यह कहानी 1989 में मधुमति में छपी थी. उन्हीं दिनों एक और कहानी वर्तमान साहित्य में छपी थी. दोनों तकरीबन उससे साल भर पहले साथ साथ ही लिखीं थीं. उन दिनों एक टांग में बहुत दर्द रहता था. बाद में पता चला कि यह साइटिका का दर्द है. पता तब चला जब स्लिप डिस्क हो कर चलना दुश्वार हो गया. यह बात इसलिए याद है कि कहानियां दर्द का झेलते हुए लिखीं पर लिख कर बड़ी ऊर्जा मिली. फिर मकान बदलने के दौर चलते रहे और ये कहानियां गायब हो गईं. पिछले साल मकान बदलने पर प्रकट हो गईं. कुछ और भी कहानियां मन में रही आई हैं पर कागज पर उतरने का सबब अभी तक बना नहीं है.
यह कहानी मास्टर चुनीलाल के बारे में है। मास्टर चुनीलाल ने आजादी के दो साल बाद जन्म लिया, जिला हमीरपुर के एक गांव सासण में। शिवालिक की पहाड़ियों में चीड़ के जंगलों और बांस के झुरमुटों से घिरा उस इलाके के बहुत सारे गांव में से एक, जिन्हें याद रखने की जरूरत कोई महसूस नहीं करता।
गांव में आठ दस टोल थे। दो खतरियों के, तीन चौधरियों झीरों के और दो राजपूतों के। चमारों का एक टोल था गांव से फर्लांग भर बाहर। तकरीबन हर घर में एक भैंस, एक जोडी़ बैल और दो से लेकर दस कनाल तक जमीन।
चुनीलाल ने अपनी तीन दहाई उमर इसी गांव में बिताई है। उसके बाप चौधरी सांईदास के पास जमीन जरा ज्यादा थी, कोई बीस एक कनाल। खतरियों के बाद यही खाता-पीता घर था।
चुनीलाल ने अपने पांचवे साल में स्कूल का मुंह देखा। पांचवी जमात तक बस्ता उठा के दो मील आना जाना करता रहा। उसके बाद हमीरपुर के हाई स्कूल में जाना हुआ। छ: छ: मील का सफर सुबह शाम।
चुनीलाल को कुछ आदतें स्कूल के पहले साल से ही पड़ गई थीं, जैसे जाते हुए अपने बस्ते के साथ कपत्रडे में लिपटी रोटियों की गांठ रास्ते में अपने खेतों में बाप को देते जाना। लौटते हुए मां के साथ घास उठाकर लाना। पहली जमात में था तो एक पूला उठाता था, दसवीं तक पहुंचते-पहुंचते पूरी गड्डी उठाने लगा। पढा़ई के साथ-सुबह शाम के काम साथ-साथ चलते रहे।
तड़के खेतों में जाकर गुडाई करना, हल जोतना, डंगरों के लिए 'पतराह रेड़ना', छुट्टियों में जंगल से लकड़ियां लाना, फसल के दिनों में छुट्टियां लेकर बाप का साथ देना वगैरह वगैरह।
मैट्रिक के बाद चुनीलाल ने धर्मशाला से जेबीटी पास किया। नौकरी के लिए बहुत इंतजार नहीं करना पडा़, दो महीने बाद ही मास्टरी मिल गई। वो भी उसी स्कूल में जहाँ पांचवी तक खुद पढा़ था।
आना जाना बदस्तूर जारी रहा। अब किताबों के बस्ते की जगह गांधी थैले में रोटियों की दो गांठें होतीं। एक अपने लिए एक रास्ते में बाप को देने के लिए। खेतों के सेवा धर्म में भी कोई फर्क नहीं पडा़।
अगले साल चुनीलाल की शादी हो गई। चार मील दूर के गांव की छोटी-सी लड़की अब उसकी मां का हाथ बंटाने लगी। छोटी सी लड़की दो बार मां बनी और उस घर की बड़की कहलाने लगी।
मास्टर चुनीलाल अब बडा़ और जिम्मेदार हो गया। उसका बाप बूढा़ हो गया, हालांकि काम तो करता था पर ज्यादातर हुक्का गुड़गुडा़ता था और कोई भी फैसला चुनीलाल के बिना नहीं लेता। मास्टर का छोटा भाई भी जेबीटी करके सुजानपुर की तरफ लग गया था। बहन की शादी कर दी। और सबसे छोटे भाई रामचन्द्र को मास्टर बी ए करवा रहा है। आगे भी पढा़ना चाहता है। वक्त अब बदल गया है, वो जमाना नहीं रहा कि दसवीं के बाद मास्टर लग जाओ या कहीं बाबू बन जाओ। जमीन इतनी नहीं कि बिना नौकरी के काम चल जाए। कुछ न कुछ ठीहा ढूंढना ही होगा।
चुनीलाल के जमाती भी इधर-उधर खिंड गए है। नौकरी जो न कराए, सो थोडा़। नौकरी का दूसरा नाम पैर में राहू केतू के चक्कर हैं। मास्टर परमात्मा का शुकर मानता है कि बदली कहीं दूर नहीं हुई। अपने ही जिले में वो भी दस मील के दायरे में ही दस साल से जमा हुआ है। खतरियों में रामरतन की बदली शिमला की तरफ कोटखाई में हो गई, सारा घर अस्त व्यस्त हो गया।
