Monday, October 11, 2010

समाज की नब्ज पर हाथ


पिछले साल नसीरुद्दीन शाह और बेंजामिन गिलानी की संस्‍था के कुछ नाटक देखे और बहुत समय बाद नाटकों की समीक्षा नटरंग के लिए लिखी जो हाल में आए अंक में छपी है. बेटिंग फार गौदो के बारे में आप पढ़ चुके. अब पढि़ए इस्‍मत चुगताई की कहानियों पर आधारित नाटक के बारे में. अगली किस्‍त में कुछ और कहानियों के नाटक पर बात करेंगे.

नसीरुद्दीन शाह का रंगमंच प्रेम जग जाहिर है। तीस साल पहले उन्होंने बेंजामिन गिलानी के साथ मिलकर मोटले नाम की नाटय संस्था बनाई थी। और अंग्रेजी में नाटक करना शुरू किए। उन लोगों ने वेटिंग फॉर गोदो, द लेसन, एंडगेम जैसे उस समय के विश्वप्रसिद्ध और विसंगत यानी एब्सर्ड नाटक किए। बड़े साफ शफ्फाक रंगमंच को शक्ल दी।

मोटले के प्रदर्शन नियमित रूप से नहीं हुए जैसे मुंबई की दूसरी कुछ नाटयमंडलियां लगातार सक्रिय रही हैं। बीच में लंबे मौन रहे। अंग्रेजी नाटकों के दौर के बाद ये हिंदी या हिंदूस्तानी की तरफ बढ़े। वह भी कहानियों के मंचन की तरफ। पहले इस्मत चुगताई फिर मंटो की कहानियां खेलीं। फिर नसीरुद्दीन की मंडली में उनकी बेटी हीबा और बाद में बेटा ईमाद भी शामिल हो गए। रत्ना शाह तो पहले से ही नाटक करती हैं। मतलब पूरा परिवार ही शामिल है। फिल्मी जगत में एक पूरा परिवार नाटक करे, यह बड़ी बात है। इस तरह मोटले ने तीस साल का सफर तय कर लिया है। इसी प्रसंग में इधर करीब आठ नाटक दिखाए गए हैं। ये शो पृथ्वी में 13 से 26 जुलाई तक, 7 से 13 सितंबर तक एनसीपीए में और 14 से 18 सितंबर तक वी एन वैद्य हाल, दादर में होंगे। पृथ्वी के प्रदर्शन तो लगभग हाउस फुल ही चल रहे हैं। (यह सन 2009 की बात है)

इस्तम आपा के नाम से पहले तीन कहानियां दिखाई गई थीं। अब दूसरा भाग आया है। इसमें भी तीन कहानियां हैं - अमरबेल, नन्हीं की नानी और दो हाथ। इन्हें मनोज पाहवा, लवलीन मिश्रा और सीमा पाहवा ने खेला है। निर्देशन नसीरुद्दीन शाह का है। कसा हुआ। प्रभावशाली। सही मिकदाद में। अमरबेल बाहरी तौर पर तो दुहाजू पति और कमउम्र पत्नी के बेमेल ब्याह का अफसाना है जिसे भानजा अपने मामू की कहानी के तौर पर सुनाता है। कहानी में हवेली का जीवन जीवंत हो उठा है। छोटे छोटे दृश्यों और अभिनय के टुकड़ों से पूरी जीवनी साकार हो उठती है। अभिनय के टुकड़े इसलिए क्योंकि कहानी बांची जाती है और बीच बीच में कोई दृश्य उभर आता है। यूं तो रंगमंच पर कहानी वाचक भी अभिनय ही कर रहा होता है।

नाटक में पति पत्नी के जीवन की भीतरी तहें परत दर परत खुलती चलती हैं। पहली बीवी की याद मामू को लगभग अंत समय में आती है। बीच में अधेड़ मामू या तो नौजवान बीवी की आशिकी में गर्क रहते हैं या लानत मलामत करते रहते हैं। कहानी के अंत तक आते आते जब बीवी बेवा होती है तो उसका अकेलापन, खालीपन ही बाकी रह जाता है। उसे पुरुष ने जीवन भर भोगा है लेकिन वह यूं ही अनछुई पड़ी रह गई है। उसकी देह के आगे न तो उसका शौहर कुछ देख पाया, न ही उसका परिवार। बाकी समाज का तो कहना ही क्या। स्त्री की बेचारगी और बेगानगी मुखर हो उठी है। गंभीर सामाजिक विश्लेषण खिलंदड़ी भाषा में किया गया है। अभिनय, दृश्य और वाचन का मिश्रण भी दर्शक तक बहुत सधे ढंग से पहुंचता है।

