श्री नारायण धाम : समरस जीवन का अवसर
पिछले साल दिवाली हमने घर पर नहीं मनाई। ‘दीप पर्व’ न चाहते हुए भी ‘स्वीट पर्व’ में बदल जाता है। फिर उसका खामियाजा महीनों भुगतना पड़ता है। इसमें कोई शक नहीं कि मिठाई अच्छी लगती है। घर में आ जाती है तो हाथ रुकता नहीं। उसके बाद मिठाई अपना खेल खेलने लगती है। अपराध बोध अलग से कई दिन तक रहता है। शहरी जीवनशैली के कारण खानपान में यूं भी कई कुछ शामिल रहता है जो सेहत के लिए अच्छा नहीं है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से जागरूकता की लहर भी चल रही है कि साधारण, नैसर्गिक, सादा जीवन हमें जीना चाहिए। यह लहर आकर्षित करती है पर अमल कहां हो पाता है!
इसी ख्याल से सुमनिका की पहल पर हम दोनों दिवाली की छुट्टियों में मिठाइयों को धता बता कर पूना से तीस किलोमीटर दूर सासवड़ की खुली वादियों में श्री नारायण धाम पहुंच गए। आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा का केंद्र। आठ दिन वहां रहे। जाने से पहले वहां के डॉक्टर ने वीडियो कॉल करके हमारे स्वास्थ्य और बीमारियों आदि की जानकारी ली थी। जाने पर ब्लड रिपोर्ट जमा करानी पड़ी। हमने रहने के लिए कमरा बुक किया और डॉक्टरों ने अस्पताल की तरह का कार्ड बना दिया। उनके हिसाब से समान्य, लेकिन हमारे हिसाब से सख्त दिनचर्या शुरू हो गई।
सबसे ज्यादा कमी खली दूध वाली चाय की। हमें रियायत के तौर पर, क्योंकि दोनों को ही कोई गंभीर बीमारी नहीं थी इसलिए, सुबह नाश्ते के साथ एक कप चाय मिलना तय हुआ। शाम को हर्बल चाय हर किसी को मिलती थी। यहां की दिनचर्या में प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद और योग का अच्छा मिश्रण है। सुबह पांच बजे एनिमा लीजिए, हर रोज तो नहीं लेकिन जरूरत के मुताबिक हफ्ते में दो या तीन बार। साढ़े पांच बजे सेहन में जमा हो जाइए, जल नेति कीजिए, आंखें धोइए, गरारे कीजिए और जिनको अनुमति हो वे कुंजल यानी खूब सारा पानी गटागट पीकर वमन करें। उसके बाद एक हर्बल चाय पीजिए और छह से सात बजे तक योगाभ्यास कीजिए। सात बजे एक सज्जन आसपास के पहाड़ी इलाके में सैर करने के लिए ले जाते थे। जो लंबी सैर पर नहीं जाना चाहते, वे परिसर के आहाते में ही टहलते। नवंबर का महीना था। गुलाबी ठंड का आनंद था। सैर के वक्त अलग-अलग जगहों से आए हुए लोग आपस में अच्छे घुममिल गए। आठ बजे बजे नाश्ता कीजिए। शुरु में तो इस रूटीन से हम चकरा गए। सुमनिका को उबली मूंग और ढेर सारा पपीता, तरबूज, भिगोए हुए तीन बादाम और दो खजूर मिले। मुझे पोहा, इडली, उपमा, इनमें से जो भी बना हो, लेकिन अतिसीमित मात्रा में। सिर्फ दो इडली देखकर मैं बहस करने लग गया- कम खाना दोगे तो सिर दर्द हो जाएगा। दिन में भी आधी रोटी और बिना मसाले की पनीली सब्जी। दाल, दही, चटनी, अचार कुछ नहीं। मतलब स्वाद पर विजय पाइए। पहले