Sunday, October 31, 2010

'भाषा के 'क्रियोलीकरण' के खिलाफ भड़की चिनगारी



हिंदी अखबार भाषा की जो दुगर्ति कर रहे हैं, हम सभी उससे वाकिफ हैं. पिछले दिनों इंदौर में इसका विरोध हुआ. चित्रकार-कथाकार प्रभु जोशी ने यह खबर भेजी है. हालांकि यह मुद्दा हिंदी दिवस के दिन प्रतीकात्‍मक रूप से उठाया गया है, पर इस बात को लगातार फोकस में रखने और इसे बदलने के लिए सक्रिय होने की जरूरत है.

इन्दौर 14 सितम्बर 2010 । भूमण्डलीकरण के सबसे बड़े हथियार 'अंग्रेजी के नवसाम्राज्यवाद' का स्वागत जितने अधिक उत्साह से हमारे प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने किया, उसके पहले तमाम भारतीय भाषाओं, जिन्हें अंग्रेज नॉन-स्टेडर्ण्ड और वर्नाकुलर लैंग्विज कह के निरादृत करते थे-उनको नष्ट करने की खामोशी से की गई साजिश का नाम है - भाषा का 'क्रियोलीकरण' जिसके अंतर्गत हिन्दी में 'शामिल शब्दावलि' की आड़ में अंग्रेजी के शब्दों की धीरे-धीरे इतनी तादाद बढ़ाई जा रही थी कि वह हिन्दी न रह कर 'हिंग्लिश' होने लगी। जिसे स्थानीय भाषा में 'भाषा का बखड़ैला' रूप कहा जायेगा। भाषा में शब्द का अनुपात अंग्रेजी का साठ तथा हिन्दी का प्रतिशत चालीस का हो गया। किसी भी भाषा का अस्तित्व उसके 'बोले गए रूप' नहीं, 'छपित रूप' से होता है। उस 'रूप' को नष्ट कर देने से भाषा की 'विचार शक्ति' खत्म हो जाती है - वह केवल रोजमर्रा के सामान्य बोलचाल की सामान्य कामकाजी भाषा बनकर अंत में खत्म हो जाती है।
सर्वग्रासी होते जाने वाली इस साजिश के विरूद्ध देश में 14 सितम्बर 2010 को हिन्दी दिवस के अवसर पर सबसे पहले विरोध का श्रीगणेश किया इन्दौर के बुद्धि‍जीवियों ने। नगर के चर्चित बुद्धिजीवी और समाजवादी चिंतक श्री अनिल त्रिवेदी और आदिवासी बहुल क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता और कवि तपन भट्टाचार्य ने प्रतिनिधि बुद्धि‍जीवियों के साथ देश भर के हिन्दी के कोई बीस-बाइस दैनिक समाचार पत्रों की, इन्दौर नगर के महात्मा गांधी प्रतिमा स्थल पर होली जलाई। इसमें प्रभु जोशी, जीवन सिंह ठाकुर, प्रकाश कांत, कृष्णकान्त निलोसे, शशिकान्त गुप्ते, विश्वनाथ कदम, ईश्वरी रावल, श्रीमती जनक पलटा मिगिलिगन सहित लगभग पचास लोग शामिल हुए। और उन्होंने समवेत स्वर में नारे भी लगाये : 'भाषा का क्रियोलीकरण : बंद करो बंद करो।' कुछ देर बाद गांधी प्रतिमा के आसपास जुटी भीड़ भी शामिल हो गई।
सबसे पहले श्री अनिल त्रिवेदी ने गांधी प्रतिमा को प्रणाम किया और उनका स्मरण करते हुए कहा कि गांधी ने प्रतीकात्मक रूप से जिस तरह विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर एक सूचना दी थी, उस तरह हम देश भर के हिन्दी भाषा-भाषियों के साथ ही साथ समाचार-पत्रों के संचालकों, सम्पादकों तथा पत्रकारों को यह स्मृति दिलाई कि जिस भाषा का देश की आजादी की लड़ाई में अस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हुए उसका विकास किया था, वही पत्रकारिता आज उस भाषा का 'क्रियोलीकर' कर रही है। अत: इसे अविलम्ब रोका जाये। उन्होंने इसके बाद अपना लिखित वक्तव्य पढ़ा-
''आज हिन्दी दिवस के अवसर पर हम इंदौर नगर के बुद्धिजीवी गाँधी-प्रतिमा के समक्ष देश भर के लगभग सभी हिन्दी अखबारों की एक-एक प्रति जुटाकर उनकी होली जलाने के लिए एकत्र हुए हैं। आज-हम-सब जानते हैं कि जब निवेदन के रूप में किये जाते रहे संवादात्मक-प्रतिरोध असफल हो जाते हैं, तब ही विकल्प के रूप में एकमात्र यही रास्ता बचता है, जो हमें गाँधीजी से विरासत में मिला है।
