Wednesday, March 21, 2018

सुरजीत पातर की कविताएं

                                                      असगर वजाहत



पंजाबी कवि सुरजीत पातर साहब की इन कविताओं का अनुवाद शायद बीस से ज्‍यादा ही पुराना है। 
पिछले दिनों कवि अजेय ने व्‍ट्सऐप पर पातर साहब की कविता सझा की तो मुझे भी अपने अनुवादों की याद आई। ढूंढ़ने पर पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप किए हुए जर्द पन्‍ने मिल गए। मतलब ये कंप्‍यूटर पर टाइप करना शुरू करने से पहले के हैं। ये तब पत्रिकाओं में छपे भी थे। पर वो अंक मेरे पास नहीं हैं। कहां छपेयह भी याद नहीं है। तब पातर साहब को खत भी लिखा था, पर उनका जवाब नहीं आया। पता नहीं खत उन्‍हें मिला भी या नहीं। अब इन कविताओं का फिर से आनंद लिया जाए। खुशी की बात यह भी है कि  असगर वजाहत साहब ने इन कविताओं के साथ अपने चित्र यहां लगाने की इजाजत मुझे दे दी है।  
आज बारहवीं कविता के साथ यह शृंखला पूरी हुई।




12
मैं रात का आख़िरी टापू

मैं रात का आखरी टापू
झर रहा हूं विलाप कर रहा हूं
मैं मारे गए वक़्तों का आखरी टुकड़ा हूं
ज़ख्‍मी हूं
अपनी वाणी के जंगल में
छुपा कर आ रहा हूं
तमाम मरे हुए पितरों के नाखून
मेरी छाती में धंसे हुए हैं
जरा देखो तो सही
मरे हुए को भी जिंदा रहने की कितनी लालसा है ।

Tuesday, March 20, 2018

सुरजीत पातर की कविताएं

                                                        असगर वजाहत



पंजाबी कवि सुरजीत पातर साहब की इन कविताओं का अनुवाद शायद बीस से ज्‍यादा ही पुराना है। 
पिछले दिनों कवि अजेय ने व्‍ट्सऐप पर पातर साहब की कविता सझा की तो मुझे भी अपने अनुवादों की याद आई। ढूंढ़ने पर पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप किए हुए जर्द पन्‍ने मिल गए। मतलब ये कंप्‍यूटर पर टाइप करना शुरू करने से पहले के हैं। ये तब पत्रिकाओं में छपे भी थे। पर वो अंक मेरे पास नहीं हैं। कहां छपे,यह भी याद नहीं है। तब पातर साहब को खत भी लिखा था, पर उनका जवाब नहीं आया। पता नहीं खत उन्‍हें मिला भी या नहीं। अब इन कविताओं का फिर से आनंद लिया जाए। खुशी की बात यह भी है कि  असगर वजाहत साहब ने इन कविताओं के साथ अपने चित्र यहां लगाने की इजाजत मुझे दे दी है।  




11
चौक शहीदां में उसका आखिरी भाषण

यारो चलो अब इस चौक को अब छोड़ दें
अब यह चौक चौराहा ना रहा

था, जब सब कुछ जीवित था
जब नींदों में पत्थर चिने जाते थे
पुत्र नहीं
जब घना अंधेरा था
कुछ अता पता लगता न था
अंधेरे में तीर किधर से आता है
किसका तीर
कोई चिरंजीव लुढ़क जाता है
तीर पर हर एक, किस्मत ही लिखा था
उंगलियों के निशानों को पढ़ना आता न था
तब यह चौक चौराहा था

तब अगर बुत बनके आप इस जगह
उमर भर भी सोचते रहते
कि जाएं किस तरफ
तो भी होते पूजनीय

या जिस भी राह जी चाहे चल पड़ते
एक ही जैसे मासूम होते

अब मासूमियत क्या है
साइड पोज़ है कबूतर का
या बुत की पथराई हुई मुस्कुराहट है
शहर को चोर लोरी सुना रहे हैं
छलावा फूल बन हुआ है
या लोमड़ी को चुपाव चिह्नमिल गया है