ही दिन शंका सच साबित हुई और मुझे सच में ही सर दर्द हो गया। पेट में गैस भरने से प्राय: हो जाती है। ज्यादा देर उदर को खाली नहीं रख सकता। मुझसे व्रत भी नहीं रखा जाता। पेट में गैस भरने से चक्कर खा कर गिरने के कई हादसे मेरे साथ हो चुके हैं। रमन मिश्र जैसे मित्र गवाह हैं। उस दिन डॉक्टरों ने आंखों पर और पेट पर मिट्टी का लेप लगाया। दो-तीन घंटे बाद शांति मिली। यह अनुभव मेरे लिए नया था। शाम को एक खाखरा और हर्बल चाय और रात को भी वही रोटी सब्जी। मैं तो तीसरे दिन डॉक्टर से लिखवा लाया कि मांगने पर दूसरी बार कुछ और खाने को दे दें। इस अनुमति का प्रयोग शुरु में तो किया और जोश में एक दिन ज्यादा भी खा लिया। लेकिन बाद में अकल आ गई और अतिरिक्त लेने पर खुद ही लगाम लग गई। यह एक तरह का मनोवैज्ञानिक संबल ही रहा कि डॉक्टर की अनुमति से ज्यादा भोजन मिल जाएगा। असल दिक्कत यह है कि हम अपनी आदत और डर से चालित होते हैं। खानपान या रहन-सहन में प्रयोगशीलता से बचते हैं। खानपान शरीर को स्वस्थ रखने का एक माध्यम है। इस विचार का भरपूर इस्तेमाल इस संस्थान में किया जाता है।
श्री नारायण धाम की दिनचर्या का दूसरा हिस्सा है, प्राकृतिक चिकित्सा। नाश्ते के बाद नेचुरोपैथी का सेशन चलता है। हर दिन अलग तरह की मालिश की जाती है। आठ दिन में पता नहीं कितना तेल देह पर चुपड़ दिया गया। तिल का तेल। पहले दिन सिर की मालिश की गई। अंतिम दिन फेस पैक वगैरह लगाया गया। दाढ़ी की वजह से मुझे उसका फायदा नहीं हुआ। यह एक तरह का फैशन लगा जो सौंदर्य प्रसाधन अधिक है। पर हर दिन जो देह पर मालिश होती थी उसका मैंने सबसे ज्यादा आनंद लिया। एक दिन तेल, एक दिन पोटली, जिसमें उबले हुए पत्ते होते हैं। एक दिन शायद रेत, एक दिन नमक। मालिश के बाद भाप वाले चेंबर में करीब दस मिनट तक देह की सिकाई होती थी। खूब पसीना बहता था। उसके बाद वहीं बाथरूम बने हैं, सोलर सिस्टम से पानी गर्म होता है, आप मजे से नहा लीजिए। बारह बजे भोजन करके थोड़ा आराम कीजिए। शाम को फिर से हर दिन कोई न कोई उपचार होता था जो चार बजे तक चलता था।
वहां रक्तचाप और मधुमेह के मरीज बहुत आते हैं। वजन कम करने के इच्छुक और खुद को डीटॉक्स करवाने वाले भी कम नहीं। कुछ गंभीर व्याधियों वाले लोग भी आते हैं। रोग के हिसाब से भोजन, मालिश, सिकाई और योगासनों की व्यवस्था होती है। जरूरत हो तो आयुर्वेदिक दवा भी दी जाती है।
