Sunday, May 27, 2012

मेरे हिस्‍से के रावत जी

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जब से खबर मिली है, भगवत रावत नहीं रहे, उनकी छवि रह रह के आंखों के सामने तैर जाती है. जिंदादिल, आत्‍मीय और मुस्‍कुराता चेहरा.
शायद 1991 की बात है, राजेश जोशी ने शरद बिल्‍लोरे पुरस्‍कार समारोह के सिलसिले में भोपाल बुलाया. उन दिनों मैं और सुमनिका दोनों ही आकाशवाणी में थे. नई नई शादी हुई थी. मैं सुमनिका को भी साथ ले गया. भगवत जी ने आग्रह करके हम लोगों को बुलाया. राजेश हम दोनों को अपने स्‍कूठर पर बिठा कर उनके घर ले गए. रावत जी बेतकल्‍लुफ, अपनेपन से भरे हुए. लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं.
रावत जी बरसों से गुर्दे की बीमारी के शिकार थे. एक बार इलाज के सिलसिले में मुंबई आए हुए थे. हम कुछ दोस्‍त उनसे बांबे हास्‍पिटल में मिलने गए. वहां भी बीमारी के बावजूद उत्‍साह और जज्‍बे से सराबोर. वहीं कविता का समां बांध दिया. तब 'सुनो हिरामन' श्रृंखला की कुछ कविताएं उन्‍होंने सुनाईं. एक बार भोपाल के अभिनेता निर्देशक मुकेश शर्मा (जो मुंबई में रहते हैं) के घर पर मुलाकात हुई. उस रात की बातचीत कविता के मौजूदा परिदृश्‍य की परेशानियों पर केंद्रित रही.
कुछ साल पहले फिर से इलाज के लिए मुंबई में बेटे के पास आए. जसलोक में कई दिन रहे. हमारी उनके बेटे के घर पर मुलाकात हुई तो मधुमेह के इलाज के लिए बाबा रामदेव के प्राणायाम और आसान समझाते रहे.
एक बार सुमनिका ने फोन मिलाना था अपने पिता को, गलती से रावत जी को लग गया. तब भी उनकी बातचीत में वैसी ही आत्‍मीयता का झरना बह उठा. मैंने नए साल पर उन्‍हें एक कार्ड भेजा जिस पर यह मजमून लिखा -
जनवरी 2009

रावत जी को एक चिट्ठी

रावत जी
मैं आपको शुभकामना का कोई दूसरा कार्ड भेजना चाहता था
शब्द भी कुछ और ही होने थे
जैसे मित्र होने थे कुछ और
दुश्मनों के बारे में तो सोचा ही न था
लगता था बिन सेना के भी बचे रह जाएंगे देश
हमें क्या पता था सभ्यता की घंटी
गले में लटका लेने से बैल सींग मारना नहीं छोड़ता
जैसे सुमनिका ने फोन लगाया होता अमृतसर
लग गया भोपाल
यूं कहने को भूल हुई पर
कौतूहल बढ़ा चहक फैली
कान से होते हुए स्मित रेखाओं तक आई
गर्मजोशी का एहसास भी हुआ वैसा ही
जैसी पशमीने की गर्मी और नर्मी मिलती है
पापा की आवाज सुनकर
पर यह भी शायद ऐसा था नहीं
सुमनिका कहेगी वो तो गलती से दब गया
वो तो दबाव था लुका हुआ बरसों पहले का
जब रावत जी के घर गए थे भोपाल में
नहीं, मुकुल जब आए थे बिटिया को लेकर हमारे घर
तब की टाफी थी उसके लिए सहेज रखी अंगुलियों में
उसी की पन्नी में चमका था रावत जी का चेहरा
पर असल बात यह नहीं है रावत जी
सच कहता हूं कहना था मुझे कुछ ऐसा
करना था इस तरह का कुछ
कि चार में से दो दफे अस्पताल में न मिलता आप से
बच्चे की तरह कंधे पर बिठा के
ले आता आपको खुले-खिले आकाश तले
तब यह वक्त न आया होता
इस तरह अकेले में बड़बड़ाने का
और स्यापा गलतियों गफलतों गलतफहमियों का.
मुझे लगता था यह कविता बन जाएगी, पर यह एक तरह का स्‍मृति-शब्‍द-पुंज ही बना. जैसा कि मेरे साथ अक्‍सर होता है, अग्रजों के साथ संकोच का एक झीना पर्दा पड़ा रहता है. रावत जी भी पर्दे के उस पार ही थे. हालांकि उनके स्‍वभाव की मस्‍त पवन उस पर्दे को हर बार परे सरका देती थी. और हमारे हिस्‍से का स्‍नेह हमें मिलता रहा. यह बेहद निजी पूंजी है.