अब मासूमियत क्‍या है
अब तो पता है कि पेउ़ हर तरकश
साहिबां ने नहीं वक्‍त ने टांगा था
अब तो पता है कि हवा को भी हाथ उग आते हैं
अगर कंगन सोने का हो
अब तो पता है कि आत्‍मा भी मांस खाती है
अब तो पता है कि खुश्‍बू के भी दांत होते हैं
अब तो पता है शगुनों वाली रात को
मां बेटे को कत्‍ल किसने किया
और कातिल के पदचिह्न किधर जाते हैं 
अब यह चौक चौराहा ना रहा

चलो इस चौक को छोड़ किसी चौराहे पर जाएं
वहां जाकर फिर दुविधा में पड़ें
यह दुविधा में पड़ना वापस कोख में पड़ना है

तुम्हें मैं क्या बताऊं बेशकीमती दोस्तो

तुम तो जानते हो
जिस चौक में
अपने हस्‍सास हंसमुख हमउम्रों का लहू बह जाए
वह चौक चौराहा नहीं रहता

जिन चौकों में हमउम्रों का लहू अभी बह रहा है
वो आगे हैं ।

Monday, March 19, 2018

सुरजीत पातर की कविताएं

                                                       असगर वजाहत

पंजाबी कवि सुरजीत पातर साहब की इन कविताओं का अनुवाद शायद बीस से ज्‍यादा ही पुराना है। 

पिछले दिनों कवि अजेय ने व्‍ट्सऐप पर पातर साहब की कविता सझा की तो मुझे भी अपने अनुवादों की याद आई। ढूंढ़ने पर पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप किए हुए जर्द पन्‍ने मिल गए। मतलब ये कंप्‍यूटर पर टाइप करना शुरू करने से पहले के हैं। ये तब पत्रिकाओं में छपे भी थे। पर वो अंक मेरे पास नहीं हैं। कहां छपे,यह भी याद नहीं है। तब पातर साहब को खत भी लिखा था, पर उनका जवाब नहीं आया। पता नहीं खत उन्‍हें मिला भी या नहीं। अब इन कविताओं का फिर से आनंद लिया जाए। खुशी की बात यह भी है कि  असगर वजाहत साहब ने इन कविताओं के साथ अपने चित्र यहां लगाने की इजाजत मुझे दे दी है।  


10
वह दिन

वह दिन जो अब कहीं मिले
मैं उसकी सफेद हंस जैसी ज़ख्‍मी देह पर
मरहम लगा दूं
पर दिन कोई घर से रूठ के गया जन तो नहीं
जो कभी कहीं दिख जाए कभी कहीं
और फिर किसी शाम
वो फटेहाल घर लौट आए
या किसी स्टेशन पर गाड़ी का इंतजार करता मिल जाए

दिन कोई घर से रूठ कर गए जन तो नहीं
दिन तो हमारे हाथों मरे हुओं के
कराहते प्रेत हैं
जिनके ज़ख्‍मों तक आप हमारे हाथ नहीं पहुंचते ।

Sunday, March 18, 2018

सुरजीत पातर की कविताएं

                                                                     असगर वजाहत



पंजाबी कवि सुरजीत पातर साहब की इन कविताओं का अनुवाद शायद बीस से ज्‍यादा ही पुराना है। 
पिछले दिनों कवि अजेय ने व्‍ट्सऐप पर पातर साहब की कविता सझा की तो मुझे भी अपने अनुवादों की याद आई। ढूंढ़ने पर पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप किए हुए जर्द पन्‍ने मिल गए। मतलब ये कंप्‍यूटर पर टाइप करना शुरू करने से पहले के हैं। ये तब पत्रिकाओं में छपे भी थे। पर वो अंक मेरे पास नहीं हैं। कहां छपे,यह भी याद नहीं है। तब पातर साहब को खत भी लिखा था, पर उनका जवाब नहीं आया। पता नहीं खत उन्‍हें मिला भी या नहीं। अब इन कविताओं का फिर से आनंद लिया जाए। खुशी की बात यह भी है कि  असगर वजाहत साहब ने इन कविताओं के साथ अपने चित्र यहां लगाने की इजाजत मुझे दे दी है।  




