Monday, November 25, 2013

गंध ने लगाई अतीत में सेंध

Pensive 80s
रेखांकन: सुमनिका, कागज पर चारकोल



डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं। इस कडी़ के साथ ही यह श्रृंखला अब  संपन्‍न होती है।

 
07/11/2000
बांदरा से आने पर लिंकिंग रोड शुरू होती है तो बहुत भीड़ के बीच में, बडी़ तीखी महक से सबका पड़ता है। खास किस्म की महक, पंजाब पहाड़ में आम तौर पर यह महक पाई जाती है। यहां चिकन तंदूरी सिक रहा होता है। तंदूरी का खास तेल मसाला। अपना आलम बिखेरता मसाला। जगह बडी़ मज़ेदार है। लिंकिंग रोड का बाजार। जूते चप्पल। सूट और सूट। जनाना सूट। ग्राहक टूटे पड़ रहे होते हैं। बहुत से लड़के चादरों में बेचने वाली चीजें जैसे पर्स या कपडे़, टीशर्ट वगैरह बेचते हैं। ट्रैफिक एक के ऊपर एक चढा़ आता है। वहीं है यह मुर्ग मुसल्‍लम। सारे बाजार में इस दुकान की महक गमकती रहती है। जब भी गुजरो यह गंध बडी़ पहचानी सी लगती है। आज अचानत कौंधा - अरे यह तो वही गंध है। शायद 81-82 की बात है। हमीरपुर (हिमाचल) में मिली थी यह गंध। मैंने अथकथा राजा घसीट सिंह नाटक लिख लिया था। शायद नौकरी की तलाश थी। गुरूजी (रमेश-रवि) मंडी जा चुके थे। पता चला उनकी एक्‍जाम ड्यूटी हमीरपुर में लगी है। मैं मिलने जा पहुंचा। करीब दस बरस बाद हमीरपुर गया था। हीरानगर के पीडब्‍ल्‍यूडी रेस्ट हॉउस में वे रह रहे थे। शाम को गुरूजी की संगत लगती थी। नीचे बाजार से तली हुई मछली लेकर गए। उनके कमरे में गाटी लगी। मैं तो तब सूफी ही था। रात को नाटक सुनाया। या पता नही, शायद तब नाटक नहीं सुनाया था, मंडी में उनके घर पर सुनाया था। पर उस तली हुई मछली की गंध ही चिकन की यह गंध है।

बांद्रा में दो सेंधें लग गईं, दोनों गंध मादन सेंधें। एक लगी थी स्टेशन से बाहर निकल कर तालाब के किनारे, गंदे पानी की नाली में। उस नाली में ट्टटी मिली हई थी। उसकी गंध निरंतर व्‍याप्‍त थी। यह गंध कुल्‍लू में थी। सन 70-72 में। कहां कुल्‍लू, कहां मुंबई। ट्टटी की दुर्गंध एक सी। यह बात मैंने भाई साहब को चिट्ठी में लिखी भी थी। अतीत में जाने की एक सेंध तब लगी थी। और एक सेंध आज लगी है - तंदूरी चिकन के जरीए। सरे बाजार।

8/11/2000
आज देखा ध्यान से, हालांकि स्कूटर पर चलते हुए। ज्यादा देर तक रुकने की फुर्सत नहीं थी इसलिए जितना ध्यान दिया जा सकता था, दिया। वह पंजाबी फिश फ्राई और चिकन की दुकान है। तदूंरी नहीं फ्राई। वही मसाला। वही गंध। हमीरपुर वाली। कहां हमीरपुर, कहां मुंबई की लिकिंग रोड। पर क्या यह गंध गुरूजी की संगत के कारण अविस्‍मरणीय हुई है?

Sunday, November 24, 2013

तीर्थाटन-सह-पर्यटन-सह गृहगमन

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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल 


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।


29/05/2000
नया साल शुरू हुए पांच महीने ख़त्म हो गए। नया साल नई शताब्‍दी। नई सहस्राब्‍दी। वक्‍त के इन टुकड़ों पर इतरा के क्या होगा। वक्‍त या तो अणु-परमाणु की तरह विखंडित होता है या फिर अंतहीन क्रम है। ये टुकडे़ तो सुविधा और भोग के खेल हैं।

मई महीने में करीब 20 दिन मुंबई से बाहर रहे। पिता जी के लिए खास तौर से हम सभी तीर्थाटन-सह-पर्यटन-सह गृहगमन करके आए। हरिद्वार, ॠषिकेश, देहरादून, मसूरी, धर्मशाला, मंडी, अमृतसर। हरिद्वार - गंगा स्नान। धर्म और कर्मकांड का एक और गढ़। पर भीतर झांक कर देखो तो यह एक सांस्कृतिक स्थल भी तो है। भारतीय परंपरा और मानस का एक जीवंत स्रोत। जीवंत पौराणिक आख्‍यान। जन समुदाय इह लोक परलोक सुधारने के लिए जुटा रहता है। धर्म के व्यपार की भी कई गझिन छायाएं यहां हैं।