देखा जाए तो चुनीलाल की मजे में कट रही है। सुबह पांच बजे उठ जाता है। उठते ही घडा़ उठाकर बौडी़ पर गए, ऊपर झाड़ियों में जंगल पानी हो लिए, साथ में बण की दातून चबाते रहे। बौडी़ के ताजा पानी से नहाए और घडा़ भरके घर पहुंचा दिया। उसके बाद खेतों की तरफ के पेड़ों से पत्ते रेड़ लिए, बलदों भैंसों की सेवा भी बराबर करनी पड़ती है। छोटा भाई भी कभी-कभी पतराह ले आता है, पर मास्टर उसे पढा़ई के लिए ज्यादा से ज्यादा वक्त देना चाहता है। सात बजे चुनीलाल के लिए मक्की की एक रोटी और चाय का एक गिलास तैयार मिलता है। खाना मास्टर आराम से खाता है। रात की दाल तरकारी न भी हो तो कोई फिकर नहीं, चाय में डुबा डुबा के मक्की की रोटी स्वाद देती है। अपने पांच साल के बेटे को उसने सिखा रखा है, बच्चू ए क्या ऐे? वो थूक निगलते हुए बताता है, बसंती बिस्कुट। खाना खत्म होते-होते स्कूल की रोटी बंध जाती है। डिब्बों में रोटियां ले जाने का फैशन मास्टर को बिल्कुल पसन्द नहीं है। कचालू या टौरया के पत्ते में लिपटी और कपडे़ में बंधी रोटी नरम रहती है। उसके दिन के खाने में चार बटूरू यानी मोटी मोटी खमीरी रोटियां होती हैं। साथ में कभी आम का अचार और प्याज की गांठ, कभी तुड़का हुआ नया प्याज और कभी आलू की कचरियां।
मास्टर चुनीलाल साढे़ सात बजे पेंट कमीज खोंसकर थैला लटकाकर घर से निकल जाता है। कोई डेढ़ मील चलने के बाद हट्टियों में पहुंचता है। यहां सड़क है जो नादौन-हमीरपुर को जोड़ती है। दो चार दुकानें हैं, चाय, मिठाई, सिगरेट, किराना और थोडा़ बहुत कपडा़। एक मशीन है, साल भर पहले तक डीजल से चलती थी, आटा चक्की, धान कुटाई, पिंजण कोल्हू आरा वगैरह। अब बिजली आ गई है पर मशीन के चलने का मजा डीजल की कुक कुक से ही आता है। दो मील दूर से पता जल जाता है, पाधे की मशीन चल पडी़।
मास्टर चुनीलाल जलाडी़ के हाई स्कूल में लगा हुआ है। हट्टियों में बस मिल जाती है, बीस से तीस मिनट लगते हैं। हमीरपुर चंडीगढ़ बस मिल गई तो बीस मिनट, और अगर प्राइवेट मिली नादौन या ज्वालाजी तक जाने वाली तो पड़ गया पीठ पर आधा घंटा। हर मोड़ पर जनौर हाथ उठा देते हैं और कलींडर बकरियों की तरह सवारियां लाद लेता है। सुबह तो फिर भी गनीमत शाम को लौटते हुए तेल निकल जाता है।
मास्टर सुबह जाता है, शाम को लौट आता है। पांचवी तक के बच्चों को हिन्दी, गणित, समाजशास्त्र विज्ञान आदि पढा़ देता है। न पढ़ने वालों में खास रुचि न मास्टर ने कभी पाठ के अलावा कुछ खास सोचा। प्रार्थना के बाद दो जमातें पढा़ईं, तफरीह में खाना खाया पानी पीया फिर दो जमातें और पढा़ईं। स्कूल में मास्टर चाय कम ही पीता है। लौट के कभी हट्टियों में गप्प लगाने बैठ गया तो पी ली। जिस दिन तनख्वाह मिलती है उस दिन हट्टी से जलेबियां जरूर खरीदता है। बाकी अपने काम से काम। न किसी के लेने दो न देने चार। न चादर से बाहर पैर पसारो न नंगे होने का डर। बिना वजह सोच-सोचकर दिमाग खपाने की आदत भी मास्टर को नहीं है।
सिधाई, भलमनसाहत और मौजीपन के अवतार मास्टर चुनीलाल एक चक्कर में पड़कर अपनी नींद हराम कर बैठे। साढे़सती बैठे बिठाए ही आती है। शिव भोले तक को धूल पुतवा के धूल ही के ढेर पे बिठा दिया था शनीचर ने। यह तो मास्टर चुनीलाल है। आ गया फेर में।
एक दिन स्कूल पहुंचते ही पता चला एक नया मास्टर आया है, रंजीत कुमार मल्होत्रा एम.ए. बीएड. खास चंडीगढ़ का रहने वाला है। सोचने की बात है भला जलाडी़ जैसे गांव देहात में क्यों आ गया। चुनीलाल को खतरियों के रामरतन की याद आई। ये भी बदलियों के चक्कर में राहू केतू के घस्से चढा़ है।
शहर के लोगों की फूं-फां चुनीलाल को कभी पसंद नहीं आई। इस गांव के स्कूल में रह गया बच्चू साल भर भी तो सारी अकड़ निकल जाएगी। मास्टर को चैन पडा़। वह मल्होत्रा से मिला नहीं।