9
डर

बन रहे हैं इंसानों से फिर पत्थर
फिर मिट्टी
फिर पानी
बन रहे हैं पंक्तियों से फिर शब्द
शब्दों से
चीखें
चिंघाड़ें

धरती घूम रही है डरी हुई

पेड़ों को मिट्टी को खा रही
पानी अपने सोतों की तरफ मुड़ रहे हैं
पलट रहे हैं पीछे को फूल

फेंक कर यह साज़
यह पावन किताबें
यह प्यारे मुखड़े
दौड़ पड़ेंगे सिर्फ एक जान लेकर

बन रहे हैं इंसानों से सिर्फ जानें

Saturday, March 17, 2018

सुरजीत पातर की कविताएं

                                                           असगर वजाहत


पंजाबी कवि सुरजीत पातर साहब की इन कविताओं का अनुवाद शायद बीस से ज्‍यादा ही पुराना है। 

पिछले दिनों कवि अजेय ने व्‍ट्सऐप पर पातर साहब की कविता सझा की तो मुझे भी अपने अनुवादों की याद आई। ढूंढ़ने पर पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप किए हुए जर्द पन्‍ने मिल गए। मतलब ये कंप्‍यूटर पर टाइप करना शुरू करने से पहले के हैं। ये तब पत्रिकाओं में छपे भी थे। पर वो अंक मेरे पास नहीं हैं। कहां छपे,यह भी याद नहीं है। तब पातर साहब को खत भी लिखा था, पर उनका जवाब नहीं आया। पता नहीं खत उन्‍हें मिला भी या नहीं। अब इन कविताओं का फिर से आनंद लिया जाए। खुशी की बात यह भी है कि  असगर वजाहत साहब ने इन कविताओं के साथ अपने चित्र यहां लगाने की इजाजत मुझे दे दी है।  


8
दो पेड़ों की गुफ्तगू

मेरी सूली बनाओगे
या रबाब
जनाब
या मैं यूं ही खड़ा रहूं सारी उमर
करता रहूं पत्तों और
मौसमों का हिसाब किताब
जनाब
कोई जवाब

मुझे क्या पता - मुझे क्या खबर
मैं तो खुद हूं तेरे जैसा दरख्‍त
तू ऐसा कर
आज की अखबार देख

अखबार में कुछ नहीं
झड़े हुए पत्ते हैं

तो फिर कोई किताब देख
किताबों में बीज हैं

तो फिर सोच

सोच को काट खाया गया है
दांतों के निशान हैं
राहगीरों की राह है
या मेरे नाखून
जो मैंने बचने के लिए
धरती के सीने में घोंपे

सोच सोच और सोच

सोच में कैद है

सोच में खौफ है
लगता है धरती के साथ बंधा हुआ हूं

जा फिर टूट जा

टूट कर क्या होगा
रूख नहीं तो राख सही
राह नहीं तो रेत सही
रेत नहीं तो भाप सही

अच्छा फिर चुप कर
मैं कहां बोलता हूं
यह तो मेरे पत्ते हैं
हवा में डोल रहे।

Friday, March 16, 2018

सुरजीत पातर की कविताएं

                                                                 असगर वजाहत


पंजाबी कवि सुरजीत पातर साहब की इन कविताओं का अनुवाद शायद बीस से ज्‍यादा ही पुराना है। 