धर्मशाला दो वर्ष बाद जाना हुआ। जब तक वहां न पहुंचो, एक तड़प बनी रहती है। टीस। हूक। पहुंच जाओ तो वर्तमान यथार्थ एक उदासी पैदा करने लगता है। हांलाकि शहर बहुत नहीं बदला है, पर न जाने वहां कैसी खुश्की और खालीपन है जो मुंबई की खुश्‍की और रीतेपन से अलग है। शायद घर भी एक कारक है। पर इस बार दो महत्वपूर्ण फैसले हो गए। भाई साहब को पूरे मकान में रहने की छूट। और बगल वाली ज़मीन की उनके नाम रजिस्ट्री। शायद अब उस शहर के कुछ रंग लौट आएं। हमारे वापस लौटने का हौसला थोडा़ पस्‍त हो गया है। नए सिरे से मंसूबे बांधने होंगे। खास तरह के जीवन को बनाए रखने का बंधन भी एक सीमा बन जाती है। उससे कैसे पार पाया जाए। रचनात्मकता को जीवित रखना ही शायद मूलमंत्र है।

01/10/2000
इस बीच फिर लंबा वक्‍फा बीता है, बिना कविता लिखे। यह फर्क ज़रूर है कि बिना कुछ लिखे नहीं रहा यह वक्त। इस बार यात्रा वृत्‍तांत लिखा। बहुत समय उसमें लग गया। 30 जुलाई को लिखना शुरू किया सितंबर के पहले हफ्ते में अंतिम रूप से तैयार हुआ। खरामा-खरामा। साथ में दीन दुनिया भी चलती रहती है। सुमनिका ने यात्रा के मिस बैजनाथ मंदिर पर अपनी विद्या के सहारे से लिखा। वह पहले पूरा हो गया था। मुझे ज्यादा वक्त लग गया। पर पूरा होते ही विपाशा को भेज भी दिया। अभी इन्टरनेट के लिए वेब दुनिया को भेजने की तैयारी है। अगर इन लोगों को पसंद आया तो, वैसे इन्टरनेट पर अभी गंभीर लेखन की परंपरा बनी नहीं है। इसीलिए उम्मीद कम ही है।

लाख टके का ख्याल यह रहता है कि कविता लिखी जाएगी?

Saturday, November 23, 2013

भरोसा और आस्‍था

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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल 



डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।
 

05/12/99 प्रात: सात बजे
लगभग एक महीना हो गया, खुद से सामना किए हुए। यूं नहीं कि इस बीच सामना या मुठभेड़ नहीं होती रही है, पर ज्यादातर एक ही ट्रैक चलता रहता है। त्वरित, निरवकाश, नियमित, निरंतर। पिछले दिनों निर्मल वर्मा की भारत और यूरोप - प्रतिश्रुति के क्षेत्र पुस्तक के कई निबंध पढे़। भारतीयता की नई सी व्‍याख्‍या है। भारतीयता ही क्यों, यूरोप की भी। आपसी संबंधों की भी। इसी व्याख्या के कारण इन्हें दक्षिणपंथी, बल्कि भाजपाई कहा जाता होगा। पर यह व्‍याख्‍या विचारोत्‍तेजक है।

दूसरे, सारे लेखन में लेखन, लेखन-कर्म, जीवन और लेखक के संबंध के प्रति बडी़ सम्‍पृक्‍तता प्रतिभासित होती है। एक तरह की मंद्रता भी उनमें है। लेखन के प्रति खूब भरोसा प्रकट होता है। भरोसा और महत्व। लखनऊ में काशीनाथ सिंह को नामवर सिंह के पत्र पढ़ते हुए सुनते-देखते समय भी ऐसा ही विश्वास और आस्‍था महसूस हुई थी।

इधर के लेखकों में यह भरोसा-आस्‍था कितनी है, कहां है... शब्द की शक्ति को महसूस करना... नकारत्मक दृष्टिकोण इतना हावी होता जाता है कि भरोसा उठता जाता है। भरोसे को बचाना और महसूस करना शायद ज़रूरी है।

Friday, November 22, 2013

किस बिनाह पर कहूं कि कवि हूं ?