स्कूल की दो इमारतें हैं। एक मैदान के साथ लगी दो कमरों और बरामदे वाली और दूसरी मैदान से ऊपर। चुनीलाल निचली इमारत में पढा़ता है। हैडमास्टर का कमरा, स्कूल का दफ्तर और बाकी क्लासों के कमरे ऊपर की इमारत में हैं।
दूसरे दिन प्रार्थना के बाद पहली जमात को कायदा रटाने के लिए मास्टर बरामदे में बैठा। थोडी़ देर बाद मैदान के ऊपर की इमारत को जाती सीढ़ियों पर उसकी नजर गई। एक अनजान आदमी बडे़ अंदाज से खडा़ था। एक पैर सीढी़ पर दूसरा सीढ़ियों की बन्नी पर। पीठ आगे को झुकी हुई, ठोडी़ हथेली पर और कोहनी घुटने पर टिकी हुई। चुनीलाल एकटक देखता रह गया। गाढी़ नीली पेंट, फीकी गुलाबी बारीक धारीदार कमीज, कमर में नई नकोर पेटी चमकती हुई। जूते धूप में लश्कारा मार रहे थे। चुनीलाल को फिल्म का नजारा याद आ गया जो उसने जे बी टी करते हुए देखी थी। हीरो ऐसी ही अदा से खडा़ था और दूर-दूर तक हरे भरे खेत और नीला आसमान फैला हुआ था।
मंत्रमुग्ध चुनीलाल उठ खडा़ हुआ। दो चार कदम बरामदे के बाहर निकल आया। हाथों में कुछ रड़का। उसने गर्दन झुकाई, कायदा था। वह लौट आया और जोर-जोर से बोलने लगा - अ-अनार, आ-आलू। इ-इमली, ई-ईख।
लड़के जोर की आवाज से चौंक पडे़ और जोश के साथ कायदा दोहराने लगे। चुनीलाल ने सिर उठा के देखा, हीरो उसी की जमात को देख रहा था। मास्टर झेंप गया और फिर से पढा़ने की कोशिश करने लगा। अब सिर उठाने की हिम्मत नहीं हुई। उसे लगा जैसे हीरो पीठ के पीछे आ खडा़ हुआ है और वो हकलाने लग गया। उसने कायदा बंद कर दिया। खीझ से बोला - गल्त क्यों पढ़ रहे हो। बोलो जो मैंने पढा़या। बच्चे अ-अनार आ-आलू दोहराने लगे।
मास्टर को थोडी़ राहत मिली। उसने मुड़ के देखा। पीठ के पीछे कोई नहीं था पर आदमी ने सीढ़ियां उतर कर आधा मैदान पार कर लिया था। वह जैसे उसी की तरफ बढा़ आ रहा था। चुनीलाल झटके से उठ खडा़ हुआ और बरामदे के किनारे तक आ के जैसे आदमी के आने का इंतजार करने लगा। आदमी बढा़ चला आ रहा था, मास्टर को लगा वो उठा क्यों और यहां तक क्यों आया। अब कुछ नहीं किया जा सकता था। आदमी के पास पहुंचने पर उसकी पतली सी आवाज निकलते निकलते अटक गई।
आर. के. मल्होत्रा। मिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ आया था। साफ लकदक हाथ चुनीलाल के सामने था। एक ऊंगली में पीले नग वाली अंगूठी चमक रही थी।
चुनीलाल को समझ नहीं आया, क्या कैसे करे। उसके हाथ में कायदा था। उसी के साथ कायदे को निचोड़ते हुए दोनों हाथों से मल्होत्रा के हाथ को दबोच लिया- हं..हं... मैं चुनीलाल.......चु.लाल...नहीं... सी. एल. चौधरी।
-यहीं जी। गांव सासण डाकखाना झन्यारी देवी तसील जिला हमीरपुर
-इस जगह का नाम तो जलाडी़ है न।
-हांजी। नहीं हमारी हट्टियाँ यहां से कोई दस मील दूर हैं, हमीरपुर से चार मील पहले।
दो तीन लड़के कायदा छोड़ के मास्टरों के पास आ खडे़ हुए। चुनीलाल ने घुड़क दिया। यहां क्यों मेला लगा रहे हो। कायदा रटने में मौत पड़ती है? चलो बैठो अपनी जगह पे। चलो, नहीं तो लेता हूं अभी तुम्हारी खबर।
-लड़के जा कर अपनी-अपनी टाटों पर दुबक गए।
-ठीक है पढा़ईए आप। फिर मिलते हैं। कह के मल्होत्रा पीछे मुडा़ और चला गया।
-जी अच्छा। चुनीलाल को यह स्वर अपने भीतर सुनाई दिया। वो मल्होत्रा को लौटते हुए देखता रहा। कैसे चकाचक कपडे़ हैं प्रेस किये हुए कहीं कोई सलवट नहीं। चलता भी वैसे ही है... टक टक। गिन गिन के पैर रख रहा हो जैसे। चुनीलाल ने जब हाथ मिलाया था। खुशबू का झोंका उड़ता हुआ उसकी तरफ आया था। अभी तक हाथ में मुस्क लगी हुई थी। उसने लम्बी सांस ली। कैसे-कैसे इतर फुलेल आ गए दुनिया में।
चुनीलाल मुडा़, पेंट के बाहर झूल रही कमीज को खींचकर सीधा किया और कुर्सी तक वैसे ही आया टक-टक। पर उसके पैरों में न लश्कारा है न टक टक। फच्च से कुर्सी पर बैठकर कायदा खोला- पढो़ आगे उ-उल्लू... ऊ ऊंट ...