पिछले दिनों कवि अजेय ने व्‍ट्सऐप पर पातर साहब की कविता सझा की तो मुझे भी अपने अनुवादों की याद आई। ढूंढ़ने पर पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप किए हुए जर्द पन्‍ने मिल गए। मतलब ये कंप्‍यूटर पर टाइप करना शुरू करने से पहले के हैं। ये तब पत्रिकाओं में छपे भी थे। पर वो अंक मेरे पास नहीं हैं। कहां छपे,यह भी याद नहीं है। तब पातर साहब को खत भी लिखा था, पर उनका जवाब नहीं आया। पता नहीं खत उन्‍हें मिला भी या नहीं। अब इन कविताओं का फिर से आनंद लिया जाए। खुशी की बात यह भी है कि  असगर वजाहत साहब ने इन कविताओं के साथ अपने चित्र यहां लगाने की इजाजत मुझे दे दी है।  


7
घर्र घर्र  

मैं छतरी बराबर आकाश हूं गूंजता हुआ
हवा की सां सां का पंजाबी में अनुवाद करता
अजीबोगरीब दरख़्त हूं
हजारों रंग बिरंगे जुमलों से बिंधा हुआ
नन्हां सा भीष्म पितामह हूं
मैं आपके प्रश्नों का क्या उत्तर दूं ?

महात्मा बुद्ध और गुरु गोविंद सिंह
परमो धर्म अहिंसा और बेदाग चमकती तलवार की
मुलाकात के वैन्‍यू के लिए मैं बहुत गलत शहर हूं

मेरे लिए तो बीवी की गलबहियां भी कटघरा हैं
क्लासरूम का लेक्चर स्टैंड भी
और चौराहे की रेलिंग भी
मैं आपके प्रश्नों का क्या उत्‍तर दूं ?

मुझ में से नेहरू भी बोलता है माओ भी
कृष्ण भी बोलता है कामू भी
वॉयस ऑफ अमेरिका भी बीबीसी भी
मुझ में से बहुत कुछ बोलता है
नहीं बोलता तो बस मैं ही नहीं बोलता हूं

मैं आठ बैंड का शक्तिशाली बुद्धिजीवी
मेरी नसों की घर्र घर्र शायद मेरी है
मेरी हड्डियों का ताप संताप शायद मौलिक है

वर्षों में मेरा इतिहास बहुत लंबा है
कर्मों में बहुत छोटा

जब मां को खून की जरूरत थी
मैं किताब बन गया
जब पिता को छड़ी चाहिए थी
मैं बिजली सा चमका और बोला :

कपिलवस्तु के शुद्धोधन का ध्यान करो
मच्छीबाड़े की तरफ देखो
गीता पढ़ी है तो विचार भी करो
कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा...
ऐसा ही बहुत कुछ जो मेरी समझ से भी परे था

रास्ते में फरार दोस्त मिले
उन्होंने पूछा :
हमारे साथ सलीब तक चलेगा -
कातिलों के कत्‍ल को अहिंसा समझेगा ?  
गुमनाम पेड़ पर उल्टा लटक के
मसीही अंदाज में
सरकंडे को भाषण देगा ?

जवाब में मेरे अंदर
कई तस्वीरें उलझ गईं
मैं कई दर्शनों का कोलाज सा बन गया
और आजकल कहता फिरता हूं :

सही दुश्मन की तलाश करो
संसार को जीतने वाला हर कोई औरंगजेब नहीं होता

जंगल सूख रहे हैं
बांसुरी पर मल्हार बजाओ

प्रेत बंदूकों से नहीं मरते

मेरी हर कविता प्रेतों को मारने का मंत्र है
मसलन वह भी
जिसमें मोहब्बत कहती है :
मैं घटनाग्रस्‍त गाड़ी का अगला स्टेशन हूं
रेगिस्तान पर बना पुल हूं
मैं मर चुके बच्चे के तुतलाते तलवे पर
लंबी उम्र की रेखा हूं
मैं मरी हुई औरत की रिकॉर्ड की हुई हंसती
आवाज हूं
अब हम कल मिलेंगे।

