत आ पड़ी थी, क्योंकि इससे आपके यश में तो क्या वृद्धि होगी, अलबत्ता परिवार संस्था जरूर गौरवान्वित होगी। और वो प्रविष्टियां मंगवाने का क्या प्रसंग है जो मुहल्ला के कमेंट में आया है ? ( मुझे सुंदर चंद ठाकुर की चिंता है। पुरस्कारप्रदाता बनकर कहीं वह भविष्य का नंदकिशोर नौटियाल और विश्वनाथ सचदेव बन कर न रह जाए, जो वर्षों से मुंबई में कई संस्थाओं के सलाहकार और कार्यक्रमों के स्थाई अध्यक्ष बने हुए हैं) और फिर आपने अपनी इस ग्लानि और दुविधा को वक्त की नीचता से जोड़ दिया। यह ठीक है कि इससे हमें अपने प्रिय कवि की दुविधा का पता चलता है पर आप कहां कमजोर पड़े और अंतर्विरोध कहां है, इसे गुत्थी को खंगालने और बताने की कृपा करें।
वर्तमान समय
- आपके हिसाब से आज हमारे समाज और जगत के सबसे ज्वलंत सवाल और चिंताएं क्या हैं ?
- आप कैसा भविष्य देखते हैं ? उम्मीद या नाउम्मीद।
- आपने कहा था बचपन से ही आपका यह दृढ़ विश्वास बन गया था कि सशस्त्र क्रांति ही इस देश का उद्धार करेगी। यह धारणा कब और कैसे बनी और सोवियत माडल के फेल होने के बावजूद अब तक किस आधार पर कायम है ? साथ ही प्रौद्योगिकी के विकास, पूंजी के वैश्विक प्रसार और भारत में बढ़ती युवा जनसंख्या के इस दौर में वाम विचारधारा की क्या अहमियत और भूमिका है ? क्या हमारे पास पूंजीवाद की इस बाजार व्यवस्था का कोई तोड़ है ?
बाद में भेजा गया एक
प्रश्न, जो अनुत्तरित
ही रहा:
''जैसा कि "गैन्ग्ज़ ऑफ़
वासेपुर" में दुहराया गया है, मैं कह कर लेता. मैं अनुराग कश्यप के जन्म से
पहले से
इस
कार्य-शैली का क़ायल रहा हूँ.''
vishnu khare
इधर विष्णु खरे के लेखन में कुंठा, हिंसा, प्रतिशोध, सेक्सुअल परवर्जन और
मानव-वध-कल्पना के तत्व मेरे लिए रोचक रहे हैं. यह पत्र श्रृंखला भी उसी तरफ जा
रही है. giriraj
kiradu
साहित्यिक चर्चा में इस तरह की
भाषा के प्रयोग का आपका तर्क क्या है ? पिछले दिनों आपने जिस भाषा में इंटरनेट पर टिप्पणियां
की हैं, उससे लगता है कि आप 'सभ्य', 'शालीन', 'संसदीय' भाषा जैसी धारणाओं पर यकीन
नहीं करते, बल्कि व्यंग्य को फूहड़ और
हिंस्र बना देते हैं. आप निराला के बहाने 'चमरोंधे' के प्रयोग की हिमायत भी करते
हैं. इसका अर्थ है कि आप भाषिक हिंसा ही नहीं, दैहिक हिंसा में भी यकीन रखते
हैं. यदि ऐसा है तो कृपया बताने का कष्ट करें कि न्याय और समता की आपकी धारणा क्या
है और अपने से कमतर के प्रति आपका रुख कैसा है?