Thursday, April 6, 2023

दोस्त

 


मैंने कहानियां ज्यादा नहीं लिखीं हैं । जो लिखी हैं वे भी पचीस तीस साल पहले । रोटियां कहानी हिमाचल की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर हैजो मधुमति में छपी थी । मुंबई के आवारा कुत्तों के पकड़ने की कुत्ताघर नाम की कहानी वर्तमान साहित्य में छपी थी । एक और सीधी-सादी कहानी सवा दो अक्षर नव भारत टाइम्स में छपी थी । वीटी बेबे नामक कहानी कथादेश में सन 2002 में छपी थी।  जो कहानी आपको आज पढ़वा रहा हूंवह भी मुंबई के तंगहाल जीवन को केंद्र में रखते हुए लिखी थी । दोस्त शीर्षक से यह कहानी भी नव भारत टाइम्स में छपी थी। 


फाइलों से घिरे फैले पसरे मेज के ऊपर डाक के पांच सात लिफाफे और आ जुड़े । शर्मा जी बादामी और खाकी से लिफाफों को फाड़-फाड़ कर देखने लगे । उस मटमैली जमात में अलग-थलग पड़ा, नीले रंग का एक अंतर्देशीय शर्मा जी के हाथ में आकर खुलने ही वाला था कि बाईफोकल चश्मे ने पते पर लिखे गणपत राम शर्मा को सीधे शर्मा जी के दिमाग में घुसा दिया ।

यहां उन्हें हर कोई जी आर शर्मा के नाम से ही जानता है ।

गणपत राम शर्मा ने पत्र को पलटा । भेजने वाले का नाम साफ पढ़ा जा सकता था । धनवंत सिंह ठाकुर ।

आगे-आगे गनपत राम पीछे-पीछे धनवंत सिंह, दोनों नाम शर्मा जी के दिल में छपाक से गोता लगा गए । शर्माजी की पीठ पीछे हटकर कुर्सी की पीठ से जा लगी और मेज के नीचे उनके पैर हिलने लग गए । अरे! यह तो वही अपना धनवंत लगता है । चुकस्ता मारकर लिखने की वही पुरानी आदत ।

शर्मा जी ने चिट्ठी खोल ली । पढ़ाई के दिनों की तैरती छवियों के साथ खत पढ़ने लगे । खत के खत्म होते-होते आंखों की पुतलियां, नाक और होंठ फैलने सिकुड़ने लगे करीब । करीब दस साल बाद यार को याद आई खत लिखने की । पिताजी के गुजरने पर शर्मा जी गांव गए थे तो वहां आया था धनवंत विचार करने ।

खत में लिखा था कि वो जिला वन अधिकारी हो गया है और बंबई घूमने आ रहा है । शर्मा जी समझ नहीं पाए, वे खुश हो रहे हैं या झेंप रहे हैं । वो लफंटर डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट ऑफिसर हो गया और बंबई भी आ रहा है ।

शर्मा जी को जरा गर्मी सी महसूस हुई । उठकर खिड़की के पास खड़े हुए । अंतर्देशीय तहा कर जेब में रखा । अब दफ्तर के काम में उलझे रहने की मन:स्थिति नहीं थी । अंतर्देशीय शर्मा जी को इस बदामी खाकी मटमैली कागजों की धूसर दुनिया से बाहर ले आया । उसी झोंक में वे इमारत से बाहर निकल आए । थोड़े से फैले हुए पेट को साथ लेकर बेध्यानी में चाय के खोखे के पास आ गए, जहां उनके महकमे का कोई न कोई हर वक़्त जमा ही रहता है । पवार और दलवी के साथ कटिंग पीने के लिए रुक गए । दूसरी तरफ तीन-चार महिलाएं भी चाय के बहाने खड़ी थीं । शर्मा जी ने चारों महिलाओं की साड़ियों के रंग अलग-अलग पहचान लिए । किस साड़ी का प्रिंट अच्छा है, किसका बॉर्डर सलीके से कंधे पर चढ़ा हुआ है । धनवंत के शब्द टनटनाते हुए शर्मा जी के दिमाग में कौंधे  - वह फूल वाली, वो टोकरी । धनवंत साड़ी के डिजाइन से औरतों के रूपाकार की कल्पना करता था ।

पवार ने टोका

- क्यों शर्मा जी बड़े खुश नजर आ रहे हैं ।

- नहीं-नहीं, बोलते हुए शर्मा जी की दोनों आंखों के बीच माथे का भारी सा हिस्सा हरकत में आ गया । अनजाने में हाथ जेब तक गया और अंतर्देशीय को छूकर निश्चिंत हो गया ।

रात को घर में घुसते ही शर्मा जी का मन उचाट सा हो गया । चौदह साल की बेटी सात साल के बेटे और अधेड़ सी दिखती पत्नी से कोई खास बात भी नहीं हुई ।

दूसरे दिन सुबह चाय के साथ अखबार पलटते हुए अपने प्रदेश की खबर पर नजर गई तो शर्मा जी ने आंखें मिचमिचा कर उसे पूरा पढ़ा । दाढ़ी बनाते हुए उन्होंने पत्नी को धनवंत के बारे में बताया कि अब जिले भर का अफ्सर हो गया है । वे उसके मुंबई आने की बात नहीं बता पाए । तरक्की की खबर सुनकर पत्नी को कैसा लगा शर्मा जी भांप न सके। वे खुद को भी जांच नहीं पाए थे कि दोस्त की पदोन्नति से खुश हैं या मुंबई आने से तनिक चिंतित ।  

पत्नी ने उस दिन अपने डेढ़ कमरे के फ्लैट की हर चीज को खूब झाड़ा पोंछा । शाम को जब शर्मा जी के ब्रीफकेस से उसने सब्जी निकाली तो ब्रीफकेस की किनारियों पर जमी धूल को देखकर बड़बड़ करने लगी । शर्मा जी ने नोट किया कि पत्नी ने सलीकेदार कपड़े पहन रखे थे । कमरे की ताजगी को देखकर उन्होंने तहकीकात भी की – क्या कोई आया था ?

- कौन आएगा यहां । और पत्नी ने बेटी को ब्रीफकेस साफ करने की हिदायत दी ।

कोई चार दिन तक शर्मा जी जब भी अकेले होते उनके माथे पर बल पड़ जाते और नाक के ऊपरी हिस्से पर गुमटी सी खड़ी हो जाती ।

आठवें दिन उनके ये बल खत्म हो गए । इसके बाद ठाकुर धनवंत सिंह के मुंबई आने के दिन ज्यों-ज्यों नजदीक आने लगे, वे निश्चिंत से दिखने लगे । शर्मा जी जैसे निर्भार हो गए थे ।

·        

और एक दिन शर्मा जी ने अपने परिवार को खुशी-खुशी विदा कर दिया । बच्चे खुश थे कि तीन-चार दिन छुट्टी मनाएंगे, पिंकू-टिंकू के साथ खेलेंगे, आंटी आइसक्रीम खिलाएगी । वीडियो पर फिल्में दिखाएंगी । पत्नी ने राहत महसूस की कि गृहस्थी की चक्की से चार दिन तो निजात मिलेगी ।

विरार में शर्मा परिवार के परिचित रहते हैं अपने ही इलाके के । अच्छे खाते पीते । उनकी कई सारी टैक्सियां हैं । विरार में दो साल हुए एक बड़ा बंगला बनवाया है । शर्मा पत्नी को वहां जाकर माईके जैसा ही लगता है सो तुरंत जाने को तैयार भी हो गईं । एक टैक्सी लेने आ गई थी और शर्मा जी ने हाथ हिलाकर विदा कर दिया । विदा करते समय मुस्कुराना वे नहीं भूले । पेंट की जेबों में हाथ डालकर चलने लगे तो उन्हें अपना वजन कम महसूस हुआ ।

·        

- क्यों शर्मा जी सब्जी नहीं लेनी ?

- नहीं । फैमिली बाहर गई है ।

- मतलब आप भी बैचलर हो गए ?

- ऐसे ही समझो ।

- तो चलो आज मेरे यहां ।

दफ्तर से लौटते हुए शर्मा जी बिना न नुकर किए श्रीवास्तव के साथ हो लिए । चाय के बाद तय हुआ कि जरा महफ़िल जमाई जाए तभी कुंवारापन सार्थक हो ।

रम का एक-एक पैग अंदर गया तो कमरा चहकने लगा । श्रीवास्तव ने बताया कि घर से इतना दूर होने के बावजूद लोग उसके यहां आते रहते हैं । सबसे ज्यादा तो दोस्त यार । हर महीने कोई न कोई । यूनिवर्सिटी में पढ़ने और हॉस्टल में रहने का यही तो नुकसान होता है । मेरे बैच के कोई दस लोग यहीं मुंबई में होंगे । फिर दिल्ली, हैदराबाद, मद्रास, कहीं न कहीं से चले ही रहते हैं । बंबई ससुर जगह ही ऐसी है ।

- अच्छा है न दिल लगा रहता है ।

- पर यह दिल लगाना बड़ा महंगा पड़ता है ।

- दोस्तों से मिलना तो हो जाता है न ?  

- हां, यह तो है । पर शर्मा जी आपका परिवार कहां गया है ?

- वो भी दोस्त के यहां गए हैं । घर जैसे ही हैं ।

- आप नहीं गए ?