एनिमा और बस्ती अदल-बदल कर प्राय: हर व्यक्ति को दी जाती है। यहां पर विरेचन का भी बड़ा नाम है यानी तीन दिन तक घी पिला कर उदर शुद्धि की जाती है। इसी तरह लघु शंख प्रक्षालन है जो एलएसपी के नाम से जाना जाता है। इसमें एक ही दिन में ढेर सा पानी पिला कर अंतड़ियों की सफाई की जाती है। ये सभी आयुर्वेद के उपचार हैं। वजन कम करने के इच्छ़क लोगों के लिए सिर्फ योग नहीं पसीना निकलवाने वाला पावर योगा भी करवाया जाता है। शाम को चार बजे हर्बल चाय और एक खाखरे के बाद थोड़ा आराम करने का वक्त मिलता है। शाम छह से सात फिर योगासन करवाए जाते हैं। योग के अंत में लाफ्टर थैरेपी और उसके बाद करीब आधा घंटा पब्लिक स्पीकिंग जैसी सामाजिक गतिविधि होती है। संस्थान में रह रहे लोगों में से कोई भी अपने अनुभव या अपनी कला साझा कर सकता है। कथा-कहानी, कविता, गीत सुना सकता है। बच्चे अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। यह एक तरह के सामुदायिक जीवन का हिस्सा है। सुबह शाम की सैर करते समय, कैंटीन में नाश्ता खाना खाते समय लोग आपस में घुल मिल जाते हैं। गप-शप हो जाती है। सुख-दुख भी बंट जाते हैं।
एक दिन एक सज्जन के साथ ऐसे ही बातचीत के दौरान मेरे मुंह से निकल गया, मैं कविता लिखता हूं। मुझे खुद पर ही ताज्जुब हुआ कि यह मैंने यह कैसे कह दिया! ‘मैं कवि हूं’ कहने में हमेशा बहुत संकोच होता है। कविता लिखना स्वभाव का बहुत ही निजी सा हिस्सा है। इसे सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं होती। हालांकि यह इच्छा हमेशा बनी रहती है कि सब लोग मेरी कविता पढ़ें। इस तरह के द्वन्द्व के शिकार बहुत जन होते होंगे। खैर! बात मुंह से निकल चुकी थी। फिर क्या था। बात फैल गई। एक शाम वहां के प्रभारी डॉक्टर भी अपने संबोधन में कह गए, यहां तो कविराज विराजमान हैं। कविराज को संकोच के मारे समझ न आए कहां छुपें। दिन ब दिन लोग इसरार करने लग गए। और एक शाम की सभा में कविता सुनानी ही पड़ी। हम जैसे लोग सिर्फ साहित्यिक गोष्ठियों में कविता-वीर बनते हैं। जनता के बीच जाने का मौका आए तो सांप सूघ जाता है। लगा, कि हम कितनी 'विशेषीकृत' सी कविता लिखते हैं। लोग तुक, लय, ताल की अपेक्षा करते हैं। सुमनिका ने कविताएं चुनने में मदद की। मैंने भी अपने आकाशवाणी के दिनों को याद किया कि अपनी बात को दूसरे तक पहुंचाना जरूरी है। छोटी सी भूमिका के साथ अपनी दो कविताएं सुना दीं। संयोग से वे सभी को पसंद आईं।
एक महिला मुंबई से ही गईं थीं, अपनी बेटी के साथ। वे बहुत अच्छा गाती थीं। अपने पिता से बहुत प्रभावित थीं। एक तरह से अपने अध्यात्म में मगन रहती थीं। एक रात हमारे कमरे में करीब घंटा भर महफिल जमी। थोड़ा काव्य रस, थोड़ा रहस्यवाद, बहुत सा आनंद। एक और महिला भी अपनी बेटी के साथ आई थीं, मुंबई से ही। उन्होंने कुछ ही समय पहले अपने पति को खोया था। बार-बार उनके घाव टीस जाते। सुमनिका के साथ उनका तार जुड़ गया। इन दोनों के आपस में लंबे-लंबे सत्र चले। फिर अचानक उनके परिवार में कोई हादसा हो गया और उन्हें तुरंत लौटना पड़ा। एक सज्जन नवी मुंबई से आए थे। सफल व्यवसाई, बहिर्मुखी, सब से दोस्ती करने वाले, सब का हाल-चाल जानने वाले। वे कैंटीन में कम चाय और कम खाने पर कैंटीन स्टाफ से