एनसीपीए में 11 और 12 अगस्त को
प्रख्यात भरतनाट्यम नृत्यांगना माल्विका सरुक्कई
की पेशकश की एक अंतर्यात्रा
हम लोग 11 अगस्त का एनसीपी गए थे, प्रख्यात भरतनाट्यम नृत्यांगना माल्विका सरुक्कई का नृत्य देखने। समय से करीब दो घंटा पहले पहुंच गए। सोच रहे थे कि समय कहां बिताएं। इतवार की वजह से मरीन ड्राइव खचाखच भरा हुआ था। इतने लोग समुद्र का नजारा देखने आए थे कि हम दोनों की हिम्मत उस भीड़ में घुसने की नहीं हुई। हमने एनसीपीए का ही रुख किया। लोहे के विशाल फाटक यूं तो बंद दिख रहे थे लेकिन एक गेट थोड़ा सा खुला था और भीतर एक प्रहरी विराजमान था। उसने हमें अंदर जाने दिया। कहा “अभी रिसेप्शन में लोग आए नहीं हैं। आप डांस देखने ही आए हैं ना?”
हमने कहा “हां!
“कोई बात नहीं। आप इस तरफ टहल लीजिए। जब एंट्री शुरू हो जाएगी तो आ जाइएगा।”
हम एनसीपी के लॉन में चले गए। एक बेंच पर बैठ गए। हमारे पीछे एनसीपी का बड़ा सभागार था। दाएं हाथ को भावा ऑडिटोरियम की एक दीवार थी। गहरे रंग के शीशे में से कुछ संगीतकार बैठे दिख रहे थे। उनके हाथ में वायलिन जैसे कुछ साज़ थे। शायद वे अभ्यास कर रहे थे। हमारे सामने एक्सपेरिमेंटल थियेटर की इमारत थी। उसके पीछे मरीन ड्राइव की अट्टालिकाएं दिख रही थीं। हमने एनसीपीए के प्रहरी को मन ही मन कई बार धन्यवाद दिया। उसने हमें यहां बैठने की आज्ञा दी। कुछ महीने पहले न्यूजीलैंड गए थे। वहां की आर्ट गैलरियों, संग्रहालयों और वहां के वास्तु शिल्प से हम बहुत प्रभावित हुए थे। कल एनसीपीए को इस तरह फुर्सत में देखने पर हमें इस बड़े इदारे पर गर्व हुआ। बहुत साफ, सुंदर लॉन। कार्यक्रम तो सभी जानते हैं यहां बहुत अच्छे होते हैं। समुद्र के करीब होने के कारण हवा भी तन मन को खुश कर दे रही थी। करीब एक घंटा हमने वहां बिताया। उसके बाद एक और घंटा हमारे पास था।
अब थियेटर का प्रवेश द्वार खुल चुका था। हमने टाटा थियेटर में प्रवेश कर लिया और भूतल पर ही एक सोफे पर जा बैठे। तभी वहां स्कूल के बच्चे पंक्तिबद्ध आए। उनकी अध्यापिकाओं ने उन्हें पंक्तियों में बिठा दिया फिर उन्होंने छह-छह बच्चियों को आदेश दिया कि आप लोग बाथरूम हो आओ और पानी पी लो। हम उनकी इस व्यवस्था से बड़े प्रभावित हुए। फिर यह सोचकर वहां से उठ गए कि वे लोग हमारी वजह से संकोच न करें। सीढ़ियां चढ़कर ऊपर आए तब तक जलपान का काउंटर खुल गया था। हमने एक-एक कॉफी ली। काश! कॉफी कम मीठी होती। मानो लोगों के व्यवहार की मिठास कॉफी में भी घुल गई थी।
जब हम सभागार में बैठ गए तो हमने देखा तीन अलग-अलग स्कूलों के छात्र-छात्राएं वहां मौजूद थे। यह कितनी सुंदर और दूर दृष्टि की बात है कि छात्रों को शास्त्रीय नृत्य दिखाया जाए। यह प्रसन्न करने वाला विचार है।
