Tuesday, August 25, 2009

कमीने से उठते सवाल

जो सवाल सच का सामना धारावाहिक के बारे में उठ रहे थे, वे कमीने फिल्म के संदर्भ में और तीखे होकर चुभ रहे हैं। फिल्म में हिंसा का खेल है। जमकर। फोटोफिनिश। बेहद रीयलिस्टिक। शायद इसी वजह से विशाल भारद्वाज के प्रशंसक इसकी तुलना हॉलीवुड की फिल्मों से कर रहे हैं। और खुश हो रहे हैं। हिंसा? खालिस हिंसा। शरीर का कोई मोल नहीं। जिंदगी का कोई मानी नहीं। फोड़ के रख दो। सोचो मत। अंत में जब सारे खलनायक इकट्ठा होकर गोलीवारी करते हैं, तभी थोड़ा बहुत ड्रामा दिखता है। एक्शन या स्टंट फिल्मों में इसी तरह का ड्रामा और मेलोड्रामा दर्शक को कॉमिक रिलीफ देता है। लेकिन कमीने के प्रशंसकों को फिल्म का यह हिस्सा बेकार लगता है। ठकाठक मारकाट ने उनका मन मोह लिया है।

हमारे लिए यह विशाल भारद्वाज का सिनेमा से डिपार्चर है। उनके प्रशंसकों के लिए यह उनका मेनस्ट्रीम में आगमन है। यह विडंबना है। लेकिन सच है। हमने ब्लू अंब्रेला और मकड़ी का फिल्ममेकर खो दिया। शेक्सपीयर के ड्रामों की आधुनिक भारतीय समाजिक व्याख्या करने वाला रीयलिस्टिक फिल्ममेकर खो दिया।

मकबूल भी हिंसा में बुझी हुई फिल्म थी। अपराध और नाजायज रिश्तों का ड्रामा। ओमकारा में अपराध, हिंसा और नाजायज रिश्तों में राजनीति भी जुड़ गई। यह भी डिस्टर्बिंग फिल्म थी। इसमें एक तरह का भदेस और नंगापन था। दर्शक सहम जाता था। पर आखिर उसमें कहीं पे फिर भी ड्रामा बचा हुआ था। जहां आपको लगता था आप फिल्म देख रहे हैं।

कमीने में अलग तरह का यथार्थ है। भयावह। अपराध के कई स्तर हैं। चार्ली (शाहिद कपूर) रेसकोर्स का छुटभैया खिलाड़ी है। इसी धंधे के कई और खिलाड़ी हैं। एक एक सीढ़ी ऊपर के। नायिका का भाई मराठी दादा है। इसका मकसद अपराध से बरस्ता रीयल इस्टेट, राजनीति में जाने का है। फिर गर्द और तस्करी का अंतर्राष्ट्रीय जाल है। पुलिस के बड़े अधिकारी तस्करों के लिए काम कर रहे हैं। नायक डबल रोल में है। लाबारिस जुड़वां भाई। एक भाई अपराध की अंधी गली में गर्क हो रहा है। दूसरा तथाकथित सभ्य समाज में अपलिफ्ट होना चाहता है। लेकिन नायिका के फेर में अपराधियों के चंगुल में फंस जाता है। हर तीसरी एक्शन फिल्म में तकरीबन ऐसी ही कहानी तो होती है।

मतलब कहानी में कोई नयापन नहीं है। बस मारकाट, वीभत्स हंसी और निर्मम हत्याएं हैं। जबरदस्त तरीके से एडिट की हुई। ठकाठक। दर्शक को फुर्सत ही नहीं मिलती कि वह कुछ सोच पाए। या जो दृश्य उसकी आंखों के सामने आ रहे हैं उन्हें भीतर घुसने दे। यह फिल्म दर्शक को रिएक्ट करने की मोहलत ही नहीं देती।

दर्शक इससे डीसेंसीटाइज होता है। तभी तो पिटाई उसे गुदगुदाती है। किसी निहत्थे को मारे जाते देख उसकी हंसी फूटती है। गाली-गलौज, मारकुटाई और गोलीवारी में उसे मजा आता है। दर्शक इस तरह का मजा मेलोड्रैमेटिक एक्शन फिल्मों में भी लेता है। पर वहां मैलोड्रामा यथार्थ को थोड़ा मंद कर देता है। यह अतिनाटक कॉमिक रिलीफ में बदल जाता है। लेकिन हॉलीवुड चलन के फोटोफिनिश यथार्थ में कॉमिक रिलीफ की कोई जगह नहीं है। कैमरे, प्रकाश, ध्वनि प्रभाव की अत्याधुनिक तकनीकें इसे कंप्यूटराइज्ड प्रिसीजन (परिशुद्धता) देती हैं। इस तरह प्रौद्योगिकी फिल्म को मानवीय घटनाक्रम का अनुभव नहीं बनने देती। इसे रंगीन फोटोग्राफी की तरह निष्प्राण, अमानवीय और भयावह बना देती है। प्रौद्योगिकी फिल्म को इतना परफेक्ट बना दे रही है कि दर्शक उसे काल्पनिक दृश्यावली नहीं मान पाता। वह इस तरह के दृश्य देखने का आदी (एडिक्ट) होता जाता है। पैसा खर्च करके मल्टीप्लेक्स में जाता है। और एक तरह से इस परपीड़क आनंद का ग्राहक बनता है। फिल्म उद्योग में यह व्यापार खूब फल फूल रहा है। इसे सफलता माना जाता है। इसी सब परफेक्टनेस के बूते पर कहा जा रहा है कि यह हॉलीवुड से होड़ लेती बॉलीवुड की एक्शन फिल्म है। कि विशाल भारद्वाज पास हो गया।

