Saturday, July 9, 2011

तिब्‍बती कविता

धर्मशाला, मेक्‍लोडगंज में दलाई लामा और तिब्‍बती रहते हैं. वहीं हैं कवि लासंग शेरिंग. एक दोस्‍त ने उनसे मुलाकात कराई, मैक्‍लोडगंज में ही, जहां शेरिंग बुक वर्म नाम का किताबों की दुकान चलाते हैं. इनका एक संग्रह है टुमारो एंड अदर पोइम्‍स, जो अब आउट आफ प्रिंट हो गया है. उनहोनें अपनी चार कविताओं के कार्ड बना रखे हैं. आप इन्‍हें बुक मार्क भी कह सकते हैं. इनकी ये चार कविताएं यहां जस की तस






गड़बड़

लेबल ठीक करते करते न जाने क्‍या गड़बड़ हो गई कि दो पुरानी टिपपणियां सबसे ऊपर आकर चिपक गईं. इन्‍हें अपनी जगह वापस कैसे रखते हैं, यह समझ नहीं आ रहा, इसलिए क्षमा करें. अगर आप इन्‍हें पहले पढ़ चुके हैं तो कृपया नजरअंदाज़ कर दें और न पढ़ा हो तो पढ़कर कृतार्थ करें.

सरदार







रात दो बजे का वक्त है। पंजाब का एक खदबदाता हुआ शहर - लुधियाना। कहते हैं लुधियाना के लोग विदेश जा बसे हैं। यह एनआरआइयों का शहर है। चमक दमक और ठसक को देखकर लगता है वाकयी यह एनआरआइयों का ही शहर है। लेकिन जितने गए हैं उतने ही रह भी तो गए हैं। तभी तो गमकता है शहर। ये खुद गए हुए हैं। या इनके रिश्तेदार गए हुए हैं। या ये जाने वाले हैं। किसी किसी तरीके से तार जुड़ी हुई है।
इस शहर में रात दो बजे का वक्त और एक बड़ा अस्पताल। भरा हुआ। शहर ही की तरह। दर्जन भर से ज्यादा वार्डों में से एक वार्ड पर नजर डालें। पचीस के करीब बिस्तर। सभी भरे हुए। खाली कोई नहीं। कोने वाली टयूब लाइट जल रही है। लोग सो रहे हैं। लोग ऊंघ रहे हैं। लोग हरकत में हैं। हर कोई अपने में और अपनों में।
एक बिस्तर से एक सरदार उठता है। एक हाथ में ड्रिप लगी है। दूसरे हाथ में बोतल। पाइप बिंधी हुई। उल्टा लटका के सरदारजी आराम से चल रहे हैं। जैसे स्टैंड साथ साथ चल रहा है। अविचल। निर्विकार। उन्हें शायद बाथरूम जाना है। नसों में लगातार जाते गुलूकोज की इस प्रक्रिया को उन्होंने ऐसे गले लगा लिया है जैसे मामूली पट्टी बंधी हो। साधारण आदमी हो तो सूई के नाम से ही दो मील दूर भाग जाए। और ये बहादुर गुलूकोज की बोतल अपने ही हाथ में उठाए घूम रहे हैं। उमर भी पकी हुई है। चिलगोजियां करने दिखाने बाली उमर नहीं। बालों का जूड़ा सिर पर बंधा है। जूड़ा क्या जूड़ू ही है। गंज तो सरदारों को भी पड़ता है।
किसी सरदार को इस हाल में देखने पर एक बारगी झटका लगता है। हालांकि बीमारी का शिकार तो सरदार भी होंगे ही। पर छवि कुछ मन में ऐसी बैठी है कि सरदार माने दिलदार। दिलवर। दिलकश। मस्ती, मजा, मजाक, मेहनत, मुहब्बत और मर्दानगी का नाम सरदार है। बहादुरी और ताकत का मानवीकरण। पारंपरिक लोक मानस और आधुनिक मीडिया ने इस रूप को गढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। ऐसी लाजबाव कौम के नायक को बीमार हालत में देखते ही जाति की सामूहिक छवि बिखरने लगती है।
अस्पताल के इसी वार्ड में शाम का वक्त है। सरदार जी तैयार हो रहे हैं। या कहना चाहिए सज संवर रहे हैं। बीमार आदमी भी तो सजता संवरता है। बल्कि इससे थोड़ी सफूर्ति ही पाता है। इस उपक्रम में सरदारनी जी मदद कर रही हैं। हाथ मुंह धो चुके हैं। कपड़े भी बदल लिए हैं। केश काढ़े जा रहे हैं। पकी उमर है। सरदारनी जी दारजी के बाल संवार रही हैं। लड़कियां चोटी करते समय बालों को पीछे पीठ की तरफ काढ़ती हैं। सरदार सिर झुका के आगे को बाल काढ़ते हैं। खुद ही काढ़ते हैं। पर यहां ये दारजी बीमार हैं। दारनी प्रेम से लगी हैं। बाल कम ही बचे हैं। नींबू बराबर जूड़ा बनता है। सरदारजी का इस तरह से झुका हुआ चेहरा, बालों के नन्हें से झरने से ढंका हुआ। सरदारनीजी के हाथों की हरकत। सरदारजी इस वक्त क्या सोच रहे होंगे।
बड़े भोले लगते हैं जब सरदार बाल काढ़ रहे होते हैं। तब क्या उनके अंदर की प्रकृति माता जागी होती है? क्या सरदार पुरुष और प्रकृति का पूर्ण समन्वित रूप हैं। बहादुर, दिलेर सरदार इतना कोमल और मनोरम भी है। रोज जिसके सिर में से झरना फूटता है। क्या सरदार अपने शीर्ष पर गंगा को धारे रहते हैं? क्या सरदार शिवजी के वंशज हैं?
पर यह तो सिख कौम की समूहिक छवि नहीं है। इस बारे में कौन जानता है। प्रकृति तो हरेक इंसान के भीतर छिपी बैठी होती ही है। कुछ प्रकट कुछ अप्रकट।
अहमदाबाद के शायर सुलतान अहमद से एक बार बात हो रही थी। दंगों में झुलस के आए थे। उन्होंने हमारी आंखें खोलीं कि जाति या कौम के नाम पर सरलीकरण नहीं करने चाहिए। उनकी बात सिर माथे पर। पर किसी इंसान के रूप सरूप और गतिविधि को देख कर उसके छुपे हुए आयाम दिखने लगें तो क्या करें। और अगर वे जाति की छवि के कंट्रास्ट में और चमकने लगें और व्यक्ति की खूबियां सामने आने लगें तो क्या करें।