- मुझे आपसे जो मिलना था । शर्मा जी ने मसखरी सी की ।

- छोड़िए शर्मा जी । यह तो मैं जबरदस्ती ले आया वरना आप कहां आते हैं ।

- नहीं श्रीवास्तव ऐसी बात नहीं है । तुम तो मुझे बहुत अच्छे लगते हो । पर घर गिरस्ती और दफ्तर । वक्त ही कहां मिलता है ।

- शर्मा जी, आप तो यहां कई सालों से हैं । आपके दोस्त मित्र भी काफी होंगे ।

- दोस्त ! हां दोस्तों की कौन सी कमी है ।

शर्मा जी दूसरे पैग के साथ रौ में आने लगे थे । दोस्ती की लहर में बह चले ।

- डियर श्रीवास्तव, बीस बीस साल पुरानी दोस्तियां हैं अपनी । अपना एक लंगोटिया यार है ठाकुर । जिले भर का अफसर बन गया अभी कुछ दिन पहले । उसकी चिट्ठी भी आई । चिट्ठी लिखना नहीं भूला ।

- अच्छा ! आप तो बड़े आदमी हैं ।

- बड़े हम नहीं, बड़ा तो वो है । वन विभाग में है । खूब पैसे कूटता होगा साला ।

शर्मा जी का मन दोस्त के बारे में और बातें करने का हो रहा था, पर गला अटक अटक जाता था । पूरा गिलास गटक कर उन्होंने गला तर किया ।

- पर देखो श्रीवास्तव, में भी अजीब उल्लू हूं । वो अपना दोस्त अफसर ही नहीं बना, बंबई भी आ रहा था ... और मैं ...

शर्मा जी फिर अटक गए ।

- कब आ रहा है वो बंबई ?

शराब पी के शायद अपनी कमजोरियों का सामना करने की ज्यादा ताकत आ जाती है आदमी में । पिछले हफ्ते जो फैसला शर्मा जी ने किया था उस पर दुबारा विचार करने की हिम्मत वे नहीं कर पाए थे । खुद को भी उन्होंने याद नहीं दिलवाया कि उनका पुराना दोस्त आ रहा है और कई सालों बाद उससे मिलने का मौका मिलेगा ।

लेकिन नशे में मन के भीतर छिपी हुई बात जुबान पर आ ही गई । खुद को गालियां देखने देने लग गए शर्माजी ।

- मैं तो बहुत ही चूतिया निकला यार । भैनचो अपने ही दोस्त के आने की खबर को छिपा गया । शायद डर ही गया यार मैं कि वो बहुत बड़ा अफसर हो गया है । इधर मैं मुंबई में कैसे-कैसे तो रहता हूं । दोस्त देखेगा तो क्या इंप्रेशन पड़ेगा । फिर वह बीवी बच्चों के साथ आ रहा है । कहां ठहराऊंगा ? और साली चुप ही लगा गया मैं । ऐसी चुप कि घर में किसी को हवा तक नहीं लगने दी ।

श्रीवास्तव को समझ न आए,  शर्मा जी क्या बोल रहे हैं और क्यों बोल रहे हैं । वह उन्हें शांत करने लगा ।

- जो हो गया भूल जाइए ।

- भूल कैसे जाऊं मेरे दोस्त । नहीं, दोस्त कहने का हम मुझे नहीं है श्रीवास्तव साहब । मेरे जैसा बेगैरत कोई नहीं होगा। बीवी बच्चे विरार भेज दिए । खुद साला आपके पास आ गया ताकि अगर भूले भटके घर आ ही जाए तो ताला लगा देखकर अपना इंतजाम खुद करता रहे ।

और शर्मा जी ठहाका मार कर हंस पड़े । फिर उन्हें खांसी आ गई । जरा सांस लेकर उन्होंने घूंट भरा और फिर शुरु हो गए ।

- पर जानते हैं दोस्त से छिपता क्यों फिर रहा हूं ? इतने सालों से इस शहर में लल्लू सी नौकरी कर रहा हूं । घर में एक्स्ट्रा गद्दा नहीं है कि कोई आ जाए तो सुला सकूं । किसी की खातिरदारी करने की हिम्मत नहीं पड़ती । बीवी को कोई सुख नहीं दे सका । बच्चे भी जैसे समझदार हो गए हैं, कोई मांग नहीं करते । पता है पूरी ही नहीं होगी । पर श्रीवास्तव साहब घर में कभी झगड़ा नहीं किया मैंने । जितना बन पड़ा परिवार को सुख देने की कोशिश की पर साली चादर इतनी छोटी है कि पैर नंगे ही रहते हैं हमेशा । क्या जिंदगी है ?

श्रीवास्तव को लगा शर्मा अपने पर कुढ़ता ही रहेगा । सांत्वना देते हुए बोला

- तो इसमें आपकी क्या गलती है!

- गलती कैसे नहीं ? साला मैंने दोस्त से दगा किया । जान जाता न मैं कैसे रहता हूं ? क्या सोचता ? कौन सी इज्जत चली जाती ? ऐसे ही कौन से झंडे झूल रहे हैं ।

- अरे शर्मा जी आप तो यूं ही छोटी सी बात दिल पर लगा के बैठ गए ।

- श्रीवास्तव तुम इसे छोटी सी बात कहते हो ?

- छोड़ो छोड़ो शर्मा जी ग्यारह बज गए । अब खाना खाते हैं ।

- अब खाना क्या खाना । में तो बहुत ही नीच निकला श्रीवास्तव । तुम मेरे दोस्त हो न ?

- हां हां

- नहीं, दिल से बोलो, दोस्त हो ?

- हां हां बोल रहा हूं ।

- मेरी कसम ?

- हां आपकी कसम ।

शर्मा जी बुक्का फाड़ कर रो पड़े ।

- मेरे प्यारे दोस्त । मुझे माफ कर दो।

नशे में धुत शर्मा जी का नजारा देखने लायक था । वो रोते जा रहे थे और श्रीवास्तव के पैरों में झुके जा रहे थे ।

- माफ कर दो दोस्त... माफ कर दो... ।

झुकते हुए चप्पल उनके हाथ लग गई । उठा कर श्रीवास्तव को देने लगे ।

- लो मुझे जुत्ते लगाओ । मैं इसी लायक हूं । मारो मेरे दोस्त मारो मुझे । और खुद ही अपने सिर पर चप्पलें टिकाने लगे ।

श्रीवास्तव ने चप्पल छीन कर फेंकी । और बात करने लगा ।

- ये तो बताया ही नहीं वो आ कब रहा था ?

- कौन ?

-आपका दोस्त

- दोस्त नहीं, मेरे जिगर का टुकड़ा । बीस की रात को उसकी ट्रेन यहां पहुंचनी थी ।

- बीस तो आज ही है ।

- तभी तो फिर रहा हूं भागा भागा ।

- तो चलो पहनो जूते । चलो । उसको ले के आते हैं ।

- क्या कह रहे हो श्रीवास्तव । नहीं नहीं । मैं उसे मुंह दिखाने लायक नहीं हूं ।

- क्या कह रहे हैं शर्मा जी । वो आपका जिगरी दोस्त है । और ठहराने की चिंता न करो । उसका इंतजाम हो जाएगा।

- तुम तो देवता आदमी हो श्रीवास्तव । मुझे चरणबंदा करने दो मेरे दोस्त, मेरे देवता ।

एक बार फिर श्रीवास्तव ने शर्मा जी को उठाया ।

·        

आखिर वे दोनों मुंबई सेंट्रल रेलवे स्टेशन पहुंचे । संयोग से वक्त से पहुंच गए । गाड़ी रुक ही रही थी ।

 - हां शर्मा जी जल्दी करो । पहचानो । कहीं निकल न जाए ।

शर्मा जी का सारा नशा काफूर हो गया । वे पसीने से नहा गए । उतरती सवारियों पर उनकी नजर दौड़ती जाती थी । आखिर उन्हें झटका सा लगा जिसकी वे तैयारी सी भी कर ही रहे थे । आंखों से होता हुआ पैरों तक बिजली का करंट सरसराया । उन्होंने श्रीवास्तव का हाथ कसके पकड़ लिया । थोड़ा नजदीक गए और सारा सामान उतरने दिया। तीन चार लोगों के झुंड के पास दम साधे खड़े हो गए ।

मजदूरों को पैसे देकर व्यक्ति ने जैसे ही चारों तरफ नजर दौड़ाई, वह अचानक रुक गया । उसकी बांछें खिल गईं ।

- अरे गनपत ? तुम यहां ? मुझे लेने आए हो ? अरे देखो सावित्री गनपत आया है ।

नमस्ते-वमस्ते होती रही । गनपत छुई-मुई होता रहा ।

- क्या बात है, सब ठीक तो है ?

- हां... तुम...?

- बस आ गए तुम्हारे पास ।

- हां ... हां...

शर्मा जी के गले में कांटे चुभ रहे थे ।

- और बाल-बच्चे, राजी-बाजी ?

- हां सब ठीक है ... ये मिलो मरे कुलीग श्रीवास्तव ।

अपने बच्चों को हिदायत देते हुए ठाकुर सामान उठवाने और टैक्सी ढूंढ़ने में व्यस्त हो गया ।

- जल्दी करो, आगे ही इतनी देर हो चुकी है ।

शर्मा जी ने सूखते गले से फिर बोलने की कोशिश की

- तु... तुम ... क... कहां ...

- अरे यहीं ताड़देव में एक गेस्टहाउस में बुकिंग है । अपने एक टिंबर मर्चेंट ने करवा दी थी । आओ चलो वहीं गप्प लगाते हैं ।

शर्मा जी का गला जरा खुला ।

- मेरी चिट्ठी नहीं मिली तुम्हें ?

