Wednesday, July 24, 2024

लोकप्रियता की धमक


जैसे सोशल मीडिया नए जमाने की चौपाल है वैसे ही  फिल्मी गीत नए जमाने का लोक संगीत है। पर यह तकनीक और ग्लैमर के प्लेटफार्म पर खड़ा है। मुंबई के षणमुखानंद ऑडिटोरियम में विशाल और रेखा भारद्वाज के लाइव शो की आपबीती पेश है।      


मुंबई में कला संस्कृति के अलग-अलग ठिकाने हैं। पृथ्वी थियेटर, एनसीपीए, जहांगीर आर्ट गैलरी, म्यूजियम वगैरह तो कई बार जाना हुआ है। हर जगह का माहौल अलग है। बीच में बीकेसी के नीता मुकेश अंबानी केंद्र में गए। एक बार दादर में सावरकर ऑडिटोरियम में भी गए। 


इस बार 14 जुलाई को गांधी मार्केट में षणमुखानंद हॉल में गए। मुंबई शहर के पुराने विशाल सभागारों में से एक, साइन माटुंगा के बीच गांधी मार्केट के इलाके में। मुंबई के शुरुआती दिनों में यानी आकाशवाणी की नौकरी के दौरान किंग सर्किल स्टेशन से लोकल ट्रेन लेते, शाम को वहीं उतरते। एंटॉप हिल में सात साल रहना हुआ। षणमुखानंद हॉल के बगल से सरकारी कॉलोनी में घुसते। कितने बरस बीत गए, कभी इस विशाल सभागार में जाने का सबब नहीं बना। उस्तादों की महफिलें यहां हुआ करती थीं। आकाशवाणी के हमारे सहकर्मी हंपीहोली कहते, भीमसेन जोशी मेरा भाई है (उनकी शक्ल भी मिलती थी), उसकी संगीत सभा का संचालन मैं ही करता हूं। हंपीहोली साहब के घर पर धारवाड़ के पेड़े तो कई बार खाए पर उनके भाई की संगीत सभा नहीं सुन पाए। 


हमें पता ही नहीं कि यह पुराना सभागार जो 1952 में शुरू हुआ था, 1990 में आग से क्षतिग्रस्त हो गया था। इसे नए सिरे से खड़ा किया गया। तिमंजिला सभागार में करीब 3000 दर्शक बैठ पाते हैं। यह सभागार राष्ट्र की अखंडता को समर्पित है। उन नामचीन कलाकारों की स्थाई प्रदर्शनी यहां के गलियारों में लगी है जो यहां अपनी सभाएं कर चुके हैं। इनमें शास्त्रीय संगीत के उस्ताद भी हैं और फिल्मी गायक भी। साथ ही सभा शहीद सैनिकों का भी सम्मान करती रही है। अनेक शहीदों की मूर्तियां स्थाई रूप से यहां स्थापित की गई हैं। 

हम लोग विशाल और रेखा भारद्वाज का शो 'ओ साथी रे' देखने गए थे। बरसात के मौसम में हम तो समय से पहुंच गए लेकिन मुख्य कलाकार देर से पहुंचे। जब हम अंदर बैठे तो मंच खुला हुआ था। साज़ रखे थे, साज़िंदे आ जा रहे थे। वे तब तक आते जाते रहे जब तक उद्घोषक ने आकर माफी मांगते हुए विशाल और रेखा को मंच पर आमंत्रित नहीं कर लिया।

 

अब नई कबायद शुरू हुई साजोंं के सुर मिलाने की। संगीत सभाओं में आमतौर पर तबले और तानपूरे को ही मुख्य साज या गायक के सुर से मिलाया जाता है पर यहां नजारा अलग था। तबले के अलावा एक ड्रमर, गिटार के अलावा बेस गिटार, मेंडोलियन, सैक्सोफोन और क्लेरिनेट, सिंथेसाइजर और दो सहायक गायक।  इनके सुर खुले कान से नहीं मिल रहे थे। विशाल भारद्वाज दूर कहीं छुप कर बैठे साउंड इंजीनियर से बातें करते हुए सुर मिला रहे थे। यह सब हमें दिखाई भी पड़ रहा था और सुनाई भी पड़ रहा था। विशाल भारद्वाज बीच बीच में तकनीकी खराबी के कारण हुई देरी के लिए माफी भी मांग ले रहे थे और बातचीत में चुटकियां भी ले ले रहे थे। सभागारों में महाकाय स्पीकर होते हैं। उनसे पता नहीं कितने डीबी की आवाज निकलती है। 


यह पता चला कि आवाज को एमप्लीफाई करने की तकनीक बेहद जटिल है। जो दो मनुष्य वहां गीत गाने वाले थे और जो सहायक उनके गीतो में संगत करने वाले थे, वह पुराने जमाने का सीधा-सादा, भोला-भाला संगीत कार्यक्रम नहीं है। गाने बजाने वाले अदना से इंसान हैं। उसे कई तरह से कई गुना फैलाने का ध्वनि और बिजली और यंत्रों का अजीब सा खेल है। यह सारा खेल लार्जर दैन लाइफ होने वाला था। हजारों वाट की भारी भरकम आवाज दीवारों में बंद तीन हजार लोगों के दिलों पर धमाके करने वाली थी। शायद लोग इन्हीं आवाजों का नशा करने वहां जाते हैं। हम शायद किसी पुरानी पिछड़ी हुई दुनिया के बौड़म थे जो गीत सुनने यहां आए थे। 


हालांकि कार्यक्रम की शुरुआत गजलों और गीतों से ही हुई। थोड़े प्रयोगशील शब्द, उतनी ही प्रयोगशील धुनें जिनके लिए विशाल भारद्वाज जाने जाते हैं। विशाल अपनी तरह के सिनेकर, संगीतकार और गीतकार हैं। एक जमाने में गुलजार साहब के सहायक रहे हैं। गुलजार अपने गीतों में अपनी तरह के प्रयोगधर्मी कवि हैं, कोमल, कमनीय, लता लंतरानियों सरीखे, लेकिन नवीन भी। विशाल भी लगता है इसी परंपरा के लेखक हैं। वे एक तरह के शैलीबद्ध गीतकार नहीं हैं। नूतनता का एहसास देने वाले रोमानी गीतकार हैं।  रेखा भारद्वाज उनके साथ गाती हैं।  गायन में उनका अपना व्यक्तित्व है। उन्होंने सूफी कलाम या गायन की राह  पकड़ी है। यह पारंपरिक सूफी गायन नहीं है। इसे नवसूफी गायन या सूफीवत् गायन कहना ज्यादा उचित होगा। विशाल के शब्द और धुनें इस नवसूफीवाद को मोहक बनाती हैं। शायद समकालीन, प्रासंगिक या कहना चाहिए नवीन भी। इस तरह के सॉफ्ट गायन के भी कद्रदान हैं। महफिल में जमा लोगों की प्रतिक्रियाओं से पता चल रहा था कि विशाल कितने लोकप्रिय हैं, टिकट के दाम चाहे जितने भी हों। बल्कि लोकिप्रियता के आधार पर भी तो टिकट के दाम तय होते होंगे। 