बाबूजी, संभलना



जमाना बदलता है तो उसकी चाल ढाल भी बदलती है। रंग ढंग भी बदलते हैं। क्या चाल ढाल और रंग ढंग से ही जमाने की पहचान होती है? पूरे तौर पर न होती हो, नब्ज तो पकड़ में आ ही जाती है। बाबू की पहचान हुआ करती थी कमीज, धोती या पाजामा, जूता और टोपी। टटपूंजिया बाबू होगा तो सब्जी तरकारी ढोता दिखेगा। ए के हंगल
फिल्मों में कुछ इसी तरह चलते दिख जाते थे। सिर पर काली टोपी भी होती थी। यह मुंशी, बाबू, मास्टर, मुनीम का मिलाजुला रूप था। एक जमाने में इन महाशयों के परिधान में छतरी या छड़ी भी जुड़ी रहती थी। अशोक कुमार भी ऐसी भूमिकाओं में दिख जाते हैं। ये अपने जमाने के पढ़े लिखे नौजवान होते थे। तकरीबन
दसवीं पास। लेकिन पाएदार। उर्दूदां। अंग्रेजी के जानकार और मिसिल के माहिर। दीन दुनिया की खबर रखने वाले। जात बिरादरी,
कुनबे, कस्बे की ऊंच नीच की परवाह करने वाले। सद्गृहस्थ। आम तौर पर पत्नीव्रता। घर के मुखिया और दफतर की धुरी। निश्चिंत, संतुष्ट और दाल रोटी खाने वाले परोपकारी जीव। इनमें से बीए पास कोई नसीब वाला ही होता था। वह टाई पहनता था। उसका ठसका जरा फ किस्म का होता था।

