साहित्य कला में ‘कल’ की कलाकारियां
यंत्र का सभ्यता से बहुत पुराना संबंध है। हर युग
में नए-नए यंत्र ईजाद हुए हैं। हमारा जीवन उनसे प्रभावित होता रहा है। यंत्र या
मशीनें जीवन को आरामदेह बनाने के लिए बनती हैं। जब तक प्रकृति, मशीन और मनुष्य का आपस में संतुलन बना रहा, तब तक
कोई समस्या नहीं आई। लेकिन जैसे जैसे या जिस जिस क्षेत्र में मशीनें मनुष्य पर हावी हुईं, हमारे जीवन पर उनका गंभीर असर पड़ा। मशीनों की उपस्थिति से जीवन की
चाल-ढाल, समाज के तौर-तरीके बदलते रहे हैं। यंत्रों या
मशीनों की दखलअंदाजी जब ज्यादा बढ़ने लगी, तभी यह मुहावरा
बना होगा कि जीवन यंत्रवत हो गया।
यह विषय इतना व्यापक और पेचीदा है कि इसके किसी एक
पहलू पर बात करना ही ठीक रहेगा, वरना हम उलझ जाएंगे। सूचना क्रांति
के साथ आए कंप्यूटरीकरण और इंटरनेट ने
साहित्य में कैसे दखलअंदाजी की है, हम इसी को समझने की कोशिश
करेंगे। इसके लिए पिछले वक्तों पर जरा सी नजर डाल ली जाए।
यूं तो छापेखाने ने
साहित्य-लेखन और साहित्य-पाठक संबंध को बदल दिया था। छापेखाने के आने के बाद
उपन्यास जैसी साहित्य की नई विधा आई। पुस्तक की प्रतियां बनाना आसान हो गया। उसके
साथ बाजार जुड़ गया और पुस्तक बिकने लगी। जहां बाजार प्रवेश कर जाता है, अपना रंग
दिखाने लगता है क्योंकि उसके पीछे मुनाफे का जादू काम कर रहा होता है। लोकप्रिय
साहित्य शायद इसी तरह परवान चढ़ा होगा। आज जब हम छापेखाने के प्रभाव को इस तरह
देखते हैं तो यह बहुत ही साधारण बात लगती है। कागज, मुद्रण, पुस्तक, पुस्तकालय हमारे सांस्कृतिक जीवन
में इतने घुलमिल गए हैं कि ये हमें अपने जीवन में अनादि काल से चले आ रहे सुंदर
तोहफे प्रतीत होते हैं। पुस्तक ही क्यों, ललित कलाओं में यंत्र और मशीनों ने गजब का प्रभाव डाला
है। इन्होंने हमारे लिए नया सौंदर्यशास्त्र
रच डाला है। जैसे मूर्तियों का बनाना और उनकी प्रतिकृतियां तैयार करना। चित्रकला
में रंगों, कूचियों, और कैनवस का प्रयोग। संगीत के वाद्ययंत्र। इनकी तो दुनिया ही अलग है। ये
कलाकार के व्यक्तित्व और उसकी मौलिक सृजनशीलता से इस कदर एकमेक हुए रहते हैं कि
हमें ये यंत्र प्रतीत ही नहीं होते। जैसे सरोद, सितार, हारमोनियम, पियानो, सैक्सोफोन अपने आप में यंत्र हैं। विश्व मोहन भट्ट की विचित्र वीणा तो गजब
का आधुनिक वाद्ययंत्र है। लेकिन कलाकार जैसे ही सुर छेड़ता है, वाद्ययंत्र की
सत्ता संगीत लहरियों में पिघलने लग जाती है। इसके अलावा आज हम साउंड सिस्टम के
बिना संगीत सभाओं की कल्पना ही नहीं कर पाते। यही संगीत जब एल पी रिकॉर्ड, कैसेट, सीडी और पेन
ड्राइव के जरिए ‘पुनरुत्पादित’ होता है, तो मशीनीकरण की भूमिका बदल जाती है। संगीतकार के साथ उसका वाद्ययंत्र