- न । चलने के दिन तक तो नहीं मिली थी ।

- आप दो दिन से दफ्तर भी कहां गए थे । ठाकुर पत्नी ने जोड़ा ।

और शर्मा जी सामान लदवाने के लिए टैक्सी की तरफ बढ़ गए ।        


Saturday, April 1, 2023

पारदर्शी भाषा के चित्रकार

 


विनोद कुमार शुक्ल हमारे समाद्रित कवि हैं। हाल ही में घोषित अंतरराष्ट्रीय पेन पुरस्कार के कारण साहित्य समाज में खुशी की बयार बह रही है। इस पुरस्कार से हिंदी भाषा को गर्वित होने का एक और अवसर मिल गया है। इसी प्रसंग में मेरी यह टिप्पणी भारतीय विद्या भवन की मासिक पत्रिका नवनीत में छपी है।    

 

विनोद कुमार शुक्ल की साहित्य की लंबी यात्रा रही है जो सन् 1971 में पहचान सीरीज में लगभग जय हिंद से शुरू होकर आज तक अनवरत जारी है। सन् 1981 में उनका कविता संग्रह आया वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह। इस शीर्षक ने पाठकों और समालोचकों दोनों को चौंकाया। विनोद कुमार शुक्ल ने कविता की अपनी निजी कहनीविकसित की है। इसी वजह से उन्हें कला की तरफ अधिक झुकाव रखने वाला भी माना गया। भाषा में चमत्कार पैदा करने की बातें भी कही गईं । लेकिन यह पूरा सच नहीं है। बल्कि अधूरा सच भी नहीं है। जब तक उनकी या किसी की भी कविता को समग्रता में नहीं देखा जाएगा, उसकी कहनीपर जजमेंट देना न्यायसंगत नहीं होगा। विनोद कुमार शुक्ल गहरी मानवीय संपृक्ति के कवि हैं। व्यक्ति को, उसके मानसिक वितान को, उसके घर-संसार को, उसके बाहरी परिवेश को, देश-समाज को, अत्यंत कीननेससे, अपनेपन से, निश्छलता से, आपसी गर्माहट से, देखने वाले कवि हैं। उनका काव्य-समाज मनुष्य और प्रकृति के आपसी तालमेल से बनता है। तमाम विसंगतियों को भी वे बेलाग निस्पृहता से पकड़ते हैं।  निस्पृहता और करुणा का यह मेल एक तरह की सादगी और सपाट बयानी का आभास देता है। उनके भाषाई प्रयोग में एक तरह की मंथरता और परतदारी है। शब्द दर शब्द, पंक्ति दर पंक्तिबिंब दर बिंब, वे एक काव्य-वास्तु खड़ा करते हैं। उसी में से भाव और अर्थों की परतें खुलती हैं। उनकी कविता को हौले से अपने सामने रखकर पढ़ना होता है। तब कविता की पंखुड़ियां खुलती खिलती हैं। 

सन् 2000 में छपे कविता संग्रह अतिरिक्त नहींमें एक कविता है, इस मैदानी इलाके में। इसकी पहली पंक्ति है कि मैदानी इलाके में इस साल भी पहाड़ नहीं हैं। वे चाहते हैं कि पहाड़ों को अब मोटर स्टैंड, कचहरी, पाठशाला या खेतों के पीछे आ जाना चाहिए। आगे वे कहते हैं कि जो जगह जहां नहीं है वहां के लिए उसका न होना ज्यादती है। इसके बाद कामना करते हैं कि समतल जगह हिमालय पर चली जाए, भोपाल बांकल में चला जाए, काशी गंगा छोड़कर महानदी के तट पर आ जाए, इत्यादि। भू-स्थलियों की अदला-बदली करने की कल्पना साकार होने लगती है और कविता की परतें खुलने लगती हैं कि यहां वे सारी भू-स्थलियों को विस्थापित कर देने की कामना कर रहे हैं ताकि किसी एक जगह को दूसरी जगह की कमी महसूस न हो या हर जगह को दूसरी जगह का स्वाद मिल सके। गांव घर से किसी को भी विस्थापित न होना पड़े। इस तरह यह विस्थापन की एक अलग तरह की कविता है। मनुष्य विस्थापित न हों, जगहें इसकी भरपाई करें। 

घर से कवि का बेहद लगाव है। यह कई जगह प्रकट होता है। घर सभ्यता की, मनुष्यता की, संबंधों की प्राथमिक इकाई की तरह उनके पास है। लॉकडाउन के दौरान फेसबुक लाइव में भी वे अपनी बात इसी बात से शुरू करते हैं कि मैं घर से बोल रहा हूं। उसके बाद शहर और प्रदेश का नाम लेते हैं।

जब बाढ़ आई

तो टीले पर बसा यह घर भी

डूब जाने को

आसपास का सब पड़ोस इस घर में

मैं इस घर को धाम कहता हूं

और ईश्वर की प्रार्थना में नहीं

एक पड़ोसी की प्रार्थना में

अपनी बसावट में आस्तिक हूं ...

(जब बाढ़ आई, कभी के बाद अभी संग्रह से)

 

मेरी चार साल की नातिन

बस्ता लटकाए स्कूल से आ रही है

मैंने उससे पूछा

तुम स्कूल से आ रही हो?’

हां

घर जा रही हो?’

नहीं, घर को आ रही हूं

एक छोटी बच्ची हमेशा आ रही होती है

उससे विदा होते समय मैंने कहा

अच्छा, मैं आ रहा हूं

(आते जाते लोगों से भी, कभी के बाद अभी संग्रह से) 

समाज में व्याप्त सोपान क्रम के बारे में एक कविता में वे लिखते हैं कि सामने बैठने वालों की कुर्सियां हटा देनी चाहिए, जो बड़े लोगों के बैठने के लिए होती हैं। फिर बाद वाली कुर्सियां सामने वाली हो जाएंगी और उनमें पीछे बैठने वाले ही बैठें। (वैसे सामने की कुर्सियां, कभी के बाद अभी संग्रह से) यह है कवि का चुनाव कि वह किन लोगों के साथ है। विष्णु खरे ने उनके कविता संग्रह अतिरिक्त नहीं के ब्लर्ब में लिखा है, ‘‘ विनोद कुमार शुक्ल शमशेर बहादुर सिंह के साथ हिन्दी के सबसे बड़े प्रयोगधर्मी कवि भी हैं ... किंतु सिर्फ उन्हीं ने यह सिद्ध किया है कि लगातार प्रयोग और लगातार प्रतिबद्धता एक साथ संभव हैं। उनके सिवा और कौन लिख सकता है : सबके हिस्से की हवा वही हवा नहीं है / अपने हिस्से की भूख के साथ / सब नहीं पाते अपने हिस्से का पूरा भात ...’’ 

कविता विनोद कुमार शुक्ल के लेखन का एक पक्ष है। उनका उतना ही प्रखर पहलू कथाकार का है। कथा साहित्य में भी वे विषय, कथा तत्त्व, भाषा और शिल्प के अन्यतम प्रयोग करते हैं। उनकी कथा शैली उनकी ही कथा शैली है। कोई उनकी तरह लिखने लगेगा तो तुरंत पता चल जाएगा। नौकर की कमीज’, ‘खिलेगा तो देखेंगेऔर दीवार में खिड़की रहती थीउपन्यासों में भी उनका घर के प्रति जबरदस्त आकर्षण है। एक तरह से घर केंद्र में है। निम्नमध्यवित्त के पात्र होने के कारण बहुत कम वस्तुओं से इनका घर बन जाता है। हरेक चीज का अस्तित्व है। पात्रों में जीने की तन्मयता है। सादगी है। प्रोफेसर को सवारी के रूप में हाथी मिल जाता है। नवविवाहित प्रोफेसर की अपनी रोमांटिक दुनिया है। इस अर्थ में हाथी की सवारी मिलने से वह यथार्थ से थोड़ा ऊपर उठ गया है। उसे अब टेम्पो और साइकिल की जरूरत नहीं रही। हाथी उसे दयनीयता और अपमान से ऊपर उठा देता है। उपन्यासकार इस बहाने से उपभोक्तावादी विकास को धता बताता है। तीनों ही उपन्यासों में मुक्ति का एक स्वतंत्र दर्शन रचा गया है। सबके पास जरूरत भर का जीवन हो और जो प्रकृति में रचा बसा हो। गरीबी का वर्णन है, महिमा मंडन नहीं। महत्वपूर्ण यह भी है कि उसका जवाब अमीरी में नहीं खोजा गया है। 

उपन्यासों में खांटी यथार्थ है; जीवन की क्रूरता है और सौंदर्य भी है। उसे व्यक्त करने में उपन्यासकार बच्चों के खेल संसार जैसा मासूम बना देता है। उनके संवाद, शिल्प, उछाह, सब जैसे शिशुता की रंगत से भरे हैं। शायद इसीलिए उनमें लोककथाओं के संवादों जैसी पुनरावृत्ति, शैलीबद्धता और लय मिलती है। खिलेगा तो देखेंगेके कुछ दृश्य तो कार्टून फिल्म की याद दिलाते हैं। बस पतली हो के गली में घुस जाती है, सीढ़ियां चढ़ जाती है। 

विनोद कुमार शुक्ल का भाषा विन्यास भी भिन्न है। इनके वाक्य छोटे हैं। वे किसी दृश्य या घटना का ब्योरा छोटे-छोटे वाक्यों में देते हैं। इससे लोक कथा वाचन का रंग आता है पर कहानी में नाटकीय भंगिमा बिल्कुल नहीं है। बल्कि भंगिमा ही नहीं है। यही इसकी खूबी है। सीधे-सादे जमीनी पात्र। गरीबी का गर्वोन्नत भाल लिए। यहां गरीबी या अभाव का रोना नहीं है। आत्मदया की मांग नहीं है। उससे बाहर आने का क्रांतिकारी तेवर भी नहीं है। वे असल में जैसे हैं, वैसे ही उपन्यासों में हैं। 