कार्यक्रम में एक मध्यांतर भी हुआ। कैंटीन भूतल पर है। वहां जन सैलाब था। काउंटर तक पहुंचना मुश्किल। हमारे बच्चे पहले निकल आए थे। वे बड़ा पाव खरीदने में कामयाब रहे। चाय नहीं मिल पाई। यह जनता की कैंटीन जैसी जगह है जहां एक गलियारे में काउंटर लगाकर चीजें बेची जाती हैं। हजारों की भीड़ एक साथ टूट पड़ती है। यहां एनसीपी या पृथ्वी या अंबानी सेंटर जैसी उच्च भ्रू नफासत नहीं है। अलबत्ता बटाटा बड़ा ₹70 में एक प्लेट और चाय ₹30 में मिल जाती है।


मध्यांतर से पहले का हिस्सा थोड़ा सादा, शुरू में पटरी से उतरता हुआ सा लग रहा था, पर धीरे-धीरे अपनी रौ में आ गया। एक्सपेरिमेंटल गायन के नाम पर इसे सफल ही कहा जाएगा। विशाल ने मुक्तिबोध की रोमानी सी कविता भी गा कर सुनाई। इसे उन्होंने कन्हैया कुमार के नाम किया, जो विशाल के मुताबिक सभागार में मौजूद थे। 


मध्यांतर के बाद साज़ों की जगह बदली हुई थी। रेखा भारद्वाज साड़ी की जगह काले या गाढ़े रंग का पैरों तक लंबा और घेरदार ड्रेस पहने हुए थीं। वह सूफियों का चोगा नहीं था। सूफीवत् था। वह गाने की एक सतर गातीं और घूमने लग जातीं। सूफी तो निरंतर घूमते जाते हैं। लेकिन रेखा जी को घूमने का अभ्यास है। रुकने पर उन्हें चक्कर नहीं आता। दस चक्कर लगाकर भी गीत के अंतरे को उठा लेती हैं। क्या यह नव सूफी गायन था नफासत भरा? उनके अंदर भी कुछ सूफीपन निश्चित ही आता होगा। बाहर तो उसका एक इलस्ट्रेशन दिखता है। रेखा जी की आवाज दिलकश है। विशाल भी गाने में सहज हैं, परफॉर्मेंस में भी। इतने शोर शराबे में भी कोमल पदावली वाला गायक होश कायम रख लेता है। इस कार्यक्रम से पता चला कि यह शो बिजनेस भी उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा है। इस व्यक्तित्व को साकार करने के लिए विशाल मध्यांतर के बाद कुर्ते पजामे की बजाय जैकेट और जींस में पधारे थे। यह उनका नया ही अवतार था। प्रदर्शनों की भाषा में कहा जाए तो इस हिस्से में एनर्जी का स्तर अलग ही था। पहले रेखा तेज रोशनी से परेशान थीं। अब रोशनी तेज सूरज की तरह मंच पर प्रहार कर रही थी और वे लोग उसे पर थिरक रहे थे। इस हिस्से में उन दोनों ने अपनी फिल्मों के लोकप्रिय गीत गाए। जनता मानो इन्हीं गीतों का इंतजार कर रही थी। दोनों गायको ने भी ये लोकप्रिय गीत इस हिस्से के लिए चुनकर रखे थे। पहले मानो वे में रिहर्सल कर रहे थे। ‘बीड़ी जलई ले’, 'दिल तो बच्चा है' ‘नमक इश्क का’ और 'नैणा ठग लेंगे' जैसे गीत मानो मंच से कूद कर सीधे दर्शक को बींध रहे थे। बहुत तेज आवाज, बेहद तीखे साज़, अति गंभीर धमाके। और इस के साथ रोशनियों के जलने बुझने मटकने अटकने का महा खेला। पूरा सभागार जैसे दहल रहा था। ये गीत गुलजार के लिखे हुए हैं। यह सोचना दिलचस्प होगा कि वे इस तरह की प्रस्तुति को साक्षात देख रहे होते तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती।


इन धमाकेदार गीतों के बजते वक्त अचानक मैंने महसूस किया कि मेरी कुर्सी हिल रही है। मेरे जाने मैं तो स्थिर था, जड़ी-भूत जैसा, कुर्सी के हत्थों को कस कर पकड़े हुए। पर दिमाग ध्वनि और प्रकाश के उन घन प्रहारों के बीच विचलित था। क्या मेरे पड़ोसी हिल रहे थे या पीछे वाले थिरक रहे थे या कहीं मैं ही तो सम्मोहित नहीं हो गया था? कुछ समझ नहीं आ रहा था। ध्वनियां और रोशनी अंदर तक धंस रही थी। मैंने महसूस किया मेरी अंतड़ियां खिंच रही हैं। मेरा पेट एकदम गुच्छा हो गया है। आवाजों का वह क्रिसेंडो चरम पर था। तब भी विशाल भारद्वाज होश में थे। उन्हें पता था वे क्या कर रहे हैं। असल में वे अपने चहेतों के लिए गला फाड़ परफॉर्म कर रहे थे। फिर उन्होंने इस ढैं-ट-ढैं के बीच ही अपने साज़िन्दों का परिचय दिया।  


मैंने धीरे से खुद को उठाया और उस लाइन में लग गया जो सभागार से बाहर जाने की तैयारी कर रही थी। हम घर आ गए पर मेरी अंतड़ियों की ऐंठन अगले दिन शाम को जाकर ही खत्म हुई।

Thursday, July 4, 2024

तू अगली रुत पर यकीं रखीं


 

सुरजीत पातर पंजाबी के कवि मई महीने में गुजर गए। हिंदी साहित्य संसार में अपने से थे।  कई लोगों ने उनकी कविताओं के अनुवाद किए। कुछ कविताओं का अनुवाद मैंने भी किया था। सर्जक पत्रिका के लिए। इस ब्लॉग पर वे कविताएं हैं। लिंकनीचे दिए हैं। नवनीत मासिक के संपादक विश्वनाथ सचदेव जी के अनुरोध पर एक संक्षिप्त टिप्पणी के साथ कुछ कविताएं उन्हें दीं। टिप्पणी लिखने के लिए इंटरनेट खंगाला तो पंजाबी उपन्यासकार जसविंदर सिंह का एक लेख मिला। सुमनिका ने उसका पंजाबी से अनुवाद कर दिया। वह लेख कथादेश के जुलाई अंक में छपा है। जसविंदर  जी का संपर्क सूत्र अमृतसर में सुजाता के जरिए पंजाबी कवि और संपादक अरतिंदर कौर जी से मिला। अब आप नवनीत में छपी यहटिप्पणी पढ़िए। 


तू अगली रुत पर यकीं रखीं


 एक कवि ही अगली ऋतु पर यकीन रखता है। पतझड़ आता है तो वसंत भी आता है। इतना ही बहुत है कि मेरे खून ने पेड़ को सींचा, क्या फर्क पड़ता है कि पत्तों पर मेरा नाम नहीं है। यह है एक कवि की विश्वदृष्टि। जितना वह अपनी दुनिया के लिए कर सकता है, करेगा। बदले में उसे कोई पहचान या नाम की दरकार नहीं है। मौजूदा दौर चाहे कितने भी खराब, डरावने या खतरनाक हों, वह आने वाले समय पर भरपूर विश्वास रखेगा।

