असगर वजाहत |
पंजाबी
कवि सुरजीत पातर साहब की इन कविताओं का अनुवाद शायद बीस से ज्यादा ही पुराना है।
पिछले
दिनों कवि अजेय ने व्ट्सऐप पर पातर साहब की कविता सझा की तो मुझे भी अपने
अनुवादों की याद आई। ढूंढ़ने पर पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप किए हुए जर्द पन्ने
मिल गए। मतलब ये कंप्यूटर पर टाइप करना शुरू करने से पहले के हैं। ये तब
पत्रिकाओं में छपे भी थे। पर वो अंक मेरे पास नहीं हैं। कहां छपे,यह भी याद नहीं है। तब पातर
साहब को खत भी लिखा था, पर उनका
जवाब नहीं आया। पता नहीं खत उन्हें मिला भी या नहीं। अब इन कविताओं का फिर से
आनंद लिया जाए। खुशी की बात यह भी है कि असगर वजाहत साहब ने इन कविताओं के साथ अपने चित्र
यहां लगाने की इजाजत मुझे दे दी है।
3
साज़
उसने
और ही साज़ बजाया
महफिल
के एक कोने में से
तांबई
रंग का तपता जगता
सूरज
जैसे चढ़ आया
धुंध
में लिपटे पर्वत देखे
सां
सां बहते पानी देखे
चांदी
रंगे सहरा देखे
उसने
और ही साज़ बजाया
गरड़
गरड़ नक्शत्तर घूमें
पहिए
घूमें
लाख
करोड़ चूड़ियां घूमें
पागलखाना
शोर बुन रहा
जन
जंगल विलाप कर रहा
कुर्बुल
कुर्बुल कोटि करोड़
कृमि
अपना कर्म कर रहे
लाखों
करोड़ों सीढ़ियों वाली
सूनी
दंत दरारों बीच उसने
लगाम
की तरह आवाज को पाया
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