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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल



डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।

25/05/99
मसला यह है कि मैं कवि हूं कवि ऐसा हूं कि कविताएं लिखता हूं साल में चार। फिर भी कवि कहलाता हूं।

27/05/99
मसला यह है कि कवि कहलाता हूं या खुद को कवि मानता हूं या असल में कवि हूं। मसला यह है कि कविताएं पत्रिकाओं को भेजता हूं और वे छप जाती हैं। बाज़दफा पत्रिकाएं मंगवा लेती हैं, तो भी छप जाती हैं। छप जाती हैं तो मानना यह चाहिए कि वे ग्राहकों यानी पाठकों के पास पहुंचती हैं। लेखकों के पास भी पहुंचती हैं। पिछले करीब बीस साल से तो ऐसा ही हो रहा है। यह मसला अर्से से दिमाग में अटका हुआ है कि यूं तो पूरा ही साहित्य, लेकिन खास तौर से कविता, कितने लोगों द्वारा पढी़ जाती है। कोई सर्वेक्षण तो उपलब्ध है नहीं। पक्की सूचना भी नहीं है। पत्रिकाओं की वितरण संख्या से ही अंदाज़ होता है कि पाठक कविता पसंद नहीं करता।

जो बात मैं अर्से से दर्ज करना चाहता हूं, वह यह भी है कि मैं मानता हूं कवि हूं, परिवार और दोस्त मानते हैं। कुछ लेखक संपादक मानते हैं लेकिन जात-विरादरी में, पास-पडो़स में, काम-धंधे के माहौल में मैं भूल कर भी यह जिक्र नहीं कर सकता कि कवि हूं। इसकी क्या वजह है ?





Tuesday, November 19, 2013

क्या यह यश-लिप्‍सा थी ?


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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।


03/10/98
आज आकाशवाणी के लिए अली सरदार जाफरी का साक्षात्‍कार लिया। मैं 10-12 सवाल लिख के ले गया था। किताब भी थोडी़ बहुत पढ़ गया था। पर ज्‍यादातर बात PWA पर ही केंद्रित हो गई। फिर मुडी़ तो हिंदी उर्दू से होती हुई भाषा समस्या पर पहुंच गई। अपनी कविता की विकास यात्रा पर महाराज ने कुछ बोला नहीं, माने मार्के का, और बाद में शिकायत करने लगे कि और सब पर हुई कविता पर बात नहीं हुई। फिर जो बात कविता पर की भी, वह अपनी ही कविता का वखान थी। उर्दू कविता के मिजाज या परिवर्तन पर कुछ खास नहीं बोले। प्यास और आग (1960) संग्रह के बाद उनकी कविता में क्या तब्‍दीलियां आईं, उन पर भी वे बहुत नहीं बोले। ''PWA का रोल खत्म हो गया है। तब की जरूरत थी, पूरी हुई। अब साहित्‍य अकादमी है, NBT है, दूसरी अकादमियां हैं, वे इस भूमिका को निभा रही हैं।'' ये टिप्पणियां बहसतलब हैं लेकिन साक्षात्कार में इतना समय नहीं था, कि और उलझा जाता।

इन्टरव्यू लेने के लिए हालांकि सुमनिका को बुलाया गया था, पर उसका कॉलेज था। मैं इसीलिए चला गया कि इस बहाने से सरदार से वाकि‍फियत हो जाएगी और सुमनिका जो प्रदीप सक्‍सेना के आलोचना अंक (पहल) के लिए इन्टरव्यू लेना चाहती है, वह आसान हो जाएया। हालांकि मन में कहीं यह भी था कि भारतीय ज्ञानपीठ सम्‍मान प्राप्त साहित्कार से इस तरह सार्वजनिक बातचीत करने का अवसर चूकना नहीं चाहिए। क्या यह यश-लिप्‍सा का एक रूप है? पता नहीं, मन में बात खटकी क्योंकि अर्से से इस तरह के मौकों से भागता रहा हूं। क्या यह लाइकोपीडियम (होम्‍योपैथी) का असर है?

Sunday, November 17, 2013

डंडे के ज़ोर पर जयकारा

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रंखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।