 अनुभव पकी बातें मधुरता से रखने वाला कवि सुरजीत पातर 11 मई 2024 को शरीर छोड़ गया। एक बड़ा भारतीय कवि, जिसका जन्म 14 जनवरी 1945 को पंजाब के एक गांव पतड़ कलां में हुआ था, चुपचाप नींद में ही चला गया। यह यकीन से कैसे कहा जा सकता है कि वह चुपचाप गया? कवि नींद में कैसे सपने देख रहा था या जाने से पहले कितने कष्ट से गुजरा होगा, यह हमें कभी पता नहीं चलेगा। 

 सोशल मीडिया पर साहित्य प्रेमियों ने शिद्दत के साथ उसे याद किया। पातर साहब कवि तो पंजाबी भाषा के थे पर हिंदी समाज भी उन्हें अपना ही मानता था। चमन लाल की उनकी कविताओं के हिंदी अनुवाद की एक किताब भी है। पंजाबी में उनके प्रमुख संग्रह हैं हवा विच लिखे हरफ’, ‘बिरख अरज़ करे’, ‘हनेरे विच सुलगदी वरणमाला’, ‘लफ्ज़ां दी दरगाह’, ‘पतझड़ दी पाजेब’ औरसुरज़मीनपातर ने लोर्का की तीन त्रासदियों, गिरीश कर्नाड के नाटक नागमंडल, ब्रेख्त और पाब्लो नेरुदा की कविताओं के बड़े सृजनात्मक अनुवाद भी किए हैं। 

 सुरजीत पातर पाश के साथ के कवियों में थे। कवि कुलदीप शर्मा लिखते हैं, ‘‘मेरा उनसे नाता तब से है जब वे पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में नए-नए असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्त हुए थे और कैंपस के बाहर एक कमरे में रहते थे, जहां अक्सर सुखचैन, पाश, अवतार, प्रदीप बोस के साथ साहित्यिक जमावड़ा चलता रहता था। उन दिनों वह खूब लिख रहे थे।’’ 

 जसविंदर सिंह लिखते हैं, ''सुरजीत पातर का काव्य जगत एक पढ़े लिखे युवा मनुष्य के बिखरे, टूटे, अंधेरे उलझे और उदास बिंबों-प्रतिबिंबों से ओतप्रोत है जो कि आधुनिक मनुष्य का अवांछित, असंगत, भयावह और अनिवार्य अस्तित्व और नियति है। पातर ने पंजाबी शायरी में मनभावन क्रांति के रोमांस और प्रेम के रोमांस, दोनों ही मिथकों का नई अस्तित्वमूलक संवेदना के माध्यम से पूरी शिद्दत, संजीदगी, सलीके और नए बलशाली मानवीय पीड़ामय तर्कों के साथ विस्फोट किया।''

 पंजाबी कविता में एक तरफ पाश हैं, शीशम की लकड़ी की तरह मौसमों की मार को झेलने के काबिल, सख्त और तल्ख कवि; दूसरी तरफ झूमती टहनियां वाली कमनीय लताओं को आंसुओं से सींचने वाले मधुरकंठी गायक शिव बटालवी; इन दोनों छोरों के मध्य पांच नदियों की जमीन की तासीर को आधुनिक समय में पहचानने वाला, बौर भरे आम के पेड़ की तरह का संस्कृत कवि गायक सुरजीत पातर। पंजाबी कविता की मोटे तौर पर एक खासियत है मेटाफोर और बिंबों की भाषा में अपने समय को स्वर देना। सुरजीत पातर अपनी कविता में इसके साथ-साथ करुणा की भीनी फुहार भी शामिल कर लेते हैं। वह गीत, गजल और कविता तीनों में समान अधिकार से लिखते रहे हैं। एक तरह की सादगी, विचार की नवीनता और कहने का अनूठापन उनकी विशेषताएं हैं। वे अपने वक्त की नब्ज को सही तरीके से पहचानते हैं। पंजाब के आतंकवाद के दौर में उन्होंने सधे अंदाज में अपनी बात कहने की हिम्मत की। उनकी कविताओं में गीति तत्व समाया हुआ है, शायद उसी की वजह से वे आमजन में भी बेहद लोकप्रिय हैं।

सुरजीत पातर की कविता कविवर  

सुरजीत पातर की ग्यारह कविताएं  (एक पोस्ट में एक कविता है। एक कविता पढ़कर अगली पोस्ट में जाना होगा।)

Sunday, June 16, 2024

पृथ्वी में संगीत



सितारतय सुबह  


आज 16 जून की सुबह संगीतमय रही। मुंबई की खाली सड़कों का आनंद लेते हुए सवा सात बजे हम पृथ्वी थिएटर पहुंच गए। संगीत प्रेमी वहां पहले से ही पधारे हुए थे। यहां अच्छी सीट पाने के लिए लोग आध पौन घंटा पहले ही आकर कतार में लग जाते हैं। आज भी करीब तीस लोग हमसे पहले वहां मौजूद थे। अवसर था महीने के तीसरे रविवार की सुबह पंचम निषाद संस्था के शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम उदयस्वर ऐट पृथ्वी। आज सहाना बैनर्जी का सितार वादन था। पृथ्वी थियेटर हाउस फुल नहीं था फिर भी ठीक-ठाक संगीत प्रेमी इतनी सुबह पहुंच गए थे। सहाना बैनर्जी ने सुबह के तीन राग प्रस्तुत करने थे, राग ललित, गुर्जरी तोड़ी और राग भैरवी। महफिल को सजाने संवारने के लिए सहाना जी ने राग ललित बड़े इत्मीनान से पेश किया। अपनी वादन कला से दर्शकों को शुरू से ही सम्मोहित किए रखा। 

पृथ्वी थिएटर में माइक्रोफोन और एमप्लीफायर का प्रयोग नहीं होता है। साज से निकलने वाली ध्वनि तरंगें अपने मूल रूप में सारे सभागार में फैलती हैं। हम लोग जानबूझकर मंच के करीब बैठे ताकि सुनने के साथ-साथ संगीतकारों के हाव-भाव को भी नजदीक से देख सकें। मंच पर तीन ही लोग थे- रामपुर सेनिया घराने की सितार वादक सहाना बैनर्जी, तबले पर ओजस अधिया और संभवत: सहाना की एक शिष्या तानपूरे पर। सितार को गायकी अंग में सुनकर मन भीग जाता है। मैंने अभी तक शाहिद परवेज़ के ही सितार में यह गूंज और लचक सुनी थी। सुमनिका कहती हैं सितार में तो यह होता ही है। यह मीड़ या स्वर की लोच बाज़दफा इतनी लंबी और लहरदार होती है कि स्वरलहरी बलखाती दूर जाती या डूबती जाती प्रतीत होती है। जैसे रंग भरी कोई बंकिम रेखा धीमे धीमे ओझल होती जाती हो। आपके प्राण उससे बंधे बंधे खिंचे चले जाते हैं। आप उसके पीछे-पीछे उतराने लगते हैं।