यह साहित्‍य शिल्‍पी पर भी है.   

Tuesday, May 22, 2012

पितृसत्ता को भूलो और बोलो "सत्यमेव जयते"


जगदीश्‍वर चतुर्वेदी इधर अपने ब्‍लाग में समसामयिक विषयों पर नियमित टिप्‍पणियां कर रहे हैं. सत्‍यमेव जयते पर उनकी टिप्‍पणी आप भी पढि़ए. 



सत्यमेव जयते सीरियल की इन दिनों खूब चर्चा है। सामाजिक समस्याओं पर समाज का ध्यान खींचने वाले इस सीरियल को लोग विभिन्न चैनलों पर देख रहे हैं। यह पहला ऐसा सीरियल है जो अनेक चैनलों पर एक साथ दिखाया जा रहा है। जिन चैनलों पर दिखाया जा रहा है उनकी रेटिंग में इससे इजाफा हुआ है।

उल्लेखनीय है टीवी मीडियम इन दिनों गंभीर संकट में है, उसके पास विज्ञापन और धांसू कार्यक्रमों का अभाव है, इसके अलावा दर्शकों का भी मोहभंग हो रहा है।अन्ना हजारे –रामदेव के आंदोलनों ने रेटिंग में सुधार करने में मदद नहीं की है। ऊपर से आर्थिकमंदी के कारण निजी कंपनियों के विज्ञापनों का स्रोत भी सिकुड़ गया है। फलतःचैनलों में बड़ी मात्रा में सरकारी टीवी विज्ञापनों की संख्या हठात बढ़ गयी है।इससे टीवी उद्योग को थोड़ी राहत मिली है। उसे राहत पैकेज के अंग के रूप में आमीर खान का सत्यमेव जयते आया है। लेकिन आमिरखान के सत्यमेव जयते के जरिए टीवी मीडियम में जान फूंकने की यह असफल कोशिश है। टीवी का यह संकट टलने वाला नहीं है।

फिल्मी अभिनेता एक अवधि के बाद टीवी पर दर्शकों को खींच नहीं पाते। अमिताभ बच्चन का शो कौन बनेगा करोड़पति एक अवस्था के बाद अपनी चमक खो बैठा।शाहरूख खान का शो पिट गया। विचारणीय बात यह है कि ये अभिनेतागण फिल्म उद्योग में धड़ाधड़ पिट रहे हैं। फिल्म उद्योग बैठा जा रहा है। ये अभिनेता अभी तक फिल्म उद्योग को संकट से निजात नहीं दिला पाए हैं।ऐसे में इन फिल्मी नायकों से टीवी मीडियम को बहुत ज्यादा मदद नहीं मिलेगी। इसके विपरीत फिल्म उद्योग और भी संकट में फंसेगा।

आमीर खान और दूसरे अभिनेताओं की खूबी है कि वे अपने कार्यक्रम और अपनी फिल्म की रेटिंग बढ़ा सकते हैं लेकिन उनसे समूचे मीडियम को संकट मुक्त करने या समाज को संकटमुक्त करने की मांग करना ठीक नहीं होगा।

भारतीय राजनीति और समाज में इनदिनों एक भेड़चाल दिखाई दे रही है। आम आदमी किसी भी चीज को मीडिया में खासकर टीवी में देखता है तो जल्द ही प्रभावित होता है और तुरंत राय देता है,पुलिस और राजनेता भी एक्शन में आ जाते हैं। इससे यह पता चलता है कि अब समाज के संचालक संस्थान टीवी की शक्ति को महसूस करने लगे हैं। कभी कभी टीवी और समाज,टीवी और राजनीति के अंतर्विरोध भी सामने आ जाते हैं। जैसाकि सत्यमेव जयते के प्रसारण के साथ ही हुआ । उसका पहला एपीसोड़ कन्या भ्रूण –हत्या पर था।इसने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढ़ंग से राजनीति और कन्या भ्रूण हत्या के अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया है। मध्यवर्गीय समाज और कन्या के अंतर्विरोध को नंगा करके सामने रखा है।यह पॉजिटिव पक्ष है। राजस्थान में आज के हालात में जो भी सरकार कन्या भ्रूण –हत्या के खिलाफ एक्टिव होगी उसे अपने वोटबैंक से हाथ धोना पड़ेगा। अन्य राज्यों में भी स्थिति इससे बेहतर नहीं है। उल्लेखनीय है वोट पाने के लिए हमारे प्रमुख गैर वाम राजनीतिदल 1986-87 में सतीप्रथा का नग्न समर्थन कर चुके हैं और आज भी हरियाणा में सरकारी संरक्षण में सर्वखार पंचायते हिटलरी फरमान जारी करती रहती हैं और संविधान की धज्जियां उड़ाती रहती हैं।

