Saturday, November 27, 2010

बदलते समाज को समझना जरूरी

पिछले साल कवि राजेश जोशी मुंबई आए तो जनवादी लेखक संघ ने मुंबई के एक उपनगर मीरा रोड में एक गोष्ठी आयोजित की। इसमें राजेश जोशी ने क़रीब घंटाभर अपनी कवितों  का पाठ किया और उसके बाद साथियों ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत है राजेश जोशी से उसी बातचीत के कुछ अंश। पिछली किस्‍त से आगे...



मनोज सिन्हा: लेखक या कलाकार समाज में बदलाव चाहते हैं। आपको क्या लगता है कि वह बदलाव कब तक सकता है या आएगा कभी?

राजेश जोशी: बदलाव को देखने की जरूरत है। बदलाव तो हो ही रहा है।

मनोज सिन्हा: जैसा बदलाव हम चाहते हैं।

राजेश जोशी: उसमें भी बहुत सारे बदलाव रहे हैं। आजादी के बाद आप देखें कि बहुत सारे परिवर्तन आए हैं। विकास हुआ है। अधिकार मिले हैं। ४७ या ५० के साथ जो गांवों की स्थिति थी, वह बदली है। चेतना बदली है। मंडल आयोग के बाद दलित रणनीति और दलित विमर्श का दौर आया है। उसने बहुत सारे परिवर्तन किए हैं। शुरू में नकारात्मक पहलू भी साथ-साथ चलते रह सकते हैं पर सकारात्मक पहलू भी तो हैं। भारतीय राजनीति भी पहले जैसी एक पक्ष या एक पार्टी राजनीति नहीं रह गई है।
            लोकतांत्रिक अधिकारों की दृष्टि से बहुत परिवर्तन आया है। एक उदाहरण देता हूं। जब नेहरू का अंतिम समय था तो पूरे हिंदुस्तान में बहस चल रही थी कि नेहरू के बाद कौन। जरा सोचिए कि लोकतंत्र में यह बहस कितनी जनतांत्रिक है कि एक व्यक्ति का विकल्प आपके पास नहीं है। इंदिरा गांधी के दौर में एक नारा चला कि इंदिरा गांधी को हटाओ। इसका मतलब है कि हमारा जनतंत्र यहां तक विकसित हो चुका था कि हमारे पास विकल्प है। हम इंदिरा गांधी को सत्ता से हटा सकते हैं। तीसरी स्थिति यह बनी कि संविद सरकारें बनीं। यह लोकतंत्र परिपक्व हुआ है। पाकिस्तान भी हमारे साथ आजाद हुआ। लेकिन उसकी और हमारी स्थिति में ज़मीन आसमान का अंतर है। पाकिस्तान लोकतंत्र को नहीं बचा पाया और हमने कोशिश कर-कर के उसे बचाया। ताकतवर से ताकतवर नेता को उखाड़ फेंका। यह मुझे बड़ा सकारात्मक पक्ष लगता है। 


विनोद सिंह: कविता सिनेमा के क़रीब है, इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे..

 राजेश जोशी: यह कहा गया कि सिनेमा बीसवीं सदी का अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा माध्यम है। यह अलग बात है कि हिंदी सिनेमा उस तरह से विकसित नहीं हुआ, जिस तरह विश्व की दूसरी जगहों का हुआ या भारत में भी दूसरी भाषाओं का हुआ... जैसे बांग्ला का सिनेमा। बहुत बुनियादी बात है कि बिंब में सोचने की दो विधाएं हैं। एक है कविता जो बिंब की भाषा में बात करती है और दूसरी विधा जो बिंब के सबसे नज़दीक है, वह मुझे सिनेमा लगती है। यह दूसरी बात है कि जो हिंदी सिनेमा की समस्या है कि वह बिंब को डी कोड नहीं कर पाता। अभी मैं `पा' फिल्म देख रहा था। मुझे अफसोस हुआ कि उसके पास सारी सामग्री थी, राजनीति थी, ऐसी बीमारी थी जिसमें बच्चा बहुत कम उम्र में बहुत ज़्यादा परिपक्व हो जाता है। अब अगर आप इस बिंब को राजनीति या समाज के पूरे ढांचे पर घटित कर पाते, उसे डीकोड कर पाते, तो एक महान फिल्म बना लेते। पर वे नहीं कर पाए। इसलिए जैसे-जैसे आप कविता के पास जाएंगे, आप बिंब को डीकोड करना सीखेंगे। और जिस दिन बिंब को डीकोड करना सीखेंगे, उस दिन ग्रेट सिनेमा बनाएंगे।