मोटले ने इस बार उत्सव में कथा कोलाज, इस्मत आपा के नाम भाग एक और भाग दो और ऑल थीव्स नाटक खेले हैं। ये सभी नाटक कहानियों पर आधारित हैं। इधर जो कहानी का रंगमंच लोकप्रिय हुआ है ये उसी के उदाहरण हैं। एक या एकाधिक पात्रों वाले और कथा वाचन के साथ-साथ दृश्यों के मिश्रण वाले नाटक। मोटले ने ऑल थीव्स (सारे के सारे चोर ?) में अंग्रेजी और हिंदी का भी मिश्रण किया है। नाटक दो भागों में है। मध्यांतर से पहले अंग्रेजी इौर मध्यांतर के बाद हिंदी कहानियां।
अंग्रेजी में चार कहानियां इटालो काल्विनो की हैं - (मेकिंग डू, कॉन्शियंस, द ब्लैक शीप और गुड फॉर नथिंग)। इटालो क्यूबा में जन्मे इतालवी कथाकार हैं। जापानी कथाकार हरुकी मुराकामी की एक कहानी है - ऑन सींग द 100% परफेक्ट गर्ल वन ब्यूटीफुल एप्रेल मॉर्निंग। हिंदी में कामतानाथ की सारी रात और मोहन राकेश की मिस्टर भाटिया कहानी चुनी गई है।
यूं तो सभी कहानियों का नाटयांतरण सहज-स्फूर्त और चाक-चौबंद है, लेकिन द ब्लैक शीप और गुड फॉर नथिंग अपनी ओर ज्यादा ध्यान खांच लेती हैं। ब्लैक शीप (काली भेड़) कहानी के तौर पर ही बहुत दिलचस्प है जो यूं चलती है कि एक गांव में हरेक आदमी रात को दूसरे के घर चोरी करता है। यानी उस गांव की अर्थव्यवस्था चोरी पर चलती है। चूंकि सब लोग चोरी करते थे इसलिए समाज में समानता थी। कोई झगड़ा नहीं, कोई कमी नहीं। क्योंकि खुद का सामान लुट जाता था और दूसरे का अपने घर आ जाता था। एक दिन ऐसा आदमी गांव में आ जाता है जो चोर नहीं है। उसके घर तो हस्बेमामूल चोरी हो जाती है, लेकिन उसके यहां चोरी का सामान नहीं आता। यह रोज रोज होता है। और वो कंगाल हो जाता है दूसरा अमीर हो जाता है। यही असमानता की जड़ है। कथाकार इसी से लाभ हानि पर खड़ी व्यवस्था का ढांचा खड़ा कर देता है। और चोरी न करने वाला व्यक्ति ब्लैक शीप या काली भेड़ करार दिया जाता है। यानी वह दगाबाज साबित होता है।
इसे खेलने की तकनीक भी दिलचस्प है। अभिनेता कहानी कहता जाता है और अध्यापक की तरह ब्लैक बोर्ड पर आकृतियां बनाकर समझाता जाता है। यह काम वह बिना रुके करता चला जाता है। कहानी और उसके दृश्य एक सांगोपांग नाटयपुंज की तरह दर्शक के सामने घटित होते जाते हैं। अभिनेता पूरी एकाग्रता से कहानी सुनाता या कहें दिखाता है। जैसे कोई अध्यापक बच्चों को क्लास में पढ़ा रहा हो। श्रोता मंत्रमुग्ध होकर देखते-सुनते चले जाते हैं। हालांकि बीच बीच में हंसते भी हैं। इस तरह की सहज प्रतिक्रिया नाटक की शक्ति को ही प्रतिबिंबित करती है। यह नाटक कुछ इस तरह है कि जैसे कोई लस्सी या गन्ने के रस का गिलास एक ही सांस में गटक जाए। कहानी के ध्वन्यार्थ दर्शक के मन में गूंजते रहते हैं। उसके मन में कहानी की व्याख्याएं चलती रहती हैं। यह नाटक एक सघन और एक दिलचस्प अनुभव है लेकिन साथ ही सामाजिक विश्लेषण का चुलबुला उदाहरण है।