आज हिन्दी के अखबारों की प्रतियों को जलाकर प्रतीकात्मक रूप से हम भारतीय समाचार-पत्रों, उनके संचालकों, पत्रकारों, सम्पादकों के साथ ही साथ पूरे देश के हिन्दी-भाषा-भाषियों को इस बात की स्मृति दिलाना चाहते हैं, कि आज हम हिन्दी का जो विकास देख रहे हैं उस हिन्दी को बनाने और बढ़ाने में सबसे बड़ी और ऐतिहासिक भूमिका आजादी की लड़ाई में हथियार की तरह काम करने वाले हिन्दी के समाचार-पत्रों ने ही निभायी थी- लेकिन, दुर्भाग्यवश वही समाचार-पत्र जगत आज विकास के इतने ऊँचे सोपान पर चढ़ चुकी हिन्दी को अंग्रेजी के नव साम्राज्यवाद को नष्ट करने पर उतारू हो चुका है। नतीजतन, स्थिति यह है कि पिछली एक शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य ने हिन्दी को जितने क्षति नहीं पहुंचायी थी, आज उससे दस गुनी क्षति मात्र दस साल में हिन्दी को हिन्दी के समाचार पत्रों ने पहुँचा दी है।
यहाँ हम यह ऐतिहासिक तथा भाषा-वैज्ञानिक तथ्य याद दिलाना चाहते हैं कि दुनिया भर में भाषाओं के विकास का मुख्य आधार भाषा के बोले गये नहीं, बल्कि लिखित-रूप के कारण होता है। लिखित रूप ही किसी भाषा को अक्षुण्ण रखता है। लेकिन, आज हिन्दी को सबसे बड़ा धोखा उसके लिखित-छपित शब्द की जगह से ही मिल रहा है। चीन की मंदारिन भाषा के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अधिक बोली जाने वाली हिन्दी भाषा को बहत सूक्ष्म और धूर्तयुक्ति से नष्ट किया जा रहा है, जिसे कहा जाता है, भाषा का 'क्रियोलीकरण'। आज का हमारा यह प्रतीकात्मक-प्रतिरोध हिन्दी के अखबारों द्वारा चलाये जा रहे उसी खतरनाक 'क्रिओलीकरण' की प्रक्रिया के विरूध्द है।
'क्रियोलीकरण' एक ऐसी युक्ति है, जिसके जरिये धीरे-धीरे खामोशी से भाषा का ऐसे खत्म किया जाता है कि उसके बोलने वाले को पता ही नहीं लगता है कि यह सामान्य और सहज प्रक्रिया नहीं, बल्कि सुनियोजित षडयंत्र है। जिसके पीछे अंग्रेजी भाषा का साम्राज्यवादी एजेण्डा है। 'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया नहीं, बल्कि सुनियोजित षडयंत्र है। जिसके पीछे अंग्रेजी भाषा का साम्राज्यवादी एजेण्डा है।
'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया का पहला चरण होता है, जिसे वे कहते हैं स्मूथ डिसलोकेशन आफ वक्युब्लरि अर्थात् मूल भाषा के शब्दों का धीरे-धीरे अंग्रेजी के शब्दों से विस्थापन। इस अवस्था को अखबारों अब अपने सर्वग्रासी सीमा तक पहुँचा दी है।
उदाहरण के लिए यह क्रिओलीकरण ठीक उस समय किया जा रहा है, जब हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सीमित भाषाओं की सूची में शामिल करने के प्रयास बहुत तेज हो गये हैं। हिन्दी के दैनंदिन शब्दों को बहुत तेजी से हटाकर उनके स्थान पर अंग्रेजी के शब्द लाये जा रहे हैं। मसलन, छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेण्ट्स/ माता-पिता की जगह पेरेण्ट्स/ अध्यापक की जगह टीचर्स/ विश्वविद्यालय की जगह यूनिवर्सिटी/ परीक्षा की जगह एक्झाम/ अवसर की जगह अपार्चुनिटी/ प्रवेश की जगह इण्ट्रेन्स/ संस्थान की जगह इंस्टीटयूशन/ चौराहे की जगह स्क्वायर रविवार-सोमवार की जगह सण्डे-मण्डे/ भारत की जगह इण्डिया। इसके साथ ही साथ पूरे के पूरे वाक्यांश भी हिन्दी की बजाय अंग्रेजी के छपना/ जैसे आऊट ऑफ रीच, बियाण्ड एप्रोच, मॉरली लोडेड कमिंग जनरेशन/ डिसीजन मेकिंग/ रिजल्ट ओरियण्टेड प्रोग्राम/
