जो सवाल सच का सामना धारावाहिक के बारे में उठ रहे थे, वे कमीने फिल्म के संदर्भ में और तीखे होकर चुभ रहे हैं। फिल्म में हिंसा का खेल है। जमकर। फोटोफिनिश। बेहद रीयलिस्टिक। शायद इसी वजह से विशाल भारद्वाज के प्रशंसक इसकी तुलना हॉलीवुड की फिल्मों से कर रहे हैं। और खुश हो रहे हैं। हिंसा? खालिस हिंसा। शरीर का कोई मोल नहीं। जिंदगी का कोई मानी नहीं। फोड़ के रख दो। सोचो मत। अंत में जब सारे खलनायक इकट्ठा होकर गोलीवारी करते हैं, तभी थोड़ा बहुत ड्रामा दिखता है। एक्शन या स्टंट फिल्मों में इसी तरह का ड्रामा और मेलोड्रामा दर्शक को कॉमिक रिलीफ देता है। लेकिन कमीने के प्रशंसकों को फिल्म का यह हिस्सा बेकार लगता है। ठकाठक मारकाट ने उनका मन मोह लिया है।
हमारे लिए यह विशाल भारद्वाज का सिनेमा से डिपार्चर है। उनके प्रशंसकों के लिए यह उनका मेनस्ट्रीम में आगमन है। यह विडंबना है। लेकिन सच है। हमने ब्लू अंब्रेला और मकड़ी का फिल्ममेकर खो दिया। शेक्सपीयर के ड्रामों की आधुनिक भारतीय समाजिक व्याख्या करने वाला रीयलिस्टिक फिल्ममेकर खो दिया।
मकबूल भी हिंसा में बुझी हुई फिल्म थी। अपराध और नाजायज रिश्तों का ड्रामा। ओमकारा में अपराध, हिंसा और नाजायज रिश्तों में राजनीति भी जुड़ गई। यह भी डिस्टर्बिंग फिल्म थी। इसमें एक तरह का भदेस और नंगापन था। दर्शक सहम जाता था। पर आखिर उसमें कहीं पे फिर भी ड्रामा बचा हुआ था। जहां आपको लगता था आप फिल्म देख रहे हैं।
कमीने में अलग तरह का यथार्थ है। भयावह। अपराध के कई स्तर हैं। चार्ली (शाहिद कपूर) रेसकोर्स का छुटभैया खिलाड़ी है। इसी धंधे के कई और खिलाड़ी हैं। एक एक सीढ़ी ऊपर के। नायिका का भाई मराठी दादा है। इसका मकसद अपराध से बरस्ता रीयल इस्टेट, राजनीति में जाने का है। फिर गर्द और तस्करी का अंतर्राष्ट्रीय जाल है। पुलिस के बड़े अधिकारी तस्करों के लिए काम कर रहे हैं। नायक डबल रोल में है। लाबारिस जुड़वां भाई। एक भाई अपराध की अंधी गली में गर्क हो रहा है। दूसरा तथाकथित सभ्य समाज में अपलिफ्ट होना चाहता है। लेकिन नायिका के फेर में अपराधियों के चंगुल में फंस जाता है। हर तीसरी एक्शन फिल्म में तकरीबन ऐसी ही कहानी तो होती है।
मतलब कहानी में कोई नयापन नहीं है। बस मारकाट, वीभत्स हंसी और निर्मम हत्याएं हैं। जबरदस्त तरीके से एडिट की हुई। ठकाठक। दर्शक को फुर्सत ही नहीं मिलती कि वह कुछ सोच पाए। या जो दृश्य उसकी आंखों के सामने आ रहे हैं उन्हें भीतर घुसने दे। यह फिल्म दर्शक को रिएक्ट करने की मोहलत ही नहीं देती।
दर्शक इससे डीसेंसीटाइज होता है। तभी तो पिटाई उसे गुदगुदाती है। किसी निहत्थे को मारे जाते देख उसकी हंसी फूटती है। गाली-गलौज, मारकुटाई और गोलीवारी में उसे मजा आता है। दर्शक इस तरह का मजा मेलोड्रैमेटिक एक्शन फिल्मों में भी लेता है। पर वहां मैलोड्रामा यथार्थ को थोड़ा मंद कर देता है। यह अतिनाटक कॉमिक रिलीफ में बदल जाता है। लेकिन हॉलीवुड चलन के फोटोफिनिश यथार्थ में कॉमिक रिलीफ की कोई जगह नहीं है। कैमरे, प्रकाश, ध्वनि प्रभाव की अत्याधुनिक तकनीकें इसे कंप्यूटराइज्ड प्रिसीजन (परिशुद्धता) देती हैं। इस तरह प्रौद्योगिकी फिल्म को मानवीय घटनाक्रम का अनुभव नहीं बनने देती। इसे रंगीन फोटोग्राफी की तरह निष्प्राण, अमानवीय और भयावह बना देती है। प्रौद्योगिकी फिल्म को इतना परफेक्ट बना दे रही है कि दर्शक उसे काल्पनिक दृश्यावली नहीं मान पाता। वह इस तरह के दृश्य देखने का आदी (एडिक्ट) होता जाता है। पैसा खर्च करके मल्टीप्लेक्स में जाता है। और एक तरह से इस परपीड़क आनंद का ग्राहक बनता है। फिल्म उद्योग में यह व्यापार खूब फल फूल रहा है। इसे सफलता माना जाता है। इसी सब परफेक्टनेस के बूते पर कहा जा रहा है कि यह हॉलीवुड से होड़ लेती बॉलीवुड की एक्शन फिल्म है। कि विशाल भारद्वाज पास हो गया।
पर हमें लग रहा है कि विशाल भारद्वाज फेल हो गया। क्या अब वह ब्लू अंब्रेला जैसी कोमल, अर्थवान और संवेदनशील फिल्म बनाएगा?