25/09/98
आज दफ्तर के काम के सिलसिले में बाल ठाकरे के प्रभाव की बदमग्‍जी का प्रत्‍यक्ष अनुभव हआ। अब तक बातें सुनने में ही आती थीं। आज पता चला कि 'जोर-जबरदस्ती' कैसे काम करती है। कोई फौजदारी नहीं हुई। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जबरदस्ती कैसे रोका जाता है, शक्तिशाली प्रबंधन भी कैसे घुटने टेक देता है, यह पता चला। पिछले कई महीने से हम लोग स्टाफ की रचनाओं का संकलन प्रकाशित करने में जुटे थे। उसे आकर्षक बनाने में मेहनत कर रहे थे। कल ही पत्रिका के रूप में 'संभावना' नाम का यह संकलन वितरित हुआ। आज शाम को लोकाधिकार समिति ने विरोध दर्ज करा दिया। विरोध क्‍या, पूरा का पूरा जत्‍था कार्यपालक निदेशक के पास पहुंच गया। शिकायत यह थी कि एक लेख में लिखा गया था कि फूलन देवी और बाल ठाकरे जैसे लोगों के पीछे जनता कैसे पागल है। जनता का बडा़ पतन हो गया है। आपत्ति इस बात पर थी कि 'दिंदू हृदय सम्राट' बाल ठाकरे की तुलना फूलन देवी से कैसे कर दी गई। कार्यपालक निदेशक वासल साहब ने निर्णय लिया कि प्रकाशन को वापस ले लिया जाए। इसका वितरण न किया जाए। हम लोग, उनके सेनानी, जुट गए टेलीफोन करने, चिट्ठी लिखने, पत्रिका उठवाने में, कि उसे लेकर डंप कर दिया जाए। किए को अनकिया कर दिया जाए।

दफ्तर में कर्मचारियों की यूनियन पर शिव सेना का वर्चस्‍व है, लोकाधिकार समिति भी उनका ही एक अंग है। विरोध उसी ने दज किया। ढेर सारे चपरासियों और ड्राइवरों ने पत्रिका बंद करवा दी। सवाल चपरासियों ड्राइवरों का नहीं है, सवाल अक्‍खड़पन और कुंदजहनी का है। आलोचना सुनने का धैर्य नहीं है। दूसरे का पक्ष सुनने की समझ नहीं है। घेराव, धरना, जोर आज़माइश के तमाम तरह के तरीकों से अपनी बात मनवाने की जिद्द है। डंडे के ज़ोर पर जयकारा बुलवाना है। महाराष्ट्र के इस आतंक का सामना आज इस तरह से हुआ। अब देखना है आगे क्या होता है।

Saturday, November 16, 2013

परिपक्‍वता, मतलब समझदारी कब आएगी ?

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रेखांकन : सुमनिका कागज पर चारकोल


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।
 

15/09/98
पांच हफ्ते कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। डायरी लिखने का मौका भी नहीं मिला। एक बार फिर दिल्ली जाना पडा़ और लौटकर वही नियमति व्‍यस्‍तता।
कल शाम को लौटते समय (वर्ड ट्रेड सेंटर से) संजीव चांदोरकर (आईडीबीआई में सहकर्मी और मराठीभाषी सचेतन मानुस) मिल गए। ट्रेन में भी थोडी़ बातचीत होती रही। वे एक मराठी पत्रिका पर्याय का जिक कर रहे थे। हिंदी की लघु पत्रिकाओं जैसी पत्रिका है लेकिन वे उसकी संपादकीय दृष्टि, रचना-चयन यदि से प्रसन्‍न नहीं थे। उनका आशय यह था कि इस तरह...
16/ 09/98
... की पत्रिकाएं बहुत सीमित पाठकों तक जाती हैं। लेखकों और कार्यकर्ताओं के बीच ही जाती हैं, जिनकी बौद्धिक तैयारी काफी हद तक हुई होती है। तो उन्हें ऐसी सामग्री चाहिए जिससे उन्हें कुछ नई बात, नया दृष्टिकोण जानने को मिले। लेकिन पत्रिका में कुछ भी भर दिया जाता है। शायद पत्रिका छापने का शौक ज्यादा होता है। सब लोग कई कई वर्षो से काम कर रहे हैं और उनकी उम्रें भी चालीस को छू रही हैं लेकिन मामला कॉलेज विद्यार्थियों जैसा रहता है। इस पर मैंने कहा कुछ गड़बड़ है। शायद परिपक्‍व होने की उम्र बढ़ गई है। अब लोग जल्दी मैच्‍योर नहीं होते। मेरी उमर भी चालीस बरस हो गई है लेकिन बहुत से मसलों पर लगता है, स्पष्टता नहीं है। कई बातें पता ही नहीं हैं। बहुत कुछ तो पढ़ सीख ही नहीं पाए। पहले छोटी उमर में ही लोग बडे़ हो जाते थे। शायद यह बात सिर्फ अतीत राग नहीं है। कहीं कुछ गड़बड़ तो है। अगर कोई 50 वर्ष तक युवा ही होगा तो वह परिपक्‍व कब होगा, प्रौढ़ कब होगा और ज्ञानी वृद्ध होने के लिए उसके पास अपनी उमर के कितने बरस बचेंगे? क्या हमारी आयु इतनी बढ़ गई है? अगर औसत उमर 70 भी हो तो भी उसके पास परिपक्‍व समझ के 20 ही बरस बचते हैं यानी युवावस्था से कम। इसके कारणों को ढूंढना बडा़ मुश्किल है और अपने मामले में तो लगता है 50 तक भी परिपक्‍वता शायद भी आये। मतलब समझदारी।