आमीर का यह सीरियल काफी महंगा है। टीवी के चंगे धंधे के लिए चर्चित सवाल ,सामाजिक सरोकारों का छोंक और सैलीब्रिटी नायक का एंकर रूप एक हिट फार्मूला है, लेकिन एक अवधि के बाद यह फार्मूला बेअसर रहता है। यह नकली नायक का नकली प्रचार है। यह रीयलिटी टीवी की कृत्रिम सामाजिकता है।

इसका एक सकारात्मक प्रचार मूल्य है कि यह भारतीय मीडिया में व्याप्त सामाजिक सरोकारों के शून्य को एक हद तक भरता है। मीडिया ने खासकर टीवी ने जिस तरह विकास और सामाजिकता के सवालों को त्यागकर सस्ते मनोरंजन का रास्ता पकड़ा है उसकी ओर से ध्यान हटाने में इस तरह के कार्यक्रम मददगार होते हैं।

दैनिक भास्कर के अनुसार " 'सत्यमेव जयते' आमिर और स्टार इंडिया का साझा प्रोजेक्ट है और बताया जाता है कि इसकी मार्केटिंग पर 20 करोड़ रुपये से भी ज्यांदा खर्च हुए हैं। किसी टीवी शो के लिए मार्केटिंग पर इतनी बड़ी रकम शायद पहली बार खर्च की जा रही है। मार्केटिंग का जिम्मा स्टार नेटवर्क को सौंपा गया है। स्टार इंडिया की वाइस प्रेसिडेंट (मार्केटिंग एंड कम्यूानिकेशंस) गायत्री यादव कहती हैं कि ‘दिल को लगेगी, तभी बात बनेगी’ का टैग लाइन इस शो के बारे में बताता है और यही कंपनी के मार्केटिंग अभियान का आधार है।"

"इस शो के प्रोमो सिनेमा हॉल में दिखाए जा रहे हैं। स्टार इंडिया ने कई ऐसे गांवों की पहचान कर, जहां पूरी आबादी के सिर्फ एक तबके के पास टीवी सेट हैं, शो की स्पेाशल स्क्री।निंग की। इन गांवों के आसपास एक सार्वजनिक स्थाचन या टाउन हॉल जैसे स्थान पर ‘सत्यटमेव जयते’ के पहले शो की खास स्क्री निंग की व्यएवस्थास की गई है। इन गांवों में से ज्या दातर की आबादी 5000 से कम है और शायद पहली बार होगा जब इन्हें टीवी की ताकत का अनुभव होगा। शो स्टा र नेटवर्क के तमाम भाषाओं के चैनलों पर प्रसारित किया जा रहा है। दूरदर्शन सहित कुल दस चैनलों के जरिए शो को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाया गया। यहां तक कि स्टानर न्यू ज पर आज भी इस शो को लेकर खास कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं। स्टा र नेटवर्क के इस खबरिया चैनल पर इस शो को कैंपेन के रूप में 'कवर' किया जा रहा है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि टीवी पर कोई शो एक साथ देशभर में दिखाने की इतने बड़े पैमाने पर व्यवस्था की गई है। इस शो में ‘भावनाओं का खुला प्रदर्शन’ हो रहा है। इसमें ऐसे मुद्दे उठाए जा रहे हैं ताकि अधिक से अधिक महिलाओं को जोड़ा जा सके। गायत्री यादव कहती हैं, ‘यह शो देश की जनता के लिए हैऔर हमारी रणनीति है कि देशभर की जनता इस शो को देखे। इस शो को ऐसे इलाकों में दिखाया जा रहा है जहां सीमित संख्याक या नहीं के बराबर टीवी सेट हैं।’ शो का चर्चा में आना इसी कवायद का नतीजा है। इस कवायद का फायदा यह भी रहा कि विज्ञापनदाताओं से 10 सेकेंड के लिए 10 लाख रुपये वसूले जा रहे हैं। आईपीएल मैचों के प्रसारण के दौरान विज्ञापन के लिए इतने ही वक्त् के लिए चार लाख रुपये ही देने पड़ते हैं। विज्ञापन की दरों के बारे में स्टार इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के सीओ संजय गुप्ता कहते हैं, ‘यह बेहद खर्चीला शो है और हमें इस पर होने वाला खर्च जुटाना है।’ "

