Monday, April 28, 2025

बंदिशों पर बंदिश


26 अप्रैल को नेहरू सेंटर में बंदिश नाटक देखा। यह नाटक पूर्वा नरेश का लिखा हुआ है और उन्होंने ही इसका निर्देशन किया है। प्राय: पूर्वा के नाटक संगीत प्रधान होते हैं। कह सकते हैं कि संगीत उनके नाटकों का स्थाई भाव होता है। इस नाटक की तो विषय-वस्तु भी संगीत से जुड़ी हुई है। आजादी की 70वीं सालगिरह के मौके पर किसी दूर दराज के इलाके में शायद एक सरकारी कार्यक्रम हो रहा है जिसमें संगीत के पुराने कलाकारों को केवल सम्मानित किया जाना है। नए जमाने के कलाकारों के गीत पेश किए जाएंगे। बदलते समय के साथ बदलते संगीत संसार की दास्तान इस नाटक में कही गई है। दास्तान के बहाने नाटक में इस तरह का विमर्श चलता है कि संगीत और कलाकारों पर किस-किस तरह की बंदिशें लगती आई हैं।  

एक जमाने में तवायफें या कोठेवालियां संगीत का परचम फहरा रही थीं। राजाओं राजवाड़ों का प्रश्रय उन्हें प्राप्त था। धीरे-धीरे उनका ओज मंद पड़ गया। उनकी सामाजिक हैसियत कम हो गई। माली हालत भी खस्ता हो गई। इसी तरह नौटंकी कलाकार जनता में लोकप्रिय तो बहुत थे, लेकिन शुचितावादी सोच उन्हें सम्मान नहीं देती। समाज में नौटंकी कलाकारों को अच्छा नहीं माना जाता था। आकाशवाणी जैसा सरकारी महकमा भी शायद इसी तरह की शुचितावादी सोच से प्रभावित होकर तवायफों के गायन पर रोक लगा चुका है। एक जमाने में हारमोनियम पर भी बंदिश लगाई गई थी।  

इसके बरक्स नए जमाने में बंदिशों या बंधनों या सीमाओं के नए तौर-तरीके आ गए हैं। जैसे युवा गायिका मौशमी बहुत लोकप्रिय है पर वह अब सभाओं में नहीं गाती। वह केवललिपसिंक' करती है। यानी रिकॉर्ड किया हुआ गाना बजता है, वे गाने का अभिनय मात्र करती हैं। दूसरे युवा गायक कबीर पड़ोसी देश में प्रोग्राम करने के कारण सोशल मीडिया के नए रोगट्रोलिंगका शिकार हो गए हैं। यह किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा लगाई गई रोक नहीं है। एक कलाकार टेक्नोलॉजी की सहायता के बिना नहीं गा सकती। और दूसरा टेक्नालॉजी के ही रथ पर सवार सामाजिक रोष का शिकार हो जाता है। आयोजक ट्रोलिंग में फंसे कलाकार से गीत गवाने का जोखिम नहीं उठाना चाहते।  

संगीत की दुनिया की यह सारी चर्चा, बहस या विमर्श इस नाटक में बेहद चुटीले अंदाज में चलता है। मुन्नू और नौटंकी की गायिका चंपाबाई की नोक झोंक और बाबू की बौखलाहट मंच को जीवंत बनाए रखती है। नौटंकी गायिका चंपा बाई और उपशास्त्रीय संगीत की गायिका बेनी बाई परस्पर पेशेवराना ईर्ष्या करती रही हैं। अब मौका पाकर अपने-अपने मन कर बात करके वे जी हल्का कर लेती हैं। अंतरंग सहेलियों की तरह एक दूसरे का गायन सुनती हैं। ज़मीन पर बैठ कर दो बूढ़ियों की खिलखिलाहट जी खुश कर देती है। लेकिन थोड़ी देर बाद जब वे सब गीत गाने न गाने के बारे में बात करते हैं तो नब्बे वर्षीय बेनी बाई मंच पर चलते हुए और बतियाते हुए नब्बे वर्षीय नहीं लगती। उनकी आवाज भी किंचित कम उम्र लगने लगती है।       