Thursday, November 14, 2013

मध्‍यवर्गीय होने से कविता जनविरोधी नहीं हो जाती

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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं। 

05/08/98 नई दिल्ली यूटीआई गेस्ट हाऊस, ग्रेटर कैलाश

गोविंद सिंह (पत्रकार) और तापस चक्रवर्ती (आईडीबीआई के सहकर्मी और अंग्रेजी कवि) से बात हुई। गोविंद से संयोग से राकेश वत्‍स (अंबाला वाले नहीं, ये हिमाचल के हैं) का नंबर मिल गया। अर्से बाद उससे बात की। पिछले साल चंडीगढ़ में कई सालों बाद भेंट हुई थी। तब उसके पिता का एक्सिडेंट हुआ था। आज उससे पता चला जगदीश मनहास (गुरु नानक देव विश्‍वविद्यालय में हमारे सीनियर, अब पोर्ट ब्‍लेयर में) के भाई का देहांत हो गया है। बड़ी बुरी खबर है। सम्पर्क तो बरसों से नहीं था, यूनिवर्सिटी के बाद ही कोई खबर नहीं थी कहां है। अचानक पता चला तो बुरा लगा। यह भी पता चला कि सांगरा (हिमाचल से) फिर बे-रोजगार है। उस पर भाग्य की मार हमेशा पडी़ रहती है।

तापस ने भी उद्भभावना कविता विशेषांक में छपी कवितायों की आलोचना की। सभी एक सुर से आलोचना कर रहे हैं। हां यह है मध्यवर्गीय कविता। जब कवि मध्यवर्ग का है तो कविता किसकी लिखेगा। वह लिखने में ईमानदार है। नौकरीपेशा है। वक्त का उसके पास टोटा है। अपने वर्ग से बाहर की दीन-दुनियां वह कहां से देखे। बाहर की बात फार्मूले से लिखेगा तो नकल ही होगी। जब समाज का बड़ा तबका सारे विमर्श से बाहर है तो अकेला कवि क्‍या इन्‍कलाब कर लेगा। यह कवि और इसकी कविता जनविरोधी नहीं है। जन का प्रतिनिधित्‍व उस रूप में नहीं हो रहा हो, ऐसा हो सकता है। पर जनभक्‍त या जनमित्र कट्टरपने की बात करते हैं। संस्कृति के दूसरे पहलुओं के साथ मिलाकर, दूसरे कला माध्‍यमों के साथ मिलाकर कविता की बात होनी चाहिए। पत्रकारिता को भी सामने रखना चाहिए। भक्तिकाल जैसा बंजारा कवि समय लौट कर नहीं आ सकता। आज का कवि अलग धारतल पर है, जनता अलग धरातल पर। और जनता के भी ढेरों धरातल हैं। हवेली की छत तक पहुंचने वाली सीढ़ी की तरह के धरातल हैं। अगर कवि की ताल या कदमताल अलग है तो कहानीकार भी अपने ही घाट पर कपडे़ पछींट रहा है। जरा उपन्यास भी गिन लिए जाएं, मध्यवर्ग से बाहर के जीवन के कितने हैं। मतलब यह कि ऐसा बयान करते समय विधा की मर्यादा का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। तुक ताल छंद का दुराग्रह जनता को बदल डालेगा, अगर ऐसा विश्वास है तो यह बालोचित विश्वास है।


Saturday, November 9, 2013

नीरवता, साहित्‍य व संगीत

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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।


14/05/98 प्रात: 8:20

जब से मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास चाक पढ़ कर खत्‍म किया है मन इतना भरा-भरा रहा है कि डायरी लिखना चाहता रहा हूं। चाक से कुछ ही दिन पहले इदन्‍मम् पढा़ था। दोनों ने बहुत उद्वेलित किया था। चार्ज किया था। लेकिन जीवन का ढर्रा ऐसा है कि वक्‍त निकल नहीं पाया। कल आजकल में पं.जसराज के भजनों की कैसेट की समीक्षा पढी़। शाम को कैसेट खरीद भी ली। रात से सुन रहा हूं। अभी जो भजन चल रहा था वह भी वैसे ही चार्ज कर रहा था। सोचा कम से कम यह बात तो दर्ज कर दूं। रह जाएगी तो रिस जाएगी। विस्तार से बाद में लिखूंगा इन पिछले दिनों की मन: स्थिति के बारे में। नीरवता के आनंद के बारे में। साहित्य की सहचरता के बारे में। संगीत के राग के बारे में।