पर हमें लग रहा है कि विशाल भारद्वाज फेल हो गया। क्या अब वह ब्लू अंब्रेला जैसी कोमल, अर्थवान और संवेदनशील फिल्म बनाएगा?

Friday, August 7, 2009

क्‍यों करें हम सच का सामना



इधर सच का सामना हुआ और उधर नैतिक पुलिस के कान खड़े हो गए। टेलिविजन को हर वक्त कुछ न कुछ नया करने की जरूरत बनी रहती है। कथा कहानी से अगला कदम था रीयल्टी शो। यानी असल जिंदगी में होता ड्रामा आपको ड्रांइग रूम में दिखाया जाए। फिर रीयल्टी शो में भी एकरसता आने लगी। यहां हर वक्त नई जमीन तोड़नी पड़ती है। इस काम में यूरोप अमरीका के लोग ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। वे लोग नई जमीन तोड़ते हैं, हम उस पर फसल उगाते हैं। यह जमीन जांची परखी होती है क्योंकि वे उससे फायदा काट चुके होते हैं। हमारा टेलिविजन उन्हीं प्रोग्रामों की नकल करता है जो सफलता के झंडे गाड़ चुके हों। इसी सफलता का नया नमूना है सच का सामना। वैसे तो जंगल से मुझे बचाओ भी एक विदेशी रीएल्टी शो की नकल है, पर टीआरपी में सच का सामना बाजी मार ले गया है।

इस सीरियल का विषय ही ऐसा है कि टीआरपी बल्लियों उछलने लगी। यह भारत क्या दुनिया भर का पसंदीदा विषय है। सेक्स संबंधी किस्से। आदमी की सबसे आम कमजोरी। ऐसी कमजोरी जो राजा महाराजाओं को धराशाई कर देती है। हमारे समाज को तो सेक्स शब्द सुनते ही ठंडे पसीने आने लगते हैं। हिस्टीरिया हो जाता है। अभी तक खुले में सेक्स शब्द का इस्तेमाल हमें बुरा लगता है। दबे छुपे चाहे जो कर लो। खुले में पाक साफ बने रहो। और स्वीकार (कनफेस) तो कभी मत करो। यह विचित्र विरोधाभास है। यह उस समाज में होता है जहां सेक्स को देवता का सम्मान दिया जाता है। कामदेव। कामदेव शास्त्र और लोक दोनों जगह विद्यमान है। पुराने जमाने में काम-कला को शास्त्र का दर्जा दिया गया है। लेकिन अब तो हमारे ऊपर झूठ, फरेब और वर्जना के इतने तहदार पर्दे पड़े हैं कि हम करते सब कुछ हैं, उसे मानते बिल्कुल नहीं। यह अजीब छल छद्म भरा व्यवहार है।

इसका मतलब यह नहीं है कि सच का सामना सीरियल को सिर आंखों पर बिठा लिया जाए। इस सीरियल के अपने पेचो-खम हैं। इसका एक एक सवाल नशीली गोली का काम करता है। यह उसी रास्ते से निकला है जहां खली और उसके जालिम साथी एक दूसरे की हड्डी पसली तोड़ते हैं। यह रोडीज का ही भाई-बंध है जहां रफ-टफ धींगा मुश्ती के नाम पर जंगलीपन को ग्लैमरस बनाकर परोसा जाता है। यह सीरियल उन्हीं फिल्मों का विस्तार है जिनमें बलात्कार, हिंसा, नंगी देहें, सॉफ्ट पोर्नोग्राफी का कारोबार किया जाता है। यह उन्हीं कथा कहानियों का विस्तार है जहां आदमी के भीतर की बुराई को, धोखेबाजी को, जालसाजी को, कमीनगी को ग्लैमरस बनाकर बेचा जाता है। और जिन्हें हम सास बहू की कहानियां कहकर मजे से देखते हैं। ये सभी तरह के प्रोग्राम एक तरह का परपीड़क सुख (सैडिस्टिक प्लैजर) देते हैं। निंदा रस से भिगोते हैं। ताक झांक से गुदगुदाते हैं।