राग ललित के बाद सहाना जी ने गुर्जरी तोड़ी बजाई। समय की बंदिश के चलते इसे इतना विस्तार नहीं मिला। फिर भी मेरे जैसे साधारण श्रोता को ललित की स्वर लहरी और गुर्जरी की स्वर लहरी में फर्क महसूस हुआ। उसके बाद थोड़ा समय बचा था जिसमें भैरवी में एक धुन उन्होंने बजाई। और उसके बाद इसी राग में एक पुरानी बंदिश भी बजाई। भैरवी की दोनों ही बंदिशें अत्यंत मनमोहिनी थीं।  एक साथ सभी श्रोता इस बात की गवाही भी अपनी तालियों के जरिए दे रहे थे। 

आज की संगीत सभा में सितार के साथ तबले की संगत का बहुत ही आनंद आया। ओजस अथिया सितार वादक के साथ-साथ चल रहे थे। सितार की ध्वनि जब धीमी पड़ जाती, जैसे मानो वह खुद से ही बात कर रही हो, तब तबला भी मुलायम, महीन और मंद हो जाता। जब सितार के तार उल्लसित झंकृत होते, तब तबला भी अपनी कलात्मक ओजस्विता से सभागार को गुंजायमान कर देता। दोनों की संगत बेजोड़ थी। संगीत सभाओं में तानपूरा की भूमिका अपरिहार्य होती है। तानपूरा बजाने या स्वर छेड़ने वाले की भूमिका मुझे बहुत कठिन प्रतीत होती है। मुख्य वादक सहाना जी जैसे ही मिजराव से तारों को छेड़तीं, उनकी दूसरे हाथ की अंगुलियां तारों से खेलने लग जातीं। वह कभी अपने भाव में डूब जातीं, कभी तबले की संगत पर 'क्या बात है' कह उठतीं। बीच-बीच में अपने सितार के कान भी उमेठती रहतीं ताकि सभी तारें सुर में रहें। तबला वादक भी सितार और सितार वादक की भाव-भंगिमा के साथ अपने साज़ के साथ और अपनी देह भाषा के साथ सहज अभिव्यक्ति कर रहे थे। ऐसे आंदोलित माहौल में जहां दो साज़िंदे अपनी-अपनी भाव-भूमि में और अपने-अपने साज़ के साथ आनंद रास में मगन हों, वहां तानपूरे पर सुर छेड़ने वाली साध्वी से कम प्रतीत नहीं हो रही थीं। शायद संगीत सभाओं का यह अनुशासन होता है कि तानपूरा छेड़ने वालों की मुख मुद्रा एकदम शांत और निस्पृह रहती है। यह तो हो नहीं सकता कि वे संगीत का माहौल बनाने में जो अनिवार्य योगदान दे रहे होते हैं, उनके मन में कोई भाव न घुमड़ रहे हों। लेकिन वे उसे अभिव्यक्त नहीं होने देते। उंगलियां भी तानपूरे पर एक लय से फिरती रहती हैं। संगीत की इस पृष्ठभूमि का महत्वपूर्ण योगदान है। क्योंकि यदि तानपूरा न हो तो संगीत सभा में भराव नहीं आ पाएगा। 

हम लोग सभागार में आगे यह सोचकर बैठे थे कि कलाकारों के संगीत के साथ-साथ उनकी भाव-भंगिमाओं का भी आनंद लेंगे। लेकिन संगीत का प्रभाव कुछ ऐसा था कि आप स्वर के साथ चलते हुए कहीं खो जाएं और आंखें बंद हो जाएं। तब बंद आंखों में संगीत का एक अलग ही तरह का संसार खुलता है। फिर थोड़ी देर में जब मन कहीं खोने लगता, तो  आंखें खुलतीं और रोशनी के बीच सितारे अपने साज़ों  के साथ डूबते और खेलते हुए नजर आते। आंखें मुंदने और खुलने का यह क्रम बार-बार चलता रहा।

Monday, March 11, 2024

चौबारे पर एकालाप

 


पिछले साल लमही पत्रिका का एक कविता विशेषांक शशि भूषण मिश्र के संपादन में छपा। इसमें हिंदी के सौ कवि शामिल थे। इसमें मेरे दूसरे कविता संग्रह चौबारे पर एकालाप पर कवि कथाकार नाटककार रमेश राजहंंस ने समीक्षा लिखी। वह समीक्षा यहां आपके लिए प्रस्तुत है।  चित्रकृति: सुमनिका, कागज पर पेंसिल, स्याही और पुष्प। 


चौबारे पर एकालाप : पठन क्रिया-प्रतिक्रिया


'चौबारे पर एकालाप' अनूप सेठी जी का दूसरा काव्य संग्रह है। पहला काव्य संग्रह 'जगत में मेला' 2002 में आया था। यह दूसरा संग्रह 16 वर्ष बाद आया है। मन ही मन मुस्कुराया - जगत के मेले से अनूप जी निकल कर ये चौबारे पर एकालाप क्यों करने लगे भई ! उत्तर भी अपने आप उभरा - ये तो संग्रह की कविताएं ही बताएंगी। 16 वर्षों में चयनित कविताओं का दो ही संग्रह आना इस बात का संकेत देता है कि वे अपनी सृजन प्रक्रिया के सचेतन कवि हैं। उनके अनुभवों - अनुभूतियों का अपना सर्भाधान काल है। गद्य - कविता के अन्य फौरी कवियों के क्षिप्र गल्पावेग से उनकी कोई प्रतियोगिता या स्पर्धा नहीं दिखती। 

कविवर अनूप सेठी जी की 55 कविताओं के इस संग्रह की अधिकांश  कविताएं 2001 से 2014 के दौरान लिखी गयी बतायी गयी हैं। इसमें दो लम्बी कविताएं 'मेरे भीतर का शहर' 1988 और 'चौबारे पर एकालाप' 1989 में लिखी गयी हैं। अनूप जी ने कविताओं का रचनाकाल देकर पाठकों और खासकर आलोचकों को अपने आंतरिक व्यक्तित्व और रचना प्रक्रिया को समझने का सुलभ अवसर प्रदान किया है; पर इन कविताओं के लेखन और चयन के बारे में स्वयं कुछ नहीं लिखा है। अगर वे भूमिका या प्रस्तावना के रूप में कुछ लिखते तो वह इन कविताओं के सूक्ष्म सन्दर्भ का काम करतीं। हाँ, संग्रह के फ्लैप पर आगे-पीछे विजय कुमार जी की एक छोटी टिपणी जरूर है, पर यह तय मैं नहीं कर पाया कि उस टिप्पणी का प्रयोजन क्या है ? क्या उसे पुस्तक खरीदने या पढ़ने के लिए दृष्टिबन्ध और सिफारिश माना जाये ? आजकल के कविता संग्रह में ऐसे अमूर्त फ्लैप लेखन का चलन खूब दिखता है। मुझे नहीं मालूम यह अनूप जी ने लिखवाया है या ज्ञानपीठ के प्रकाशक-संपादक ने ? 

