Tuesday, November 28, 2023

चार कविताएं

 


ये चार कविताएं बनास जन के अगस्त 2023 में छपे ताजा अंक में छपी हैं।  

दो कविताएं पिछले साल की हैं और दो कोरान काल की हैं।  


महबूब शहर से गिला शिकवा

मिलने जाना था

मिलने चला

मिला

जितना मिलना मिथा था

उससे कम मिला

कुछ ऐसा था सिलसिला

इस बरस पिछले बरस से कम मिला

इस तरह हर अगले बरस थोड़ा कम मिला

 

कोई छोटी उम्र में

कोई भरपूर जी करके

कोई बीमारी में कोई लाचारी में कोई चलते चलते ही चलता बना

 

एक-एक कर चले गए मिलने वाले मिलने के इंतजार में

जो पीछे छूट गए

अब उनसे

अनमिले चले गयों की याद में

मिलने का बहाना था

यह मिलना भी कोई मिलना था

 

भीतर बसी थी बरस दर बरस जो दुनिया

दरकती चली गई हरफ दर हरफ वो दुनिया

 

बहुत हंसी ठिठोली है बाहर

बेतरह फुदक रही है दुनिया

 

किसको किससे मिलना था

किससे कौन मिला

या रहा आया बरस दर बरस अनमिला

यही है गिला

न जाने किसने किसको छला

 

 

लौटना

नदियां नाले वन वनस्पितयां

चढ़ाइयां उतराइयां पार करनी होती थीं

तब जाकर प्रकट होता था वह लोकोत्तर लोक

 

बहुत दिन से तरस गए दरस को

पुलक से भर जाते

निश्छल स्पर्श हम पाते

 

अंतिम मोड़ के बाद बस्ती के छोर पर

हवा की तासीर बदल जाती

महकते पेड़ों से सरसराती

आम और आंवले की बगल से

उतरती सीढ़ियां बलखाती

ठंडक बिछाती चलतीं

 

जाना पहचाना पर हर बार नया होकर

खुलता दिग दिगंत

 

वहीं लौट जाना है

 

हर जगह हर तरह के बैरीकेड तोड़कर

जैसे झाड़ियों मेड़ों बाड़ों दीवारों सलाखों से

रगड़ खाते खरोंच पाते भागते जाते

चराते पशुओं को सम्हलाते।

 

बहुरूपिये हैं आततायी।

 

आगे बढ़ने के हर एक रन वे पर

दौड़ते हुए राख झड़ती है

 

पहला मौका मिलते ही

बस चकमा दे के निकल जाना है

 

जैसे ही कौल भरता हूं शुरु में लौट जाने का

आंख में नमी बढ़ जाती है

देह में हरकत बल खाती है

 

भीमकाय कीलों को रोंद कर

निकल जाएंगे सीधे उस नदी में डुबकी लगाने

जिसके तट के सप्पड़ों पर कपड़े पछीट रही हैं

माताएं शताब्दियों से

 

कोख में ही लौट जाना है।

दुनिया में नए सिरे से आना है

 

वे धो धो के देती जाएंगी

बच्चे सुखाते जाएंगे

सारी दुनिया को पछीट-पछीट के सूखने डाल दिया जाएगा।

 

कटखनी आवाजें

(कोरोना के दौरान)

 

लोहे की पटड़ियों को चीरती

फिसलती हुई भाग जाती है रेल इंजिन की चीख

दूर गांव को धावती रेल के पहिए

तुफैल बहुत मचाते हैं

गणपति विसर्जन के दिन जैसे फटते हैं ढोल

उससे ज्यादा ठुकते हैं लोहे पर लोहे के बोल

 

लोकल ट्रेन की घुटी हुई सी चीख

घिसती हुई रुकती है मेरी खिड़की के नीचे

प्राणायाम की अभ्यासी यह, सांस रोक कर दो पल

दबी दबी सी सरकती आगे निकल जाती है

कुछ शरीर उतरे कुछ लदे वायरस भरे अनभरे

अब अगले स्टेशन पर घिसटती हुई रुकेगी यह लोकल

कुछ शरीर उतरेंगे कुछ लदेंगे वायरस भरे अनभरे

 

