मनोज वाजपेयी हमारे समय के एक सशक्त अभिनेता हैं। उन्हें हाल ही में भोंसले फिल्म के लिए सर्वज्ञेष्ठ अभिनेता चुना गया है। इस फिल्म में उनका अभिनय ही नहीं, पूरी फिल्म ही सोचने के लिए भरपूर सामग्री देती है।
दो तीन सिटिंग में सोनी लिव पर ‘भोंसले' फिल्म देखी। इंटरनेट पर ओटीटी का फायदा यह है
कि आप अपनी सुविधा से फिल्म आदि देख सकते हैं। भोंसले बड़ी कठिन फिल्म है। मनोज वाजपेई
की ही फिल्म है यानी मनोज कॉन्स्टेबल भोंसले की मुख्य भूमिका में हैं और शायद सह निर्माता
भी हैं।
कॉन्स्टेबल भोंसले के सेवानिवृत्त होने
की शाम से फिल्म शुरू होती है,
गणपति उत्सव तक चलती है। मराठी मानुस की राजनीति से बजबजाती हुई
फिल्म। हिंदी बनाम मराठी समाज की शरारती राजनीति पर भोंसले फिल्म मारक नैतिक प्रहार
करती है।
भोंसले बहुत ही चुप्पा, अकेला, एकांतवासी, अपने में खोया हुआ, अपनी नौकरी की एक्सटेंशन चाहने वाला गंभीर व्यक्ति है।
भोंसले की चॉल (जो हमारे समाज की तरह जर्जर,
जाले लगी और चौहद्दी में बंद है) में रहने वाली
हिंदी भाषी पड़ोसन लड़की बीमारी में उसकी मदद करती है। अपने घर से हजारों मील दूर अपने
पैरों पर नर्स बनकर खड़ी यह लड़की उसी चॉल के एक वाचाल और महत्वाकांक्षी युवक,
जो मराठी मानुस के नाम पर राजनीति करने की चालें चलता रहता है,
की शिकार हो जाती है। भोंसले इस लड़की के साथ हुए जुर्म का बदला लेने
के लिए अपराधी को पीट-पीटकर मार देता है, खुद भी हृदयाघात से मर जाता है। फिल्म की ये घटनाएं विचलित करती हैं। फिल्म
चॉल के इर्द-गिर्द ही घटित होती है।
तकरीबन सभी दृश्य रात के हैं या अंधेरे
के हैं या रात में रोशनियों के बीच हैं। अगर कहीं दिन या सुबह है भी तो वह भी धूसर
और उदास है। भोंसले की खोली बेहद अंधेरी, जर्जर और उदास है। सारी चॉल ही खस्ताहाल है। सुबह
का एक दृश्य अंत में आता है जब क्रोध से भरा भोंसले सार्वजनिक बाथरूम में अपराधी युवक
को ढूंढ़ने निकलता है।
फिल्म बड़े गहरे धूसर रंगों में फैली है।
कैमरा बहुत ही रूखे यथार्थ को पकड़ता है - दरवाजे, सीढ़ियां,
खिड़की, कौवा, कुत्ता...
कुत्ते का मुड़ा हुआ पैर... भोसले का किचन...।
संगीत और ध्वनियां भी आद्यंत खलबली मचाए
रहती हैं, कर्कश होने की हद तक।
अजीब विडंबना है कि मनुष्यता और नैतिकता
और सच्चाई का पक्षधर भोंसले बीमार है, रिटायर हो चुका है, चौथी अवस्था
के ब्रेन ट्यूमर से ग्रस्त है, ज्यादा जीवन उसके पास नहीं है।
उसके बरक्स राजनीति को अपना पेशा बनाने को उतावला हुआ पड़ा उसी चॉल का एक निवासी टैक्सी
चालक है जिसे सच-झूठ, सही-गलत से कोई मतलब नहीं। ऐसे महत्वाकांक्षी नौजवान से बूढ़ा और बीमार कॉन्स्टेबल
लोहा लेता है। नर्स लड़की में मानवीयता, सरलता और मदद की रोशनी
है पर वह सुरक्षित नहीं है। कठोर और कुत्सित यथार्थ के बीच जीवन की कांपती सी लौ यहां
दिखती है। एक हारी हुई सी परिस्थिति हमारे सामने है कि समाज में फूट डालने का पेशा
अपनाने को लालायित व्यक्ति राजनीतिज्ञों के निकट, ताकतवर,
नौजवान और बड़बोला है। दूसरी तरफ न्याय, समानता,
मनुष्यता, कोमल भावनाओं का पक्ष लेने वाले वृद्ध,
नादान, कमजोर, चुप्पे,
भयभीत और बीमार लोग हैं।
फिल्म के अंतिम दृश्यों में जब भोंसले बदला
ले चुका है और मर चुका है,
गणपति विसर्जन के बाद के दृश्य इस सारे आख्यान को अखिल भुवन में गुंजायमान
कर देते हैं। देवी देवताओं की खंडित प्रतिमाएं रेत में धंसी पड़ी हैं। एक देवता की
मूर्ति पानी में ऊबचूब हो रही है। चटख रंग वाली टूटी हुई मुखाकृति की केवल पलक हवा
के झोंके से हिल रही है। सारे विध्वंस के बीच मानव जीवन का हल्का सा स्फुरण वहां हो
रहा है।
उस तुमुल कोलाहल में भी भोंसले के सांस
की आवाज गूंजती रहती है। भोंसले के भीतर पता नहीं कितना क्रोध और असंतोष जमा हुआ है
कि उसका जबड़ा हमेशा भिंचा रहता है। उसके मुंह से कभी कभी ही कोई बोल फूटता है। वह
प्रायः उदासीन और निरपेक्ष बना रहता है लेकिन तन मन से घायल नर्स को ढांढ़स बंधाते समय
भोंसले के भीतर की सारी ममता करुणा बह निकलती है।
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