वे कहते हैं, धीरे-धीरे स्थिति यह कर दो कि अंग्रेजी के शब्द 70 प्रतिशत तथा मूल भाषा के शब्द मात्र 30 प्रतिशत रह जायें। और इसके चलते हिन्दी का जो रूप बन रहा है, उसका एक स्थानीय अखबार में छपी खबर से दे रहे हैं।
इंग्लिश के लर्निंग बाय फन प्रोग्राम को स्टेट गव्हमेण्ट स्कूल लेवल पर इण्ट्रोडयूस करे, इसके लिए चीफ मिनिस्टर ने डिस्ट्रिक्ट एज्युकेशन आफिसर्स की एक अर्जेंट मीटिंग ली, जिसकी डिटेक्ट रिपोर्ट प्रिंसिपल सेके्रटरी जारी करेंगे।
इसके बाद वे दूसरा और अंतिम चरण बताते हैं : फाइनल असालट ऑन लैंग्विज। अर्थात् भाषा के पूरी तरह खात्मे के लिए 'अंतिम हल्ला'। और, वह अंतिम प्रहार यह कि उसे भाषा की मूल लिपि को बदल कर रोमन कर दो। भाषा समाप्त। और, कहने की जरूरत नहीं कि बहुत जल्दी अखबारों को साम्राज्यवादी सलाहकार की फौज समझाने वाली है। कि हिन्दी को देवनागरी के बजाय रोमन में छापना शुरू कर दीजिये। बीसवीं शताब्दी में सारी अफ्रीकी भाषाओं को अंग्रेजी क सम्राज्यवादी आयोजना के तरह इसी तरह खत्म किया गया और अब बारी भारतीय भाषाओं की है। इसलिए, 'हिन्दी हिंग्लिश', 'बांग्ला', 'बांग्लिश', 'तमिल', 'तमिलिश' की जा रही है। हम यह प्रतिरोध हिन्दी के साथ ही साथ तमाम भारतीय भाषाओं के 'क्रिओलीकरण' के विरूध्द है, जिसमें, गुजराती-मराठी, कन्नड़, उड़िया, असममिया, सभी भाषाएँ शामिल हैं।
बहुत मुमकिन है कि देश भर के हिन्दी भाषा-भाषियों के भीतर अपनी भाषा का बचाने की एक सामूहिक चेतना के जागृत होने के खतरे का अनुमान लगा कर अखबार-जगत हिन्दी के 'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया एकदम तेज कर दें। क्योंकि, जब 5 जुलाई 1928 को यंग इंडिया में जब गाँधी ने ये लिखा था कि अंग्रेजी उपनिवेश की भाषा है और इसके हम हराकर रेंगे - तब गोरी हुकुमत अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार पर तबके छह हजार पाउण्ड खर्च करती थी- वह खर्च की राशि 1938 तक 3,86,000 पाउण्ड कर दी गयी थी। बहरहाल, अंग्रेजी का जो 'नया साम्राज्यवाद अमेरिका और इंग्लैण्ड की रणनीति के चलते बढ़ रहा है - उसमें हमारे यहाँ हाथ बँटाने के लिए देश का प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों मीडिया एकजुट हो गये हैं- हम उनकी इस खतरनाक मुहिम के विरोध का संकल्प लेते हैं।''
श्री अनिल त्रिवेदी के बाद आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले ख्यात समाजसेवी और कवि श्री तपन भट्टाचार्य ने भी क्रियोलीकरण के विरूध्द अपना वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा-
''आजादी के बाद सत्ता में आते ही पहली भारतीय जनतांत्रिक सत्ता ने अंग्रेजी से लड़ाई लड़ी, ऌसी का नतीजा यह रहा कि 'उदारीकरण' के साथ अंग्रेजी अब की बार बहुत सुनियोजित और सुरक्षित ढंग से अपना 'नया साम्राज्यवाद' खड़ा कर रही है, जिसमें हमारा मीडिया और सत्ता स्वयं भी शामिल है। याद रखिए, लार्ड मैकाले ने अंग्रेजी को भाषा से भाषा के स्तर पर चलाने की नीति बनायी, बाद में अंग्रेजी को शिक्षा समस्या बनाकर चलाया, लेकिन नहीं चल पायी। अलबत्ता, इससे उनको एक कटु अनुभव का यह सामना करना पड़ा कि एक मजबूत व्याकरण के आधारवाली मातृभाषा के चलते भारतीयों ने एक किताबी इंग्लिश सीखी और अव्वल दर्जे के आइ.सी.एस. हो गये; लेकिन अंग्रेजी भाषा को रोजमर्रा के जीवन में दूर तक प्रवेश नहीं दिया। बल्कि, बाहर ही रह गयी।