माल्विका सरुक्कई पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत हमारे देश की एक श्रेष्ठ नृत्यांगना हैं। 65 वर्ष की उम्र में भी उनकी देह और देह भाषा अचंभित करती है। उन्होंने चार अलग-अलग कथाएं प्रस्तुत कीं। वे मुझे बहुत समझ तो नहीं आईं लेकिन अपने साथ बहा ले गईं। उनके संगीत के साथी भी गजब के हैं। मैं तो जब भी नृत्य देखता हूं तो गायन करने वालों से बेहद प्रभावित हो जाता हूं। भावुक भी हो जाता हूं। जब उसमें वायलिन, बांसुरी, मृदंगम् और नटुवंगम् (छोटा मंजीरा) का मेल होता है जो सम्पूर्ण ध्वनि संसार अलग ही स्तर पर पहुंच जाता है। गायन की निरंतर लय, उतार चढ़ाव और उस पर ताल का साथ, उसके साथ नर्तन के मेल से अलग ही समा बंधता है।
माल्विका ने चार अलग-अलग नृत्य प्रस्तुत किए। पहले सूर्य स्तुति थी। फिर श्रीमद् भागवत का कालिया मर्दन प्रसंग और बाद में संत अंडाल की दो प्रार्थनाएं पेश कीं। मुझे नृत्य की भाषा समझ में नहीं आती है। हालांकि हर एक रचना से पहले सारांश बताया जा रहा था कि क्या पेश होने वाला है। नृत्य का जानकार उसे और अधिक गहराई और बारीकी से समझ पाता होगा। लेकिन मेरे जैसा साधारण दर्शक भी उनकी नृत्य कला में पूरी तरह खोता रहा। सारांश अंग्रेजी में सुनते समय पहले मेरा ध्यान सिल्क साड़ियों और फैब इंडिया की अभिजात सादगी में विराजमान कला प्रेमियों की तरफ गया, फिर स्कूली छात्र-छात्राओं का ख्याल आया। अगर ये घोषणाएं यहां हिंदी और मराठी में भी की जाएं तो भव्यता का शक्ति प्रपात जरा मंद पड़ जाए और बातें समझ भी आएं।
शास्त्रीय नृत्य कला में शायद बहुत तरह-तरह का संश्लेषण रहता है। गायन और वाद्यों की लय, ताल, नर्तक की भंगिमाएं, मुद्राएं, सुनाई जा रही कथाएं, जीवंत किए जा रहे चरित्र, उनके संवाद - यह सब कुछ कलाकारों द्वारा इस प्रकार आत्मसात कर लिया जाता है कि वह सब उनका एक तरह से रिफ्लेक्स एक्शन ही लगता है। यह लगता ही नहीं कि वह अलग से कोई क्रिया करने या कोई भंगिमा दिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं। यह एक सामूहिक कला है। इसमें मृदंगम्, बांसुरी, वॉइलिन और गायन सभी का बराबर योगदान है। माल्विका ने बाद में बताया भी कि हमने बहुत कठिन अभ्यास इसका किया है। वह दिखता भी है। तभी तो दृश्य और श्रव्य की यह विलक्षण और जीवंत प्रस्तुति संभव हो पायी। इसमें कोई टुकड़ा अलग नहीं है। हर एक कलाकार की एक भूमिका है। और वह समूह में ही संभव है। उसे प्रमुखता से पेश करने वाली नर्तकी है। लेकिन उनका आर्केस्ट्रा भी उसी का अविभाज्य अंग है। जो प्रसंग और कथा और चरित्र पेश किया जा रहा है नृत्यांगना उसी से तदाकार हो जाती है। वह प्रार्थना या स्तुति या पुकार दूर इतिहास में किसी अन्य व्यक्ति की है। वह भी अपने समय में अपने प्रिय से या अपने आराध्य से उतना ही अभिवाज्य रहा होगा। उन शब्दों को शताब्दियों बाद जीवंत कर दिया जाना, वह भी किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा, किसी दूसरे समय में, अद्भुत है। वर्तमान का एक नृत्य दल है। उसके साथ आठवीं और दसवीं शताब्दी का एक पद या कविता, जो अब तक जीवित चली आती है, इस