Sunday, November 17, 2013

डंडे के ज़ोर पर जयकारा

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रंखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।


25/09/98
आज दफ्तर के काम के सिलसिले में बाल ठाकरे के प्रभाव की बदमग्‍जी का प्रत्‍यक्ष अनुभव हआ। अब तक बातें सुनने में ही आती थीं। आज पता चला कि 'जोर-जबरदस्ती' कैसे काम करती है। कोई फौजदारी नहीं हुई। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जबरदस्ती कैसे रोका जाता है, शक्तिशाली प्रबंधन भी कैसे घुटने टेक देता है, यह पता चला। पिछले कई महीने से हम लोग स्टाफ की रचनाओं का संकलन प्रकाशित करने में जुटे थे। उसे आकर्षक बनाने में मेहनत कर रहे थे। कल ही पत्रिका के रूप में 'संभावना' नाम का यह संकलन वितरित हुआ। आज शाम को लोकाधिकार समिति ने विरोध दर्ज करा दिया। विरोध क्‍या, पूरा का पूरा जत्‍था कार्यपालक निदेशक के पास पहुंच गया। शिकायत यह थी कि एक लेख में लिखा गया था कि फूलन देवी और बाल ठाकरे जैसे लोगों के पीछे जनता कैसे पागल है। जनता का बडा़ पतन हो गया है। आपत्ति इस बात पर थी कि 'दिंदू हृदय सम्राट' बाल ठाकरे की तुलना फूलन देवी से कैसे कर दी गई। कार्यपालक निदेशक वासल साहब ने निर्णय लिया कि प्रकाशन को वापस ले लिया जाए। इसका वितरण न किया जाए। हम लोग, उनके सेनानी, जुट गए टेलीफोन करने, चिट्ठी लिखने, पत्रिका उठवाने में, कि उसे लेकर डंप कर दिया जाए। किए को अनकिया कर दिया जाए।

दफ्तर में कर्मचारियों की यूनियन पर शिव सेना का वर्चस्‍व है, लोकाधिकार समिति भी उनका ही एक अंग है। विरोध उसी ने दज किया। ढेर सारे चपरासियों और ड्राइवरों ने पत्रिका बंद करवा दी। सवाल चपरासियों ड्राइवरों का नहीं है, सवाल अक्‍खड़पन और कुंदजहनी का है। आलोचना सुनने का धैर्य नहीं है। दूसरे का पक्ष सुनने की समझ नहीं है। घेराव, धरना, जोर आज़माइश के तमाम तरह के तरीकों से अपनी बात मनवाने की जिद्द है। डंडे के ज़ोर पर जयकारा बुलवाना है। महाराष्ट्र के इस आतंक का सामना आज इस तरह से हुआ। अब देखना है आगे क्या होता है।

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