इसलिए, अब नयी नीति तय की गयी है, जिसमें उन्होंने भाषा-संस्कृति का गठबन्धन करते हुए कहा कि अंग्रेजी को 'स्ट्रक्चरली' पढ़ाया जाये, व्याकरण के जरिये नहीं। इसके लिए उन्होंने बच्चों के लिये कॉमिक्स चलाये, कार्टून फिल्में थोक के भाव में भारत के टेलिविजन चैनलों पर चलायी-और, एक मिथ्या 'यूथ-कल्चर' बनाया, जिनका कुल मकसद अंग्रेजी भाषा तथा जीवन शैली को उन्माद की तरह उनसे जोड़ दें- जिसमें भाषा, भूषा और भोजन के स्तर पर वे उनके नये उपनिवेश के शिकंजे में आ जाएँ और कहना न होगा कि, आज के तमाम महाविद्यालयों में अध्ययन कर रही पीढ़ी को उन्होंने 'माडर्न' (?) बना दिया है, जबकि वे 'माडर्न' नहीं हुए, सिर्फ परम्परच्युत हुए हैं। एक 'सामूहिम स्मृति' का शिकार हैं वे और अपनी-अपनी मातृभाषा को न केवल हेय समझते हैं, बल्कि उसे नष्ट करने के अभियान के जत्थों में बदल गये हैं। आज के तमाम हिन्दी अखबार 'यूथ-प्लस' या 'यूथ फोरम' के नाम पर चार-चार चमकीले और चिकने पन्ने छाप रहे हैं - जिसमें एक दो पृष्ठ अंग्रेजी में है और बाकी के दो पृष्ठ हिंग्लिश में, जिसमें, 'लाइफ स्टाइल के फण्डे' सिखाये जा रहे हैं। हमें इसके साथ ही एफ.एम. रेडियो की भूमिका का भी विरोध करते हैं, जो केवल 'क्रियोलीकृत' हिन्दी बनाम हिंग्लिश में ही अपना प्रसारण करते हैं और पूरी की परी युवा पीढ़ी से उसकी भाषा छीन रहे हैं।
हिन्दी के अखबारों की यह भूमिका अंग्रेजी तथा उसके जरिए सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की भारतीय समाज में स्थापना की है। हम इस स्तर पर भी भारतीय समाचार-पत्रों की दृष्टि का विरोध करते हैं कि वे अपने इस एजेण्डे को अविलम्ब रोकें। ''
इसके उपरांत हिन्दी के लगभग दो दर्जन दैनिक अखबारों को जलाया गया। और सर्व सहमति से यह तय किया गया कि इन अखबारों की राख को विरोध प्रकट करने हेतु देश के माननीय सांसदों, विधायकों और समस्त समाचार पत्रों के संचालकों एवं सम्पादकों को भेजा जायेगा। साथ ही होली जलाने वाले कार्यक्रम के समय दिये गये वक्तव्यों को भी उस राख के साथ भेजा जायेगा।
अंत में यह पाया गया कि बाद इसके इस विरोध की प्रक्रिया को निरन्तरता देने के लिए विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के छात्रों के बीच जाकर मैदानी स्तर पर चेतना पैदा करने का काम और प्रक्रिया शुरू की जायेगी। ताकि देश भर के युवा वर्ग को तथाकथित 'यूथ कल्चर' के नाम पर अंग्रेजी तथा पश्चिम के सांस्कृतिक उद्योग की फूहड़ता के लिए 'उन्माद' की हद तक पहुंचाने का काम स्थगित करते हुए उनके अन्दर देश, राष्ट्र, समाज और परम्परा की वस्तुगत पहचान पैदा की जाये।
प्रस्तुति
शिवशंकर मालवीया
137, न्यू पंचशील कॉलोनी,
मूसाखेड़ी, इन्दौर
098267-35479

2 comments:

  1. ये चिनगारी शोला बने और अंग्रेजी एवं गुलाम मानसिकता को जलाकर भारतीय मानस का परिष्कार करे, यही कामना है।

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  2. ये ज़रूरी क़दम है…लेकिन क्रियोलीकरण क्या अपने आप में अजीब सा शब्द नहीं है? मुझे कहना होता तो कहता- भाषाई भ्रष्टाचार!

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