संगीतकार के सुर में ढल जाता है। उस संगीत को जनता तक पहुंचाने के लिए रिकॉर्डिंग
आदि के यंत्र तिजारत का हिस्सा बन जाते हैं। यहां मशीन में बाजार प्रवेश कर जाता
है।
इसी तरह रेडियो की तकनीक आई
तो रेडियो नाटक, फीचर जैसी नई विधाएं अस्तित्व में आईं। और हमें अंधा युग जैसा
कालजयी नाटक मिला। प्राय: नाटकों के मंचन में भी प्रकाश, संगीत, दृश्यविधान की बड़ी भूमिका होती है।
यानी आधुनिक नाटक मशीनों से अच्छा खासा घिरा हुआ है। नाटककार और निर्देशक ही नहीं, अभिनेता भी इन
अदृश्य मशीनों से अपनी नाट्य कला में नए नए प्रयोग करते हैं। हालांकि ये बीते
जमाने की बातें हो गई हैं। हम इस तरह से मशीनों के प्रयोग को आत्मसात कर चुके हैं।
यह भी सच्चाई है कि इस तरह के यंत्रों के आगमन से कलाओं में मौलिकता के नए नए आयाम
तो जुड़े ही हैं, रसास्वादन के फलक भी विस्तृत हुए हैं। रिकॉर्डिंग की सुविधा ने कलाओं का
अभिलेखीकरण कर दिया है। वे तात्कालिकता की भंगुरता से निजात पा गईं। दिक् और काल
में भी उनका फैलाव हो गया।
पिछली सदी के अंत में
एल्विन टॉफलर ने बदलते हुए जीवन पर अपनी तीन पुस्तकों से अंगुली रखी थी। उनमें से
एक थी फ्यूचर शॉक। आद्योगिकीकरण से जीवन पर होने वाला असर इस गति से हो रहा था कि
मनुष्य समाज उसके हिसाब से खुद को ढाल ले रहा था। धीरे धीरे मशीनी परिवर्तन की गति
बढ़ने लगी। यह गति ऐसी हो गई कि आदमी झटके खाने लगा। जाहिरा तौर पर दिखता न हो, पर ये झटके
मनुष्य को गुम चोट देने लगे। इलेक्ट्रिक से इलेक्ट्रॉनिक, और टेक्नीकल से टेक्नोलॉजिकल में
परिवर्तन बहुतायत में ही नहीं होने लगा, तेजी से भी होने लगा। रेल, हवाई जहाज के जाल ने भूगोल को
सिकोड़ा था, लेकिन कंप्यूटर और इंटरनेट के आगमन ने जीवन में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया।
हवाई जहाज से भौगोलिक दूरी कम समय में तय होती है, शरीर की घड़ी लड़खड़ाने लगती है।
और हम ‘जेटलैग’ में चले जाते हैं। इंटरनेट और कंप्यूटर की जोड़ी ने पहले तो वास्तविक की
जगह आभासी (एक्चुअल की जगह वर्चुअल) संसार खड़ा किया। दूसरे यह जेटलैग की जगह ‘रीयल टाइम’ में काम करने
लगी। हमारा अधिकांश जीवन, हमारी दैनिक चर्याएं, हमारा कारोबार, पढ़ाई-लिखाई, मनोरंजन इसकी
जद में आ गया। फायदे कई गुणा दिखने लगे। यह जोड़ी हमारे ज्यादा से ज्यादा स्पेस को
घेरने लगी। यह काम तफरीह की तरह या मौज-मस्ती के लिए नहीं होता है। इसके लिए
बिजनेस मॉडल ढाल लिए गए। इसमें अंतर्राष्ट्रीय पूंजी लग गई। यह सर्वसमावेशी मॉडल
बन गया। यह वाला यंत्रीकरण जीवन की रही सही आजादी को लीलने को तैयार बैठा है। अगर
आप लील लिए जाने से बच भी गए तो गुलाम तो बनना ही होगा। कोरोना के बाद