शाम को मास्टर घर पहुंचा तो थकावट ज्यादा हो रही थी। पेंट कमीज उतार कर खूंटी पर टांगी और कुछ चिर देखता रहा। पोलिएस्टर को नीली छींट वाली सफेद कमीज मटमैली हो गई थी कपडा़ छीजने लगा था और पीठ पर आडी़ तिरछी झुर्रियां पडी़ थीं। पिछला पल्ला तो नीचे से बत्तीनुमा ही हो रहा था। आंखों में मल्होत्रा की चमचम छवि छाने लगी। उसने जबरन ध्यान हटाया और सलवटें ठीक करने लगा। नाखूनों से पकड़ कर पिछले पल्ले को खींचता। कपडा़ छूटते ही फिर गोल हो जाता। चुनीलाल का जी सूखने लगा पर सलवटें कम नहीं हुईं। उसने कपड़ों पर से नजर हटा ली। फौजी रंग की पेंट क्या बोलती है उसने नहीं सुना।
रसोई में जाकर पानी का लोटा भरा और बाहर आंगन के कोने में पत्थर चौकी पर ओंधा खडा़ हो के आंखों पर पानी के छपाके मारने लगा।
वह रोज रात को खाना खाते हुए अम्मा से गप्प लगाता था और सोने से पहले डंगरों को घास डालता था। उस दिन 'ढूण मदूणा' गुमसुम। चुपचाप खाना खाया और बरामदे में रखे कोंच पर आकर बैठ गया। घरवालों ने उस पर खास ध्यान नहीं दिया, उसने भी नहीं चाहा कोई कुछ पूछे। पत्नी को कह दिया कि डंगरों को देख आए। मास्टर उंगलियां चटखाने लगा। पैरों की उंगलियों के भी कडा़के निकाले। एड़ियों को छुआ तो खुरदुराहट महसूस हुई। हाथों को देखा। वे तो ठीक हैं। समझ गया बिवाइयां पैरों में है। उसे अपनी तीन साल पुरानी सैंडिलें दिखने लगीं। कानों में मल्होत्रा की टक टक गूंजने लगी।
उदासी में डूबता हुआ चुनीलाल ओबरी से अपना बिस्तर उठा लाया। मास्टर बारहों महीने कोंच पर ही सोता है। वह लेट तो गया पर सारे घर को नींद की चुप्पी में समाते देखता रहा। उसका जी अभी भी बैठ रहा था, भीतर कुछ कुलबुला रहा था और नींद नहीं आ रही थी। काफी देर निश्चल पडा़ रहा।
रहा नहीं गया तो उठ बैठा। सारा घर सुनसान पडा़ था। हल्के पैरों से अंदर गया और कमीज पेंट को खूंटी से उतार लाया। कोंच के नीचे रखे लोटे का पानी बरामदे के कोने में उडे़ला, और रसोई में चूल्हे के पास गया। अंगार बुझ गए थे, लोटा गर्म नहीं हो सकता था। चूल्हे की धूल में ही उसने लोटा दबा दिया और गर्म होने का इंतजार करने लगा। बरामदे में लौटकर कमीज को खुला बिछाया और लोटे को अंदर से लाकर इस्त्री की तरह फेरने लगा। सलवटें शायद ठीक हो गई होंगी, अंधेरे में कुछ पता नहीं चला पर पीठ पीछे की बत्ती वैसे ही बटी हुई है। उसने धीरे से लोटा नीचे रखा और कमीज को तहाया। फिर पेंट की तह लगाई और बिस्तर के नीचे सिरहाने की तरफ सहेज कर दोनों कपड़ों को रख लिया। मास्टर चुनीलाल उसके बाद सो गया।
वह सुबह नित्य प्रति की तरह उठा। घडे़ के साथ पीतल का डोल भी साथ लिया तेल की शीशी और साबुन की डब्बी उसमें डाली। बौत्रडी पर मास्टर ने बत्रडे प्रेम से तेल मालिश की। साबुन का झाग फुला फुलाकर देह को मला और नहाया।
ताजगी, मस्ती और अनजानी मुस्कुराहट के साथ उसने बसंती बिस्कुट खाए। बरामदे में कौंच की तरफ झांका, बिस्तर उठा लिया गया था। उसके पेट में छलाक सी हुई। रोटी चबाते हुए पूछा- बिस्तरा किसने उठाया।
चूल्हे के बगल में बैठी हुई पत्नी ने हां में सिर हिलाया।
-सरहाने कपडे़ रखे थे
-अन्दर टांग दिए हैं
मास्टर खाते हुए ही उठ के गया। कमरे में कपडे़ टंग रहे थे बिल्कुल कल की तरह। रात की इस्त्री का कोई असर नहीं हुआ था। उसने छोटे भाई को पुकारा-राम चन्दा, जा खतरियों से रति लोहा मांग ला। और कपड़ों पर फेर दे जरा ला के।
रामचन्द पिछवाडे़ से निकल आया, आज क्या है, कोई फंक्शन है?
