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चित्रकृति - सुमनिका, कागज पर चारकोल |
मैंने कहानियां ज्यादा नहीं लिखीं हैं । जो लिखी हैं वे भी पचीस तीस साल पहले । रोटियां कहानी हिमाचल की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर है, जो मधुमति में 1989 में छपी थी । मुंबई के आवारा कुत्तों के पकड़ने की कुत्ताघर नाम की कहानी भी वर्तमान साहित्य में 1989 में ही छपी थी । एक और सीधी-सादी कहानी सवा दो अक्षर नव भारत टाइम्स में छपी थी । वीटी बेबे नामक कहानी कथादेश में सन 2002 में छपी थी। मुंबई के तंगहाल जीवन को केंद्र में रखते हुए लिखी दोस्त कहानी भी नव भारत टाइम्स में छपी थी। जो कहानी आपको आज पढ़वा रहा हूं, वह अपने युवा दिनों में युवा मनों की एक झलक है। यह कहानी दैनिक ट्रिब्यून में 1986 में छपी थी। हाल ही में पुरानी फाइल में यह कहानी मिली। कहानी का नाम है - एक सच और।
प्रिय दोस्त,
आज मैं इस मोड़ पर आ खड़ी हुई हूं कि देख पा रही हूं, मौसम साफ ही नहीं शांत भी है। न ठंड, न उमस। ये चीड़ के पते हिल रहे हैं तो जान रही हूं कि धीधी-धीमी हवा चल रही है। इस कमरे की बड़ी खिड़की से सड़क को देख रही हूं। वह खाली है। जरा सुनने लगी तो बस के आने की आवाज सुनाई पड़ी। पर कुछ नहीं है। अब जान पाई कि सिर्फ कान बज रहे हैं। पहाड़ पर वैसे ही बसें गिनी-चुनी आती हैं, प्रमोद जिस बस से आते हैं वह चार बजे पहुंच जाती है। अब दो घंटे ऊपर बीत चुके हैं। वैसे भी प्रमोद को आना होता तो कल आ जाते । अब शायद अगले हफ्ते ही आएंगे।
तुम्हें क्या इतना ही काफी नहीं लग रहा कि मैं तुम्हें एक लंबे अरसे के बाद लिख रही हूं। खैर! मेरे लिए यह बहुत बड़ा सहारा है कि मैं इस पल अपने को देख पा रही हूं कि मैं तुम्हें पत्र लिख रही हूं। यह पत्र इसलिए भी, बल्कि इसीलिए लिख रही हूं कि तुम्हारे माध्यम से अपने को तोल पाऊं । तुम मेरे बहुत करीबी दोस्त, मेरे इतिहास के साक्षी रहे हो। इसलिए तुम्हें लिख कर अपने को देखना एक सही तरीका मुझे लग रहा है। तुम मेरे इतिहास के साक्षी ही नहीं, मैं इतिहास को जिस हिसाब से मोड़ना चाहती थी, तुम उसमें गाहे-बगाहे सहायक भी रहे हो। उसे कितना मोड़ पाई या खुद मुड़ गई उससे तुम्हारी जगह पर कोई असर नहीं पड़ा।
प्रमोद के साथ शादी के लगभग एक साल बाद मैं इस स्थिति पर पहुंची हूं कि तुम्हें पत्र लिख सकूं। तुम्हें इसे पढ़कर संतोष होगा। जिस धैर्य की और जिंदगी को खुले रूप में अपनाने की सीख दिया करते थे, उसके काफी करीब खुद को पा रही हूं। आज मैं अपने पिछले चार-पांच वर्षों को परत दर परत खोल कर देख पा रही हूं। चार-पांच वर्ष ही क्यों, अपने सारे ही अतीत को। जिस परिवार में मैं जन्मी थी, एक स्कूल मास्टर की बेटी। तीन और बहनों की एक और बहन। समाज की तमाम गलियों नुक्कड़ों से घिरा एक कस्बाई परिवार । जिसमें कालेज जाने की छूट तो थी, लड़कों के साथ दोस्ती करने की बर्दाश्त नहीं थी। वह किशोर अवस्था का विद्रोह ही होगा कि उन संस्कारों को तिड़का कर बाहर आने में एक विजय का एहसास होता था। एक हूक सी उठती थी कि किसी परिवार की शालीनता और सभ्यता गली के नलों पर कैसे तय होती है। आप संस्कारों को सिर पर दुपट्टे की तरह ओढ़े हैं तो आपके शरीफ होने की चर्चा है और अगर बिना चुन्नी के चलने की आधुनिकता कर रहे हैं तो भी उसी धुरी में फंसे हुए है। निरंजन के साथ दोस्ती इसी चुन्नी को छोड़ने का परिणाम थी।