प्रौद्योगिकी की जरूरत कई गुना बढ़ गई है। जो गरीबी, अशिक्षा या जिद के कारण इसके आगे
नतमस्तक नहीं होगा, उसका अस्तित्व खतरे में है।
ऐसे परिदृश्य में साहित्य
की तरफ नजर डालना दिलचस्प होगा। हम जानते ही हैं कि ‘कल’ और ‘कला’ आपस में घुलती मिलती रही है।
छपाई, रंगीन छपाई और सिनेमा जैसे माध्यमों में मशीनों का योगदान अधिक रहा है।
गीता प्रेस गोरखपुर की पुस्तकों और उनकी पत्रिका कल्याण के माध्यम से हमारे देवी
देवताओं की खास तरह की छवियां हमारे जन मानस में बैठीं। लघु चित्रकला पहले से
विद्यमान थी, पर उस शैली की छवियां उतनी लोकप्रिय नहीं हुईं। महादेवी वर्मा के गीतों की
पुस्तक में उनकी बनाई चित्रकृतियां आमने सामने रहकर पाठक को नया चाक्षुष अनुभव
देती हैं। हरिशंकर परसाई की एक रचना है – प्रेमचंद के जूते। यह प्रेमचंद की
उस फोटो को देखकर लिखी गई है, जिसमें प्रेमचंद के फटे हुए जूते दिखाई देते हैं। ‘एक्फ्रेसिस’ यानी एक
कलाकृति से प्रभावित हो कर की गई शब्द रचना के और भी उदाहरण मिलते हैं। विष्णु खरे
की एक मार्मिक कविता है जो एक बीमार स्त्री को ले जाते हुए एक पुरुष के छायाचित्र
पर आधारित है। फोटोग्राफी एक महीन और पेचीदा मशीनी कला है। लिखित साहित्य उसके साथ
कैसे हमकदम होता है, ये इसी बात के उदाहरण हैं। देवी प्रसाद मिश्र की एक लंबी कविता पहल पत्रिका
में छपी थी। यह कविता पन्ने पर कविता की तरह तो है ही, उसके बाएं हाशिए पर भी कवि ने
कुछ लिखा है। उसे उसी तरह छापा गया है। कविता के साथ हाशिए पर नोट लेने की तरह की
इबारत से कविता का चाक्षुष प्रभाव बदल जाता है। पाठक कविता पहले पढ़ेगा या हाशिए
की इबारत?
एक दो बार इधर उधर आवाजाही तो जरूर करेगा। कविता में अपनी बात पर
जोर देने का यह तरीका छापेखाने की प्रूफरीडिंग की याद दिला देता है जिसमें गलतियां,
सुधार आदि हाशिए पर लिखे
जाते हैं। बल्कि यह तरकीब इससे ज्यादा किसी पुस्तक को पढ़ते समय हाशिए पर की गई
टिप्पणी के ज्यादा करीब लगती है। विश्व की दूसरी भाषाओं में ग्राफिक साहित्य (यानी
रेखांकन और वाचिक भाषा का मिला जुला रूप) खूब लिखा जा रहा है। हिंदी में अभी
लेखकों का ध्यान उस तरफ कम ही गया है। अपवाद स्वरूप सदानीरा पत्रिका में कुछ
प्रयोग देखने को मिले हैं। हालांकि आज के दौर के तकनीकी साधनों के जलवे के सामने
ये उदाहरण बहुत ही मासूम से हैं।
यह सच्चाई है कि लेखकों ने कंप्यूटर का काम ज्यादातर
स्मृति वाले टाइपराइटर की तरह ही किया है। अधिकांश पहले कागज पर लिखते हैं, बाद में कंप्यूटर में टाइप करते हैं। कुछ लेखक अब सीधे कंप्यूटर पर टाइप
करने लगे हैं। कुछ तकनीक प्रेमी बोल कर टाइप कर लेते हैं। इस तरह बोल कर लिखी जा
