Wednesday, November 10, 2010

बदलते समाज को समझना जरूरी



पिछले साल प्रसिद्ध कवि राजेश जोशी मुंबई आए तो जनवादी लेखक संघ ने मुंबई के एक उपनगर मीरा रोड में एक गोष्ठी आयोजित की। इसमें राजेश जोशी ने क़रीब घंटाभर अपनी कवितों का पाठ किया और उसके बाद साथियों ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत है राजेश जोशी से उसी बातचीत के कुछ अंश, किस्‍तों में।
अनूप सेठी: इधर के समय में आप किस तरह के परिवर्तन देख रहे हैं। आप किन बातों पर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं?
राजेश जोशी: नाइन्टीज के बाद का जो समय है, जैसा कि हेब्बरमास ने कहा था कि शताब्दियां कैलेंडर के हिसाब से नहीं बदलतीं। तो हमें यह मानना चाहिए कि इक्कसवीं सदी १९७१ के आसपास शुरू हो गई। जब सोवियत संघ का विघटन होता है और सूचना प्रौद्योगिकी का प्रादुर्भाव होता है। १९८५ से १९९० के समय में दो तीन ख़ास परिवर्तनों को देखें तो मुझे लगता है कि सबसे बड़ा परिवर्तन `विंडो' का आना है। बिल गेट्स ने पहली बार उस चूहे (माउस) को आपकी, ख़ासकर मिडल क्लास की हथेली के नीचे ला दिया जिससे कंप्यूटर की स्क्रीन पर वह अपने समाज की परिक्रमा कर सकता था। मनी का प्लास्टिक मनी में बदलना एक और बड़ा परिवर्तन है। इसी के साथ भूमंडलीयकरण बाजारबाद जैसे परिवर्तन भी एक साथ हो रहे थे। जैसे एजाज अहमद कहते हैं कि इक्कसवीं सदी तब शुरू हुई जब आर.एस.एस के एक स्वयंसेवक ने लाल किले पर चढ़कर स्पीच दी और झंडा फहराया। तो ये इक्कसवीं सदी की शुरूआत में बड़े परिवर्तन थे।
इस तरह मुझे लगता है कि हिंदी समाज की या हिंदी लेखक समाज की सबसे बड़ी समस्या एक तरह का जेटलैग है। जब आप किसी दूसरे देश की यात्रा करते हैं तो अपने यहां का और दूसरे देश का समय फर्क होता है। यात्रा के कारण जैविक घड़ी गड़बड़ा जाती है। क्योंकि दो बिल्कुल अलग-अलग समयों में आपको यात्रा करनी होती है। बीसवीं सदी और इक्कीसवीं सदी के बीच यही समस्या हिंदी लेखक को हो गई। इक्कीसवीं सदी के आते ही यानी टेक्नोलॉजी के आते ही यानी जो औद्योगिक समय था वह प्रौद्योगिकी के समय में बदला तो उसकी गति बहुत तेज़ थी। हमारे एक मित्र ने उसके लिए एक बहुत अच्छा रूपक गढ़ा कि जो बच्चा झूले पर बैठा था, उसे मैरी गो राउंड पर बिठा दिया गया। हिंदी के लेखक को इस बदली हुई स्थिति से एडजेस्ट करने में बहुत समस्या आई। इस एक डेढ़ दशक में हम लोगों की यह समस्या रही है कि जो बदला हुआ समाज है उसे पकड़ने के, उसे अवधारणाओं में व्यक्त करने की कोशिश में लगे हैं। नब्बे के दशक से पहले के समाज को जिस तरह हम अवधारणाओं में व्यक्त कर पा रहे थे। आज विश्वास के साथ नहीं कह सकते कि हम बदले हुए समाज को समझ पा रहे हैं। मुझे लगता है कि मैं ही नहीं, हरेक लेखक इसका सामना कर रहा है।
जारी....

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