बहुत बहस करते थे। एक दिन कुछ ज्यादा ही बरस पड़े। और अचानक छोड़-छाड़ कर चले गए। संस्थान में उनकी डिटॉक्सिंग नहीं हो पाई। अतिरेकी वाद-विवाद, बहस, गुस्सा, तुनकना भी तो तनाव पैदा करता है। वह भी एक तरह का टॉक्सिन ही है। अगर मन शांत रहेगा तो रक्तचाप और तनाव का स्तर भी संभला रहेगा। वहां इन्हीं व्याधियों का इलाज होता है। वे इन्हीं के चंगुल में फंस कर अपनी व्याधियों सहित लौट गए।
संस्थान में दो ऐसे समूह मिले जो गुजरात से आए थे। उन मस्त मौला लोगों ने हमारी आंखें खोल दीं। उनमें से अधिकांश कारोबारी लोग थे। वे एक तरह से स्वास्थ्य पर्यटन पर आए थे। उनका कहना था कि लोग जगह जगह घूमने जाते हैं, पैसा खर्च करते हैं, ऊट-पटांग खाते हैं, बदले में सेहत बिगाड़ते हैं। क्या फायदा? ऐसी जगह जाओ, जहां घूमने-फिरने का आनंद मिले, शरीर भी निरोग हो जाए। ये लोग देश भर में अलग-अलग प्राकृतिक चिकित्सा केंद्रों में घूम चुके थे। यह ख्याल बड़ा रोमांटिक था। यूं देखा जाए तो यह जगह उस तरह से सैर-सपाटे वाली नहीं है। यह चिकित्सा केंद्र है। यहां पर संस्थान का अनुशासन मानना पड़ता है। जैसे सुबह की सैर के अलावा आप गेट के बाहर नहीं जा सकते। आपसे मिलने कोई नहीं आ सकता। दूर-दूर तक कोई बाजार कोई हाट नहीं है। केंद्र में सिर्फ एक दुकान है जिसमें जरूरी सामान और दवाइयां मिलती हैं।
इस जगह का आनंद तभी लिया जा सकता है जब हम खुद को यहां की दिनचर्या में ढाल लें। फिर जिस चीज में हम आनंद लेने लग जाते हैं, तो उसमें कोई कमी, कोई असुविधा हमें नजर नहीं आती। अगर (तथाकथित) सात्विक जीवन आपको अच्छा लगता है तो यहां पर रहना भी अच्छा ही लगेगा।
यही वजह है कि यहां पर कई लोग हर साल आते हैं। साल भर अपने शरीर में गलत-सलत माल भर लिया। यहां आकर एक बार उसकी सफाई करा ली।
मुझे नारायण धाम की एक दो चीजें ज्यादा अच्छी लगीं। एक तो यह कि यहां पर आप अपने शरीर को पहचानने में थोड़ा समय लगाते हैं। शरीर के साथ समय बिताते हैं। यह एक अलग तरह का अनुभव है। क्योंकि दिनचर्या ही शरीर से जुड़ी हुई है। फुर्सत से अपने शरीर के साथ संवाद स्थापित किया जा सकता है। मन को साधने के कोई अभ्यास यहां नहीं है। वह शायद एक अलग तरह की प्रक्रिया है। और वह प्राकृतिक चिकित्सा में आती भी है या नहीं, इसमें संदेह है। दूसरा, यह कि जिन चीजों का हम अपने लेखन में, साहित्य में विरोध करते हैं या जिन चीजों पर प्रश्न उठाते हैं या पसंद नहीं करते, संस्थान में उन चीजों को छोड़ने का अभ्यास व्यावहारिक रूप से कराया जाता है। मतलब यह कि यहां एक तरह से विचार और कर्म का सामंजस्य करने का अवसर मिलता है। इसे केवल पर्यटन की दृष्टि से घूमना या अपने रोगों का इलाज करने के लिए किसी पद्धति को अपनाना ही नहीं कहा जाएगा। बल्कि अपनी जीवन शैली को समरस करने का एक सुअवसर भी कहा जाएगा।