 
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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


साहित्य साहचर्य

16/05/98 शाम 5 बजे मथुरा, मुंबई अमृतसर स्वर्ण मंदिर मेल में

बाहर गर्मी बहुत है। भीतर (ए सी में) शांति है। पिछले दिनों की साहित्य साहचर्य की बातें दिमाग में हैं। पता नहीं आज भी लिखी जाएंगी या नहीं। गाडी़ हिचकोले जम के ले रही है।

इदन्‍मम् में राजनैतिक कार्यनीति की एक रूपरेखा उभरती है। वही उसकी रीढ़ है। हालांकि भाषा की गुंझलक ज्यादा है। जनता के बीच से जनता का आदमी (बल्कि औरत) दु:खों से तप के निकले (जनता में भी किसान) और जागरण या आंदोलन की अगुआई करे। मानवीय रहते हुए, सहज साधारण रहते हुए, इच्‍छा-शक्ति को संजोए रखते हुए। मंदाकिनी ऐसी ही युवती है।

चाक भी सुंदर प्रभावशाली उपन्यास है। सारंग नैनी के चरित्र में बहुत उठान है। राजनिति की धक्‍कमपेल प्रत्‍यक्ष है। प्रधान, प्रधान पद के प्रत्‍याशी, जातिवाद, भ्रष्टाचार, आदर्श पर अडिग अध्‍यापक। इस सारे चहबच्‍चे के बीच सारंग का चरित्र विकल्प के रूप में उभरता है। सच्चाई का पक्षधर। पति से भी लोहा ले लेने वाली। संबंधों की अंतर्धाराएं, सभी चरित्रों की गजब की हैं।

उपन्यास में पाठक को धर दबोचने की शक्ति भी है। क्या यह राजनैनिक कथा-वस्‍तु के कारण है, चारित्रिक सघनता के कारण है, समाज की बेहतरी के विचार के कारण है, पूरी लेखन कला के कारण है? शायद इन सभी कारणों से है।

एक और मकनातीसी कारण है। सारंग और श्रीधर मास्‍टर का प्रेम। श्रीधर अपने कर्तव्य के प्रति अडिग है। सारंग अन्याय से लड़ने के लिए हर बार श्रीधर से ही ताकत पाती है। तथाकथित सामाजिक नैतिकता से ऊपर उठा हुआ प्रेम-पाश है। यह भी पाठक को बांधता है। इन दोनों चरित्रों के कारण एक ऊर्जा प्रवाहित होती है। बाहरी स्तर पर नाटकीयता भी बनती है।

पं. जसराज के कंठ में सरस्‍वती है। भजन बडे़ सुंदर गाए हैं। आह्लादित करते हैं। संगीत में ताल मेरी पकड़ में पहले आती है, शायद इसलिए भी ये भजन आकर्षक लगे हों। देह उस ताल के वशीभूत होने लगती है। बहुत साल पहले रेडियो से फिलर के रूप में शहनाई का एक टुकडा़ बजा। मैंने रिकार्ड कर लिया। बाद में पता नहीं, उसे कितनी बार सुना। जितनी बार सुना, उतनी बार उसने देह को पिघला दिया। पता नहीं वैसे संगीत का कैसा असर होता है कि देह वश में नहीं रहती। खो जाती है। ये शब्द भी उस मन:स्थिति के लिए उपयुक्‍त नही लग रहे। पूरी तरह प्रकट नहीं कर पा रहे। फिर से जसराज के ये कृष्ण भजन सुने जाएं, तो पता नहीं कैसे लगें।

इदनमम् और चाक से पहले नरक कुंड में बास (जगदीश चंद्र), पांचवा पहर (गुरदयाल सिंह, पजांबी) अनुभूति (हेमांगिनी रानाडे) उपन्यास पढे़ थे। नरक कुंड में बास दलि‍त चेतना का बडा़ निर्मम यथार्थवादी उपन्यास है। सारे वर्णन बडी़ निर्ममता से किए गए हैं। एक दूरी, एक ठंडेपन से। अतिरिक्‍त भावुकता के बिना। पाठक चमडे़ के कारखाने के जीवन के चित्रण से दहलता चला जाता है। शिल्प की परवाह जगदीश चंद्र ज्यादा नहीं करते।