दल के माध्यम से पुनः नव्या होकर साकार हो उठती है। एक लंबा समय एक सूत्र में बंध जाता है। इसे जोड़ने वाले शब्द और उनमें बसी हुई भावनाएं और संवेदनाएं, आवेग और संवेग, पात्र और चरित्र, बीच में हुए तमाम परिवर्तनों से बेपरवाह, अपने नवीन स्वच्छ रूप में अवतरित होते हैं। दर्शक समय की इन दूरियों को लांघ जाता है। सब कुछ एक विलक्षण अनुभव की तरह उसके जीवन का हिस्सा बन जाता है।
अगले दिन यानी 12 अगस्त को हमें एक और अवसर मिल गया, जहां माल्विका सरुक्कई अपनी नृत्य कला के बारे में बात करने वाली थीं। मुंबई के छत्रपति शिवाजी वस्तु संग्रहालय की एक म्यूजियम सोसायटी है। वे लोग कभी-कभी कुछ कार्यक्रम करते हैं। उनका न्योता सुमनिका को मिल जाता है, जिसका लाभ मैं भी उठा लेता हूं। यह कार्यक्रम म्यूजियम सोसायटी ने एनसीपीए के साथ मिलकर किया। करीब डेढ़ घंटे तक माल्विका ने अपनी नृत्य यात्रा के बारे में बात की। नृत्य की बारीकियों को समझाने की कोशिश की; उनके संगतकार किस प्रकार नृत्य को या किसी प्रस्तुति को सांगोपांग
बनाने में सहायक होते हैं। उदाहरण देकर उन्होंने अपनी बात को बड़े प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत किया।
भरतनाट्यम् या कोई भी शास्त्रीय नृत्य हो, हम नर्तक की देहभाषा और भंगिमाओं से व्यामोहित हुए रहते हैं। उन्होंने बताया कि इसे सीखना कितना कठिन है, इसकी प्रक्रिया कितनी जटिल है। नृत्य में सहज होने में कम से कम बीस साल लगते हैं। उसके बाद उसे हृदयंगम करने और नर्तक के रूप में खुद को खोजने की प्रक्रिया शुरु होती है।
ताल की वजह से किस तरह यह गणित पर आधारित है, जिसे उन्होंने काव्यात्मक गणित या पोएटिक मैथ्स का नाम दिया। उन्होंने यह भी बताया कि मृदंगम् या वायलिन या गायन या नटुवंगम को साधारण ढंग से भी बजाया जा सकता है। लेकिन जब हम कोई प्रस्तुति तैयार करते हैं तो उसके तथ्य के आधार पर, उसकी संवेदनाओं को ध्यान में रखते हुए, सभी वाद्य यंत्रों और गायन में कथ्य के अनुरूप लोच या नुआंस पैदा करते हैं। किसी एक रचना को पक्का करने के लिए महीनों रियाज करनी पड़ती है। एक और महत्वपूर्ण बिंदु उन्होंने साझा किया कि जब किसी रचना को वे पेश करती हैं, जैसे अंडाल के ही पद को उन्होंने प्रस्तुत किया, तो वह माल्विका नहीं रह जातीं। वह अंडाल ही हो जाती हैं। बल्कि एक अवस्था ऐसी आती है कि नर्तक या अंडाल या पात्र भी नहीं रह जाता। वहां सिर्फ नृत्य बचता है। किसी ने प्रश्न किया के एनसीपीए के मंच पर आपको कैसा लगा। उन्होंने कहा कि वहां की ऊर्जा एकदम भिन्न है। उसके अलावा मैं नृत्य के दौरान उस स्टेज पर रही नहीं। मैं तो वृंदावन में थी, यमुना के किनारे थी, कृष्ण के साथ थी। इस स्तर तक तदाकार होना नृत्य प्रस्तुति को एक अलग स्तर पर ले जाता है। शायद इसी वजह से दर्शक भी काफी हद तक उस भाव भूमि का स्पर्श कर लेता है।
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