ऐसे नीं पैन सकते क्या प्रेस किए हुए कपडे़?
रामचन्द बडे़ भाई का मुंह देखता रहा। आज बात क्या है रगड़ रगड़ के दाढी़ बनी है, तेल से बाल और मुंह चमक रहे हैं। पर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई
-जा अब देख क्या रहा है!
रामचन्द दुलकी चाल चाल से आंगन पार कर गया। गर्दन पर लम्बे बांबरू उछल रहे थे। मास्टर को आज पहली बार छोटे भाई के लम्बे बाल बुरे नहीं लगे। अपनी गर्दन पर हाथ गया एकदम सफाचट फौजीकट हथेली पर कड़वे तेल की चिकनाहट चिपक गई।
रसोई में आकर मास्टर ने रोटियां अपने सामने बंधवाई, आम की दो फाकड़ियां और रख और प्याज को भी छील कर रख।
-आलू की कचरियां है आज
-तो क्या हुआ, कचरियों के साथ नीं खा सकते अचार
पत्नी मुंह बना के रोटियां बांधने लगी। उसे जब किसी बात पर हैरानी होती है तो नीचे का ओंठ बांई ओर को बिचक जाता है।
-सकलें क्यों बना रही है, ला दे मैं अप्पू बन्ह लैंगा।
घर से निकला तो मास्टर वाकई चमक रहा था पर देर हो गई थी। हांफते हुए कुआली चढी़ और बस की गूंज सुनाई पड़ गई। सरपट भागता हुआ सड़क पर पहुंच गया। शुकर है, बस अभी निकली नहीं थी। माथे और गर्दन पर पसीना आ गया था। मास्टर को याद आया आज रूमाल होना चाहिए था जेब में। खैर आस्तीन ने चला दिया काम।
बस में भीड़ कुछ ज्यादा थी, बच-बच के खडा़ रहा मास्टर। थोडी़ देर बाद बैठने को जगह निकल भी आई पर मास्टर ने खडे़ रहकर कपड़ों की हिफाजत करना ठीक समझा।
स्कूल के सामने बस रुकी, चुनीलाल नीचे उतरा। पीछे से एक हाथ उसके कंधे पर हौले से आ टिका। उसने मुड़कर देखा और बिजली जैसी सनसनाहट कंधे से पैर की एडी़ तक दहलती हुई गुजर गई। चुनीलाल थथला पडा़ - राम राम.. नमस्ते मा.. स्साब
-ये मास्साब मास्साब क्या बोलते हो यार चौधरी?
मल्होत्रा ने मुस्कुराते हुए थोडा़ पोज दिया। चुनीलाल का मुंह बिचक गया।
-चलो अब स्कूल नहीं जाना है?
दोनों साथ साथ चल पडे़। चुनीलाल ने थैले की तनी को पकड़ लिया और कुएं की डोर की तरह खींचने छोड़ने लगा। उसने कनखियों, से देखा, मल्होत्रा नीली जीन के ऊपर असमानी रंग की मोटी सूती शर्ट पहन के आया था। सिगरेट की डब्बी से एक जेब फूल रही थी ऊपर पैन का ढक्कन चमक रहा था। दूसरी जेब में धूप का चश्मा था। चुनीलाल को अपने भाई की जीन कभी पसंद नहीं आई, पर अभी ये कपडे़ अच्छे लग रहे थे। उसे अपनी कमीज याद आ गई और वो झोले की तनी को छोड़कर कमीज के पिछवाडे़ को नीचे खींचने लगा। मुडा़ हुआ कपडा़ हाथ में आ गया, उसे और वो नीचे खींचने लगा। उसे लगा वो नंगा हो गया है। वो मल्होत्रा से एक कदम पीछे चलने लगा।
-यार ये थैला टांग के चलते हो, भर क्या रखा है इसमें
-जी? ऐसे ई कुछ नहीं
-यार चौधरी, पुराने आदमी हो...
-जी
-जी जी.. क्या ? मल्होत्रा बोले। कोई मुझे जी जी या मास्साब कहकर बुलाए तो लगता है अब काम के नहीं रहे, बूढे़ हो गए।
अपनी ही बात पर मुग्ध होकर मल्होत्रा ने अपने बालों को पीछे सरकाया, चश्मा निकाल कर छाती पर रगडा़ और आंखों को ढंक लिया।
-बताया नहीं भई, क्या है झोले में। गांधी डायरी तो नहीं रखते।
-नई डायरी क्यों.......रोटी
-अच्छा अच्छा
-आप नीं खाते दिन में रोटी?