फर्क यह है कि ये पात्र वैसे नहीं हैं जैसा हम प्राय: लोगों के बारे में सोचते हैं। विनोद कुमार शुक्ल का सारा गद्य ही वैसा नहीं है जैसा हम प्राय: पढ़ते हैं। यह अपनी ही तरह का गद्य है। इसने गद्य की रूढ़ि को तोड़ दिया है। हमें रूढ़ गद्य पढ़ने की आदत है। शायद इसीलिए विनोद कुमार शुक्ल पर उबाऊ गद्य लिखने की तोहमत लगती है। 

विनोद कुमार शुक्ल की दृष्टि अद्भुत है। वे अपने पात्र को मचान पर बैठकर या गर्त में गिराकर नहीं देखते। उनके पात्र न तो ऊंचाई से दिखने वाले खिलौने हैंन ही नीचे से दिखने वाले भव्य महापुरुष‎‎। रचनाकार समस्तर पर रहकर देखता है। उसके पास पात्र को रंगने या बदरंग करने की कोई कूची भी नहीं है। रचनाकार को किसी चीज को जैसी है वैसा ही कहना बड़ा पसंद है। जैसे दिन की तरह का दिन थाया रात की तरह की रात थी। इसी तरह उसके पात्र जहां और जैसे हैं वे वास्तव में ही वहां और वैसे ही हैं। रचनाकार बस उनके अंग संग बना रहता है 

सिर्फ पात्र ही नहींपूरा जीवन-जगत ही उसके अंग संग है। उसमें व्यक्तिप्राणि जगत और प्रकृति सब समाहित है। यहां व्यक्ति का मन भी उसी पारदर्शिता से दिखता है जितनी स्फटिक दृष्टि से प्रकृति और वनस्पति जगत को देखा गया है। एक हिलता हुआ पत्ता भी मानवीय स्थिति का हिस्सा ही होता हैसंवादरत होता है। पेड़ की छाया भीचींटी भीचिड़िया भीआलू प्याज और तोते का पिंजरा भी 

इस समावेशी दृष्टि के साथ-साथ विनोद कुमार शुक्ल के देखने में भावुकता नहीं है। निर्ममता और उदासीनता की कोई जगह नहीं है। पूरी तरह से संलिप्तता भी नहीं है। बल्कि उस पर निर्लिप्तता की छाया प्रतीत होती है। शायद इन्हीं दोनों के संतुलन से करुण दृष्टि का जन्म होता है। रचनाकार का देखना करुणा से डबडबाया हुआ है। यह एक दुर्लभ गुण है। इस तरह उपन्यासकार जीवन-जगत के सम-स्तर पर रहते हुए उसे करुणा-आप्लावित नजर से देखता है। और यह करुणा सपाट बयानी की तरह नहीं आती। करुणा पर वो एक झीना परदा डालते हैं। यह उनके खास शिल्प का पर्दा है जिसमें लोक कथाएंबच्चों के खेल और परी कथाओं का शिल्प है। सच और झठमूठ के खेल का एक निराला संतुलन बनता है 

विनोद कुमार शुक्ल की नजर में एक और गुण हैउनकी आर पार देखने की शक्ति। इसी नजर से वे आकाश को देखते हैं और उसमें अंधेरे उजाले को देखते हैं। इसी दृष्टि के कारण वे हाथी की खाली होती जगह देखते हैं और लिखते हैं ‘हाथी आगे आगे निकलता जाता था और पीछे हाथी की खाली जगह छूटती जाती थी’ यथार्थ को रूढ़िबद्ध ढंग से देखने का आदी पाठक इस पंक्ति को निरर्थक पाता है। रूढ़ि में नवीनता देखने वाला पाठक इस पंक्ति में चमत्कार देखता है। लेकिन अगर आप ध्यान से पढ़ें और देखने लगें तो हाथी की जगह आपको दिखने लगेगी। हम कह सकते हैं कि एक दृश्य के गतिशील तत्वों को वे देखते हैं तो रुके हुए तत्वों को भी। फोरग्राउंड को देखते हैं तो बैकग्राउंड को भी। और उन्हें इंटरचेंज भी कर देते हैं। कभी अग्रभूमि का आकार देखते हैं तो कभी पृष्ठभूमि का। जैसे अंधेरा और हाथी। फिर अंधेरे के हाथी। पानी के भीतर और पानी के ऊपर का अंधेरा। मनोविज्ञान में यह परसेप्शन का खेल होता है। असल में ये सारी चीजें तभी दिखती हैं जब हम उन्हें धैर्य से पढ़ें। विनोद कुमार शुक्ल को हड़बड़ी में नहीं पढ़ा जा सकता। धीरज से पढ़ने पर ही अनूठी दुनिया खुलती है 

यह सुखद है कि पारदर्शी भाषा के रचनाकार विनोद कुमार शुक्ल पिछले एक दशक से निरंतर बच्चों के लिए लिख रहे हैं। बच्चों की कविताएं भी वे बड़ी तन्मयता और लय के साथ सुनाते हैं। उनकी जिस शैली को तिर्यक नजर से देखा जाता था, वह अब और अधिक सरल और मृदुल होकर बाल सुलभ सरलता पा गई है। 

Sunday, March 5, 2023

अप्रतिम दीठ

 


विनोद कुमार शुक्ल को हाल ही में पेन पुरस्कार मिला है। इस मौके पर उनके साहित्य के बारे में विचार करने का अलग ही आनंद है। उनके 'नौकर की कमीज', 'खिलेगा तो देखेंगे' और 'दीवार में खिड़की रहती थी' उपन्यासों पर पेश है सुमनिका सेठी और अनूप सेठी के बीच संवाद

हाल ही में आपने कृष्णा सोबती के उपन्यास चन्ना पर हम लोगों के सवाल जवाब पढ़े होंगे। यह संवाद और भी पहले का है। यह संवाद सापेक्ष के विनोद कुमार शुक्‍ल पर निकले वृहद् व‍िशेषांक में छपा है। 

 

अनूप : मुझे लगता है हम विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों पर तीन हिस्सों में बात करें - ये उपन्यास क्या कहते हैं?, कैसे कहते हैंऔर विनोद कुमार शुक्ल का देखना। क्या कहते हैं में कथा-कथ्य और कैसे कहते हैं में शिल्प की बात करेंगेपर किसी भी संपूर्ण रचना की तरह यहां शिल्प कथ्य से अलग नहीं है। और तीसरा हिस्सा है उपन्यासकार का देखना यानी वे अपने जीवन-जगतपात्रों-स्थितियों और प्रकृति को कैसे देखते हैं। यह हिस्सा पहले दो हिस्सों का विस्तार तो है हीउससे अलग भी इस देखने की इयत्ता है जो कथा कथ्य को और विस्तार देती है और उनकी कहनी को नवीनता और गहराई

सुमनिका : क्या इनके तीनों उपन्यासों में कथ्य की दृष्टि से एक निरंतरता या समानता बनती हैतीनों उपन्यासों की दुनिया में झांक के देखा जाए -

 

उपन्यास क्या कहते हैं?

अनूप : उपन्यास क्या कहते हैंतीनों उपन्यासों में निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की कहानियां हैं। ये कहानियां ज्यादातर घर के इर्द गिर्द सिमटी हुई हैं। नौकर की कमीज तो शुरू ही इन पंक्तियों से होता है - 'कितना सुख था कि हर बार घर लौट कर आने के लिए मैं बार बार घर से बाहर निकलूंगा '

सुमनिका : यह ठीक है कि घर उनके तीनों उपन्यासों का एक बहुत बड़ा और खूबसूरत हिस्सा हैलेकिन और भी तो हिस्से हैं इस दुनिया के। क्यों न बात इस तरह की जाए कि नौकर की कमीज की पृष्ठभूमि में एक छोटा शहर उभरता है जहां सरकारी दफ्तरडॉक्टर की बगीचे वाली बड़ी कोठीबाजार इत्यादि हैं जबकि दीवार में खिड़की रहती थी में एक छोटा कस्बा उभरता है जहां साइकिल स्कूटर और टेम्पो चलते हैं। और खिलेगा तो देखेंगे में तो एक बहुत छोटा सा गांव उभरता हैझोंपड़ियों वाले घरों वाला और जहां पक्के मकान केवल दो हैंएक थाना और दूसरा ग्राम सेवक का घर।

अनूपः हां, तुमने कथ्‍य को लॉन्‍ग शॉट से देखा, मैं क्‍लोज अप से देख रहा था। तो नौकर की कमीज में नायक संतू बाबू अपनी नई नई गृहस्‍थी में पत्‍नी को छोड़कर पहली बार घर से बाहर जाते हैं, अपने पुराने शहर मां को लाने के लिए ताकि जचगी में पत्‍नी को सहारा हो जाए। पर भाई की बांह टूट जाने के कारण मां उनके साथ नहीं आ पाती है और वह उसी रात लौट आते हैं। बसें सब निकल चुकी हैं। बदमाश से दिखने वाले एक ड्राइवर ने उन्हें लिफ्ट दी। वह ड्राइवर खुद कई कई दिन घर नहीं पहुंच पाता था। पहले लड़के के पैदा होने के वक्त वह घर से आठ सौ किलोमीटर दूर था। लड़की के वक्त तीन सौ और तीसरी बच्ची के वक्त तो बस दस ही किलामीटर दूर था। पर हर बार घर की तरफ ही लौट रहा था।

सुमनिका : हां, घर के दृश्‍य तो बाकी दोनों उपन्‍यासों में भी बेहद मार्मिक और सुंदर, एक साथ हैं। खिलेगा तो देखेंगे में तो बाहर की दुनिया को भी घर के बाहरी कमरे की तरह देखा गया है। और अपने कमरे का दरवाजा बंद करना मानो बाहर की दुनिया को बाहर कैद कर देना है।