अंग्रेजी की गंड फॉर नथिंग कहानी भी ब्लैक शीप की तरह बेमालूम ढंग से कही गई है। इसमें भी अभिनेत्री कहीं भी वाचिका के रूप में नहीं दिखती। कहानी में एक कमरे का दृश्य है जिसमें एक बिस्तर है। शायद यह किसी होटल का कमरा है। अभिनेत्री कहानी कहती जाती है और कमरे की साफ सफाई, साज सजावट करती जाती है। बेहद सधे हुए ढंग से। शायद वह बरसों से यह काम करती आ रही है। कैसे बिस्तर लगाना है, फर्नीचर पोंछना है, कपड़े तहाने हैं, यानी छोटे मोटे काम वह सलीके से लेकिन मशीनी ढंग से करती जाती है। इसके बरक्स कहानी का लब्बोलबाव यह है कि उसे चलते हुए एक व्यक्ति मिलता है जो उसे इसलिए टोकता है कि उसके जूते का तस्मा नहीं बंधा है। यह टोकाटाकी इस हद तक बढ़ती जाती है कि लड़की तंग आ जाती है। उसे स्वीकार करना पड़ता है कि उसे तस्मे बांधने नहीं आते। इससे वो व्यक्ति और परेशान हो जाता है कि वह अपने बच्चों को तस्मे बांधना नहीं सिखा पाएगी। त वित यहां तक जाता है कि इससे सभ्यता को संकट पैदा हो जाएगा।
मजे की बात यह है कि सलीका, कायदा, रोजमर्रा के जीवन की तस्मे बांधने जैसी जरूरत की बहस चल रही है और इस बीच अभिनेत्री कमरे को चकाचक सजा देती है। यह जबरदस्त कंट्रास्ट है। दर्शक की आंखों के सामने अभिनेत्री मशीनी ढंग से वही सब काम किए जा रही है, कहानी में जिसकी बखिया उधेड़ी जा रही है। और जिसकी निरर्थकता सिध्द हो रही है। यह हमारे रोजमर्रा की जिंदगियों की एक अलग तरह की व्याख्या है। बड़े सामाजिक, नारेबाज सरोकारों की बड़बोली कबायद नहीं, उबाऊ जीवन से दो-चार होते हुए उसकी ठुकाई-पिटाई। इस तरह ये कहानी बड़ा दिलचस्प विमर्श प्रस्तुत करती है। अंग्रेजी की बाकी कहानियां भी अच्छी हैं। दर्शकों को बांधे रखती हैं लेकिन ब्लैक शीप और गुड फॉर नथिंग अपनी अलग छाप छोड़ती हैं।
मध्यांतर के बाद हिंदी की कहानियां खेली गई हैं। मोहन राकेश की मिस्टर भाटिया नामक कहानी को दो अभिनेता खेलते हैं। एक कथावाचक, एक मिस्टर भाटिया। मिस्टर भाटिया स्वप्नजीवी व्यक्ति है जो घुड़दौड़ में पैसा लगाकर जल्दी अमीर हो जाना चाहता है। इस लत में वो करीब-करीब बर्बाद हो जाता है पर दुनियादारी नहीं सीख पाता। भटिया का अभिनय करने वाले अभिनेता की अदा, चाल और हाव-भाव चुस्त और लयबध्द हैं। उसकी तुलना में कथा-वाचक की देह भाषा में एक तरह का ढीलापन है। भाटिया कोट और बूट पहन कर बाबू टाइप चुस्ती में रहता है। जबकि कथा वाचक कमीज पतलून में कंधे झुकाए हुए रहता है। दोनों की देह भाषा का रोचक विरोधाभास पैदा होता है। इससे भटिया का चरित्र और मुखर हो के उभरता है। सफल होने के लिए फिल्मी अभिनेताओं की अदाएं भाटिया के व्यक्तित्व का हिस्सा हैं। इससे उसका कल्पनाजीवी व्यक्तित्व और अधिक प्रामाणिक हो जाता है। कहानी बाहरी तौर पर दर्शक को हंसाती है, लेकिन कहीं गहरे में भाटिया की सफलता की मृग-मरीचिका का दंश उसे चुभता भी है। क्योंकि दुनिया में हर कोई हमेशा सफल नहीं होता। बहुत सारी चीजें, घटनाएं जुए की तरह उसे पटखनी देती हैं या असफलता का फल चखाती हैं।
दूसरी तरफ कामतानाथ की कहानी सारी रात पुरुष मानसिकता की सीधी और सच्ची कथा है। नवविवाहित जोड़ा पहली रात को बिस्तर पर लेटा है और एक दूसरे से वाकिफ हो रहा है। पति पत्नी से अपने पिछले अनुभव पूछता है अपने बताता है। उसके अंदर कोई कुंठा नहीं है। उसे लड़कियों से संबंध रखने में परहेज भी नहीं है। बल्कि वह सोचता है कि कि किसी लड़के का किसी लड़के से या लड़की का लड़के से संबंध न बने, यह संभव ही नहीं है। इसीलिए वह पत्नी को कोंच कोंच कर पूछता है। जबकि लड़की लड़के की तरह अनुभव समृध्द नहीं है। बड़ी मुश्किल से एक लड़के का जिक्र करती है तो पति के मन में शक का कीड़ा डंक मार देता है। और बातचीत वहीं बंद हो जाती है। वह लिहाफ में मुंह छिपाकर सो जाता है।