दुनिया घरों में बंद है

लोहा अस्बाब चालू है

 

दूर कहीं टिटहरी सी बोलती है मंद

नजदीक आती एम्बुलेंस के साइरन में बदल जाती है

चारों याम कभी भी

मानो ये हाई वे ये फ्लाईओवर एम्बुलेंसों के रुदन के लिए ही बने थे

 

रौरव जब नहीं होता

कोई भीमकाय कंक्रीट मिक्सर घूमता रहता है

दानवी श्वास जैसे समुद्र की लहर

पथरीले तट पर सिर पटकती रहती है

रह रह कर

 

वाईब्रेशन पर रख दी गई हैं दीवारें

निरंतर दोलायमान

कंपन से मूर्च्छित

मेरी सांस इस कर्कशता में

कहीं दुबकी हुई सी

शायद चल रही है 

 

सुगंध की सुरंग

(कोरोना के दौरान)

 

महानगर की बालकनी में पल रही

विदेशी तुलसी की मंद मादक गंध

पचास साल पीछे ले जाती

रोहतांग पार लाहुल की घाटियों के

श्वेत शुष्क मदिर मदहोश करते

पावन सुरभित लोक में

 

नींबू और गलगल और अमरूद और खीरे और

सेब और अखरोट और बादाम की महक मोहिनी

पीछे पीछे चली आती

कांगड़ा कलम की उतराइयों चढ़ाइयों की

हरी भरी अमराइयों और आबादियों में

खींच ले जाती खिलखिलाती

नंगे पैर लुर लुर करते बचपन की बदमाशियों में

 

अदृश्य विषाणुयुक्त वायु के हाहाकार के बीच

खिड़कियों पर टंगी हरीतिमा को

मधुर महक को

आंखों से छू छू कर 

सांसों में पी पी कर

 

भीतर खुलता खिलता चला आता

कारू का सुगंधित स्मृति का खजाना

नित्य नूतन मदमस्त वायवीय निराकार

हथेली पर जैसी धरी है धरा ठोस और साकार 



 


Sunday, October 29, 2023

अपने-अपने पिता

 


संभावना प्रकाशन से पिता पर लिखी गई कविताओं का एक संकलन प्रकाशित हुआ है। 

इसका संपादन युवा कवि सतीश नूतन ने किया है। इसमें तमाम भारतीय भाषाओं से कविताएं चुनी गई हैं। 

इस पुस्तक पर मेरी यह समीक्षा पाखी मासिक में छपी हैै। 


अँधेरे में पिता की आवाज कई वजहों से महत्वपूर्ण कविता संकलन है। यह केवल हिंदी कवियों को प्रस्तुत नहीं करता है,  बल्कि एक तरह से भारतीय कवियों को एक जगह महसूस करने का अवसर प्रदान करता है। इसमें अंगेजी, असमिया, उर्दू, ओड़िया, कन्नड़, कोंकणी, गुजराती, डोगरी, तमिल, तेलुगू, नेपाली, पंजाबी, बांगला, मणिपुरी, मराठी, मलयाली, मैथिली, राजस्थानी, संस्कृत, सिन्धी, और बज्जिका के कवि शामिल हैं। इक्कीस भारतीय भाषाओं के साथ हिंदी के करीब सत्तर कवि यहां उपस्थित हैं। इतनी विविधता के बावजूद इस संचयन की खूबी है कि सभी कविताओं का विषय एक ही है -पिता । पिता की इतनी छवियां इन कविताओं में उकेरी गई हैं कि जो दिलचस्प तो हैं, गहन विचार करने और मृदुलता से महसूस करने के लिए भी किसी बड़े खजाने से कम नहीं हैं। 