अनूप : घर के प्रति उपन्यासकार का जबरदस्त आकर्षण है। नौकर की कमीज में संतू बाबू एक दफ्तर में नौकर हैं। नवविवाहित हैं। एक डाक्टर के बंगले के आहाते में किराए पर रहते हैं। निम्नमध्यवित्त के कारण घर में सामान बहुत कम है। गिनती की चीजें हैं‎‎। हरेक चीज का अस्तित्व है। बहुत कम वस्तुओं से इनका घर बन जाता है। दीवार में खिड़की रहती थी में भी नवदम्पति एक कमरे के डेरे में रहता है‎‎। नायक रघुवर प्रसाद ने यह कमरा किराए पर लिया है। गौने के बाद बहू इसी घर में आती है। यही सोने का कमरा हैयही रसोई और यही बैठक।

सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे में तो गुरू जी को एक त्यक्त थाने में आकर शरण लेनी पड़ती है जो न पूरी तरह घर है न थानालेकिन इस गृहस्थी का भी अपना संगीतअपना नाट्य और अपनी कविता है। घड़ाखाटसींखचों वाला दरवाजाएक फूटी बाल्टीगिलास जिसमें गृहस्थी की चाय ढलती है

अनूप : हांविनोद कुमार शुक्ल के पात्र बहुत कम सामान के साथ सुखी लोग हैं। सब्जी लानाखाना बनानाखाट की आड़ बनाना जैसे नित्यक्रम धीमी गति से चलते हैं। नौकर की कमीज में पानी चूने का क्लेश है

सुमनिका : हां यह अपने आप में चूते हुए जीवन का बिंब है

अनूप : धीरे धीरे वह बड़े कष्ट में बदल जाता है। लेखक सामाजिक समस्या की तरह उससे निबटता है। यह कष्ट समाज में अर्थ-आधारित संस्तरों का है। संतू को खुद को और पत्नी को घरेलू नौकर में बदल दिए जाने का गहन मानसिक असंतोष और त्रास है। सारा उपन्यास उसी दिशा में आगे बढ़ता है। जबकि दीवार में खिड़की रहती थी में लगभग घर के गिर्द ही कथा और कथ्य का वृत्त बनता है

सुमनिका : क्या ऐसा कहा जा सकता है कि केवल घर के गिर्द घूमता है वृत्तमुझे लगता है कि यह उस जीवन के गिर्द घूमता है जिसमें घर और बाहर की दुनियाएं कहीं न कहीं जुड़ी हैं

अनूप: बिल्कुल। घर को लेकर नौकर की कमीज के संतू बाबू के मन में अजीब तरह के संशय हैं। घर में दाखिल होने के दो दरवाजे हैं। वह दूसरे दरवाजे के लिए एक ताला भी ले आता है। एक तरफ वह ताला लगाता हैदूसरी तरफ पत्नी लगाएगीक्योंकि अब वह भी डाक्टरनी के घर जाती है। ज्यादा देर तक अपने घर से बाहर रहती है। यह दूसरा ताला उन दोनों के मन में बड़ी उलझन पैदा करता है। संतू कहता है अपना अपना ताला लगाएं। मतलब दोनों की अपनी अपनी स्वतंत्रता बनी रहे। पत्नी को ज्यादा उलझन है। पति आगे से ताला लगा कर चला जाए पत्नी पीछे सेवो तो ठीक हैलेकिन पत्नी घर में पीछे से आ भी जाए तो भी लोग आगे का ताला देखकर यही समझेंगे कि घर में कोई नहीं है। यह उन घरों की उलझन है जहां की स्त्रियां कामकाजी स्त्रियां बनने लगी हैं। सीधे सादे आदमी का त होगा कि दो ताले क्योंएक ताले की दो चाबियों से भी काम चल जाएगा। पर संतू की त पद्धति अपनी तरह की है। वह किसी से मेल नहीं खाती। वे दूसरा ताला ही हटा देना चाहते हैं। असल में वे घर को खुला ही रखना चाहते हैं

सुमनिका : घर के दो हिस्से खिलेगा तो देखेंगे में भी हैंछोटा लॉक अप और बड़ा लॉक अप। इसके पात्र भी दीवालों से आगे और तालों से परे जाना चाहते हैंप्रकृति की दुनिया में। लेकिन यहां एक अलीगढ़ी ताला है जो ग्राम सेवक के दरवाजे पर सदा लटका दीखता है

अनूप: ताले की उलझन दीवार में खिड़की रहती थी में भी है। वहां रघुवर प्रसाद टट्टी के लिए एक अलग ताला लेता है‎‎। उसका किराया भी अलग देता है। असल में वह प्राइवेसी हासिल करने का किराया देता है‎‎। यह बात उसके पिता की समझ में नहीं आती। जिस समाज में शौचालयों की कभी जरूरत ही महसूस न की गई होखुला खलिहान निर्भय निर्मल आनंद देता होजंगल पानी जाने का मतलब ही शौच निवृत्ति हो वहां 'एक्सक्लूसिवटट्टी का होना किस पिता को समझ में आएगा। यह तो शहराती जीवन का नागर बोध है। जिस वर्ग में खरीदारी रोजमर्रा का काम न हो और कोई वस्तु जरूरत के लंबा खिंचे चले आने के बाद खरीदी जाती होवहां ताले की फिजूलखर्ची नहीं होने दी जाएगी। दूसरे ताले को पिता अपने साथ ले जाते हैं

सुमनिका: सभी उपन्यासों में बाहर की दुनिया में ताकत की सत्ता वाला समाज है जिसमें कमजोर का जीना बहुत दारुण है। खिलेगा तो देखेंगे में इसके बहुत से बिंब हैं। थाने से लेकर जीवराखन की दुकानसिपाही और राउत हैं। पति पत्नी के बीच भी सत्ता के संबंध डेरहिन और जीवराखन की कथा में उभरते हैं। इसमें शुरू का दृश्य तो भीतर तक हिला देता है जब कोटवार का बेटा घासीराम जीवराखन को गालियां देता है और पुलीस उसे पकड़ लेती है। वो अपने तीन महीने के बच्चे को अपनी सुरक्षा के लिए गोद में उठा लेता हैछोड़ता नहीं। मार पीट में न जाने कैसे बच्चे की नाक से खून गिरता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। इन दृश्यों को पढ़ना भी मुश्किल हो जाता है। जो सबसे कमजोर है वही सबसे पहले शिकार हो जाता है। जैसे खिलेगा तो देखेंगे में बच्चा और नौकर कर कमीज में मंगतू

अनूप: घर से बाहर की दुनिया में नौकर की कमीज में दफ्तर है जहां बड़े बाबू और साहब हैं और इनके बीच कई स्तरों के कर्मचारी हैं। किसी छोटे शहर के दफ्तर का बड़ा धूसर चित्र उकेरा गया है। संतू बाबू (नायक) सबसे ज्यादा तकलीफ में हैं क्योंकि वे नौकर में तब्दील नहीं होना चाहते। भरपूर जोर लगाने के बावजूद उन्हें नौकर की कमीज पहना ही दी जाती है। यह नौकर की कमीज एक रूपक की तरह है। संतू आदर्श नौकर मान लिया जाता है। दूसरी तरफ उसकी पत्नी डाक्टरनी की सहायिका बन जाती है। उसे धीरे धीरे इस भूमिका में सधाया जाता है। संतू यह देखकर परेशान हो उठता है कि वह साहब के बगीचे का घास छीलने वाला नौकर बन गया है। और उसकी पत्नी डाक्टर के यहां खाना बनाने वाली। इस जाल को तोड़ने की हिम्मत उसमें नहीं है। वह बुखार की बेहोशी में डाक्टर को गालियां बकता है। दफ्तर में कटहल के पेड़ पर चढ़कर कटहल तोड़कर कायदे कानून को धता बताता है। नौकर की कमीज में कोई परिवर्तनकारी कदम नहीं उठाया जाता। लेकिन जो रूपक नौकर की कमीज से बनाया गया है उसे जरूर अंत तक पहुंचाया जाता है। दफ्तर के बाबू लोगों ने कमीज को चिंदी चिंदी करके रखा है। अंत में वे सब मिलकर उसे जला देते हैं। इस तरह वे नौकरशाही में होने वाले शोषण का प्रतीकात्मक अंत करते हैं

सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे में तो दबाव के अनेक रूप हैं। वे अप्रत्यक्ष ही सहीपर पूरे जीवन पर प्रेतात्मा की तरह छाए हैं। न जाने कितने हैं जो भूख से लड़ रहे हैं। यह ऐसी दुनिया है जहां चार जलेबी का स्वाद तीन चार दिन तक रहता है या कई बार तीन चार महीनों तक। इस उपन्यास में पिता अपने बेटे को भूखे रहते हुए जीना सिखाता है। डेरहिन जीवराखन के चंगुल से भाग जाती है और ताकतवर की हिंसा और प्रहारों को कमजोर लोग एक जादुई ढंग से रोक देते हैं यानी एक जादुई पत्ती पान में खिलाकर उनको गूंगा बना देते हैं। क्योंकि उनकी जबान ही गोली और बंदूक थी। और फिर एक स्वप्न सृष्टि का बिंब है

अनूप: दीवार में खिड़की रहती थी इसकी तुलना में अधिक रोमांटिक कहानी है। जीवन या परिस्थितियों से वैसी सीधी टकराहट यहां नहीं दिखती। नायक रघुवर प्रसाद गणित का प्राध्यापक है। उसका बॉस विभागाध्यक्ष है और दोनों का बॉस प्राचार्य है। एक ढर्रे पर जीवन चलता रहता है। प्रत्यक्षत: किसी को कोई कष्ट नहीं है