इस संकलन की आरंभिक कुछ कविताएं विद्यमान हिन्दी साहित्य के परिवेश और प्रवृत्ति से जुड़ी हुई हैं। साहित्य का सुधी और गम्भीर पाठक जब संस्कारित होकर रचना के क्षेत्र में उतरता है और अपनी संभावना को जानने-समझने के लिए हाथ-पैर मारता है तो उसे कैसे-कैसे माहौल और स्थितियों का सामना करना पड़ता है, ये कविताएं कुछ-कुछ उसी का बयान करती हैं। 'कवि लीलाधर जगूड़ी जी आये थे' कविता की ये पंक्तियाँ देखी जाएं -

 

मिल तो तब भी रहा होता है कवि

जब पाठक पढ़ रहा होता है

अकेले में उसे अपने आप

 

कवि से मिलना कविता के बाहर फिर भी

बड़ा जरूरी लगता था

रह गये जैसे जीवन में बहुत जरूरी बहुत काम

रह गया यह भी आधे धाम

 

 

उपर से साधारण दिखती ये पंक्तियाँ विद्यमान साहित्यिक परिवेश की गतिविधियों की सांकेतिकता से अथाह अर्थ भरी हैं। जब कभी कविता का गंभीर पाठक किसी कवि के कविता संग्रह को जरूरी पढ़ना समझ कर पढ़ता है, तो उस कवि से उसकी आंतरिक मित्रता होने लगती है। उनमें उन्हें कुछ-कुछ अपनापन मिलता है। यह अपनापन कितने दिनों तक टिकता है या विकसित होता है, यह दोनों के आंतरिक व्यक्तित्व की विकास-प्रक्रिया पर निर्भर करता है। उद्धृत पंक्तियों का मर्म यह है कि एक कवि अपने सीनियर कवि से, जिससे उसका संबंध कविता के माध्यम से श्रद्धामूलक बना हुआ है, मिलना तीर्थ (धाम) जैसा जरूरी समझता है पर साहित्य के स्थानीय पंडे (या सूबेदार) उस कवि को अपनी ही दुनिया में उड़ा ले जाते हैं। वह अपहरण कर्ता कवि अपहरित कवि को अन्य स्थानीय कवियों से नहीं मिलने देना चाहता कि कहीं सबसे मिलकर उस सीनियर कवि को उसकी असलियत का पता न चल जाये और अन्य समर्थ कवियों से उनका नाता जुड़ जाये। यह कविता इसी प्रवृत्ति को उजागर करती है। 

'छोटी सी साहित्य सभा', 'कवि की दुनिया, "कवि को देश निकाला', 'स्थानक कवि', 'स्थानीय कवि' आदि कविताएं आज के हिन्दी साहित्य के पतनशील सम्पर्कवादी माहौल पर बड़ी मार्मिक और मीठी व्यंग्यात्मक टिप्पणी है। अनूप जी ने 'स्थानक कवि' और स्थानीय कवि की दर्दनाक और शोचनीय स्थिति का जो दबे स्वर में बयान किया है, वह मारक प्रभाव छोड़ता है और अचानक नागार्जुन की कविता 'उनको प्रणाम' याद आती है। अनूप जी द्वारा वर्णित यह परिवेश चित्र पूरी तरह मुकम्मल हो जाता अगर वे ऐसे ही सम्पर्कवादी और  स्ट्रैटजीबाज तथाकथित नेशनल परमिट धारी कवियों पर भी अपनी सिद्धहस्त कलम चलाते। 


स्थानक कवि का स्थानिक रह जाना उनकी विवशता है। मुझे लगता है अनूप जी ने यह शब्द मराठी भाषा से लिया है जहाँ यह वाहनों के रुकने के लिए निर्दिष्ट होता है। आजादी के 70 सालों के बाद भी हिन्दी क्षेत्र पुस्तकालय, पुस्तकों की दुकान आदि सूचना और ज्ञान केंद्रित बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। पाठ्यपुस्तक को छोड़ कर शायद ही अन्य सामान्य विषयों की पुस्तकें उपलब्ध होती हैं। ऐसे में उनकी भाषा में ताकत और अभिव्यक्ति कौशल का विकास नहीं हो पाता। फिर महानगरों और भोपाल, इलाहाबाद, लखनऊ जैसे शहरों से आने-जाने वाले कवि-लेखक उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं। आज की पहली पंक्ति के अत्यन्त वरिष्ठ प्रमुख कवि ने तो एक साक्षात्कार में यहां तक कह डाला कि भविष्य में हिन्दी के सारे प्रमुख कवि दिल्ली और भोपाल जैसे विकसित नगरों से ही आयेंगे क्योंकि प्रचार-प्रसार के शक्तिशाली केन्द्र और विभिन्न बड़े बड़े संस्थानों में नौकरियों के अवसर भी इन्हीं जगहों में होंगे। यानी आने वाले दिनों में कवि अपनी कविता की गुणवत्ता के कारण शायद ही मूल्यांकित हो, उसके बड़े होने की काबिलियत इस बात पर निर्भर करेगी कि वह मीडिया में कितनी जगह पर कब्जा कर पाता है और सेलेब्रेटी का दर्जा हासिल कर पाता है। लेकिन ताज्जुब होता है कि ऐसे भविष्यद्रष्टा महान कवि यह नहीं देख पाते कि इण्टरनेट और सेलफोन के प्रसार से गाँव- कस्बे के सचेतन लोग भी दुनिया में घटित हो रही उथल-पुथल और उनके वैचारिक स्रोतों से कटे नहीं रहेंगे । इसलिए उनकी चेतना और गुणवत्ता का स्तर शहरी लेखकों के बनिस्पत कमतर होगा; ऐसा मानना उन्हीं की सचेतनता पर प्रश्न चिह्न लगाता है। 

तीसरी कविता 'कवि को देश निकाला है' इस बात को दर्ज करती है कि हिन्दी साहित्य की दुनिया में सच सुन पाने का साहस छीजता जा रहा है। यहाँ अब चारणों- विरुदावली गायकों को पद्मासन पर पद्ममाला से विभूषित कर बिठाने और सत्तासीन प्रभुओं के मंगल गान को देशरत्न से नवाजने की नव परंपरा स्थापित की जा रही है। मुझे लगता है कवि ने यहाँ देश निकाला exile के समतुल्य के रूप में लिया है। प्रमाण -


आसान नहीं सच का गीत सुन पाना

अन्तरमन तक छिल जाता है

जीवन के घमासान में कुछ कर जाता है

 

वो जिगरा कहाँ कि कोई आग में जले

वो हुलस कहाँ कि कोई चन्दन मले

 

यह कवि को देश निकाला है

 

स्थानीय कवि की पहचान कराते हुए अनूप जी कहते हैं कि 'स्थानीय कवि में अपार श्रद्धा होती है कविता के प्रति...  श्रेष्ठ कवियों का भक्त होता है वह... बाहर के कवियों पर न्योछावर हो-हो सकारथ होता पाता है अपना जीवन । ये श्रेष्ठ कवि कौन होते है ? जो लघु पत्रिकाओं के विशेषांकों में जगह बनाते हैं और समीक्षाओं और पुरस्कारों और आयोजनों प्रायोजनों में सहभागिता से महिमामण्डित होते हैं और श्रेष्ठ होने की भंगिमा अर्जित करते हैं। ये स्थानीय कवि होते हैं जो सहज ही उनकी श्रेष्ठता को स्वीकार लेते हैं और स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं। 