इस संचयन की संकल्पना ही अनूठी है। माँ की महिमा का गायन हमेशा होता है। बेशक उस ममत्व का कोई मुकाबला नहीं। इसके बरक्स परिवार की दूसरी महत्वपूर्ण इकाई पिता की छवि माँ की ममता के सामने धूमिल पड़ी रहती आई है। सामान्य अवधारणा में पिता कठोर, निर्मोही, कर्मठ, व्यावहारिक आदि ही माने जाते हैं। परिवार में एक ऊंची गद्दी पर बैठे हुए स्वामी और नियंता। पितृसत्ता के पक्के और अचूक प्रतिनिधि। खासकर संयुक्त परिवारों में तो पिता अपनी संतानों से और भी दूर और ओझल से रहे चले जाए हैं। न वे अपनी संतान से मन की बात कह पाते हैं, न संतान उनके निकट जा पाती है। 


लेकिन ध्यान देने की बात है कि आखिर पिता के अंदर भी तो एक दिल धड़‌कता है; उनकी भी आँखों में फूल खिलते हैं। और जब कवि अपने पिता को कविता में लाता है, तो पिता के व्यक्तित्व के अनेक छुपे हुए पहलू तरह-तरह की भावनाओं से हमें सराबोर करते जाते हैं। पिता अपनी तमाम अच्छाइयों बुराइयों के साथ एक साधारण मनुष्य बन जाता है। 

यह भी एक प्रचलित धारणा है कि दो तीन पीढ़ी पहले के पिता की तुलना में आज का पिता अपनी संतान के साथ अधिक सहज है। वह परिवार के साथ बेहतर संवाद कर पाता है। या कहें कि पुरुष होने का दंभ और पितृसत्ता का अहंकार कम हुआ है। यहां संकलित कविताओं से ऐसी किसी धारणा की पुष्टि नहीं होती। उम्रदराज कवियों के पिता, जो जाहिर है दो पीढ़ी पहले के रहे होंगे, बेहतर, कोमल, परवाह करने वाले संवेदनशील मनुष्य की तरह दर्ज हुए हैं। सिंधी कवि हरीश करमचंदाणी पिता की यादेंकविता में पिता को याद करते हुए कहते हैं – 

उस जमीन और खेत की कहानी 

उस नदी और समंदर का संगीत 

तुमने मझे  आया है तुम्हारा गला ...  

अशोक वाजपेयी अपने पिता को इस तरह याद करते हैं –  

तुम्हारे पास मुझे समझने की फुर्सत नहीं थी 

और मैं तुम्हें परखने में हमेशा अधीर रहा 

अब जब हमारे बीच थोड़ा-सा दुख और पछतावा भर बचा है 

मुझ पथहारे को तुम देख पाते तो तुम्हें लगता 

मैंने अपनी जिद पर अड़े रहकर और अपमान को न भूल कर तुम्हें ही दुहराया है ...  

विजय कमार लिखते हैं – 

अंधेरे में दिपदिपाती आंखें 

और 

वे रतजगे तमाम 

कभी अपनी मीठी नींद में देखा मैंने 

गुनगुने पानी की तरह था 

तुम्हारी हथेली का स्पर्श मेरे माथे पर ...      


यहां दर्ज अधिकांश कवि अपने पिता को एक अनन्य व्यक्ति की तरह अपने नजदीकी, गर्मजोशी भरे परिजन और अभिभावक की तरह याद करते हैं। कवि कोई आर्केटाइप नहीं रचता। यह इन कविताओं की प्रामाणिकता और खासियत है।