उधर मैंने नंगे सिर चलने का विद्रोह तो कर दिया पर इधर निरंजन की दोस्ती मुझे अपने होने के एहसास में दबाती चली गई। शायद वह उम्र का या शरीर का एक दौर ही होता होगा कि होने का एहसास कोई सहारा पाकर परवान चढ़ता है। अब देख रही हूं, दायरों को तोड़ना गौण हो गया था, अपने को छू पाने और संवारने की इच्छा प्रमुख हो गई थी। उसी वेग में निरंजन मेरा कल्पना-पुरुष बन गया था। तब अपने को हवा में उड़ाने में भी कितना सुख मिलता था। तमाम तरह की कल्पनाओं में खोने का सुख। पर बहुत एकांतिक। निरंजन के साथ मैं सहज कभी नहीं हो पाई। उसके लिए अंदर से मैं जितना पिघलती चली जा रही थी, बाहर अपरिचय और संकोच की दीवार उतनी ही कड़ी हो जाती थी। बहुत बाद तक, जब उसकी तरफ से शादी के लिए इंकार का संकेत भी लगभग मिल ही गया था। सामने पड़ते ही मैं नर्वस हो जाती थी। कान गर्म हो जाते, गला सूख जाता। बोला भी कुछ न जाता। अंदर से हमेशा उसके बारे में ही सोचती। निरंजन के साथ एक अंतरंगता। एक रोमांटिक और मस्त जिंदगी का कल्पनाएं। वॉटर फाल देखने जाना, उसके मोटरबाईक पर उससे सटे हुए आसपास की सारी जगहें घूमना। यह तो जानने की कोशिश ही नहीं की कि यह संभव है या नहीं। उसके साथ होना इतना अच्छा लगता था कि उससे बाहर ही नहीं निकल पाती। उसकी गर्म सांस तो जैसे मुझे रोमांचित कर दिया करती थी। एक विश्वास सा अंदर में था कि निरंजन मुझे समझता है। उसे चीज़ों को या मनःस्थितियों को खोल कर बताने की जरूरत नहीं है। जिसने मुझे होने का एहसास दिलवाया है वह उसे निरंतरता भी देगा। अपना हर निर्णय उसे ही मान लिया था। जो सोचती हूं वही तो करेगा वो। पता नहीं तब उसने इस दोस्ती को कितनी गहराई से लिया था। मुझे यह पता था कि शादी करने में उसे एतराज नहीं है। मेरे लिए इससे बड़ा सुख क्या हो सकता था। और मैं इस संसार में गहरे उतरती जाती थी। तुम तो जानते हो जब बी. एड. करने गई तब तक बाहरी रूप से काफी कुछ बदल गया था। उसे पत्र लिखने की संभावनाएं भी न रही थीं। मैं उसी तरह थी। ताजे बर्फ पर चलती हुई अपने पैरों के निशानों को देखती हुई, गोल-गोल दायरे बनाती हुई, इस उम्मीद में कि बहुत जल्दी नई ताज़ी बर्फ पड़ेगी और सब ठीक हो जाएगा। तब तुम्हें पत्र लिखती थी। निरंजन कैसा है, कभी मेरी बात करता है या नहीं, मेरे बारे में अपने घर में फिर से कोई बात की है या नहीं। यही बातें मुझे तुमसे जाननी होती थीं। तब भी इसके अलावा और कुछ सोच ही नहीं पाती थी। अब आज उस वक्त की खुद को याद कर रही हूं तो झुंझलाहट होती है। झुंझलाहट भी नहीं अपने दब्बूपन पर तरस आ रहा है। पर उसमें दोष मेरा कितना था। अब बात बहुत साफ नजर आ रही है। मैं अपने घरवालों को दुखी नहीं करना चाहती थी। दूसरी तरफ निरंजन अपने घर में मेरे लिए वकालत करे, गिड़गिड़ाए या छोटा बने, मुझे यह भी अच्छा नहीं लगता था। अपने घर से विद्रोह करने का तो एक बार निर्णय ले लिया था, पर निरंजन कहीं भी छोटा पड़ जाए, यह सहन नहीं होता था। बदले में अपने को दाव पर लगाने को तैयार थी। शायद यह उस अवस्था का आदर्श ही था कि क्या है जिंदगी तो निरंजन के नाम हो ही गई है। वैसे उसके साथ उसके घर में रहती, ऐसे अकेले ही उसके नाम के सहारे रह लूंगी।
