Saturday, July 9, 2011







रात दो बजे का वक्त है। पंजाब का एक खदबदाता हुआ शहर - लुधियाना। कहते हैं लुधियाना के लोग विदेश जा बसे हैं। यह एनआरआइयों का शहर है। चमक दमक और ठसक को देखकर लगता है वाकयी यह एनआरआइयों का ही शहर है। लेकिन जितने गए हैं उतने ही रह भी तो गए हैं। तभी तो गमकता है शहर। ये खुद गए हुए हैं। या इनके रिश्तेदार गए हुए हैं। या ये जाने वाले हैं। किसी किसी तरीके से तार जुड़ी हुई है।
इस शहर में रात दो बजे का वक्त और एक बड़ा अस्पताल। भरा हुआ। शहर ही की तरह। दर्जन भर से ज्यादा वार्डों में से एक वार्ड पर नजर डालें। पचीस के करीब बिस्तर। सभी भरे हुए। खाली कोई नहीं। कोने वाली टयूब लाइट जल रही है। लोग सो रहे हैं। लोग ऊंघ रहे हैं। लोग हरकत में हैं। हर कोई अपने में और अपनों में।
एक बिस्तर से एक सरदार उठता है। एक हाथ में ड्रिप लगी है। दूसरे हाथ में बोतल। पाइप बिंधी हुई। उल्टा लटका के सरदारजी आराम से चल रहे हैं। जैसे स्टैंड साथ साथ चल रहा है। अविचल। निर्विकार। उन्हें शायद बाथरूम जाना है। नसों में लगातार जाते गुलूकोज की इस प्रक्रिया को उन्होंने ऐसे गले लगा लिया है जैसे मामूली पट्टी बंधी हो। साधारण आदमी हो तो सूई के नाम से ही दो मील दूर भाग जाए। और ये बहादुर गुलूकोज की बोतल अपने ही हाथ में उठाए घूम रहे हैं। उमर भी पकी हुई है। चिलगोजियां करने दिखाने बाली उमर नहीं। बालों का जूड़ा सिर पर बंधा है। जूड़ा क्या जूड़ू ही है। गंज तो सरदारों को भी पड़ता है।
किसी सरदार को इस हाल में देखने पर एक बारगी झटका लगता है। हालांकि बीमारी का शिकार तो सरदार भी होंगे ही। पर छवि कुछ मन में ऐसी बैठी है कि सरदार माने दिलदार। दिलवर। दिलकश। मस्ती, मजा, मजाक, मेहनत, मुहब्बत और मर्दानगी का नाम सरदार है। बहादुरी और ताकत का मानवीकरण। पारंपरिक लोक मानस और आधुनिक मीडिया ने इस रूप को गढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। ऐसी लाजबाव कौम के नायक को बीमार हालत में देखते ही जाति की सामूहिक छवि बिखरने लगती है।
अस्पताल के इसी वार्ड में शाम का वक्त है। सरदार जी तैयार हो रहे हैं। या कहना चाहिए सज संवर रहे हैं। बीमार आदमी भी तो सजता संवरता है। बल्कि इससे थोड़ी सफूर्ति ही पाता है। इस उपक्रम में सरदारनी जी मदद कर रही हैं। हाथ मुंह धो चुके हैं। कपड़े भी बदल लिए हैं। केश काढ़े जा रहे हैं। पकी उमर है। सरदारनी जी दारजी के बाल संवार रही हैं। लड़कियां चोटी करते समय बालों को पीछे पीठ की तरफ काढ़ती हैं। सरदार सिर झुका के आगे को बाल काढ़ते हैं। खुद ही काढ़ते हैं। पर यहां ये दारजी बीमार हैं। दारनी प्रेम से लगी हैं। बाल कम ही बचे हैं। नींबू बराबर जूड़ा बनता है। सरदारजी का इस तरह से झुका हुआ चेहरा, बालों के नन्हें से झरने से ढंका हुआ। सरदारनीजी के हाथों की हरकत। सरदारजी इस वक्त क्या सोच रहे होंगे।
बड़े भोले लगते हैं जब सरदार बाल काढ़ रहे होते हैं। तब क्या उनके अंदर की प्रकृति माता जागी होती है? क्या सरदार पुरुष और प्रकृति का पूर्ण समन्वित रूप हैं। बहादुर, दिलेर सरदार इतना कोमल और मनोरम भी है। रोज जिसके सिर में से झरना फूटता है। क्या सरदार अपने शीर्ष पर गंगा को धारे रहते हैं? क्या सरदार शिवजी के वंशज हैं?
पर यह तो सिख कौम की समूहिक छवि नहीं है। इस बारे में कौन जानता है। प्रकृति तो हरेक इंसान के भीतर छिपी बैठी होती ही है। कुछ प्रकट कुछ अप्रकट।
अहमदाबाद के शायर सुलतान अहमद से एक बार बात हो रही थी। दंगों में झुलस के आए थे। उन्होंने हमारी आंखें खोलीं कि जाति या कौम के नाम पर सरलीकरण नहीं करने चाहिए। उनकी बात सिर माथे पर। पर किसी इंसान के रूप सरूप और गतिविधि को देख कर उसके छुपे हुए आयाम दिखने लगें तो क्या करें। और अगर वे जाति की छवि के कंट्रास्ट में और चमकने लगें और व्यक्ति की खूबियां सामने आने लगें तो क्या करें।

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