पांचवा पहर तो साधारण उपन्यास है। अनुभूति भी। यह मुंबई के पारसी समुदाय पर है। एक समाप्त होती हुई जाति की कहानी। बिन मां-बाप की एक संघर्षशील लड़की की कहानी। हेमांगिनी जी को भाषा और वर्णन के लिए और मेहनत करने की जरूरत है। (ये बात अगर उनको पता चले तो वे दुखी हो जाएं। मेरी पिटाई भी हो जाए।) इस उपन्यास के बाद पहल में मैत्रेयी पुष्‍पा की कहानी राय प्रवीण पढी़ थी। बडा़ प्रभावशाली वर्णन। आलोड़ित कर देने वाला। वह कहानी आधी पढ़ ली थी, कुछ पंक्तियां सुमनि‍का को सुनाने लगा तो ऐसा समा बंधा कि सारी कहानी ही सुना डाली। अंत तक पहुंचते-पहुंचते उसने द्रवि‍त कर दिया। सहज मनोदशा में लौटने में वक्‍त लगा। भावुकता का उद्रेक पेश करना क्‍या कहानी की कमजोरी है?

ट्रेन में शिव प्रसाद सिंह का गली भागे मुड़ती है पढ़ना शरू किया। उपन्यास में वैसी ताकत नहीं है। लगा मैत्रेयी के उपन्‍यासों के प्रभाव को अगर दर्ज नहीं करुंगा तो काशी की बाढ़ में ये धुल जाएंगे। यह अभी तक साधारण उपन्यास लगता है। बहुत पहले इन की लिखी हुई श्री अरविंद की जीवनी उत्तर योगी पढी़ थी। बडी़ अच्छी लगी थी।

Monday, November 4, 2013

कोरा कागज

Sumanikas sketch
रेखांकन: सुमनिका, कागज पर चारकोल

डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।

05/01/98
इस बीच कई दिन बीत गए हैं। कई रातें गुज़र गई हैं। न कविता हूक बन के दिल में समाई। न छुट्टी वाली रात को हाहाकार बन कर निकली। दिसंबर खत्म हो गया। यानी सन् सत्‍तानवे खत्म हो गया। यानी एक और साल बीत गया। अ भी-अभी थोडी़ देर पहले सोच रहा था क्या किया। इतने साल बीत गये। लिखना तो दूर की बात, मसले ठीक से समझ भी नहीं पाए। समझ बनी ही कहां। उमर चालीस की हो गई। जैसे अभी तक कुछ पल्ले पडा़ ही नहीं है। सोचा था साहित्य अपना क्षेत्र है। लेकिन साहित्य की भी समझ कहां है? जेब में कोरा कागज़ ही है। उस पर ककहरा भी नहीं उकेरा गया है। जब कागज़ ही कोरा है तो लिखा कहां से जाएगा।

क्या यह अवसाद का दौरा है? हो सकता है, कुछ हद तक अवसाद ही हो। या हो सकता है कुछ न कर पाने की कुंठा हो। सुमनिका तो कहती है, चिढे़ हुए रहते हो। चेहरा भी वैसा ही दिखता है। तो क्या चेहरे में भी चिढ़ भर गई है।
नौकरी तो दिमाग़ पर चारों याम छायी ही रहती है। (इससे बडी़ मुसीबत और क्या होगी) इधर रेडियो वालों ने फंसा दिया है। भारती पर प्रोग्राम बनाने का बिल्कुल मन नहीं है। रत्‍ती भर उत्साह नहीं है। वे इस बात को समझते नहीं। सुमनिका भी नहीं समझती। मना कर देने का मन है पर किसे कैसे कहा जाए।

भारती को पूरा पढा़ भी नहीं है। छिटपुट पढा़ई के बूते पर न्याय नहीं हो जाएगा। उससे बडी़ बात यह कि जो प्रोग्राम उनके मरणोपरांत उनके जन्म-दिन का देखा 'पुष्पांजली', उससे मन और भी मर गया है। काफी फूहड़ था।

कविताओं के प्रति यही धारणा बन रही है कि वासना लिप्त मांसलता का ही गान भारती ने किया है। कविता में वे उससे बाहर नहीं निकले। जहां कविता में कथात्मकता या चरित्र या मिथ या इतिहास या पुराण का सहारा लिया गया है, वहां समाज की व्याख्या होने लगती है। अंधायुग उसका चरम है जबकि कनुपिया मिथक के सहारे के बावजूद दूसरे छोर की कविता है। देह की उपासना। कुल मिला कर भारती आकर्षित नहीं करते। (आज 2013 में सोचता हूं, यह कितना सरलीकरण है)




Saturday, November 2, 2013

कम लिखे रह जाने का कलपना

Sadaneera 2
डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिड़ा हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के दूसरे अंक में हाल में छपे हैं।