रही रचनाओं का अध्ययन होना चाहिए। अज्ञेय के उपन्यास ‘अपने
अपने अजनबी’ के अलग तरह के डिक्शन के मद्देनजर लोगों ने यह
पता लगाया था कि वह बोल कर लिखवाया गया था।
लगभग एक दशक पहले जब इंटरनेट पर हिंदी में ब्लॉगिंग
शुरु हुई थी तो बहुत से नए लेखक दृश्यपटल पर आए। शुरुआत में इनमें आइटी के
इंजीनियर आदि ज्यादा थे। कुछ विदेश पहुंच गए तो वतन और भाषा की याद में लिखने लगे।
वह एक नई और ताजा सी विधा थी। ब्लॉगिंग में बाद में इतने नौसिखिए लोग आ गए कि सब
धान बाइस पंसेरी हो गए। यहां संपादक नाम की छलनी नहीं थी। आगे नाथ न पीछे पगहा
जैसी हालत हो गई। जिसके जो मन में आया लिखने लगा। ट्विटर, वट्सऐप और फेसबुक के आने पर ब्लॉगिंग पीछे चली गई। ये माध्यम ऐसे हैं कि
यहां हर वक्त नया और ताजा सामान चाहिए। छोटा और चटपटा। देखा, पढ़ा और आगे निकल गए। इन मंचों से एक नई विधा निकली –‘लप्रेक’ यानी लघु प्रेम कहानी। लप्रेक के कई संकलन
पुस्तकाकार भी निकले। पर लप्रेक, दशकों से लिखी जा रही लघु
कहानी से कितनी अलग थी, शोध का विषय है।
ब्लॉगिंग की तुलना में फेसबुक और वट्सऐप के लेखन में
तो और भी खुला खेल फर्रुखाबादी हो गया। यहां बच्चन, प्रेमचंद,
महादेवी के नाम से रचनाएं फारवर्ड होती रहती हैं। यहां फारवर्ड होने
वाली रचनाओं की प्रामाणिकता संदिग्ध होती है।
ये कथित तौर पर खुले, लोकतांत्रिक और
स्वतंत्र मंच हैं। ये ऐसे लगते हैं, असल में हैं नहीं। ‘आर्टीफीशियल इंटैलिजेंस’ नामक की अति महीन ‘कल’ भीतर ही भीतर इन माध्यमों को नियंत्रित, संचालित और निर्देशित करती रहती है। इनके पीछे मिथकीय से प्रतीत होते
विशाल बिजनेस मॉडल हैं। फेसबुक की
कुल संपत्ति 146.437 बिलियन
डॉलर है। ये व्यक्ति के जीवन, उसके मन, उसके अतींद्रिय स्पेस में कितनी घुसपैठ कर रहे हैं, यह अलग ही मुद्दा
है। और उसकी थाह पाना कठिन भी है।
इन माध्यमों ने दिक् काल की
सीमाएं तोड़ी हैं। आप विश्व में कहीं भी हों, सब कुछ तत्काल घटित हो रहा होता
है। भला-बुरा सब कुछ, वहीं का वहीं। एक तरफ, व्यक्ति की वास्तविकता का प्रामाणिक सिद्ध किया जाना
जरूरी होता है, जिसकी वजह से उसकी निजता पर खतरा मंडराता रहता है। दूसरी तरफ, बेनाम, गुमनाम, छद्मनाम, चोर उचक्कों की
भी भरमार है। तथ्य और सत्य की ऐसी-तैसी होती रहती है। केवल उत्तर सत्य बचता है
जिसका सिर पैर किसी को पता नहीं।
ऐसे भ्रामक और भ्रमशील
मंचों पर क्लासिक साहित्य, समकालीन साहित्य और आभासी दौर का नया साहित्य एक साथ चला
रहता है। किसी के लिखे को कौन अपने नाम कर लेता है, कौन किसकी मिट्टी पलीद कर जाता
है, कौन खुद
को महान साबित कर या करवा लेता है, कुछ पता नहीं चलता। कई बार यहां पर साहित्य का होना ही
संदिग्ध प्रतीत होने लगता है।
इस दौर में साहित्य लिखित
