Tuesday, September 8, 2009

कविवर


मैं पहली पंक्ति लि‍खता हूं
और डर जाता हूं राजा के सिपाहियों से
पंक्ति को काट देता हूं

मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूं
और डर जाता हूं गुरिल्‍ला बागियों से
पंक्ति को काट देता हूं

मैंने अपनी जान की खातिर
अपनी हजारों पंक्तियों की
इस तरह हत्‍या की है
उन पंक्तियों की रूहें
अक्‍सर मेरे चारों ओर मंडराती रहती हैं
और मुझसे कहती हैं : कविवर !
कवि हो या कविता के हत्‍यारे

सुना था इंसाफ करने वाले हुए कई इंसाफ के हत्‍यारे
धर्म के रखवाले भी सुना था कई हुए
खुद धर्म की पावन आत्‍मा की
हत्‍या करने वाले

सिर्फ यही सुनना बाकी था
और यह भी सुन लिया
कि हमारे वक्‍त में खौफ के मारे
कवि भी हो गए
कविता के हत्‍यारे.