ऐसे श्रेष्ठ कवि जब दूसरे शहरों में जाते हैं जहाँ इनके सम्पादक या गोष्ठीबाज  कवि मित्र रहते हैं तो पहले यह सुनिश्चित करते हैं कि वहाँ उनकी कविताओं का एकल पाठ हो और तमाम स्थानीय कवि श्रोतागण में उपस्थित हों। लेकिन ये मंच पर किसी स्थानीय कवि के साथ, आयोजक को छोड़कर, बैठना हेठी समझते हैं। इसी तरह विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों की चापलूसी करता वहाँ के आयोजनों में जगह बनाता है। फिर वह प्राध्यापक अपने किसी छात्र से उसके 'कृतित्व और व्यक्तित्व' पर लेख लिखवाता है और एक दिन किसी आयोजन में उसे महान कवि का मुकुट पहना देता है। आगे जब आधुनिक कविता के पुरोधों की नाम गिनाई शुरू होती है और उसमें उनके मित्र का नाम छूट जाता है तो उस लेख को ही सिरे से खारिज कर दिया जाता है, ऐसी मुहिम चलाई जाती है। फिल्मी संघर्ष के तर्ज पर आजकल इसी को कहा जाता है साहित्यिक संघर्ष| 

रमेश राजहंस :
हाल में प्रकाशित एकांकी संग्रह
अगर मगर दफ्तर चर्चा में है।  रंगकर्म पर
अपनी तरह की एक पुस्तक अत्यंत प्रचलित है।   

आगे कुछ 'घर गृहस्थी की कविताएं' हैं। इनमें 'जूते बेटी के', 'ये लोग मिलें तो बतलाना', 'पिता', 'तर्पण', 'कुनबा' जैसी कविताएं, पारिवारिक संबंधों के अनुभव - अनुभूतियों की कविताएं हैं। 'जूते बेटी के ' की आरंभिक पंक्तियाँ हैं- घर भर में फैले हैं जूते बेटी के, जगह-जगह कई जोड़ियाँ। आज के जागरूक मध्यवर्गीय परिवार में बच्चों की परवरिश में उनकी छोटी-छोटी रुचियों और मांगों पर मम्मी-पापा किस तरह ध्यान देते हैं, यह कविता इसी पर हमारा ध्यान केंद्रित करती है। 

पर उपर से सामान्य-सी दिखती यह कविता इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हो जाती है कि बच्चा यहाँ बेटी है, जिसे भारत के अधिकांश क्षेत्र में लाइबलटी माना जाता है। इसलिए उसे वह तरजीह नही मिलती जो बेटों को दी जाती है। बेटी की आवश्यकता की पूर्ति की जाती है, उसे एफ्लूएंस का स्वाद नहीं चखाया जाता क्योंकि अगर उसे ऐसे स्वाद का चस्का लग गया तो ससुराल में एडजेस्टमेंट में कठिनाई हो सकती है। ....... 'ये लोग मिलें तो बतलाना' एक आदर्श परिवार का बिंब है जो खोता जा रहा है। ऐसे परिवार में बूढ़ों की भूमिका के महत्व को दर्शाती है। पारिवारिक रिश्तों की ऐसी मोहक कविता मैंने हाल फिलहाल नहीं पढ़ी| इस कविता को पढ़ते हुए ऐसा महसूस हुआ जैसे वर्षों बाद मैं किसी अमराई में पहुँच गया हूँ। पेड़ अभी भी फल दे रहे हैं पर चुप लगाये हैं, अब वहां वह गहमा- गहमी नहीं है।

 

बेटा होने का मतलब है धमा चौकड़ी

घर को सर पर उठा लेने वाले शरारती देवदूत

घुटरुन चलत राम रघुराराई

माँ-बाप को घुटने टिकवा देते हैं

.................

उनकी बहनें न होतीं तो अन्तरिक्ष को थरथरा देते

.................

देश देशान्तर को राज्य प्रांतर को घर द्वार को

बेटा तोड़ के सीखना चाहता है

खिलौना हो वस्तु हो या हो संबंध

बेटी सहेज के जोड़ना जानती है

गुड़िया हो गृहस्थी हो या हो धरती माता

 

परिवार में लड़कियों के होने मात्र से परिवार में भावी पुरुषों में किस तरह भावनात्मक और नैतिक संतुलन स्थापित होता है, उक्त पंक्तियाँ उनकी मौजूदगी से स्फुरित ऊर्जा का जो प्रभाव क्षेत्र बनता है, उसका व्यक्तित्व निर्माण में जो योगदान होता है, उसकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। इसी तरह अनूप जी परिवार में बूढों की उपस्थिति की अनिवार्य भूमिका को भी दर्ज करते हैं-

 

कथा बाँच के ताकत पाते हैं बूढ़े

खाते कम गाते ज्यादा हैं

धीरे-धीरे सत्ता त्याग करते जाते हैं

................

आंखों की जोत मंद होती देह सिकुड़ती जाती

आत्मा का ताना-बाना नाती-पोतों के हाथ सौंपते

 

एक चादर बुनना मेरे बच्चों

उस चादर में महकेगा फूल

ख़सोटोगे तो झरेगा

सहेजोगे तो फलेगा

 

इसी सुर की कविताएं है 'भाई', 'पिता', 'तर्पण' और 'कुनबा' । 'कुनबा' थोड़ा सा अलग है। इसमें कवि यह दर्शाने की कोशिश करता है कि हमारे शारीरिक और स्वाभावगत चरित्र में कैसे हमारे पुरखे बसते हैं। वे नहीं रहते हुए भी हमारे व्यक्तित्व में छाये रहते हैं। 'टमाटर' मुंबई के उपनगर स्टेशनों से सटी सड़कों पर रोज लगने वाले भीड़-भड़क्के भरे बाजार में सब्जी खरीदने के जोखिम से पाठकों को परिचित कराने का प्रयास है। मुझे तो इस कविता में मुंबई की भागमभाग जिन्दगी के मासूम से लगते इस चित्रण में शालीन सूक्ष्म व्यंग्य और मीठे हास्य का स्वाद मिलता है। महानगरीय जीवन से स्पर्धा रखने वाले गंभीर आलोचक को इसमें जीवन की भारी विद्रूपता का साक्ष्य मिल सकता है। यानी, अपनी जमीन से कट कर बड़ी उपलब्धियों की प्राप्ति के चक्कर में आप महानरार में की ओर भागते हैं, वहां आप की टमाटर जैली उपलब्धियाँ भी भीड़-भाड़ की धक्कम-धुक्की में आप के हाथ से छूट कर रौंदी जाती हैं। अर्थात महानगर के आकर्षण में जो लोग अपनी जमीन से उखड़  कर भागते हैं, वे टमाटर जैसी उपलब्धियां भी सहेज कर नहीं रख पाते। 