Thursday, March 15, 2018

सुरजीत पातर की कविताएं

                                                     असगर वजाहत


पंजाबी कवि सुरजीत पातर साहब की इन कविताओं का अनुवाद शायद बीस से ज्‍यादा ही पुराना है। 

पिछले दिनों कवि अजेय ने व्‍ट्सऐप पर पातर साहब की कविता सझा की तो मुझे भी अपने अनुवादों की याद आई। ढूंढ़ने पर पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप किए हुए जर्द पन्‍ने मिल गए। मतलब ये कंप्‍यूटर पर टाइप करना शुरू करने से पहले के हैं। ये तब पत्रिकाओं में छपे भी थे। पर वो अंक मेरे पास नहीं हैं। कहां छपे,यह भी याद नहीं है। तब पातर साहब को खत भी लिखा था, पर उनका जवाब नहीं आया। पता नहीं खत उन्‍हें मिला भी या नहीं। अब इन कविताओं का फिर से आनंद लिया जाए। खुशी की बात यह भी है कि  असगर वजाहत साहब ने इन कविताओं के साथ अपने चित्र यहां लगाने की इजाजत मुझे दे दी है।  


6
मेरी धूप

मेरी धूप बीमार पड़ी है
मेरे सूरज को घड़ियों ने काट दिया है
दफ्तर के दरवाजे के बाहर
मेरी नज़्म मेरे इंतजार में बूढ़ी हो गई
उस बेचारी के लंबे सुंदर बाल
बिना सहलाए ही सफेद हो गए

मैं कुर्सी में चिन दिया गया हूं
कुर्सी में चिने हुए पुत्रों को साहबजादे कौन कहेगा ?

सर्कस वाला बूढ़ा शेर अभी आएगा
मेज पर बिखरे सपनों को देख
सूर्य पेड़ों नदियों के सायों को
मेज पर बिछी लंबी लंबी सड़कों को देख
गर्मा जाएगा
अपनी कहर भरी नजर डाल
मेरे सपनों को भस्म कर देगा

मैं आसमान, सड़कें, मैं जंगल
गुच्छा मुच्‍छा होकर एक दराज के अंदर बैठ जाऊंगा
विष घोलूंगा, सांप बनूंगा
मैं तो मोर था सांप बन गया हूं
अब तो मुझे मोरनियों से डर लगता है
रंग बिरंगे नोटों की तितलियां पकड़ते
लक्कड़ लोहे और अंधेरे के जंगल में
सारे दोस्त गुम हो गए हैं
देखते देखते अपना शहर पराया हो गया
कविता बाहर बीमार पड़ी है

मैं हूं, एक साफ शीशा है
जो मेरा इतिहास नहीं जानता

मैं एक दिन जिस रेत में से
दोस्तों, काफिले और सपनों के साथ गुजरा था
उसे कुछ भी याद नहीं है

जिस रेत पर मेरे पैरों के निशान थे
वही रेत अब सिर पर है
कण कण कर अंगों पर गिर रही है

मैं खंड-खंड रेत में खो रहा हूं
आखिर एक दिन रेत में चिन दिया जाऊंगा
रेत में चले गए पुत्रों को साहबजादे कौन कहेगा ?

Wednesday, March 14, 2018

सुरजीत पातर की कविताएं

                                                                     असगर वजाहत

पंजाबी कवि सुरजीत पातर साहब की इन कविताओं का अनुवाद 
शायद बीस से ज्‍यादा ही पुराना है। 
पिछले दिनों कवि अजेय ने व्‍ट्सऐप पर पातर साहब की कविता सझा की तो मुझे भी अपने अनुवादों की याद आई। ढूंढ़ने पर पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप किए हुए जर्द पन्‍ने मिल गए। मतलब ये कंप्‍यूटर पर टाइप करना शुरू करने से पहले के हैं। ये तब पत्रिकाओं में छपे भी थे। पर वो अंक मेरे पास नहीं हैं। कहां छपे,यह भी याद नहीं है। तब पातर साहब को खत भी लिखा था, पर उनका जवाब नहीं आया। पता नहीं खत उन्‍हें मिला भी या नहीं। अब इन कविताओं का फिर से आनंद लिया जाए। खुशी की बात यह भी है कि  असगर वजाहत साहब ने इन कविताओं के साथ अपने चित्र यहां लगाने की इजाजत मुझे दे दी है।  