पति पुरुष वृत्ति का आर्केटाइप ही है जिसके तहत वह स्त्री को पाक साफ (?) मान ही नहीं पाता। और जब यह बात सरसरी तौर पर भी पता चलती है तो पुरुष स्त्री को दोषी मान लेता है। यह उसके भीतर का एक अंतर्विरोध भी है। यह हमारे समाज की सच्चाई है। इसका खामियाजा स्त्री को भुगतना पड़ता है क्योंकि पति का हर तरफ वर्चस्व रहता है। वह स्त्री को अपने इशारों पर चलाता है।
इस नाटक में पति पत्नी बिस्तर पर बैठे बैठे अपने अपने संवाद बोलते हैं। बीच बीच में आने वाले कहानी के वर्णन भी वे बारी बारी बोल देते हैं। दोनों एक ही लिहाफ मे घुसकर बैठे हैं। लड़के ने कमीज बनियान कुछ नहीं पहन रखा है। कह सकते हैं कि वह नंगा ही है। यह हमारे यहां के पुरुषों का तौर तरीका ही है। उन्हें शर्म नहीं आती है। शर्म को लड़की का गहना (?) माना जाता है। तो क्या पुरुष बेशर्म होता है? उसे धड़ को नंगा रखने में संकोच नहीं होता। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के पुरुष को कटि से ऊपर निर्वस्त्र रहने की सभ्यता ने छूट दे रखी है। लेकिन वह निर्कुंठ नहीं होता। इस तरह का दृश्य-विधान कहानी को प्रामाणिक तो बनाता है पर बेडरूम सीन फिल्मी अंदाज में कुछ देखने के बीज भी दर्शक के मन में बो देता है। ऐसे दृश्यबंध की रचना लोकप्रियता को भुनाने का एक लक्षण है।
इससे पहले खेली गई मिस्टर भाटिया में भी यही बिस्तर इस्तेमाल किए गए हैं। पर उन्हें दो अलग अलग खाटों की तरह रखा गया है। उन पर गद्दे तो हैं, चादरें नहीं। यह उस वक्त अटपटा लगता है, हालांकि इससे भाटिया की माली हालत का जायजा भी लग जाता है। उसके बाद सारी रात में यही बिस्तर, चादर, बेडकवर और लिहाफ के साथ दृश्य को ट्रांसफार्म तो करता ही है, तसंगत और परिस्थिति अनुकूल भी बना देता है।
न जाने क्यों ऑल थीव्स नाटक के निर्देशक का नाम नहीं बताया गया है। इतना जरूर बताया गया है कि यह नाटक मोटली के युवा तुर्कों ने खेला है। इसमें अंकुर विकल, ईमाद शाह, हीबा शाह और ओम ने अभिनय किया है। अर्घ्या लाहिड़ी, पुशान कृपलानी ने प्रकाश व्यवस्था की है और विवान शाह और विनय ने ध्वनि व्यवस्था। नाटक में अभिनेताओं का परिचय कराने की परंपरा रही है। लेकिन यहां पता ही नहीं चला कौन अभिनेता किस भूमिका में है। लोकप्रिय अभिनेता तो पहचाने जाते हैं, अलोकप्रिय अज्ञात ही रह जाते हैं। नाटक में अभिनेता का दर्शक से सीधा संबेध बनता है। सहज जिज्ञासा होती है कि अभिनेता का नाम मालूम हो जाए। पता नहीं मोटली ने इस बारे में उदासीनता क्यों बरती है।
(मुंबई के पृथ्वी थियेटर में 18 और 19 जुलाई 2009 के नौ बजे के प्रदर्शन)
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ReplyDeleteAnonymous has left a new comment on your post "सारे के सारे चोर ?":
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