कविता की हूक
11/12/97
पहल के नए अंक के साथ एक पुस्तिका आई है- मंगलेश डबराल से ललित कार्तिकेय की बातचीत। बहुत से पहलुओं को उन्होंने छुआ है। कविता लिखने को लेकर उन्होंने कहा है कि हर बार नई कविता लिखते समय लगता है जैसे कविता लिखना भूल गए हैं। नए सिरे से लिखना शुरू करना होता है।

यह बात लगा, मेरी ही बात है। अर्से से मेरे साथ भी यही होता है। ऐसा लगता है जैसे कविता लिखनी आती ही नहीं। जब लिख लो तो वह भाती नहीं। कविता लिखने का वैसा उद्रेक नहीं होता। संवेदना ही जैसे सोई रहती है। बहुत बड़ी बड़ी चट्टानें जैसे राह में पड़ी रहती हैं। अपनी कविता के प्रति निर्ममता और भी भटकाती है। वर्तमान कविता की बाढ़ को देखकर निर्ममता ज़रूरी लगती है। लेकिन यह निर्मतता किसी बच्चे की निश्च्छलता को बरज देने जैसा कहर भी ढा देती है। जैसे अरू और सुमनिका (बेटी और पत्‍नी) को ज़रा ज़ोर से बोल दूं तो दोनों ढुलमुल हो जाती हैं। उनका उत्साह मर जाता है। अपनी कविता पर कड़ाई बरतने से भी ऐसा ही होता है। शायरों और कवि सम्मेलनी कवियों जैसी आत्म-मुग्धता की प्रतिक्रिया स्‍वरूप ही तो कहीं ऐसा नहीं होता है? ऐसा नहीं लगता। वह तो रास्ता ही अलग है। यह मौजूदा कविता के रंग-ढंग से बचने का मकैनिज्‍म है। जो वाज़ दफा क्‍या, अक्‍सर ही सिट्टी-पिट्टी गुम कर देता है। तीन कविताएं लिख रखी हैं। संतुष्ट नहीं करतीं। वे पूर्ण नहीं होतीं। नई बनती नहीं। यूं भी गति बेहद कम है। कविता लेखन के लिए अक्सर लगता है कि आदमी में आत्‍मरति होनी चाहिए। इसका ज़रा सुधरा हुआ रूप होगा अपने ऊपर भरोसा। अपने देखे, सोचे, महसूस किए पर विश्वास। अपनी बात की कीमत।

थोडी़ देर पहले अरू किताबों से खेल रही थी। क्लास के दृश्य की कल्पना कर, खुद अध्यापिका बन, सबको पुस्‍तकें बांट रही थी। उसमें मेरी एक पुरानी डायरी भी थी। वह डायरी मैंने उठायी। पलटी। उसमें शुरुआती दौर की हिंदी और पहाडी़ कविताएं हैं। एक कविता पढी़। पहाडी़ में। तुक में। पहाडी़ (भाषा) में बोली की लोच है। लावण्‍य भी। सुमनिका को अर्धनिद्रा में सुनाई। पढ़ कर मज़ा आया। संयोग यह भी था कि वह ठीक 22 वर्ष पहले की थी, सन् 1975 की। दिसंबर महीने की 12 तारीख की और आज 11 दिसंबर है। यह कविता 1977 में हिमभारती में छपी भी थी। कविता के नीचे यह भी दर्ज कर रखा है। पढ़ कर लगा, उस वक्त क़े हिसाब से, बी. ए. के दूसरे साल में बुरा प्रयास नहीं था। शायद यही कारण था कि रूह में थोडी़ फुरफुरी हुई। नीचे उतर कर पान-चर्वण कर आया। आ कर डायरी लिखने बैठ गया। मित्र कवियों की कविताएं पढ़ने तक सीमित हो चुके समय में इस तरह अपनी पुरानी कविता पढ़ कर जाग उठना उत्साहवर्धक है। नौकरी के बेतुकेपन के बीच यह जागृति ज़रा देर ठहर जाए! जैसे आजकल सुबह-शाम ज़रा सी तुर्शी, ज़रा सी ठंडी हवा, मन में नॉस्टेलिज्या भर रही है, कविता ने उस नॉस्टलिज्या को थोडा़ और सघन कर दिया है। मन करता है, रात भर जागे रहा जाए। बैठ कर मन के उच्छवास को उचारा जाए। पर दिनचर्या का भूत कड़ियल मास्‍टरनी की तरह कमरे में टहल रहा है। जो कहता है, बस करो। सो जाओ। वरना सुबह दफ्तर देर से पहुंचोगे। ओ कविता की हूक, तू फिर से दिल में समा जा। छुट्टी वाली रात को हाहाकार बन निकलना।