अगले दौर में बीए पास मध्यवर्गीय बाबू की शक्ल अमोल पालेकर से मिलती है। अब तक पजामे की जगह पेंट आ गई है। कोट उतर चुका है। नौकरी के लिए इंटरव्यू के वक्त टाई की जरूरत महसूस होती है। धांसूपन दिखाना हो तो कोट पहनना पड़ेगा। जुल्फें लंबी हो गई हैं। कलमें भी कान तक नीचे उतर आई हैं। ये नौकरीपेशा नौजवान सफेद और सूफियाना पट्टीदार कमीजों से आगे निकलकर चारखानेदार और रंग बिरंगी शर्ट पे आ गए हैं। पेंट की जेबें अगल बगल से हटकर आगे आ गई हैं। प्लीट खत्म हो गए। मतलब पैंट अब झोला टाइप नहीं रही। चुस्त दुरुस्त हो गई। इससे बाबू की अदा में थोड़ी ठसक, थोड़ी धज आ गई। इस बाबू की उम्र भी थोड़ी कम हो गई। पहले बाबू पचास में होता था। यह चालीस के अंदर ही है। इस बाबू का ग्रेजुएट होना आम बात थी। मतलब तरक्की की एक सीढ़ी पार कर ली गई थी। पिछले दसेक सालों में इस मध्यवर्गीय बाबू की छवि में और चुस्ती आई है। उम्र और भी कम हुई है। वह बाबू की तुलना में अफसर भी बड़ा बन गया है। पुराने बाबू पैदल मार्च करते थे। छाता या छड़ी ले के ब्लैक एंड व्हाइट जमाने के उम्रदराज बाबू। फिर साइकिल रिक्शा आया। बाद में वे बस में लपकते हुए नौकरी पे जाने लगे। माने सिटी बस चलने लगी। तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता बाबू अब गाड़ी चला के आता है। थोड़ा कमतर होगा तो स्कूटर। अच्छी कंपनी होगी तो कार। कारों में कार मारुति। मध्यवर्ग का ब्रांड इसी से बनता है। नए जमाने का यह बाबू कोट पहने होगा, टाई गांठे होगा। हाथ में उसके ब्रीफकेस होगा। टकटकाटक चलेगा। स्मार्ट ब्वाय। यह बाबू पोस्टग्रेजुएट है।
बाबुओं की ये छवियां निरंतर बदलती चली गई हैं। और अब तो आलम यह है कि जहां बाबू बबुआइन दोनों नौकरीपेशा होंगे, उनकी सम्मिलित स्मार्टनेस आसमान छूने लगेगी। यह एक बड़ी छलांग है। जो बबुआइन एक जमाने में खाने का डिब्बा बांध के देती थी। मुन्ने की नाक अपनी चुन्नी से साफ करती थी। माइके से भाई के आने का इंतजार करती थी। वह बबुआइन अब स्मार्ट गर्ल में तब्दील हो गई है। कैरियर बनाने की धुन उसे भी सवार होने लगी है। इस जोड़े की शक्लोसूरत ही नहीं, शगल, तहजीब, तासीर और सपने भी बदल चुके हैं। यह देश में ही रहने वाला एनआरआई है। ये अमूमन बड़े शहरों के बड़े बाबुओं की अगली पीढ़ी है। ये इंजीनियर, डाक्टर और ऊपर से एमबीए हैं। पासपोर्ट, वीसा हमेशा इनकी जेब में रहता है। प्रोफैशनल संसार में पैसे के लिए कहीं भी कूद जाते हैं। मोटी तनखाहें पाते हैं। दुनिया भर के लोन ले डालते हैं। बाल पकने या झड़ने तक संपत्ति खड़ी कर लेते हैं। यह सयानापन तीस की उमर पार करते करते आ जाता है। इनमें से जो जितना घाघ होगा, वह उतना ही ऊपर उठेगा। जो जितना लद्दू होगा, वह वहीं का वहीं पड़ा रहेगा। बीबी बच्चों की तीमारदारी करते हुए जीवन बिताएगा।
शाहरुख खान, सलमान खान वगैरह इन तेज तर्रार नवबाबुओं का पोर्टेट बनाते हैं। ध्यान रखिए, इस दौर तक आते आते बाबू की उम्र और कम हो गई है। बाबू शब्द भी नए अवतार पर फिट नहीं बैठता। एक्जिक्यूटिव शब्द इस छवि को झेल लेता था लेकिन इधर दुनिया इतनी तेजी से बदली है कि एक्जिक्यूटिव आजकल का ग्लैमरस नाम है। ये तो प्रेसिडेंट वगैरह होते हैं। अजीब है कि हिंदुस्तान का तो एक ही प्रसिडेंट है लेकिन एक एक कंपनी में दर्जनों प्रेसिडेंट हो सकते हैं। बला के स्मार्ट इस बाबू की उम्र कम हो गई है तो शिक्षा पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बढ़ गई है। पैसा बेथाह आ गया है। देश दुनिया से दूरी भी उसी अनुपात में बढ़ गई है। यह बाबू लैप टॉप ले के मोबाइल हुआ फिरता है।
ईमेल के जरिए दुनिया से जुड़ा है। इससे कोई पूछे, भैये 'स्वदेस' में यह ईमेल जाती कहां कहां है?

भेड़ चाल तो हमेशा से चलती आई है। नकलचियों की कमी नहीं होती। तमाम शहर और कस्बे इसी तरह के प्रयोगों के लिए बने हैं। छोटे शहरों और कस्बों के लड़कों को ऐसी टकाटक जिंदगी तो नसीब नहीं होती, वे उसकी खराब जराक्स कापी टाइप जिंदगी जरूर बनाते रहते हैं। सपने नकल के देखते हैं। जिंदगी के धक्के असल के खाते हैं। जब उनके बाल बच्चे उनके कंधे बराबर बड़े हो जाते हैं, तो वे जवानी की अपनी हरकतों पर खिसियाने लगते हैं। वे समझने लग जाते हैं कि अब बच्चों की बारी आ गई है। उनके लिए जगह खाली कर देने में ही भलाई है।