सुमनिका : लेकिन यहां भी विभागाध्यक्ष का दबाव कम नहीं है। और काम पर वक्त से पहुंचने का संघर्ष ही तो खासा बड़ा है और कष्टसाध्य है

अनूप : हांलेकिन फिर भी लगता है न जीवन में कोई कमी है न जीवन से कोई शिकायत। उपन्यासकार की यह खूबी है कि वह अपनी तरफ से पात्रों में कुछ नहीं डालता। ठेठ गंवई जीवन है। पात्रों में जीवन जीने की तन्मयता है। सादगी है। इस सब में सादगी और सरलता उभरती है। प्रोफैसर को सवारी के रूप में हाथी मिल जाता है जो उसे महाविद्यालय लाता-ले जाता है। नवविवाहित प्रोफैसर की अपनी रोमांटिक दुनिया है। इस अर्थ में हाथी की सवारी मिलने से वह यथार्थ से थोड़ा ऊपर उठ गया है। उसे अब टेम्पो और साइकिल की जरूरत नहीं रही। खिड़की से बाहर जाने में तो वह मन का राजा है हीकालेज भी राजा की तरह हाथी पर सवार होकर जाता है

सुमनिका : हाथी का मिल जाना आपको सिंड्रेला को परी द्वारा दिए गए जीवन सा नहीं लगताशीशे के जूतों जैसा और कुम्हड़े के रथ जैसायह हाथी जो एक बारगी उसे सारी दयनीयता और अपमान से ऊपर उठा देता हैपेड़ों की फुनगियों का दृश्य दिखा देता है। सब पीछे रह जाते हैं। रघुवर राजा हो जाता है।

अनूप : इस तरह हाथी को सवारी के रूप में लाकर उपन्यासकार सभ्यता के उपभोक्तावादी विकास को धता बताते हैं। यह विमर्श का एक अनूठा रूप हैý

सुमनिका : यह बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी है। आप कहना चाहते हैं कि इन सभी उपन्यासों में मुक्ति का एक समानांतर दर्शन दिया गया है। जहां सबके पास जरूरत भर का जीवन हो और जो प्रकृति में रचा बसा हो‎‎। यहां गरीबी का वर्णन तो हैलेकिन उसका महिमा मंडन नहीं। और महत्वपूर्ण यह है कि उसका जबाव अमीरी में नहीं खोजा गया है। मुझे तो लगता है कि विनोद कुमार शुक्ल का कथ्यउनके नायकउनका जीवनउनकी भाषाउनका सारा शिल्प प्रचलित शैलियों का बरक्स रचता है

अनूप : दीवार में खिड़की रहती थी के रघुवर प्रसाद साइकिल के पैडल मारने वाले परिवार से हैं। नौकर की कमीज के संतू बाबू भी साइकिल से आगे नहीं सोचते। उन्हें दफ्तर के बड़े बाबू माल गोदाम से एक नई साइकिल निकलवा देते हैं। रघुवर प्रसाद को उसके पिता अपनी साइकिल भेज देते हैं। विभागाध्यक्ष स्कूटर वाले हैं। रघुवर को स्कूटर या कार खरीदने या उनकी सवारी करने की इच्छा नहीं है। हाथी पर भी वे डरते डरते ही चढ़ते हैं। हालांकि बाद में उस भारी भरकम पशु के मोह में भी पड़ जाते हैं। पर अंतत: उसकी जंजीर खोल कर उसे मुक्त कर देते हैं। हाथी को मुक्त करने की उन्हें बड़ी खुशी है.

सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे के अंतिम हिस्से में पहाड़ी से जो आदमी कांवर लिए उतरता है उसमें कंदधान के बीज और शहद भरा है। ये कंद भी जमीन से निकले हैं। विनोद कुमार शुक्ल लिखते हैं, 'धान के मोटे बीज थे जिससे पेट भरता था। .. ये धान तेज आंधी में भी खेत में गिर नहीं जाता थालहलहाता था। लहलहाने से बांस की धुन सुनाई देती थी।'

अनूप : अगर नौकर की कमीज में कमीज के जरिए विरोध का रूपक रचा गया है तो दीवार में खिड़की रहती थी में उपभोक्तवादी सभ्यता का एक बेहद रोमानी और मासूम प्रतिपक्ष रचा गया है। रघुवर प्रसाद की खिड़की एक स्वप्न लोक में खुलती है। सुबह-सवेरेशाम-रातसोते-जागते वे कभी भी उस खिड़की से बाहर प्रकृति की गोद में जा रमते हैं। यहां तक कि नहाना-धोनाकपड़े धोना जैसी नेमि क्रियाएं भी वहीं पूरी हो जाती हैं। रघुवर के माता पिता और विभागाध्यक्ष भी उस खिड़की से नीचे उतर चुके हैं। विभागाध्यक्ष के भीतर उस जगह के यथार्थ को जानने की छटपटाहट है। खिड़की से खुलने वाला यह संसार बड़ा सुरम्य है। वहां एक बूढ़ी अम्मा है जिसने सोनसी को सोने के कड़े दिए हैं। मजेदार बात यह है कि यह दुनिया भौतिकवादी दुनिया से बिल्कुल अलग है। यहां स्वच्छ जल वाले तालाब हैं। हरे-भरे पेड़ हैं। बंदर हैंमछलियां हैं। हवा हैबादल हैं। लाभ-लोभ से परे का स्वच्छ निर्मल संसार है। ऐसा लगता है कि उपन्यासकार नौकर की कमीज और खिलेगा तो देखेंगे के खुरदुरे लेकिन बेहद देशज यथार्थ के बरक्स उतना ही देशजलोककथाओं वाला रोमानी स्वप्न-संसार खड़ा करना चाहता है। यहां समृध्दिसुख और तृप्ति के अर्थ ही भिन्न हैं। शायद इसीलिए यह वर्णन हमें अलग तरह का लगता है और अचम्भे में डालता है.

सुमनिका : शायद वे आदमी के भीतर उस दृष्टि को जगाना चाहते होंउस खिड़की को खोलना चाहते होंजहां से कल्पना लोक दिखता है और जो चीजों में सौंदर्य देख पाती है। कल्पना के रेशे बुनने वाली बुढ़िया से हमें मिलाना चाहते हों जो इस भौतिकवादी दुनिया में कहीं खो गई है

अनूप : नौकर की कमीज और दीवार में खिड़की रहती थी में पारिवारिक रिश्तों की एक टीस भरी कड़ी पिता-पुत्र के संबंध के रूप में आती है। बड़े बाबू का बेटा घर से भाग गया है। उन्हें लगता है वह उनके पीछे से घर में आता है। सामने नहीं पड़ता। एक स्वप्न जैसे प्रसंग में संतू मूंगफलीवाले को एक बच्चे के डूबने का किस्सा सुनाता है। बड़े बाबू को पता चलता है तो वे सच्चाई जानने मूंगफली वाले के पास पहुंच जाते हैंयह जानते हुए भी कि यह सच्ची घटना नहीं है। सारे किस्से में उन्हें अपना पुत्र दिखता रहता है। इसी तरह दीवार में खिड़की रहती थी में दस ग्यारह साल का एक लड़का रघुवर के घर के सामने एक पेड़ पर चढ़कर बैठा रहता है। वह पिता की मार से डरता है और यहां छिपकर बीड़ी पीता है। पिता घर में होने न होने को अपने डंडे से जतलाते हैं। बाहर डंडा रखा हो तो पिता घर में हैडंडा नहीं है तो पिता घर में नहीं हैं। डंडा बाहर न होने पर ही पुत्र घर में घुसता है। सोनसी कभी कभार इस लड़के को कुछ खाने को भी दे देती है। रघुवर और सोनसी इन पिता-पुत्र का मेल करा देते हैं। विधुर पिता का पुत्र पर स्नेह अपने हिस्से की जलेबी देने से प्रकट होता है.

सुमनिका : खिलेगा तो देखेंगे में संबंधों की बड़ी प्रामाणिक और साथ ही बड़ी काव्यमय छवियां हैं। बेटी जिसके जन्म पर माता पिता एक चिड़िया की सीटी सुनते हैं और उसका नाम बेटी चिड़िया रख देते हैं। बेटा मुन्ना जो भूख को सहता रहता है फिर अचानक अवश होकर गिर पड़ता है और पूरा परिवार भूख की इस जंजीर से बंधे बच्चे की रक्षा का उपाय सोचा करता है.

अनूप : ये प्रसंग बहुत करुण और निष्कलुष हैं। असल में विनोद कुमार शुक्ल के सारे ही आख्यान में करुणा जीवन जल की तरह व्याप्त है। यथार्थ बहुत सच्चा और अकृत्रिम है। समाज का यह तबका कथा-साहित्य में कम ही आया है। बिना किसी तामझाम के आने की वजह से पाठक को हतप्रभ भी करता है। सच्चाईनिष्कलुषता और करुणा मिलकर सारे आख्यान को बेहद भावालोड़न से भर देते हैं

 

उपन्यास कैसे कहते हैं ?