शब्द तक सीमित नहीं है। पिछले एक दशक से यूट्यूब ने वीडियो क्रांति ला दी है। आम
दर्शक श्रोता के लिए यह मुफ्त है। पर इसका भी बाकायदा बिजनेस मॉडल है। इसकी
सालाना कमाई 16 से 25 बिलियन डॉलर तक है, मतलब 1600 से 2500
करोड़ डॉलर तक। इसके मालिक यहां वीडियो रखने वाले के साथ अपना लाभ बांटते हैं।
यूट्यूब पर नई पुरानी फिल्में, फिल्मी गैर फिल्मी गीत,
हर तरह का संगीत, नाटक तो मिल ही जाते हैं,
साहित्य भी पर्याप्त मात्रा में है। साहित्य और साहित्य के प्रचारक,
विचारक और टीकाकार यहां मिल जाएंगे। यहां भी गुणवत्ता का कोई
बेली-वारिस नहीं है। यह एक नई तरह का फोक-स्पेस है यानी लोक-चरागाह। सामने से
नि:शुल्क दिखता है, पर आप कारोबार का गुर सीख जाएं तो यह
पैसा भी देता है। यहां शब्द, ध्वनि, संगीत,
दृश्य, वीडियो की मंडी लगी रहती है, वह भी चारों याम। आपके पास हर तीसरे साल स्मार्ट से स्मार्टतर होते फोन
को बदलने और नित्यप्रति डाटा फूंकने के पैसे होने चाहिए।
कोरोना महामारी ने इस परिदृश्य के जल रहे हवन में घी
उढ़ेलने का काम किया है। लोगों का घर से बाहर निकलना बंद हो गया। स्मार्ट फोनों के
जरिए सारी दुनिया नए जोश के साथ आपकी मुट्ठी में आ गई। पिछले कुछ महीनों में
फेसबुक लाइव की जो बाढ़ आई, वह किसी से छिपी नहीं है। अभी तक तो
पुराने लिखे को ही नए माध्यम में पेला जा रहा है, लेकिन धीरे
धीरे ये माध्यम भी साहित्य पर अपना रंग चढ़ा रहे हैं। लिखित और उच्चरित शब्द तथा
वीडियो कैमरे का शगल साहित्य के नए रूपों को गढ़ रहा है। इस दौर में काफी समय तक उच्चरित
शब्द या ऑडियो रिकॉर्डिंग को जगह नहीं मिल रही थी। सोशल मीडिया में कैमरा और
वीडियो कैमरा व्यापकता से फैला। जैसे ईबुक्स और किंडल का बाजार बना, वैसा ही ऑडियो पुस्तकों का भी बाजार अब बन रहा है। बहुत से पॉडकास्ट चलने
लग गए हैं। रेडियो प्रेमी लोगों के लिए यह सहज विकल्प है। हिंदी में अभी इस तरफ
लोगों का ध्यान ज्यादा नहीं गया है। लेकिन नवभारत टाइम्स अखबार ने नवभारत गोल्ड
नाम से गद्य के नए प्रयोग किए हैं। वहां हर पोस्ट ऑडियो रूप में भी उपलब्ध है।
हरेक माध्यम उसके प्रयोक्ता को भी प्रभावित करता है।
ये नए माध्यम हमारे लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी,
चिंतक और विचारक को कैसे
प्रभावित कर रहे हैं और कितना प्रभावित कर रहे हैं और कितना करेंगे, धीरे धीरे पता चलेगा। ये माध्यम जटिल हैं, तकनीक
आधारित हैं, बहुपरतीय हैं, बहुरूपिए
हैं, अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के नवल औजार हैं, बल्कि हथियार कहना चाहिए। इनके सामने खूसट-खुर्राट राज सत्ताएं भी रपट जा
रही हैं। कौन किसकी जासूसी कर रहा है, कौन किसे बेच खा रहा