5
बूढ़ी जादूगरनी कहती है

तुम्हारा भी नाम रखेंगे
तुम्हारी छाती में भी खंजर या तगमा जड़ देंगे
जीने लायक तो हो
तुम्हारी भी हत्या कर देंगे

मैं बूढ़ी जादूगरनी बहुत मंतर जानती हूं

मैंने जिस सीने पर तगमा सजाया
वही सीना घड़ी बनके रह गया

मैंने जिसके गले में हार डाला
वह बुत बन गया

मैंने जिसे अपना पुत्र कहा
उसे ही अपनी मां का नाम भूल गया

मैंने जिस हाथ को अपने हाथ के मेले के भींचा
वो हाथ पेड़ की टहनी बन गया
और हर तरफ से आती हवा में झूलता रहा

मेरा पेट हंसता है : आईना झूठ बोलता है
जादूगरनियां तो कभी भी बूढ़ी नहीं होतीं

सीनों की किस्में होती हैं
किसी सीने को तगमे से चैन पड़ती है
किसी सीने को गुनगुने दूध के नगमे से चैन मिलती है

और जो बचती हैं बाकी
उसके लिए मेरे हाथों में सिर्फ खंजर ही बचता है

तू ऐसे गुमान न कर
तू ऐसे जल्दी न मचा
तेरे सीने की किस्म भी पहचान लेंगे
और तेरी औकात के मुताबिक चुन देंगे नियति
जीने लायक तो हो
तुम्हारी भी हत्या कर देंगे

Tuesday, March 13, 2018

सुरजीत पातर की कविताएं

                                                                        असगर वजाहत



पंजाबी कवि सुरजीत पातर साहब की इन कविताओं का अनुवाद शायद बीस से ज्‍यादा ही पुराना है। 
पिछले दिनों कवि अजेय ने व्‍ट्सऐप पर पातर साहब की कविता सझा की तो मुझे भी अपने अनुवादों की याद आई। ढूंढ़ने पर पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप किए हुए जर्द पन्‍ने मिल गए। मतलब ये कंप्‍यूटर पर टाइप करना शुरू करने से पहले के हैं। ये तब पत्रिकाओं में छपे भी थे। पर वो अंक मेरे पास नहीं हैं। कहां छपे,यह भी याद नहीं है। तब पातर साहब को खत भी लिखा था, पर उनका जवाब नहीं आया। पता नहीं खत उन्‍हें मिला भी या नहीं। अब इन कविताओं का फिर से आनंद लिया जाए। खुशी की बात यह भी है कि  असगर वजाहत साहब ने इन कविताओं के साथ अपने चित्र यहां लगाने की इजाजत मुझे दे दी है।  




4
ग्‍यारह हज़ार रातें

तुम्हारी दीवार पर टंगी चमकती घड़ी
मेरा सूरज नहीं
न तुम्हारे कमरे की छत मेरा आसमान

और मैं सिर्फ यही नहीं
जो तुम्हारे सामने है एक वजूद

तुम नहीं जानते
मैं अकेला नहीं

इस दरवाजे के बाहर खड़ी हैं
उदास पीढ़ियों के खून पर पलीं
मेरी ग्‍यारह हज़ार ज़हर भरी रातें

खूंखार ताकत भरीं

मेरी काली फौज


मेरे इतिहास का क्रोध