नन्हीं की नानी को लवलीन मिश्रा सुनाती हैं। यह पात्र समाज के हाशिए से उठाया गया है। एक तथाकथित बदकिस्मत बुढ़िया जो पैदा होने के बाद से एक के बाद एक हादसे का शिकार होती जाती है और अपना बजूद ही खो बैठती है। लगभग बुढ़ापे में अपनी नातिन नन्हीं की नानी के नाम से जानी जाती है। जैसा अक्सर बेसहारा लड़कियों के साथ होता है, नन्हीं का जीवन भी सुरक्षित नहीं और वह घर से भाग जाती है। नानी लगभग भिखारिन की तरह जीवन जीने को अभिशप्त हो जाती है। रोटी मांगने पर डांट और लताड़ भी साथ में खानी पड़ती है। पर इस नानी में गजब का जीवट है। बुढ़ापे में एक दिन एक बंदर उसका तकिया चुरा ले जाता है और चिंदी चिंदी करके फाड़ फेंकता है। नानी का जीवन भी चिंदी चिंदी हो जाता है। उसके इस तकिए में उसके लंबे जीवन की स्मृतियां जमा थीं। न जाने उसमें क्या क्या जमा कर रखा था। पुराने गूदड़ ही उसकी जमा पूंजी थे। तकिया छूटता है तो नानी का जीवन से साथ भी छूट जाता है। कहानी हंसी ठिलोली और भावुकता के साथ गढ़ी गई है। भीतर करुणा की धारा बहती रहती है जिसे लवलीन ने बखूबी पेश किया है। नकाब का इस्तेमाल कल्पनाशीलता से किया गया है। कभी ओट, कभी पग्गड़, कभी सुरक्षा कवच, कभी तकिया। और पर्दा तो है ही।

इसी तरह दो हाथ कहानी भी मेहतरों की जिंदगी से जुड़ी है। यह कहानी समाज की नैतिकता की चूलें हिलाने का काम करती है, पर बड़े हंसते खेलते अंदाज में। कथा वाचिका सीमा पाहवा मंच पर मेहतरानी बन कर आती हैं और मेहतरानी की बहू की कहानी बांचती हैं। बेटा दो साल बाद घर लौट रहा है। इस बीच बहू ने अपने देवर से एक बच्चे को जन्म दिया है जो एक साल का हो गया है। मेहतरानी इस बच्चे को नाजायज नहीं मानती, जबकि सारा मुहल्ला इस कुकर्म को देखकर मांदा हुआ जाता है। मेहतरानी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। बेटे से जब आमने-सामने दो-चार सवाल किए जाते हैं तो वह नैतिकता के गुब्बारे की हवा निकाल देता है। उसे बेटे से मतलब है, मां की शुचिता से नहीं। उसके लिए बेटे का मतलब दो मेहनतकश हाथ हैं। समाज की सफाई का जिम्मा मेहतर पर होता है। पर इस्मत चुगताई ने कहानी में समाज के नैतिकता के ढकोंसले की भी सफाई कर दी है। इस कहानी की कहन विद्या भी बड़ी हंसोड़ किस्म की है। खूबी यह कि एक अकेली पात्र सीमा पाहवा सब कुछ अंजाम दिए चलती हैं। ऐसा तो खैर मनोज और लवलीन ने भी किया है।

निर्देशक ने दर्शकों की नब्ज को ध्यान में रखकर ये कहानियां चुनी हैं। गंभीर विषय के बावजूद वाचन और अभिनय में जीवंतता है। कहानी में से दृश्य रचना और वाचन के मिश्रण का मेलजोल सही मिकदाद में है। कहीं पर वाचक हावी नहीं होता। न ही कहानियां एकल अभिनय के करतब में बदलती हैं। कहानी को मंचित करने में यह चुनौती हमेशा बनी रहती है। यहां पर दर्शक कहानी सुनने के साथ साथ नाटक देखने का मजा लेता है। सिर्फ मजा ही नहीं लेता, कहानियों का कथ्य भी बेमालूम ढंग से दर्शक के भीतर अंतर्क्रिया करता है। यानी नाटय के अनुभव में बदलने की आंतरिक क्रिया चलती रहती है। यह इस्मत चुगताई की लेखनी की खूबी है और निर्देशक की सफलता।


(पृथ्वी थियेटर, 18 जून, 2009 का छ: बजे का शो)

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