अगली कविता 'रोना' ने अपने साथ बहुत देर तक बांधे रखा। यह कविता रोने की क्रिया और उसके बाद की अनुभूतियों को पकड़ने की कोशिश करती है। हम सभी वाकिफ हैं कि रोना अकारण नहीं होता। जो संबंध धुआँ का आग से है, वही संबंध रोने का पीड़ा से है। अपमान, अवमानना, अवहेलना, उपेक्षा तिरस्कार, प्रताड़‌ना आदि से जो व्यक्ति प्रतिकार द्वारा मुक्ति पाने की स्थिति में नहीं होता, तो प्रकृति उसे इससे मुक्ति दिलाने के लिए नैसर्गिक उपाय रोना लेकर उपस्थित होती है। उसी रोने को यहाँ कवि कारण से मुक्त कर सिर्फ एक कार्य या घटना के रूप में देखता-परखता है। यह कविता रोने का चाक्षुनिरीक्षण करती है और उसे बारिश में नहायी प्रकृति जैसी निर्मल, महकती और मिट्टी से अंखुआ फूटने जैसा पाता है। अंतिम परिणति के अहसास की पंक्तियां बाकी सब कह देती हैं--

 

फिर भी रह रह कर यही लगता है

कि रोना और रोने के बाद का होना कुछ और ही है

बहुत हल्का बहुत खाली

बहुत भारी बहुत भरा हुआ

पास भी अपने बहुत और दूर भी अपने से पता नहीं कितने

 

इसी तरह की एक और कविता है - 'अकेले खाना खानेवाला आदमी'।  यह महानगरों में परिवार से दूर रहने वाले कारीगरों, क्लर्कों, सेल्समेन, बहुत ही छोटे छोटे व्यापारियों आदि के रात्रि भोजन का चित्र उपस्थित करता है। ये वे लोग होते हैं जो कई कारणों से अपने परिवार को साथ नहीं रख पाते। ये जो कमाते हैं, उसका न्यूनतम से न्यूनतम हिस्सा अपने उपर खर्च करतेहैं ताकि अधिक से अधिक राशि अपने गाँव या कस्बे में स्थित परिवार के भरण-पोषण के लिए भेज सकें, इसीलिए महानगर की नारकीय जिन्दगी को जीते हैं। आटोमोबाइल को जैसे काम करने के लिए पेट्रोल की जरूरत होती है, उसी तरह ये पेट भरने के लिए खाते हैं। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पौष्टिक आहार के सेवन या भोजन का आनन्द लेने के लिए नहीं खाते। अक्सर खाते समय ये अपने जीवन की समाधानहीन समस्या में उलझे होते हैं। इसलिए कवि को वह खाने की धीमी मशीन-सा लगता है। कवि मक्खी के अवतार में उसे विभिन्न कोनों से देखता है। भारतीय समाज में खाना बनाने से लेकर परिवार के सदस्यों को खिलाने तक की प्रक्रिया से पारिवारिक स्त्रियों का अविछिन्न संबंध है जो अकेले खाते आदमी के मन मस्तिष्क में कौंधता रहता है। उसके खाने की तमाशबीन मक्खियाँ असंख्य हैं जिनकी उपस्थिति से हम जान पाते हैं कि खाने की उक्त जगह स्वास्थ्य की दृष्टि से हितकर नहीं है। फिर क्यों खाता है ऐसी जगह आदमी ? क्योंकि यही जगह उसके पेट और जेब के सामर्थ्य के अनुकूल है। कविता के अगले बंध में यह बात खुल जाती है।

 

खाने का बिल चुकाने के बाद

अकेले आदमी के माथे पर बल पड़ गये

जहाँ लिखा था दाम फिर बढ़ गए हैं

पेट भराई का अब कम दामी ठिकाना ढूँढना होगा

 

महंगाई की मार आदमी को कैसे धीरे-धीरे अदृश्य रूप में तोड़ती है, उसे निकष्ट तर जीवन की ओर धकेलती है, अनूप सेठी की यह कविता इस तथ्य को जैसे परत-दर-परत उघाड़ती है, क्या यह काम इसी शिद्दत से किसी प्रख्यात राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय प्रसिद्धिप्राप्त वामपंथी अर्थशास्त्री का आंकड़ों भरा लेख मुद्रास्फीति के दूरगामी प्रभाव या सरकारी मौद्रिक नीति पर सारगर्भित लेख कर सकता है ? 

अच्छी कलाकृति, कविता, संगीत, चित्र और फिल्म एक और बड़ा काम करती है। वे आप की स्मृतियों के अजायबघर के द्वार खोल देती हैं। इस कविता को पढ़ते हुए मुझे अकिरा कुरोसोवा की फिल्म, 'ईकरू, गोगोल की कहानी 'ओवरकोट', मुंबई का डाकयार्ड इलाके से गुजरती सड़क पीडिमेलो के मस्जिद बन्दर, दानाबन्दर, कर्नाक बंदर जैसी जगहों पर बसे पुराने गंदे रेस्त्रां में खाते अफ्रीकी, यूरोपीय मूल के बदरंग लोग जो जहाज से दण्डस्वरूप उतार दिये गये हैं; बान्द्रा स्टेशन के समीपवर्ती नेशनल होटल में फिल्मी स्ट्रग्लर के बिंब एक-एक कर उभरने और तिरोहित होने लगते हैं। 

'बेसुध औरत' और 'बेसुध औरत का आदमी' आप को राजकमल चौधरी के 'मृत्युप्रसंग' कविता की विवरणात्मक शैली का स्मरण दिलायेगी। 'भोली इच्छाएँ', 'प्रेतबाधा, 'रोजनामचा', 'गेहूँ' जैसी कविताएं जीवन के बहाव में सामान्य में विशिष्टता देखती दृष्टि का प्रमाण है। 

एक और महत्वपूर्ण खण्ड है- राजभाषा हिन्दी के कार्यान्वयन की केन्द्र सरकार की नीतियों के तहत केन्द्र सरकार के कार्यालयों और उपक्रमों में हिन्दी अधिकारियों की नयी नस्ल की पैदाइश। अस्सी के दशक के आस-पास इनका प्रादुर्भाव हुआ और नौकरशाही के विशाल तंत्र में इनके अस्तित्व और कार्य की द्वन्द्वात्मकता पर अनूप जी ने हल्की-फुल्की कविताओं के माध्यम से दशा- दुर्दशा पर नजरे इनायत फरमाई है जो ऐतिहासिक महत्व रखता है। 

इस संग्रह में दो लम्बी कविताएं हैं- 'मेरे भीतर का शहर' (1988) और 'चौबारे पर एकालाप' (1989)  मैं लम्बी कविताओं का पाठक बहुत प्रयास कर भी नहीं बन पाया। मुक्तिबोध के 'अंधेरे में', धूमिल की 'पटकथा', मणि मधुकर की 'घास का घराना, राजकमल चौधरी की 'इस अकाल वेला में; और नागार्जुन की 'हरिजन गाथा' जैसी लम्बी कविताएं बहुत बौद्धिक मशक्कत से बार-बार पढ़ीं, पर यहाँ वहाँ कुछ टुकड़ों के सिवा कहीं कविता की रसात्मकता को नहीं पाया। इसलिए ऐसे कवियों से सविनय अनुनय है कि लम्बी कविता लिखने की इतनी ही बेचैनी और आंतरिक दबाव है तो हे काव्यवीर प्रबंध काव्य - महाकाव्य जैसे काव्य रूपों पर हाथ आजमाएं, तो हम जैसे लोग भी आप का लोहा मान लेंगे। यह मेरी सीमा है। 

