रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल |
डायरी के ये अंश सन् 1997 से
2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्थाई तौर पर आ गया था। हालांकि
यह स्थायित्व भी ज्यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के
ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें
हैं। अल्पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्ती भर
वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने
और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्य की
नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।
05/08/98 नई दिल्ली यूटीआई गेस्ट हाऊस, ग्रेटर कैलाश
गोविंद सिंह (पत्रकार) और तापस चक्रवर्ती (आईडीबीआई के सहकर्मी और अंग्रेजी कवि) से बात हुई। गोविंद से संयोग से राकेश वत्स (अंबाला वाले नहीं, ये हिमाचल के हैं) का नंबर मिल गया। अर्से बाद उससे बात की। पिछले साल चंडीगढ़ में कई सालों बाद भेंट हुई थी। तब उसके पिता का एक्सिडेंट हुआ था। आज उससे पता चला जगदीश मनहास (गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में हमारे सीनियर, अब पोर्ट ब्लेयर में) के भाई का देहांत हो गया है। बड़ी बुरी खबर है। सम्पर्क तो बरसों से नहीं था, यूनिवर्सिटी के बाद ही कोई खबर नहीं थी कहां है। अचानक पता चला तो बुरा लगा। यह भी पता चला कि सांगरा (हिमाचल से) फिर बे-रोजगार है। उस पर भाग्य की मार हमेशा पडी़ रहती है।
तापस ने भी उद्भभावना कविता विशेषांक में छपी कवितायों की आलोचना की। सभी एक सुर से आलोचना कर रहे हैं। हां यह है मध्यवर्गीय कविता। जब कवि मध्यवर्ग का है तो कविता किसकी लिखेगा। वह लिखने में ईमानदार है। नौकरीपेशा है। वक्त का उसके पास टोटा है। अपने वर्ग से बाहर की दीन-दुनियां वह कहां से देखे। बाहर की बात फार्मूले से लिखेगा तो नकल ही होगी। जब समाज का बड़ा तबका सारे विमर्श से बाहर है तो अकेला कवि क्या इन्कलाब कर लेगा। यह कवि और इसकी कविता जनविरोधी नहीं है। जन का प्रतिनिधित्व उस रूप में नहीं हो रहा हो, ऐसा हो सकता है। पर जनभक्त या जनमित्र कट्टरपने की बात करते हैं। संस्कृति के दूसरे पहलुओं के साथ मिलाकर, दूसरे कला माध्यमों के साथ मिलाकर कविता की बात होनी चाहिए। पत्रकारिता को भी सामने रखना चाहिए। भक्तिकाल जैसा बंजारा कवि समय लौट कर नहीं आ सकता। आज का कवि अलग धारतल पर है, जनता अलग धरातल पर। और जनता के भी ढेरों धरातल हैं। हवेली की छत तक पहुंचने वाली सीढ़ी की तरह के धरातल हैं। अगर कवि की ताल या कदमताल अलग है तो कहानीकार भी अपने ही घाट पर कपडे़ पछींट रहा है। जरा उपन्यास भी गिन लिए जाएं, मध्यवर्ग से बाहर के जीवन के कितने हैं। मतलब यह कि ऐसा बयान करते समय विधा की मर्यादा का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। तुक ताल छंद का दुराग्रह जनता को बदल डालेगा, अगर ऐसा विश्वास है तो यह बालोचित विश्वास है।
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