सच का सामना आदमी की वासना को, कमजोरी को, कमीनगी को, अपराध को कन्फैस कराता है। तथाकथित लाई डिटेक्टर विधि से, पहले प्रतिभागी से एकांत में सच उगलवाया जाता है। फिर अपने परिवार के सामने उससे सवाल पूछे जाते हैं। सवाल चोरी डकैती से जुड़े नहीं होते। उनमें चटपटापन नहीं है। ज्यादातर बैडरूम को ही उघाड़ा जाता है। टीआरपर उसी से बढ़ती है। जब यह पूछा जाता है कि क्या पति ने परस्त्री से संबंध बनाए? जवाब में वह न झूठ बोल सकता है न सच। यह दुविधा दर्शक को टीवी से चिपकाए रखती है। जब पत्नी से यह पूछा जाता है कि क्या वह परपुरुष से संबंध बनाने या उसे मारने की इच्छा रखती है? तो उसका यह मानसिक स्वैराचार या काल्पनिक अपराध उसे कटघरे में खड़ा कर देता है। मतलब अब इच्छा, वांछा, कामना भी उसे अपराधी घोषित करवा सकते हैं। मतलब मन के भीतर भी सेंध लगा दी गई है। मतलब इंसान का निजी कुछ रहा ही नहीं। यह ब्लैक कामेडी या काली कामदी समाज के दोगलेपन को उघाड़ने की मंशा से नहीं खेली जा रही है, बल्कि यह दर्शक को दूसरे के फटे में पैर फंसाकर सुख पाने के लिए पेश की जा रही है। और यह कपोल-कल्पना या गल्प-कहानी नहीं है। सोलहों आने सच है। हाड़ मांस के जीते जागते आदमी की इच्छा, कमीनापन या करतूत।

देश की सबसे बड़ी अदालत ने इसका प्रसारण रोकने से मना कर दिया। आदालत मॉरेल पुलिसिंग नहीं कर सकती। अब या तो राजनीति की रोटियां सेकने वाली पार्टियां सक्रिय होंगी या हो सकता है सरकार कोई अनसोचा अधसोचा फैसला थोपे। सवाल यह उठता है कि अगर अदालत ने प्रसारण रोकने से मना किया है तो क्या यह प्रोग्राम चलता रहना चाहिए? कानूनी मान्यता तो है पर क्या मनोविकृत्तियों के प्रसारण को मान्य किया जा सकता है? क्या यह रूझान ठीक है? क्या मन से खेलने का यह कारोबार ठीक है? इस पर सोच विचार करने की जरूरत है।

एक तरह से तो ठीक लगता है कि हमारे समाज में सच का सामना करने की हिम्मत होनी चाहिए। पर बात इतनी इकहरी नहीं है। यह किरण बेदी की कचहरी नहीं है जिसमें पति अपनी गलती मानते हैं और अगली कार्रवाई चलती है। यह गेम शो है। यह पैसे का खेल है। आदमी अपने अंधेरे कोनों को पब्लिक के सामने बिखेरता है और पैसे बटोरता है। एक बूढ़ा यह कुबूल करता है कि उसने अपनी बेटी से कम उम्र लड़की के साथ शारीरिक संबंध बनाए। उसका परिवार सामने बैठा है। कैमरा उनके हाव-भाव, अंदरूनी उथल-पुथल, उनकी शर्मिंदगी, उनकी बेचारगी को भी पकड़ रहा है। बंदे की फरेबी मासूम मुस्कान तो है ही। और सच कुबूल करने पर बूढ़ा इनाम पा रहा है। यह बूढ़ा असल में बताना यह चाहता है कि एक तो आपने अपनी कामेच्छा को बेलगाम छोड़ रखा है। फिर परिवार के सामने इस बात को कन्फैस करते हैं। फिर पैसा पाकर सब लोग इस कन्फैशन को सलिब्रेट करते हैं। अभी तो इस कार्यक्रम में असली सच सामने आ रहा है। आगे चलकर यह डाक्टर्ड सच भी हो सकता है। यानी प्रतिभागी तय कर लेंगे कि वे अमुक किस्म के सनसनीखेज सच घड़ेंगे और फिर कुबूल करेंगे और पैसा कमाएंगे।


यह सीरियल हमारी नकारात्मक प्रवृत्तियों को उभारने, बेचने, उस पर खुश होने और ईनाम पाने का जरिया बनता है। यह बच्चे को ऊंट से बांधकर दौड़ाने और उसे जख्मी होते देखने या मदमस्त बैल के सामने लाल कपड़ा लेकर फेंक दिए गए आदमी को चींथे जाने जैसा क्रूर खेल है। ये खेल खुले में होते हैं। और हम टीवी सीरियल में, खाना खाते हुए या शराब पीते हुए या बच्चों बूढ़ों के साथ बैठकर घर के अंदर गुम क्रूरता का खेल देखते हैं। क्या ऐसी हालत में हमें सम्य और सुसंस्कृत कहलाने का हक है?

अमर उजाला 3 अगस्‍त 2009 में प्रकाशित

रेखांकन - मुदित