Saturday, December 6, 2008

कविता:किसी दिन अचानक

किसी दिन अचानक

सुबह, शाम या रात में

आंखों के सामने आ खड़ा हो आसमान

भुरभुरी धुंध, बादल पहाड़ी पर चढ़ आएं

स्लेट की छतों को ढक लें धीरे धीरे

चीड़ की नुकीली पत्तियां एक एक बूंद को थामे रहें

किसी दिन अचानक

सुबह, शाम या रात में

खिड़की ज़रा सा पर्दे को हिलाकर

कुर्सी पर आ बिराजे

आंखों के सामने आसमान

व्यस्त लोगों के कंधे झकझोर के पूछूं

देखा तुमने दूधिया था आसमान

बूंद दो बूंद गिरेंगी

कम हो जाए बंबई में गर्मी शायद

ट्रेनें तो पर चल रही हैं नियमित

चिकनी ढीठ अरब की खाड़ी

जाओ तुम भी लादो उतारो जहाज़

छाती पर व्यापारियों का बोझ ढोना ही बदा है

मुझे तो छुट्टी दे दो आज

आसमान से संवाद कर लूं

आविदा परवीन को सुन लूं

धुंध के रेशों से सवा दो अक्षर की कहानी बुन लूं

विजय कुमार की कविताएं पढ़ लूं

अदृश्य हो जाएंगी सूखी पत्तियां

Friday, November 28, 2008

मुंबई मेरी जान


मुंबई मेरी जान
आज दूसरा दिन है. मुंबई आतंकवादियों के चंगुल में है। और मन बहुत उखड़ा हुआ है



यह शहर नहीं शरीर है मेरा
एक हिस्‍सा छलनी है
आपरेशन चल रहा है कब से
बेहोशी की दवा नहीं दी गई है मुझे
शहर चल रहा है
घाव जल रहा है
खुली आंख से देख रहा हूं सब कुछ
शहर तकलीफ में है
झेल रहा है




हट जाओ तमाशबीनो
अपने काम में लगो




यह कायर का वार है
मैंने इसे जंग नहीं माना है
जंग में मेरा यकीन भी नहीं
पर तुम्‍हें यकीन के मानी पता ही नहीं

Monday, November 24, 2008

कविता

राम शिला की प्रार्थना
(एक कांगड़ी लोकगाथा, जिसमें बहू को दीवार में चिनवा कर
बलि देने का करुण वर्णन है, की शैली में)


अगल भी चिनना बगल भी चिनना
उस माँ को लेना संभाल
जिसका लाल कटा दंगे में


अगल भी चिनना बगल भी चिनना
उस बहू का करना ख्याल
जिसका कंत मरा दंगे में


अगल भी चिनना बगल भी चिनना
उस बाल को लेना पाल
जिसकी माँ न बाप बचा दंगे में


अगल भी चिनना बगल भी चिनना
नहीं मन साफ तो कुछ नहीं माफ
चाहे जितने मंदिर लो चिनवा।

रचनाकालः2002 और दैनिक जागरण में प्रकाशित 2008

Tuesday, November 18, 2008

हजामत

सैलून की कुर्सी पर बैठे हुए

कान के पीछे उस्तरा चला तो सिहरन हुई

आइने में देखा बाबा ने

साठ-पैंसठ साल पहले भी

कान के पीछे गुदगुदी हुई थी

पिता ने कंधे से थाम लिया था

आइने में देखा बाबा ने

पीछे बैंच पर अधेड़ बेटा पत्रिकाएँ पलटता हुआ बैठा है

चालीस साल पहले यह भी उस्तरे की सरसराहट से बिदका था

बाबा ने देखा आइने में

इकतालीस साल पहले जब पत्नी को पहली बार

ब्याह के बाद गाँव में घास की गड्डी उठाकर लाते देखा था

हरी कोमल झालर मुँह को छूकर गुज़री थी

जैसे नाई ने पानी का फुहारा छोड़ा हो अचानक

तीस साल पहले जब बेटी विदा हुई थी

उसने कूक मारी थी जोर से आँखें भर आईं थीं

और नाई ने पौंछ दीं रौंएदार तौलिए से

पाँच साल पहले पत्नी की देह को आग दी

आँखें सूखी रहीं, गर्दन भीग गई थी

जैसे बालों के टुकड़े चिपके हुए चुभने लगे हैं

बाबा के हाथ नहीं पँहुचे गर्दन तक आँखों पर या कान के पीछे

बेटा पत्रिका में खोया हुआ है

आइने में दुगनी दूर दिखता है

नाई कम्बख़्त देर बहुत लगाता है

हड़बड़ा कर आख़री बार आइने को देखा बाबा ने

उठते हुए सीढ़ी से उतरते वक़्त बेटे ने कंधे को हौले से थामा

बाबा ने खुली हवा में साँस ली

आसमान जरा धुंधला था

आइने बड़ा भरमाते हैं

उस्तरा भी कहाँ से कहाँ चला जाता है

साठ पैंसठ साल से हर बार बाबा सोचते हैं

इस बार दिल जकड़ के जाऊंगा नाई के पास

पाँच के हों या पिचहत्तर बरस के बाबा

बड़ा दुष्कर है हजामत बनवाना

Sunday, November 16, 2008

कबाड़

उन्होंने बहुत सी चीज़ें बनाईं

और उनका उपयोग सिखाया

उन्होंने बहुत सी और चीज़ें बनाईं दिलफरेब और उनका उपभोग सिखाया

उन्होंने हमारा तन मन धन ढाला अपने सांचों में

और हमने लुटाया सर्वस्व

जो हमारे घरों में और समाया हमारे भीतर

जाने किस कूबत से हमने

उसे कबाड़ की तरह फेंकना सीखा

कबाड़ी उसे बेच आए मेहनताना लेकर

उन्होंने उसे फिर फिर दिया नया रूप रंग गंध और स्वाद

हमने फिर फिर लुटाया सर्वस्व

और फिर फिर फेंका कबाड़

इस कारोबार ने दुनिया को फाड़ा भीतर से फांक फांक

बाहर से सिल दिया गेंद की तरह

ठसाठस कबाड़ भरा विस्फोटक है

अंतरिक्ष में लटका हुआ पृथ्वी का नीला संतरा


जूते

कई हज़ार साल पहले जब एक दिन

किसी ने खाल खींची होगी इंसान की

उसके कुछ ही दिन बाद जूता पहना होगा

धरती की नंगी पीठ पर जूतों के निशान मिलते हैं

नुची हुई देह नीचे दबी होगी

धरती हरियाली का लेप लगाती है

जूते आसमान पाताल खोज आए

जूते की गंध दिमाग तक चढ़ आई है

कई हज़ार साल हो गए

नंगे पैर से टोह नहीं ली किसी ने धरती की