अनूप: विनोद कुमार शुक्ल की कहनी अलग तरह की है। कुछ बिंदु हैं जिनकी मदद से उनके कथा लेखन को समझने में मदद मिल सकती है और उससे उपन्यास क्या कहते हैंइसे जानने में और भी मदद मिल सकती है। उपन्यासकार कथा को रंग-संकेतों की तरह कहता है। वह कथा वर्णित नहीं करता। वह दृश्य का वर्णन करता है। दृश्य के अतिरिक्त कम ही बोलता है। इसमें दो शैलियां मिश्रित हो रही हैं। एक तो नाटक के रंग संकेत लिखने की शैलीदूसरे चित्रकला की तरह चित्र रचने की शैली

सुमनिका : चित्र तो हैं। लेकिन जितनी छोटी छोटी डिटेल इनके चित्रों में दिखती है वैसी तो किसी चित्रकृति में दिखाई नहीं देती। उसमें ऐसे छुपे हुए हिस्से तक प्रकट होते हैं जो एक दो आयामी चित्र में नहीं समा सकते। और फिर एक चित्र कई कई एसोसिएशन और इम्प्रेशन पैदा करता है। और वे कई समानांतरताएं सामने रखते जाते हैं। इससे अर्थ का दायरा भी विस्तृत होता जाता है।

अनूप : लेखक मन:स्थितियों को भी लगभग इसी चतुराई से वर्णित कर देता है। हिंदी में इस पध्दति से धारा-प्रवाह लेखन शायद कम ही हुआ है। इसलिए इसका प्रभाव भी अलग तरह से पड़ता है। संयोग से तीनों उपन्यासों में इसे शैली की तरह उन्होंने विकसित किया है। उनका लेखन समय लगभग बीस सालों तक फैला है। नौकर की कमीज 1979 में आया था। खिलेगा तो देखेंगे और दीवार में खिड़की रहती थी 1994 से 1996 के बीच लिखे गए हैं। जगदीश चंद्र की उपन्यास त्रयी की भी बहुत जमीनी हकीकत की कथा हैपर उसकी कहनी पारंपरिक गद्य लेखन की शैली है.

सुमनिका : उनका पूरा लेखन मुख्यधारा से अलग एक वैकल्पिक संसार रचता है। जिसमें शैली और शिल्प तक में भी उनकी सबाल्टर्न दृष्टि प्रकट होती है। लोक कथाएं और परिकथाएं और मिथक कथाएंबच्चों के खेल और संवाद पूरी हकीकत को बेहद मासूमियत से उकेरते हैं

अनूप: विनोद कुमार शुक्ल के पात्र एक खास तरह की भाषा बोलते हैं। उनका अंदाज भी खास है। कई बार वह एक जैसा भी लगता है

सुमनिका : खास का मतलब है कि इतनी ज्यादा आम बल्कि कहें वास्तविक और ठेठ.. कि जहां कुछ भी अतिरेक नहीं होता। पर जिस तरह से विनोद कुमार शुक्ल अपने बड़े खास दृश्यों के बीच उन्हें रख देते हैंउससे वे कविता के शब्दों की तरह उद्भासित हो जाते हैं

अनूप : नौकर की कमीज के बड़े बाबू और नायक संतू बाबू के संवाद कई जगह विसंगत (एब्सर्ड) नाटकों की याद ताजा करवा देते हैं। दीवार में खिड़की रहती थी के विभागाध्यक्ष भी कई बार त से कुत पर उतर आते हैं। ये लोग बेमतलब की बात करने लग जाते हैं। कई जगह उससे हास्य विनोद पैदा होता हैकहीं वह यूं ही ऊलजलूल संवाद बन के रह जाता हैएब्सर्ड नाटकों के संवाद की तरह

सुमनिका : मुझे बार बार कुछ ऐसा भी लगता है कि उपन्यासकार का कथ्य जो घनघोर यथार्थ और जीवन हैक्रूर और सुंदर भी हैउसे व्यक्त करने में लेखक उसे बच्चों के खेल संसार जैसा मासूम बना देता है। उनके संवादशिल्पउछाहसब जैसे शिशुता की रंगत से रंगे हैं। शायद इसीलिए उनमें लोककथाओं के संवादों सी पुनरावृत्तिशैलीबध्दता और लय मिलती है। खिलेगा तो देखेंगे के कुछ दृश्य तो कार्टून फिल्म की याद दिलाते हैं। जब बस गुरूजी के परिवार को लेने आती है और उनके पीछे पड़ जाती है। वे उससे बचने के लिए पतली गली में जाते हैं। बस भी पतली हो के उस गली में घुस जाती है। वे सीढ़ियां चढ़ जाते हैं तो बस भी चढ़ जाती है। इसी तरह इसी उपन्यास में नवजात को सेकने का प्रसंग है। या चिरौंजी के चार बीजों से पेट भरने का प्रसंग है। ऐसा लगता है कि बच्चा अपनी अटपटी सरल रेखाओं में दुनिया को अंकित कर रहा हैदुख को और सुख को। क्योंकि बच्चे ही हैं जो नाटय और झूठमूठ में भी सचमुच का मजा लेते हैं.

अनूप : नौकर की कमीज में तो दफ्तर के बाबू लोगों ने एक जगह बाकायदा नाटक की दृश्य रचना की है। जैसे वे उसमें अभिनय करने वाले हों। हालांकि विसंगत नाटक बाहरी तौर पर अर्थहीन से होते हैं। वे सिर्फ एक माहौल की रचना करते हैं। यही माहौल नाटयानुभव में बदलता है। जबकि इन उपन्यासों की वर्णन शैली में कथा भी आगे बढ़ती है। विषय-वस्तु सामाजिक जीवन से गहरे जुड़ी हुई है। नौकर की कमीज और खिलेगा तो देखेंगे उदास कथा कहते हैंवहीं दीवार में खिड़की रहती थी उल्लास से परिपूर्ण आख्यान है.

सुमनिका : यह नाट्य सुख उनके तीनों उपन्यासों में है। क्योंकि जीवन में जो कष्ट है वो सचमुच का है तो उसको झूठमूठ के सुख से ही मात दी जा सकती है। जैसे कोटवार पूरे यथार्थ भाव से झूठमूठ की बीड़ी पीने का सुख उठाता है। और गुरूजी झूठमूढ की बीड़ी न पीने को बजिद्द हैं कि उससे भी तो लत लग जाएगी। उपन्यासकार कहता भी है कि यह झूठमूठ धोखा देना नहीं है बल्कि खेल है और इसका सुतंलन जीवन में हो तो जीवन जीया जा सकता है

अनूप: उपन्यासकार चूंकि दृश्य का वर्णन करके ही कथा और चरित्र को आगे बढ़ाता हैइसलिए उसकी अपनी कोई भाषा या भंगिमा नहीं है। वर्णन की भाषा भी पात्रों की ही भाषा है। इस पर स्थानीयता का रंग काफी गहरा है। इसमें खास तरह की अनौपचारिकताआत्मीयता और अकृत्रिमता है‎‎। यही उपन्यासकार की भाषा शैली बन जाती है। यह हमारे आंचलिक कथा साहित्य की भाषा से अलग है। विनोद कुमार शुक्ल की भाषा की यह खूबी है

सुमनिका: और उनका वाक्य विन्यास?

अनूप: विनोद कुमार शुक्ल की भाषा का वाक्य-विन्यास भी भिन्न है। इनके वाक्य छोटे होते हैं। आधुनिक पत्रकारिता में छोटे वाक्य लिखना अच्छा माना जाता है। वे किसी दृश्य या घटना का छोटा छोटा ब्योरा छोटे छोटे वाक्यों में देते हैं। इससे एक तरह का लोक कथा वाचन का रंग भी आता है। पर शुक्ल की कहानी में नाटकीय भंगिमा बिल्कुल नहीं है। बल्कि भंगिमा ही नहीं है। यही इसकी खूबी है। यह खूबी पात्रों के साथ मेल खाती है। क्योंकि पात्रों की भी कोई भंगिमा नहीं है। सीधे सादे जमीनी पात्र। गरीबी का गर्वोन्नत भाल लिए। यहां गरीबी या अभाव का रोना नहीं है। आत्मदया की मांग नहीं है। उससे बाहर आने के क्रांतिकारी तेवर भी नहीं हैं। असल में वे जैसे हैंवैसे ही उपन्यासों में हैं। हां फर्क यह है कि ये पात्र वैसे नहीं हैं जैसा हम लोगों के बारे में सोचते हैं। विनोद कुमार शुक्ल का सारा गद्य ही वैसा नहीं है जैसा हम प्राय: पढ़ते हैं। यह अपनी ही तरह का गद्य है। इसने गद्य की रूढ़ि को तोड़ दिया है। हमें रूढ़ गद्य पढ़ने की आदत है। शायद इसीलिए विनोद कुमार शुक्ल पर उबाऊ गद्य लिखने की तोहमत लगती है।

सुमनिका : ऊब का कारण शायद पाठक की हड़बड़ी में छिपा हैकि वो उनकी चाल से दृश्य में नहीं रम पाता। वैसे विनोद कुमार शुक्ल के शिल्प में कदम कदम पर आभास एक दूसरे में बदल जाते हैं। जैसे गाड़ी का डिब्बा जीवन की गाड़ी का डिब्बा हो जाता है जिसमें परिवार के साथ गुरूजी बैठे हैं और टिकट जेब में है। जैसे बुखार की गाड़ी तीन दिन तक जिस्म के स्टेशन पर रुकी रह जाती है। पैरों में चप्पल नहीं होती लेकिन माहुर का लाल रंग हवा पे छूट जाता है। वैसे विसंगत नाटक वाली बात भी पते की है।

 

विनोद कुमार शुक्ल का देखना

अनूप : आम तौर पर रचना में दो पहलुओं की छानबीन कर लेने से काफी कुछ पता चल जाता है कि उसमें क्या कहा है और कैसे कहा गया है। शुक्ल जी के संदर्भ में उनके देखने के अंदाज को देखना जरूरी लगता है। जैसे किसी भी घटनापात्रस्थितिविचारवस्तु को जानने के लिए यह जरूरी होता है कि हम उसे कहां से देखते हैं। दूर सेपास सेऊंचे सेनीचे सेकरुणा सेउदासीनता सेसंलग्नता से या निर्लिप्तता या निर्ममता से। रचनाकार क्या पोजीशन लेता हैउससे उसके सरोकार तय हो जाते हैं