कुछ कवियों के पिता उतने प्रेम भरे नहीं रहे हैं। जाहिर है इसका कारण है कवियों के बेहद निजी अनुभवों से रची गईं कविताएं। इस संकलन के आरंभ में अंग्रेजी कविता है। संतोष भूमकर की 'पिता की मृत्यु' एक कठिन कविता है। उसके बाद मिहिर चित्रे की और भी कठिन है। कठिन समझने में नहीं, झेलने में। संतोष की कविता में दुर्घटना में हुई मौतों के बीच लाचारी भरा प्रलाप है। लेकिन मिहिर चित्रे अपने पिता के रुक्ष, असभ्य, क्रूर, गुस्सैल स्वभाव को रेखांकित करते हैं। तमिल कवि सुकुमारन को अपने पिता का चेहरा मनुष्य नहीं बल्कि लकड़बग्घे का चेहरा प्रतीत होता है। पिता ने पंख कतरने की कोशिश की; संगीत के वसंत को अपरुद्ध किया, पर बेटे ने खुद को बचाकर अपनी राह तलाश ली। वे कहते हैं – 

मैं आपके लिए दुर्भावना नहीं रखता 

बिल्कुल प्यार की तरह   

इसी तरह चित्रा देसाई कहती हैं

मैं पिता दिवस नहीं मनाती 

मनाने का कोई कारण भी नहीं है 

इस देश में – बेटी के लिए सोहर नहीं गाए जाते ...

पिता की आँखों में बंजरपन की खलिश बेटी के मन में है। पिता के घर को छोड़ने के बाद उन्हें खुला आकाश मिल गया। इस कवि का यह अनुभव बेटी, बाबुल, पीहर, के सारे कारुणिक और स्नेह पगे लोकाचार को त्याग देता है। विजय कुमार के यहां पिता का अकेलापन मारक ढंग से चित्रित हुआ है। देवेंद्र आर्य की कविता में पुत्र को पीटने के बाद पिता का अंतर्द्वन्द्व और अपराध बोध बखूबी आया है। 

इसके बरक्स बांगला कवि सुबोध सरकार अपने पिता को बड़े लाड़ से याद करते हैं। वे शरणार्थी शिविर में रहे, गरीब शिक्षक बन कर जिंदगी बितायी। संभवत: उनके किसी प्रेम प्रसँग को याद करते हुए कवि पिता को कहता है कि जिप्सी लड़की के साथ भाग क्यों नहीं गए? पवन करण की कविता में अनायास पुत्र और पिता की तुलना सी हो गई है। अमूमन


यह माना जाता है कि कोई व्यक्ति संतति से जितना प्रेम करता है, माता-पिता से अपेक्षाकृत कम करता है। जीवन के आगे बढ़ते जाने का यह संकेत सा है। माता-पिता धीरे-धीरे पीछे छूटते जाते हैं। अगली पीढ़ी अपनी संतति के प्रति राग और जिम्मेदारी को निभाने में अधिक लिप्त होती जाती है। इस कविता में कवि अपने पुत्र की आंखों की जांच करवाने तुरंत डॉक्टर के पास ले जाता है और अच्छे पिता होने की शाबाशी डॉक्टर से प्राप्त करता है। दूसरी तरफ अपने पिता को वह वृद्धावस्था में जाकर आंख के डॉक्टर के पास ले जा पाता है। तब पता चलता है कि उनकी दूर की नजर बचपन से ही खराब है। हो सकता है उसी वजह से वह पढ़ाई-लिखाई न कर पाए हों। और इसी वजह से जीवन में वैसी सफलता और समृद्धि नहीं पा सके जिसकी आम मध्यवर्गीय व्यक्ति कामना करता है। अब कवि का अपराधबोध जागता है। वह पिता के लिए बेहतर जीवन की तमाम कल्पनाएं करता है कि ऐसा हुआ होता वैसा हुआ होता पर उसके पास कलपने के सिवा कोई चारा नहीं है। 