-मैं दिन में? नहीं नहीं
-भूख नहीं लगती?
-भूख क्यों लगेगी? सुबह नाश्ता करके आता हूं। ब्रेड आमलेट का।
-तभी। तभी नहीं लगती भूख। डबलरोटी खाते हैं न। पेट खराब करती है। और चाय बस काम तमाम
- तो तुम ब्रेड नहीं खाते
-नई
-चाय? चाय भी नहीं? पक्के महात्मा गांधी हो यार।
-नई। चाय सुबह एक बार। बस
-शुकर है चाय तो पीते हो।
-...आज हमारी ... रोटी खा के.... चुनीलाल ने झिझकते हुए कहा
-नहीं नहीं यार फिर कभी सही।
-ओ खाके तो देखो एक बार।
जोश में आ गया मास्टर
-हमारे बटूरुओं के आगे आपकी डबलरोटी क्या चीज है?
-अच्छा ऐसी बात है। तो ठीक है आज हो जाए।
तफरीह में चुनीलाल मल्होत्रा को स्कूल के सामने सड़क किनारे की दुकान पर ले गया। मल्होत्रा ने हिकारत भरी नजर से दुकान का मुआइना किया। दो लम्बे बेंचों के बीच लम्बी मेज लगी थी। सभी चीजों पर काली चीकट परत चढी़ हुई थी। सिर्फ बेंचों की सीटें बैठ बैठ कर घिस गई थीं और लकडी़ का असली रंग चमक रहा था। दुकान के अन्दर दो सीढ़ियां चढ़ के जाना पड़ता था। सीढ़ियों के एक तरफ भट्ठी जल रही थी, पीछे काली कडा़ही में दूध और आगे उसी तरह के काले पतीले में चाय बन रही थी। भट्ठी के सामने लाला बैठा था, अपनी देह से बेखबर। तोंद और दो पीले दांत बाहर लुढ़क रहे थे। दुकान में व्याप्त काली चिकनाई उसकी कमीज और पट्टीदार पजामे पर भी चिपकी थी। सिर के थोडे़ ही बाकी बचे बाल लाला की देह से बेखबर अपने में ही उलझे हुए थे। पीछे एक अल्मारी थी जिसके अन्दर बेसन की बर्फी, लड्डू, मठरी, सेइंया और शकरपारे के थाल थे। सीढ़ियों के दूसरी तरफ पानी से भरी लोहे की बाल्टी और एक तसला रखा था।
-आओ बैठो मल्होत्रा साब। मास्टर ने ध्यान भंग किया
-हां ठीक है ठीक है। मल्होत्रा बेंच के एक कोने पर टिक गया।
चुनीलाल ने बडे़ इत्मीनान से थैले में से रोटी की गांठ निकाली। मल्होत्रा का चेहरा बदलने लगा पर वो देखता रहा। गंधाते हुए परने के अन्दर बडा़ सा लिजगुज हरा पत्ता, उसमें एक, दो, तीन, चार रोटियां तवे की जितनी बडी़। चुनीलाल ने दो रोटियां उठा कर मल्होत्रा की तरफ रख दीं। नीचे आलू के पिचे हुए टुकडे़, आम के अचार की बडी़ बडी़ फांकें और प्याज की एक गांठ। पांचों उंगलियों से आधे आलू उठाकर मल्होत्रा की रोटियों पर रखे, एक फांक रखी, प्याज की गांठ पर हथेली के पिछले हिस्से से मुक्का मारा। प्याज पिचक गया। उसके भी दो हिस्से बांट लिए। बोलने ही जा रहा था लो मास्साब छको कि मल्होत्रा हैरानी से बोल पडा़- इतनी रोटियां तुम रोज अकेले खा जाते हो?
मास्टर चुनीलाल मल्होत्रा की फटी हुई आंखों को देखकर मतलब समझने की कोशिश करने लगा।
-नहीं मेरा मतलब है... मल्होत्रा को समझ नहीं आया तपाक से निकली इस प्रतिक्रिया की सफाई कैसे दे। चुनीलाल ने सहज भाव से कहा-
-हां हां रोज। सबेरे बसंती बिस्कुट और रात को दाल भात के साथ एक मक्की की रोटी।
-ये बसंती बिस्कुट क्या होता है? मल्होत्रा ने सहज होना चाहा। चुनीलाल का होंसला बढ़ गया, मक्की की रोटी और क्या?
-वो भी इतनी ही बडी़ होती है
-इससे थोडी़ और बडी़। आपने खाई है कभी छल्ली की रोटी? कल ले के आऊंगा।
-नहीं नहीं मैं ठीक हूं। मतलब तकलीफ क्यों करोगे?
-तकलीफ क्या जी। रोटी में क्या तकलीफ... लो शुरु करो।
-मैं तो चौधरी इतना नहीं खा पाऊंगा। मल्होत्रा ने आधी रोटी काट के रख ली बाकी चुनीलाल की तरफ सरका दी।
-डबल रोटियां खा-खा के पेट बुज हो गया है आपका। वो पेट में बझ जाती है।
-क्या?