विनोद कुमार शुक्ल की दृष्टि अद्भुत है। वे अपने पात्र को मचान पर बैठकर या गर्त में गिराकर नहीं देखते। उनके पात्र न तो ऊंचाई से दिखने वाले खिलौने हैंन ही नीचे से दिखने वाले भव्य महापुरुष‎‎। रचनाकार समस्तर पर रहकर देखता है। उसके पास पात्र को रंगने या बदरंग करने की कोई कूची भी नहीं है। जैसे रचनाकार को किसी चीज को जैसी है वैसा ही कहना बड़ा पसंद है। जैसे दिन की तरह का दिन थाया रात की तरह की रात थी। इसी तरह उसके पात्र जहां और जैसे हैं वे वास्तव में ही वहां और वैसे ही हैं। रचनाकार बस उनके अंग संग बना रहता है

सुमनिका : पर वो एक स्थिति को कोण बदल बदल के भी देखता है।

अनूप : इस देखने में मजे की बात है कि सिर्फ पात्र ही नहींपूरा जीवन-जगत ही उसके अंग संग है। उसमें व्यक्तिप्राणि जगत और प्रकृति सब समाहित है। यहां व्यक्ति का मन भी उसी पारदर्शिता से दिखाता है जितनी स्फटिक दृष्टि से प्रकृति और वनस्पति जगत को देखा गया है

सुमनिका : हां। सम्पूर्ण जीवन के प्रति ऐसी समानुभूति कि एक हिलता हुआ पत्ता भी मानवीय स्थिति का हिस्सा ही होता हैसंवादरत होता है। पेड़ की छाया भीचींटी भीचिड़िया भीआलू प्याज और तोते का पिंजरा भी। सचमुच मुझे यह बचपन की नजर का अवतरण लगता है। जब कुछ भी निर्जीव नहीं होता। न ही अपने संसार से बाहर होता है। यह अद्भुत लौटना है। मैं इस नजर पर अभिभूत हूं

अनूप : विनोद कुमार शुक्ल के देखने में भावुकता नहीं है। निर्ममता और उदासीनता की कोई जगह नहीं है। पूरी तरह से संलिप्तता भी नहीं है। उस पर निर्लिप्तता की छाया प्रतीत होती है।

सुमनिका : हांदृश्य पहली नजर में निर्लिप्त लगते हैं..

अनूप : हांपर शायद इन्हीं दोनों के संतुलन से करुण दृष्टि का जन्म होता है। रचनाकार का देखना करुणा से डबडबाया हुआ है। यह एक दुर्लभ गुण है। इस तरह उपन्यासकार जीवन-जगत के सम-स्तर पर रहते हुए उसे करुणा-आप्लावित नजर से देखता है। इस वजह से उनका गद्य अनूठा बनता है। करुणा से देखे जाने के कारण ही रचना श्रेष्ठ होती हैइसमें कोई शक नहीं है। यहां रचनाकार प्रकृति और प्राणि जगत को भी उसी सजल नजर से देखता है। चाहे वे पेड़ पौधे होंहाथी होचाहे बादल आकाश प्रकाश और अंधेरा हो।

सुमनिका : हांयह उनकी बहुत बड़ी शक्ति है। और यह करुणा सपाट बयानी की तरह नहीं आती। करुणा पर वो एक झीना परदा डाल्ते हैं। यह उनके खास शिल्प का पर्दा है जिसमें लोक कथाएंबच्चों के खेल और परी कथाओं का शिल्प है। सच और झठमूठ के खेल का एक निराला संतुलन बनता है

अनूप : विनोद कुमार शुक्ल की नजर में एक और गुण हैउनकी आर पार देखने की शक्ति। इसी नजर से वे आकाश को देखते हैं और उसमें अंधेरे उजाले को देखते हैं। इसी दृष्टि के कारण वे हाथी की खाली होती जगह देखते हैं और लिखते हैं 'हाथी आगे आगे निकलता जाता था और पीछे हाथी की खाली जगह छूटती जाती थी यह पंक्ति दीवार में खिड़की रहती थी के पहले अध्याय का शीर्षक बनती है। यथार्थ को रूढ़िबध्द ढंग से देखने का आदी पाठक इस पंक्ति को निरर्थक पाता है। रूढ़ि में नवीनता देखने वाला पाठक इस पंक्ति में चमत्कार देखता है। लेकिन अगर आप ध्यान से पढ़ें और देखने लगें तो हाथी की जगह आपको दिखने लगेगी

सुमनिका : हम कह सकते हैं कि एक दृश्य के गतिशील तत्वों को वे देखते हैं तो रुके हुए तत्वों को भी। फोरग्राउंड को देखते हैं तो बैकग्राउंड को भी। और उन्हें इंटरचेंज भी कर देते हैं। कभी अग्रभूमि का आकार देखते हैं तो कभी पृष्ठभूमि का। जैसे अंधेरा और हाथी। फिर अंधेरे के हाथी। पानी के भीतर और पानी के ऊपर का अंधेरा। मनोविज्ञान में यह परसेप्शन का खेल होता है

अनूप : असल में विनोद कुमार शुक्ल को हड़बड़ी में नहीं पढ़ा जा सकता। धीरज से पढ़ने पर ही अनूठी दुनिया खुलती हैजाते हुए हाथी से हाथी की विशालताकालेपन और मंद चाल का एहसास होता है। लेखक उसे दत्तचित होकर जाता देखता है। रघुवर प्रसादसोनसी और छोटू हाथी को इसी नजर से देखते हैं

सुमनिका : हांवो दृश्य में इतने गहरे उतरते जाते हैं .. क्षण क्षण के विकास के साथ। और हम से भी उसी चाल की मांग करते हैं। और शायद ऊब की तोहमत इसी कारण लगती है कि हमारी नजर ऐसी विलंबित और दृश्य में डूबी हुई नहीं होती।

अनूप : इसी तरह रचनाकार प्रकाश और अंधेरे की छटाओं की विलक्षणता को देख और दिखाकर पाठक को आह्यलाद से भर देता है। खिड़की से बाहर जाता या अंदर आता अंधेरा या प्रकाश वास्तव में ही दिखने लगता है। गहन अंधेरे के बाद अत्यधिक उजाले को वे दो सूर्यों का उजाला कहते हैं। विरह के अंधेरे में पड़े रघुवर को दिन का उजाला इतना ज्यादा चुभता है मानो वह दो सूर्यों का उजाला हो। हाथी को स्वतंत्र करने का सुख रघुवर प्रसाद को इतना ज्यादा है कि उन्हें आगे पीछे अंधेरे का स्वतंत्र हुए हाथियों का जूलूस निकला हुआ महसूस होता है। इससे एक तरफ अंधेरे की सघनता का बिंब बनता हैदूसरी तरफ हाथी को आजाद करने का उल्लास सारे वातावरण में घुल जाता है। एक अन्य प्रसंग में बिजली के उजाले में गिरती हुई पानी की बूंदें दिखती हैं जो पतंगों की जरह जीवित दिखती हैंý

इसी में सोनसी का अपने घर जाने और रघुवर प्रसाद के विरह का प्रसंग भी बहुत मार्मिक है। यहां 'नहीं हैशब्दों की ध्वनि मानो कई दिन तक हवा में अटकी रहती है। रचनाकार मानो ध्वनि को भी देख रहा है। रघुवर प्रसाद हाथी को खोलने के लिए जा रहे हैं। जाते जाते सोनसी पेड़ पर बैठे रहने वाले लड़के के बारे में पूछती है। वे धीरे से चिल्ला कर कहते हैं 'नहीं है'। रात के सन्नाटे में यह आवाज आगे तक चली गई। एक और आदमी जो अपने घर के सामने बैठा थाउसने भी यह आवाज सुनी। वह सहज बोल उठा, 'कौन नहीं है' इसके बाद सोनसी के जाने का प्रसंग है। रघुवर प्रसाद को लगता है कि बस इस तरह रवाना हुई जैसे सोनसी को छीन कर ले गई। जो रघुवर खिड़की से बाहर अपने मन के लोक में रमे रहते थेवे अचानक यांत्रिक हो जाते हैं। नवविवाहित का पत्नी के बिना मन नहीं लग रहा। रात को नींद खुलने पर वे सड़क पर आ जाते हैं। वे रात के सन्नाटे में 'नहीं हैशब्द बोलना चाहते हैं। उन्हें लगा 'नहीं हैजैसा वातावरण गहराया हुआ है। वे दृश्य की कल्पना सी करते रहते हैं जिसमें कोई आदमी फिर पूछता है 'कौन नहीं है भाई'। रघुवर कातर मन से कहते हैं 'सोनसी नहीं है'‎‎। यह ध्वनि मानों कई दिन तक अटकी रही आती है‎‎। यह रघुवर की अटकी हुई मन:स्थिति ही है

सुमनिका : कदम कदम पर उनके वर्णन करुण-हास्य या ब्लैक कामेडी के जीवित उदाहरण हैं

अनूप : हां। इस तरह हम कह सकते हैं कि विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों की विषय-वस्तु और शिल्प का आस्वाद तभी लिया जा सकता है जब हम उनके देखने को भी तनिक समझ लें। अगर उनकी तरह के देखने से हम तदाकार नहीं होते हैं तो हमें कथाकथ्यविषय-वस्तु बहुत साधारण लगेगा। उनके कहने का तरीका चामत्कारिक लगेगा। तब उपन्यासों को रूपवाद की तरफ ठेल दिया जाएगा। ऐसा करना इन उपन्यासों के साथ अन्याय होगा। इसका अर्थ है कि उपन्यासों के क्या और कैसे को उनकी अप्रतिम दीठ के जरिए समझने में मदद मिलती है।  (विनोद जी का चित्र हिन्दवी से साभार लिया है)।