जो भी मुंबई आता है उसे पहली ही बरसात में प्रेक्टिस हो जाती है कि अगर कहीं फंसे तो कई घंटों तक बुद्ध बनकर यथावत रहने के लिए तैयार रहो। जूते की दुकानों में अगर प्लास्टिक के जूते चप्पल इफरात में लटकते दिखनें लगें तो समझ जाइए बरसात आने वाली है। हर कोई अपने लिए एक जोड़ी चप्पल, जूता, सैंडल हर साल लेता है। न ले तो मेरे जैसा हाल हो जाए। पहली बरसात में चमड़े के जूते पहन कर सड़क पर उतर गया था। किंग्ज सल स्टेशन पहुंचे तो हार्बर लाइन बंद। माटुंगा रोड तक चल के जाना तय हुआ। एक साथी ने पहला काम किया, मुझे बरसाती पन्ही खिरदवाई। जूते की जोड़ी प्लास्टिक में लपेट कर बगल में खोंसी और पानी में खच्च-खच्च आवाज निकालते हुए चल पड़े। अंग्रेजी के जेड आकार का लोहे का लाल पुल पार करके वेस्टर्न लाइन के स्टेशन माटुंगा रोड पहुंचे। उन दिनों मैं आकाशवाणी में काम करता था। मुंबई में नया नया आया था। शहर अभी बेगाना और डरावना भी लगता था। डरपोक बच्चे की तरह किसी न किसी सहकर्मी की अंगुली पकड़ के चलता था। पहली बरसात में साथी के अलावा एक जोड़ी जूता भी हाथ में था। रेंगती हुई ट्रेन में महालक्ष्मी तक पहुंचे। उसके आगे पटड़ियां पानी में डूबी हुई थीं। टैक्सी ली। आठ बजे के चले हुए करीब बारह बजे दफ्तर पहुंचे। मैं देर से पहुंचने और नया अनुभव पाने से बड़ा खुश था।
एक बार आधी रात में बरसात में फंस गया। कवि विजय कुमार से शाम को सात बजे के करीब सायन स्टेशन पर मिला। ग्यारह बजे तक गप्पें मारते रहे। बारिश रुकी नहीं। फिर से दूसरे रेस्टोरेंट में बारह बजे तक बैठे रहे। उसके बाद लगा, अब तो चलना ही होगा। उन्हें स्टेशन पर छोड़ा। खुद एंटापहिल के लिए टैक्सी ली। जरा सी देर में टैक्सी वाले ने हाथ खड़े कर दिए। उतर कर पैदल चलना शुरू किया। कोलीवाड़ा हो के एंटापहिल के सैक्टर सात के लिए। घुटने-घुटने पानी में। आधी रात का वक्त। याद नहीं रास्ते में कोई मिला हो। गनीमत कि स्ट्रीट लाइट जल रही थी। करीब दो किलामीटर खुद को लकड़ी के ह्लाुंँदे की तरह ठेलते हुए घर पहुंचा। रात डेढ बजे।
पर सन् 2005 की बरसात तो एक हादसे की तरह घटी। उस दिन मैं अपने बड़े भाई भाभी और भतीजे को राजधानी एक्सप्रेस में बिठाने निकला था। टैक्सी ने एक किलोमीटर बाद ही हिम्मत हार दी। हम लोग जोगेश्वरी स्टेशन गए। उनके कपड़े के बैग वहीं पर भीग कर मन-मन भर के हो गए। लोकल ट्रेन में बैठ तो गए पर वो अंधेरी भी नहीं पहुंच सकी। अंधेरा होने लगा तो ट्रेन से कूदे और वापस जोगेश्वरी स्टेशन चल कर आ गए। वहां मेला लगा था। सामने सड़क पर खड़ी मोटरबाइक का सिर्फ हैंडल दिख रहा था। बड़ी देर बाद अक्ल आई कि पटड़ी-पटड़ी चलो, हमारा घर तो ट्रैक से सटा हुआ है। लोग चल ही रहे थे। हमने भी अटैची सिर पर लादे, बैग कंधे पर लटकाए और लौट चले। खुशकिस्मत थे, सही सलामत घर पहुंच गए। हमारी पड़ोसी की बेटी सांताक्रूज में अटक गई थी। वो अंधेरे में पैरों के चप्पू चलाते हुए गईं और जिगर के टुकड़े को ले के आईं। एक और पड़ौसी की पत्नी अगली सुबह घर पहुंची। अनगिनत लोग अगली सुबह ही घर पहुंच पाए। कुछ तो पहुंच ही नहीं पाए। हमारे इलाके में भैंसों के तबेले हैं। रात भर भैंसों के पगुराने की आवाजें आती रहीं। बेकली भरी। सुबह मेन रोड तक गए तो मंजर खौफजदा था। तबाही मची हुई थी। नाला कई कुछ बहा के ले गया था। भैंसों के फूले हुए शरीर छोड़ गया था। हारे हुए सिपाहियों की तरह लोग लौट रहे थे।
मुंबई जब भी किसी मुश्किल दौर से गुजरती है, उसकी चेतना जाग उठती है। इस बार भी लोगों ने लोगों की खूब मदद की थी। पानी, चाय, नाश्ता, सहारा, हिम्मत, शरण, जो जिसके बस में था, दिया। आज भी मन ही मन शायद हर कोई यह कामना करता है कि बरसात आए, झूम के आए पर उस तरह का कहर न बरपाए।
चित्र - हरबीर
इस टिप्पणी का संपादित अंश कादम्बिनी के जुलाई अंक में देखा जा सकता है.