-मतलब पचती नहीं ठीक से। ये खाओ और बौडी़ का ठंडा पानी पीओ। लाला पानी देना जरा। सब पच जाएगा।
-नहीं नहीं तुम खाओ। मेरे लिए काफी है। मल्होत्रा ने चौधरी के रोटी देते हाथ रोक दिए।
-चुनीलाल मोटे मोटे गस्सों के साथ प्याज की करच करच करने लगा। अस्मंजस में पडे़ मल्होत्रा ने आखिर एक टुकडा़ तोड़कर मुंह में रखा।
-आप तो चिड़ियों की तरह चुगते हो जी।
-ऐसी जल्दी क्या है, खा के बोल लो। मल्होत्रा ने उबकाई को बोलने के साथ झेल लिया और बाकी रोटी वापिस सरका दी।
-बुरा मत मानना... मैं चाय पीऊंगा
-मल्होत्रा साब एक साल भी रह गए इधर तो सीख जाओगे हमारी तरह खाना।
-छोडो़ यार
-तो आप ऐसे करो, पकौडे़ खा लो। लाला पा पक्के पकौडे़ तोल दे।
-नहीं नहीं मुझे कुछ नहीं खाना। मैं निकल रहा हूं, तुम खाके आ जाना। मल्होत्रा तपाक से उठ के दुकान से बाहर आ गया।
-ओ मास्साब ऐसे कहां भाग रहे हो। आधा बटूरू तो आपने लिया, उसे भी छोड़ दिया। और मत लेना इसे तो खाते जाओ। चुनीलाल रोटी के टुकडे़ को हथेली पर रखकर पीछे पीछे निकला। - अन्न का अनादर नी करते मास्साब। लो खालो।
-क्या मासाब मासाब लगा रखी है। कहकर वह एक कदम और आगे बढ़ गया।
चुनीलाल ने हंसते हुए बांह पकड़ ली। -मल्होत्रा साब हो तो मास्टर ही न वो भी जलाडी़ स्कूल के?
इस हरकत से मल्होत्रा तिलमिला उठा- क्या कर रहे हो? तुम्हें अक्ल नहीं है... सारी कमीज खराब कर दी। चुनीलाल ठिठक गया। मल्होत्रा बड़बडा़ता रहा- कैसे जाहिल लोग हैं। न खाने का शऊर न बात करने का तरीका...
मास्टर चुनीलाल का चेहरा फक्क पड़ गया। उसने मल्होत्रा को जाने दिया। लाला उठ खडा़ हुआ था। दूर दो चार स्कूल के बच्चे भी शोर सुनकर देखने लगे थे।
चुनीलाल दुकान में लौटा। सारी रोटियां कपडे़ में लपेटीं... एक के बाद एक कई गांठें लगाता चला गया। बस की गूंज उसके कानों में पडी़, वो सड़क पर उतर आया।
अपनी हट्टियों से एक मोड़ पहले ही बस से उतर गया मास्टर और जंगल के रास्ते घर को चल पडा़। न जाने क्या क्या सोचता कच्ची सड़क पर धमाक धमाक पैर पटकता चुनीलाल चला जा रहा था। चीड़ के पत्ते हवा के साथ मिल कर सीटियां बजा रहे थे और जंगल सुन रहा था। चुनीलाल के दिमाग में भी कोहराम मचा हुआ था और सांय-सांय कानों से बाहर निकल रही थी। कोई मील भर वो जंगल और दिमाग के बीच ऐसे ही भटकता रहा।
एक ऊंचा सा मोड़ लांघ के ढलान पर कोई फर्लांग भर दूर उसने देखा एक बच्चा एक बछडे़ के पीछे भाग रहा था। बछडा़ बच्चे से बेकाबू हो रहा था और बाड़ को फलांग कर खेतों में जा घुसा। मास्टर ने दोनों को पहचान लिया, बच्चा उसी का था और बछडा़ भी। साल भर का है पर हद दर्जे का शैतान। मास्टर सरपट दौड़ पडा़। उसने शहतूत की टहनी बच्चे के हाथ से ली और बछडे़ के पीछे भागा।
बछडा़ मास्टर की आवाज और गंध पहचान कर रुक गया। मास्टर ने दस पन्द्रह सोटियां उसकी पीठ पर उपेड़ दीं। जी जरा हल्का हुआ।
मास्टर ने रोटियां निकालीं और बछडे़ के मुंह के आगे बिखरा दीं।
-ले खा। देखता क्या है, पैहले नीं खाई तूने रोटी ?