सत्यमेव जयते के प्रसारण के साथ ही राजनेताओं और खासकर कांग्रेस के नाताओं की स्थिति बड़ी हास्यास्पद रूप में सामने आई है। कांग्रेस और भाजपा में इनदिनों टीवी के प्रचार का राजनीतिक लाभ उठाने की होड़ लगी है। इस होड़ में वे तमाम किस्म की बेबकूफियां भी कर रहे हैं। इसी तरह एक बेबकूफी सत्यमेव जयते के प्रसारण के साथ राजस्थान के मुख्यमंत्री ने की। उन्होंने कन्या- भ्रूण हत्या के मामले पर एपिसोड प्रसारित होते ही तुरंत आमीर से मिलने का प्रयास किया और मुलाकात की और इस मुलाकात को मीडिया इवेंट बनाया गया। इस मुलाकात को आमीर खान ने अपनी प्रमोशन स्कीम में डाल दिया और मुख्यमंत्री ने अपनी राजनीतिक स्कीम में डाल दिया। इस प्रसंग में कई सवाल उठे हैं जिन पर विचार करने की जरूरत है।

पहला सवाल यह उठा है कि आमीरखान के सत्यमेव जयते सीरियल के कन्या भ्रूण हत्या पर बने एपीसोड पर भारत की सिर्फ एक ही राज्य सरकार ने रेस्पांस क्यों दिया ? अन्य राज्य सरकारों पर इस सीरियल का असर क्यों नहीं हुआ ? क्या यह समस्या राजस्थान की ही है ? इसी तरह दहेजप्रथा विरोधी एपीसोड के बाद क्या आने वाले कुछदिनों में होने वाली शादियों में लोग दहेज नहीं लेंगे ? क्या नौजवान अब जगह-जगह सड़कों-मंदिरों-सिनेमाघरों और आमीरखान की तस्वीर के सामने दहेज न लेने की कसम खाते दिखेंगे ?

इससे भी बड़ा सवाल यह है कि हिन्दुस्तान में 30करोड़ से ज्यादा खेतमजदूर हैं और कई करोड़ आदिवासी हैं जिनके यहां दहेजप्रथा नहीं है। दहेजप्रथा मूलतः मध्यवर्गीय समस्या है । सवाल उठता है आमीर की चिन्ता में मध्यवर्ग का सामाजिक संकट ही बार बार क्यों आ रहा है ? भारत में सम्प्रति मध्यवर्ग सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के बाहर चला गया है।वह सत्ता और उपभोग का अंग बन गया है। सामाजिक परिवर्तन पर उसने पेसिव भाव ग्रहण कर लिया है।ऐसे में सत्यमेव जैसे सीरियल इसवर्ग पर अब कोई असर नहीं छोड़ते। उसे इस तरह के कार्यक्रम अब बेचैन नहीं करते।

एक अन्य सवाल यह भी है कि क्या आमीर के इस सीरियल को स्पांसर करने वाली कंपनियां अपने विज्ञापनों और उन धारावाहिकों में लगदगजीवन शैली, लालच और ईर्ष्या का महिमामंडन करते हैं ? समाज की सूरत बदलने के लिए जरूरी है कि स्पांसर कंपनियां अपनी विज्ञापननीति बदलें। इस तरह के कार्यक्रमों को स्पांसरशिप बंद करें। इससे जीवन और टीवी दोनों बदलेंगे।

सत्यमेव जयते के सवाल समाज को बदलने के साथ टीवी को भी बदलने के सवालों से भी जुड़े हैं। क्या हम अपने टीवी मनोरंजन के फॉरमेट और नजरिए को बदलने को तैयार हैं ? क्या सारी दुनिया में टीवी संस्कृति और उपभोक्ता संस्कृति का महान सर्जक स्टार ग्रुप (न्यूज कारपोरेशन) अपना टीवी मनोरंजन फॉरमेट बदलने को तैयार है ? आज सच यह है कि जैसा टीवी होगा वैसा ही समाज होगा। टीवी संस्कृति ने लालच को महान सामाजिक मूल्य बनाया है।