नौकरी लगने के बाद स्कूल में आ गई। वहां बच्चों के साथ, हॉस्टल में दूसरी लड़कियों के साथ अपने को व्यस्त कर लिया। वो एक वर्ष ऐसा बीता है जब न निरंजन का ख्याल आता था न अपने घर का। न ही ज़िंदगी से कोई खास आकर्षण होता था। दिन बहुत ही चुपचाप बीत रहे थे। अपने पैरों पर खड़े होने की खुशी नहीं होती थी। प्रेम के आदर्श को पकड़े रहने का संतोष नहीं होता था। अपने प्रेम को खो देने का दुख या टीस नहीं होती थी। जैसे मैं बहुत सुनसान हो गई थी। पर दुखी या हारी हुई नहीं। तुम बता सकते हो कि क्या वह स्थिति ठीक थी ? तब तो मुझे लगता था क्या है पचीस वर्ष बीत गए हैं। इतने ही और इसी तरह निकल जाएंगे। एक आर्थिक आधार यह नौकरी तो मिल ही गई है। किसी पर बोझ नहीं बनूंगी और कहीं दखल भी नहीं दूंगी। पर उन दिनों एक फर्क जरूर था। उन्हीं दिनों का तुम्हारा एक पत्र मुझे छू गया था। निरंजन के साथ शादी न हो पाने की वजह से मुझमें कोई ग्रंथि नहीं बननी चाहिए। अगर अकेली रहना हो तो सहज निर्कुंठ भाव से रहूं अन्यथा शादी कर लूं। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। तुम्हारी बात एकदम भारी लगी। तुम भी मुझे समझ नहीं पाए। आखिर कटाक्ष कर ही दिया। घर से तो कई तरह की बातें सुनने की आदी हो ही गई थी। तुमसे यह अपेक्षा नहीं थी। धीरे-धीरे जब कई दिन तक सोचती रही तो तुम्हारी बात में वजन लगा। मैंने अपनी चुप्पी को देखा। एकदम ग्रंथि तो नहीं, ऐसा लगा कुछ दिन तक अगर यह स्थिति चलती रही तो सचमुच ही कहीं उसी गर्त में न फिसल जाऊं । तब एक बार मैंने अपने संबंधों को संभाला। अपना आधार ढूंढ़ने की कोशिश की। शायद यही खोज मुझे सहजता की तरफ ले आई।
तुम बता सकते हो कि आखिर निरंजन मेरे काफी नजदीक आने के बाद मेरे प्रति इतना उदासीन क्यों हो गया था? अंदर ही अंदर मुझसे चिढ़ गया था? उसी ने मुझे इंतजार करने को कहा था। उसके साथ की हर बात, हर घटना याद है। ऐसे संबंधों में शायद हर कोई अपने को ऐसा ही समझता है। वह सब अभी भी पुरानी डायरी की तरह सुरक्षित है। उसके इंतजार करने को मैंने मान लिया था। कुछ दिन बाद ही मेरी बहन ने उसकी भाभी से बात कर दी थी। सिर्फ औपचारिक रिश्ते की ही नहीं, हमारे परस्पर आकर्षण की भी। उसके बाद तो निरंजन जैसे बदल ही गया। उसने सोचा यह सब मेरी जानकारी में कहा गया है। शायद उसे लगा मुझमें सबर नहीं है। सबर ही नहीं उसके ऊपर विश्वास भी नहीं है। क्या पता उसे यह भी डर लगा हो कि मैं इतनी जल्दबाजी कर रही हूं और दबाव डाल रही हूं तो इसके पीछे मेरा कोई स्वार्थ है। मेरे लिए तो यह सब पहेली ही था। पर इस सब में मेरा क्या दोष था। यह छोटी सी बात दीवार की तरह खड़ी हो गई। धुंध की तरह फैल गई। जैसे कुछ चरमरा गया। मैंने बदले में कुछ नहीं किया, यह तुम जानते हो। निरंजन धीरे-धीरे मुझसे कटता गया। उसने अपने को समेट लिया। मैं उसे अपने और पास महसूस करती रही। करीब डेढ़ साल। जब तक नौकरी नहीं लग गई। सारी पढ़ाई और बेकारी के दौरान अपने को उसके सम्मोहन में ही पाया।
आज जब पिछली सारी बातों से अपने को अलग करके देख रही हूं तो लग रहा है शादी का निर्णय लेकर मैंने ठीक ही किया। जिस तरह की चुप्पी से मैं गुजर रही थी, शायद और दो साल बाद बिल्कुल जड़ हो जाती। आज सोच रही हूं तो यह बात और साफ हो रही है। जब स्कूल में मेरी एक कुलीग शादी के बाद आई थी, वह इतनी चहक रही थी, बात-बात पर उनकी हंसी रुकती ही नहीं थी, वह सहेलियों के साथ शहर घूमना चाहती थी, पिक्कर देखना चाहती थी। मुझे तब सिर दर्द होने लगा। मैं कमरे की लाइट आफ करके लेट गई थी। बहुत रात तक नींद नहीं आई थी कि यह क्या कुछ था? क्या तुम बता सकते हो?