सभी कलाकार अभिनय करने के साथ-साथ गाने में भी माहिर हैं। लेकिन जहां ठहर कर या लंबे समय तक ठुमरी, दादरा या शास्त्रीय गायन करना होता है वहां एक अन्य प्रशिक्षित गायिका मंच संभाल लेती हैं।  

निर्देशिका ने पात्रों के बीच आवागमन की एक तरकीब इस्तेमाल की है। नौटंकी वाली चंपा बाई और तवायफ बेनी बाई उम्रदराज कलाकार हैं। जब उनकी जवानी के दिनों के फ्लैशबैक में जाने का दृश्य आता है तो युवा गायिका मौशमी बेजोड़ ढंग से (seamlessly) युवा अवतार में चली जाती है। इससे बूढ़े शरीर की मर्यादा भी बनी रहती है और युवावस्था की फुर्ती और आवाज़ का टटकापन भी साकार हो जाता है। पुराने जमाने को दिखाते हुए आजादी की लड़ाई में गायिकाओं के योगदान के बहाने कलाकारों के सामाजिक सरोकारों को भी दर्शाया गया है। 

नाटक में इस बात पर जोर दिया गया है कि कलाकार को अपनी आवाज बंद नहीं करनी चाहिए। उसे हर हाल में अपनी कला के माध्यम से अपने समय पर टिप्पणी करनी ही चाहिए।  

नाटक में अंत तक आते-आते स्थिति यह बन जाती है कि एक भी कलाकार गीत पेश करने के लिए उपलब्ध नहीं है। तवायफ रेडियो पर प्रतिबंधित होने के बाद गाना छोड़ चुकी हैं। नौटंकी की गायिका को गाने की इजाजत नहीं दी जाती है। उन्हें केवल सम्मानित किए जाने के लिए बुलाया गया है। यह भी एक विडंबना ही है। युवा मौशमी नए जमाने की तामझाम वाली गायिका है। केवललिपसिंककरती है। बिजली चले जाने की वजह से वह गाने से लाचार है। युवा गायक कबीर लोकप्रिय होने के बावजूद ट्रोलिंग का शिकार है इसलिए आयोजक उसका गाना रद्द कर देते हैं।  

सारे बहस मुहाबसे के बाद चारों गायक मिलकर अपने ही लिए गाते हैं और मंच से बाहर चले जाते हैं। एक तरह से वे आयोजन का बहिष्कार कर देते हैं। वे इस बात की भी तस्दीक करते हैं कि संगीत पर लोग बंदिश लगाते हैं, लेकिन वे बंदिश में गाते हैं। पुरानी बंदिशों का संभाल कर रखते हैं।  

पूर्वा नरेश की संस्था आरंभ के इस नाटक का यह प्रदर्शन आदित्य बिरला सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स की तरफ से आयोजित था। संगीत शुभा मुद्गल का तैयार किया हुआ है। मंच पर तबले और हारमोनियम पर पूर्व जागड़ और वरुण गुप्ता थे। सभी कलाकारों ने नाटक को एक यादगार पेशकश में बदल दिया। मंच पर ये कलाकार थे- चंपा बाई - अनुभा फतेहपुरिया, बेनी बाई - निवेदिता भार्गव, मौशमी/युवा चंपा और युवा बेनी - इप्शिता सिंह चक्रवर्ती,  कबीर - शायोन सरकार, बाबू - हर्ष खुराना और मुन्नू - दानिश हुसैन। 

पिछले कुछ समय से नाटक के साथ-साथ सभागार के माहौल के बारे में भी आपको जानकारी देता आ रहा हूं। यह नाटक नेहरू सेंटर के सभागार में खेला गया। नाटक से पहले और मध्यांतर में शुरुआती हॉल में जहां पैंट्री है, अच्छी खासी भीड़ देखी जा सकती है। यहां 30-30 रुपए में जंबो बटाटा बड़ा और समोसा मिल रहा था। चाय कॉफी ₹50 में। अधिकांश भोजन-सजग दर्शक अपनाचीट डेमनाते प्रतीत हो रहे थे। नेहरू सेंटर में इस सभागार के अलावा भारत की खोज की एक स्थाई प्रदर्शनी है। एक दो और सभागार हैं। एक कैफे है एक रेस्त्रां। इसी परिसर में तारांगण भी है। यह एक पुराना सांस्कृतिक ठिकाना है।

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