हिन्दी चैनलों में सीरियलों और विज्ञापनों के फ्लो में लालच.शानो-शौकत, लगदग जिंदगी, गहने, दौलत का अहर्निश प्रदर्शन ,मध्यवर्ग में लालची मनोदशा को हवा दे रहा है,ऐसे में सत्यमेव जयते सीरियल में दहेज प्रथा के खिलाफ अपील का क्षणिक प्रचार से ज्यादा महत्व नहीं है।

आमीरखान ने रियलिटी टीवी फॉरमेट का इस सीरियल में इस्तेमाल किया है। इसमें तालियां बजाने के लिए चुटीले बयान भी हैं। जैसे,आमीर खान ने कहा "शादी को एटमबम न बनाएं बल्कि धूपबत्ती बनाएं ।" इस तरह के बयान मध्यवर्ग को सुनने में अच्छे लगते हैं ,क्योंकि वह पेसिव अवस्था में पड़ा हुआ वर्ग है। परजीवी वर्ग है। इस वर्ग में किसी भी किस्म के सामाजिक परिवर्तन के साथ खड़े होने की संभावनाएं नजर नहीं आतीं।

दहेज सामाजिक विपत्ति है ।जबकि सीरियल में दहेजविरोधी बातें व्यक्तिगत चीजें हैं। दहेज और कन्या भ्रूण हत्या जैसे सवालों पर व्यवस्थागत संरचनाओं और सामाजिक संबंधों में आमूल परिवर्तन करना होगा।इसके अलावा पितृसत्ता की विचारधारा के खिलाफ वैचारिक संघर्ष करना होगा। यह काम सीरियल नहीं कर सकता।टीवी क्रांति के बाद सीरियल संस्कृति और विज्ञापनों ने पितृसत्ता की विचारधारा को पुख्ता बनाया है। आमीरखान इस क्षेत्र को एकदम स्र्पर्श नहीं करते। कन्या भ्रूण हत्या से लेकर दहेदप्रथा तक सारी समस्याओं की जड़ है पितृसत्तात्मक संरचनाएं, कानून,सामाजिक संबंध और विचारधारा। आमीरखान इस एरिया की उपेक्षा किए हुए हैं।

सीरियल ध्यान खींच सकता है लेकिन पितृसत्ता विरोधी परिवर्तनों का वाहक नहीं बन सकता। पितृसत्ता विरोधी परिवर्तनों का अर्थ है मीडिया में और खासकर टीवी सीरियल में आधुनिक स्त्री की पहचान की स्थापना करना।

सीरियल संस्कृति ने सारी दुनिया में स्त्री को पुरूष की मातहत बनाया है,अघिकारहीन उपभोक्ता बनाया है। यही वजह है पितृसत्ता विरोधी परिवर्तन कभी सीरियल या मीडिया इवेंट के जरिए नहीं आते। उनके लिए सामाजिक आंदोलन और सामाजिक दबाब पैदा करने की जरूरत है। सीरियल के कम्युनिकेशन की यह समस्या है कि उसमें स्वयं कुछ करने की क्षमता नहीं है। सीरियल को जिस क्षण देखते हैं उसी क्षण तक याद रखते हैं। यह कम्युनिकेशन को स्मृति और समाज में सुरक्षित रखने में असमर्थ है।

सीरियल का असर तब ही होता है जब समग्र मीडिया फ्लो उसकी संगति में हो और नीचे सीरियल के मैसेज को लागू करने वाली संरचनाएं सक्रिय अवस्था में हों। दैनिक भास्कर के अनुसार इस शो के लिए आमिर खान को प्रति एपिसोड तीन करोड़ रुपये मिल रहे हैं। टीवी की दुनिया में पहली बार ऐसा हो रहा है कि बॉलीवुड की किसी हस्ती या एंकर को इतनी मोटी रकम दी जा रही है। सत्यमेव जयते के हर एपिसोड पर करीब चार करोड़ रुपये का खर्च आ रहा है। जबकि आम तौर पर हिंदी चैनलों पर प्राइम टाइम के दौरान दिखाए जाने वाले आधे घंटे के एक शो पर आठ से नौ लाख रुपये खर्च होते हैं। रियलिटी शो के एक एपिसोड पर 35 लाख से 2 करोड़ का खर्च (होस्ट पर निर्भर) आता है।अंत में यही कहना है कि फिर भी यह एक स्वस्थ मनोरंजन तो है ही। 
-साभार, नया जमाना