इस पुस्तक में हिंदी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं की दो दर्जन से अधिक महिला कवि संकलित हैं। महिला कवियों का पिता के साथ अपनी तरह का रिश्ता प्रकट होता है। अधिक रागात्मक, करुण और परवाह करने वाला। हालांकि स्त्री पुरुष स्वर की इस तरह तुलना करना उचित नहीं है। लेकिन जिस तरह प्रत्येक कवि की अपनी अलग छटा है और उसका अपने पिता के साथ संबंध अपनी अनन्यता में प्रकट हुआ है, उसी तरह महिला कवि का संबंध भी अपनी अनप्यता में प्रकट हुआ है। यह विविधता और अनन्यता कविता के आस्वाद के लिए सौंदर्यबोध के विविध आयाम हमारे सामने प्रकट करती है। 

इसी तरह कुछ कवियों ने पिता की तरफ से भी अपनी संतति के प्रति कविताएं लिखी हैं। विष्णु खरे की बहुचर्चित कविता लड़कियों के बापभी इस संकलन में है। इसी तरह मदन कश्यप की अपनी बेटी के प्रति बड़ी होती बेटीमार्मिक कविता है। पिछली पीढ़ी के चंद्रकांत देवताले की भी एक कविता है बेटी के घर से लौटना

 

संकलन से गुजरते हुए कई कविताओं की पंक्तियां याद रह जाती हैं। जैसे मिसाल के तौर पर-  

कल्प वृक्ष नहीं थे पिता

 ऊसर में खड़े बबुर थे पिता

अम्ल और छार पीकर जिंदा रहे

(केशव तिवारी)

 

तुम्हारे पास मिथहास का बल था

और मेरे पास इतिहास की पीड़ा है

(महाराज कृष्ण संतोषी)

 

पिता

विवशता और असहजता का

एक पथराया चेहरा

जिसे हम कभी गौर से नहीं देखते

(पूनम सिंह)

 

प्रेम है, ऐसा कुछ नहीं कहा पिता ने कभी

 प्रेम है, पिता ने हर बार निभा कर दिखाया

(सुलोचना)   

इस संकलन को तैयार कहने में संपादक युवा कवि सतीश नूतन ने कई वर्षों तक श्रम और यात्राएं की हैं। इस संकलन को तैयार करने की उनकी प्रेरणा उनके पिता रहे हैं। सतीश ने बड़ी कारुणिक और विडंबनापूर्ण घटना का जिक्र किया है। उनके पिता गीतकार थे। लोकप्रिय थे। लेकिन दकियानूसी समाज को गीतकार से कुछ लेना देना नहीं। हमारे समय में घटित यह प्रसंग, यानी कैंसर जैसी बीमारी से हुए देहांत को अस्पृष्य मान लिया गया। युवा पुत्र को लाचार बना दिया जाए। पंडों का कहना अंतिम हो। यह अकल्पनीय है। 


इस दकियानूसी सोच का बदला सतीश नूतन ने बहुत ही दूर दृष्टि से, उच्चतर मानवीय चेतना का प्रमाण देकर लिया है। अच्छा ही किया कि श्राद्ध की रूढ़ि को तिलांजली देकर उन्होंने सांस्कृतिक श्रेष्ठता का एक सुंदर और स्मरणीय कदम उठाया। सही अर्थ में सकारात्मक और रचनात्मक। रूढ़िग्रस्त पिछड़े समाज के बीच इस संकलन के माध्यम से पिताको चिरस्थाई बना दिया। जाहिर है तमाम भारतीय भाषाओं को जुटाने का श्रमसाध्य काम उन्होंने किया है। इस संकलन में विजय कुमार और स्वप्निल श्रीवास्तव का भी योगदान है।    

पता चला है कि कविताएं एकत्र करने के क्रम में सतीश जी के पास पिता पर लिखी बहुत कविताएं जमा हो गई हैं। मेरा सुझाव है कि प्रकाशक और संपादक को मिलकर पिता के नाम लिखी तमाम कविताओं को किसी बेवसाइट पर उपलब्ध करा देना चाहिए। वहां पर और भी कविताएं जुड़ती रह सकती हैं। यह काम न केवल साहित्यिक महत्व का होगा, बल्कि पितानामक इयत्ता के मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय अध्ययन का भी स्रोत बन सकेगा।