इन कविताओं में जो अच्छी बात लगी, वह है इनका सौम्य स्वाभाव, मंथर लय, व्यंग्य में भी मधुरता, भाषा में पहाड़ी जीवन की सी सादगी और बिंबों की सघनता, विराम चिह्नों की अनुपस्थिति। गद्य कविताओं के रूखेपन, एकरसता और पोस्चरिंग से आप को राहत मिलेगी और कविता के कवितापन के सौन्दर्य से आप का मन भर जायेगा।

Tuesday, November 28, 2023

चार कविताएं

 


ये चार कविताएं बनास जन के अगस्त 2023 में छपे ताजा अंक में छपी हैं।  

दो कविताएं पिछले साल की हैं और दो कोरान काल की हैं।  


महबूब शहर से गिला शिकवा

मिलने जाना था

मिलने चला

मिला

जितना मिलना मिथा था

उससे कम मिला

कुछ ऐसा था सिलसिला

इस बरस पिछले बरस से कम मिला

इस तरह हर अगले बरस थोड़ा कम मिला

 

कोई छोटी उम्र में

कोई भरपूर जी करके

कोई बीमारी में कोई लाचारी में कोई चलते चलते ही चलता बना

 

एक-एक कर चले गए मिलने वाले मिलने के इंतजार में

जो पीछे छूट गए

अब उनसे

अनमिले चले गयों की याद में

मिलने का बहाना था

यह मिलना भी कोई मिलना था

 

भीतर बसी थी बरस दर बरस जो दुनिया

दरकती चली गई हरफ दर हरफ वो दुनिया

 

बहुत हंसी ठिठोली है बाहर

बेतरह फुदक रही है दुनिया

 

किसको किससे मिलना था

किससे कौन मिला

या रहा आया बरस दर बरस अनमिला

यही है गिला

न जाने किसने किसको छला

 

 

लौटना

नदियां नाले वन वनस्पितयां

चढ़ाइयां उतराइयां पार करनी होती थीं

तब जाकर प्रकट होता था वह लोकोत्तर लोक

 

बहुत दिन से तरस गए दरस को

पुलक से भर जाते

निश्छल स्पर्श हम पाते

 

अंतिम मोड़ के बाद बस्ती के छोर पर

हवा की तासीर बदल जाती

महकते पेड़ों से सरसराती

आम और आंवले की बगल से

उतरती सीढ़ियां बलखाती

ठंडक बिछाती चलतीं

 

जाना पहचाना पर हर बार नया होकर

खुलता दिग दिगंत

 

वहीं लौट जाना है

 

हर जगह हर तरह के बैरीकेड तोड़कर

जैसे झाड़ियों मेड़ों बाड़ों दीवारों सलाखों से

रगड़ खाते खरोंच पाते भागते जाते

चराते पशुओं को सम्हलाते।

 

बहुरूपिये हैं आततायी।

 

आगे बढ़ने के हर एक रन वे पर

दौड़ते हुए राख झड़ती है

 

पहला मौका मिलते ही

बस चकमा दे के निकल जाना है

 

जैसे ही कौल भरता हूं शुरु में लौट जाने का

आंख में नमी बढ़ जाती है

देह में हरकत बल खाती है

 

भीमकाय कीलों को रोंद कर

निकल जाएंगे सीधे उस नदी में डुबकी लगाने

जिसके तट के सप्पड़ों पर कपड़े पछीट रही हैं

माताएं शताब्दियों से

 

कोख में ही लौट जाना है।

दुनिया में नए सिरे से आना है

 

वे धो धो के देती जाएंगी

बच्चे सुखाते जाएंगे

सारी दुनिया को पछीट-पछीट के सूखने डाल दिया जाएगा।

 

कटखनी आवाजें

(कोरोना के दौरान)

 

लोहे की पटड़ियों को चीरती

फिसलती हुई भाग जाती है रेल इंजिन की चीख

दूर गांव को धावती रेल के पहिए

तुफैल बहुत मचाते हैं

गणपति विसर्जन के दिन जैसे फटते हैं ढोल

उससे ज्यादा ठुकते हैं लोहे पर लोहे के बोल

 

लोकल ट्रेन की घुटी हुई सी चीख

घिसती हुई रुकती है मेरी खिड़की के नीचे

प्राणायाम की अभ्यासी यह, सांस रोक कर दो पल

दबी दबी सी सरकती आगे निकल जाती है

कुछ शरीर उतरे कुछ लदे वायरस भरे अनभरे

अब अगले स्टेशन पर घिसटती हुई रुकेगी यह लोकल

कुछ शरीर उतरेंगे कुछ लदेंगे वायरस भरे अनभरे

 

दुनिया घरों में बंद है

लोहा अस्बाब चालू है

 

दूर कहीं टिटहरी सी बोलती है मंद

नजदीक आती एम्बुलेंस के साइरन में बदल जाती है

चारों याम कभी भी

मानो ये हाई वे ये फ्लाईओवर एम्बुलेंसों के रुदन के लिए ही बने थे

 

रौरव जब नहीं होता

कोई भीमकाय कंक्रीट मिक्सर घूमता रहता है

दानवी श्वास जैसे समुद्र की लहर

पथरीले तट पर सिर पटकती रहती है

रह रह कर

 

वाईब्रेशन पर रख दी गई हैं दीवारें

निरंतर दोलायमान

कंपन से मूर्च्छित

मेरी सांस इस कर्कशता में

कहीं दुबकी हुई सी

शायद चल रही है 

 

सुगंध की सुरंग

(कोरोना के दौरान)

 

महानगर की बालकनी में पल रही

विदेशी तुलसी की मंद मादक गंध

पचास साल पीछे ले जाती

रोहतांग पार लाहुल की घाटियों के

श्वेत शुष्क मदिर मदहोश करते

पावन सुरभित लोक में

 

नींबू और गलगल और अमरूद और खीरे और

सेब और अखरोट और बादाम की महक मोहिनी

पीछे पीछे चली आती

कांगड़ा कलम की उतराइयों चढ़ाइयों की

हरी भरी अमराइयों और आबादियों में

खींच ले जाती खिलखिलाती

नंगे पैर लुर लुर करते बचपन की बदमाशियों में

 

अदृश्य विषाणुयुक्त वायु के हाहाकार के बीच

खिड़कियों पर टंगी हरीतिमा को

मधुर महक को

आंखों से छू छू कर 

सांसों में पी पी कर

 

भीतर खुलता खिलता चला आता

कारू का सुगंधित स्मृति का खजाना

नित्य नूतन मदमस्त वायवीय निराकार

हथेली पर जैसी धरी है धरा ठोस और साकार