है, कोई पता नहीं। सत्य और तथ्य दिखता है, हाथ नहीं आता। साहित्यकार को ऐसी आभासी चरागाह जैसी मंडी में रहते हुए
साहित्य रचना है। मुझे लगता है यहां भी कंपनियों के व्यवसाय का स्वॉट (SWOT)
फार्मूला लग जाएगा यानी हमें माध्यम की स्ट्रेंथ (शक्ति), वीकनेस (कमजोरी), ऑपर्च्युनिटी (अवसर) और थ्रेट
(खतरे) की पहचान करनी होगी और अपनी बात अपने दर्शक श्रोता और पाठक तक पहुंचानी
होगी। केवल पाठक नहीं, वह एक साथ दर्शक श्रोता और पाठक तीनों
हो सकता है। जैसे फिल्म में दृश्य चलता है, वह दिखाई और
सुनाई देता है, अगर फिल्म अन्य भाषा की हो तो भावक सब टाइटल
को भी पढ़ता चलता है। अगर दर्शक को अपरिचित भाषा की फिल्म देखने के लिए कई परतों
में मेहनत करनी पड़ती है जैसे देखना, सुनना, पढ़ना, तारतम्य बिठाना, और
रसास्वाद लेना, तो यह सोचिए कि रचनाकार को भी इस बहुविध
माध्यम में अपनी बात कहने के लिए वैसे ही तैयारी करनी होगी जैसे फिल्म बनाने के
लिए की जाती है। एकांत में साहित्य रचा जाता रहेगा, पर
साहित्यकार को ध्वनि, संगीत और विजुअल के लिए और लोगों की
सहायता भी लेनी पड़ेगी। यह एक तरह का सामूहिक रचना कर्म हो जाएगा। हमारी भाषाओं
में भी ये प्रयोग होने लगेंगे, इसमें कोई शक नहीं है। मल्टी
मीडिया रचनाओं के लिए पूरा आसमान खुला है। (ऊपर दी गई चित्रकृति : संजय कुमार श्रीवास्तव)
भारतीय विद्या भवन की मासिक प्रत्रिका नवनीत के जनवरी 2021 विशेषांक 'मशीन होती मनुष्यता' में प्रकाशित
बहुत ही सटीक विश्लेषण।
ReplyDeleteबधाई
धन्यवाद कुशल जी।
Deleteबदलते रचनात्मक परिदृश्य का अक्षरशः सत्य चित्रण!! एक एक बात सही कहीं है!! मैं शब्द ब शब्द सहमत हूँ.🙏
ReplyDeleteसही और सटीक विश्लेषण। कोरोना काल ने तो वास्तविक कवियों , लेखकों और साहित्यकारों, गायकों को कहीं अदृश्य कर दिया लेकिन एक महान कार्य यह कर दिया कि जो मन कर्म वाचा से इन विधाओं से कोसों दूर थे वे उन्हें छद्म वेश में इन मंचों का स्वामी बना दिया। अपने ही परिवार के सदस्यों, मित्रों से वाहवाही लूट कर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने में जुट गए। रंगा सियार। ,"सूर सूर तुलसी शशि, उड़ गन केशवदास, बाकी सब खद्योत सम।
ReplyDeleteखैर, आपके जैसे साहित्यकारों ने हिन्दी साहित्य की समृद्धि को बनाए रखने में निस्वार्थ सेवा का कार्य किया को निस्संदेह वर्तमान और आनेवाली पीढ़ी के लिए मील का पत्थर सिद्ध होगी। इस उत्प्रेरक लेख के लिए अभिनंदन। हमें इसी श्रृंखला में आगामी रचनाओं का इंतज़ार रहेगा।
भट्ट सर, आपका स्नेह अभिभूत कर देता है। मैं प्रयास करता रहूंगा, आप स्नेहसिक्त करते रहिए।
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