आज और भी कुछ बातें तुम से कह लेना चाहती हूं। बहुत सारी लड़कियों की तरह मेरी भी शादी हो गई। लगभग मेरे घर जैसा ही परिवार, सास-ससुर, बाकी संबंधी। कोई बहुत फर्क नहीं पड़ा। पर निरंजन की जगह प्रमोद को नहीं रख पाई। आज भी निरंजन एक अलग अध्याय की तरह मेरे पास है। प्रमोद से कोई शिकायत नहीं है। प्रमोद से इस बीच कई बातें हुई हैं। खास उत्साह उनमें नजर नहीं आया। इसीलिए निरंजन की बात उनसे नहीं की। असल में मुझे लगता भी नहीं कि वे मुझसे मेरे अतीत को बांटना चाहते हैं। तुम्हारी बात मैंने दो-एक बार ज़रूर की। पर प्रमोद को अच्छा नहीं लगा। शायद किसी भी पति को यह अच्छा नहीं लगता कि पत्नी किसी दूसरे पुरुष पर इतनी निर्भर रहे। शायद अपना आधिपत्य छिनता लगता हो। शादी के पहले भी किसी का कुछ अपना नहीं होता क्या? अपनी पसंद अपने फैसले, अपने दोस्त, या कुछ भी।
मैंने शुरू में ही कहा था कि इस मोड़ पर
पहुंच गई हूं कि चीजों को साफ-साफ देख सक रही हूं। पिछली सारी बातों के साथ यह भी उतनी
ही जरूरी बात या परिवर्तन है। मुझे नहीं लगता शादी करके मैंने कोई अपराध कर दिया है।
या अपने प्रेम के आदर्श के सामने झूठी पड़ रही हूं। यहां दोनों बातें अलग-अलग हो गई
हैं। अब तो शादी ऐसा ही काम लग रहा है जैसे आत्मनिर्भर होने के लिए नौकरी की थी। समाज
में एक सामान्य सी जिंदगी जीने के लिए एक मान्य घर और व्यक्तिगत संदर्भों में शरीर
की ज़रूरतों के लिए एक बना बनाया रास्ता। एक सवाल अपने से पूछ रही हूं तुम्हारी तरफ
से। वो यह कि क्या मैं खुश हूं? हां! खुश ही हूं।
ऐसी नहीं जैसी तब कल्पनाओं में डूब कर होती थी पर दुखी भी नहीं। और खास वैसी
चुप भी नहीं। इतना ही फर्क है। जब प्रमोद के घर जाती हूं। (वैसे अब वह मेरा ही घर कहलाता
है) या प्रमोद यहां आ जाते हैं, तो व्यस्त हो जाती हूं। घर के कामों में, खाना बनाने
में या कहीं बाहर घूमने जाने में। अभी तुम्हें लिख रही हूं तो थोड़ी भिन्न मानसिकता
है। एक हल्कापन मेरे अंदर है। बाहर घिरता हुआ अंधेरा अच्छा लग रहा है। एक गुनगुनापन
महसूस हो रहा है। इतने लंबे अर्से बाद लिख कर जी हल्का हुआ है। तो इतना काफी है? फिलहाल
के लिए? जिस परिवेश में हूं यह बांधता तो है ही। कितने गहरे तक यह बाद में सोचूंगी।
खुद से पूछती रहूंगी। जब जवाब मिल जाएगा, एक बार फिर शाम को इसी खिड़की के सामने बैठ
कर तुम्हें लिखूंगी। अभी प्रमोद का एक स्वेटर पूरा करना है। पता नहीं कहां से वो एक
डिजाइन ढूंढ़ लाए हैं। शर्त लग गई है कि मैं उसे ठीक से उतार दूं तो मान जाएं। घरों
की ही बात है। डिजायन की उलझन दिमाग में है। शायद प्रमोद को मनपसंद स्वेटर पहना कर
शर्त जीत ही लूं।
शेष फिर....
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