मास्टर की ऊंची आवाज सुनकर बछडा़ बिदका।
-जा कहाँ रहा है। सुना नई। खा चंडीगढ़ जा के डबलरोटी खाएगा? ले खा।
और सटाक सटाक आवाज जंगल की सीटियों से एकमएक होने लगी।
चुनीलाल गांव के बाहर पीपल के पास पहुंचा तो उसे एहसास हुआ अभी तो सूरज भी नहीं डूबा बल्कि अच्छी धूप चमक रही है। कोई चार बजे होंगे। पहली बार स्कूल से बिना बताए चला आया। अब कल को पूछेगा हैडमास्टर । पेट खराब हो गया, जाना पडा़ क्या किया जाए? जवाब तो कुछ देना ही पडे़गा। पेट खराब हो शहरियों का। बडा़ आया मल्होत्रा। शहरी बाबू खाए खसमां को। समझता क्या है अपने आप को। समझता रहे। हमने क्या लेना देना। हमारी नीं बैठ सकती पटडी़ ऐसे नफीसों से। छोडो़ जी, जो अपनी रास का नई उससे आस भी क्या करनी।
मास्टर अपने घर न जाकर सरपंच के घर की ओर बढ़ गया। जरा देर गपशप ही हो जाए आज। सरपंच का एक बेटा फौज में है। आजकल छुट्टी आया है दो महीने की। आंगन में पहुंचा तो मास्टर रामरतन भी बैठा था। बरामदे में मंजे पर चुनीलाल भी जा बैठा। सरपंच का भाई श्रीलंका रह आया है। टाइगरों के किस्से सुनाता रहा। बडे़ जबर लोग थे उनकी जनानियां भी कमर में कारतूसों की पेटियां बांध के घूमती थीं। रामरतन ने अपनी कोटखाई के हाल सुनाए। चुनीलाल के पेट में भी हौल सा पड़ रहा था, सो शहरी मास्टर की करतूत कह सुनाई।
लौटते हुए मास्टर ने महसूस किया, जी अब ठीक है। कोई मलाल बाकी नहीं। शाम के झुटपुटे में पहचाने हुए रास्तों पर लापरवाही से पैर पटकता मास्टर घर पहुंच गया।
रोज की तरह रात को दोनों भाई खाना खाने बैठे। मां परोस रही थी। पत्नी रोटियां पका रही थी। उसने रोटी तवे से उतारकर चूल्हे के किनारे अंगारों पर सिकने के लिए रखी। रोटी फूलने लगी। चुनीलाल का बेटा चिल्ला पडा़- फुल्ल गई, फुल्ल गई! आज किसे लगी है भूख सबसे ज्यादा?
मां ने फूली हुई रोटी की धूल झाडी़ और चुनीलाल की थाली में रख दी- तेरे बाप को लगी होनी है।
चुनीलाल जो बच्चे की बात से मुस्कुरा रहा था, मां को देखने लगा। फिर उसने रोटी को ताका, नईं नईं मुझे भूख नईं है और रोटी उठाकर मां को देने लगा।
-क्यों क्या हो गया, तुझे तो माह चने की दाल के साथ छल्ली की रोटी बडी़ पसन्द है ?
-हां है पसन्द, पर आज भूख नईं है।
-सरपंचों के यहां खा आया क्या कुछ?
-स्कूल में कोई पार्टी शार्टी हुई होगी। भाई ने सुबह की तैयारी और इस्तरी को याद करते हुए चुटकी ली।
-नईं...हां...बस... और नईं चाहिए। मां को मना करने के बाद उसने भाई के चेहरे को देखा।
-चुनीलाल का पेट फूलने लगा। भात गले के अन्दर न जाए। किसी तरह ठूंसने की कोशिश करता रहा। आखिर रुक ही गया, बोला- कितना खाते हैं हम लोग न, भैंसों की तरह। सेर सेर भर भत्त और.......
क्या बोल रहा है तू। जितनी भूख होगी उतनी ही तो खाएगा कोई। मां चुनीलाल की बात से हैरान हो रही थी।
-नई नई पेट तो रबड़ की पोटली जैसा होता है जितना चाहे गड़प्प कर लो।
-ए बी कोई बात हुई मुझे पता है तेरी पोटली कितनी बडी़ है। एक रोटी खा ले चुपचाप। माँ ने रोटी वापिस थाली में रख दी।
चुनीलाल की आंखें डबडबा आईं। वो फटाफट उठके चले में गया और कुल्ला करके बरामदे को निकल आया।
-लो बापू दादी ने गुड़ दिया। पीछे पीछे उसका बेटा गुड़ का ढेला पकड़ कर ले आया।
-अभी नई खाना कुछ मैंने। जा अन्दर रख दे। बाद में खा लूंगा।
रात को कई करवटें चुनीलाल ने बदलीं। बेचैनी सी हो रही थी। बात समझ न आए। थोडी़ देर बाद रसोई में गया। गुड़ का ढेला नहीं मिला। डब्बा खोल के निकालने की हिम्मत नहीं हुई। लौट आया। कौंच के नीचे से उठा के पानी पिया। सारा लोटा उसने घटक लिया। ठंडी लकीरें छाती से उतरती गईं।
फिर छाती पर हाथ रख के लेट गया मास्टर। आसमान उजला सा हो रहा था। तारे टिमटिमा रहे थे। वो सप्तॠषियों को ढूंढने लगा। उसके बाद एक तारे पर नजर टिका ली। एकटक। यह सोचकर कि देखते हैं पहले तारा ओझल होता है या आंख बन्द होती है।