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मेघजी के साथ सुमनिका - मुंबई की एलिफेंटा गुफाओं से लौटकर जेट्टी के पास |
रमेश कुंतल मेघ की भाषा और
भाषा-विषयक चिंतन : कुछ नोट्स
आप जानते ही हैं कि रमेश कुंतल मेघ के समग्र कार्य पर बनास जन
का विशेष अंक प्रदीप सक्सेना के संपादन में फरवरी 2022 में प्रकाशित हुआ। मेघ जी की
भाषा पर लंबे समय से टीका-टिप्पणी होती रही है। मैंने उनकी भाषा और भाषा के बारे में
उनके विचारों पर एक लेख इस अंक के लिए लिखा था। वह लेख यहां आपके लिए पेश है।
यह रमेश कुंतल मेघ की भाषा, भाषा के उनके ट्रीटमेंट,
साहित्य और अन्य कलाओं के आस्वाद एवं विश्लेषण के लिए वांछित भाषा; हमारी
साहित्यिक विरासत में भाषा चिंतन के उनके आकलन का कोई सुचिंतित या शोधपरक विश्लेषण
या व्याख्या नहीं है। यहां उस दिशा में आगे अध्ययन करने की दृष्टि से बुनियादी तौर
पर नजर डालने की कोशिश की गई है।
1
रमेश कुंतल मेघ की भाषा के प्रति साहित्य-समाज में प्रचलित
धारणाएं उनकी भाषा को दुरूह की श्रेणी में धकेल देती हैं। दुरूह होने के कारण मेघ
जी के लिखे को अपठनीय मान लिया जाता है। इसलिए त्याज्य। जैसे कि विष्णु खरे ने एक
बार वयक्तिगत बातचीत में मेघ जी का जिक्र आते ही शुचिता ग्रंथि से ग्रसित ब्राह्मण
की तरह दुत्कारते हुए कहा कि अरे!
अरे! किसका नाम ले लिया।
उनको तो पढ़ना ही ...। इसी तरह राजेंद्र यादव ने हंस में लेख छापने से इसलिए मना
कर दिया क्योंकि पत्र में मेघ जी का छात्र होने का जिक्र कर दिया था। (इस प्रसंग
का जिक्र इसी अंक में शामिल एक बातचीत में है)। मेघ जी को भी ‘कठिन भाषा के प्रेत’ जैसी श्रेणी में रखा जाता है।
सोचने की बात है कि ऐसे अछूत किस्म के वर्गीकरण कर देने की
वजह सिर्फ भाषा है या उनके विषयों का आलोचना के प्रचलित ढांचे से भिन्न होना है।
या उनकी लेखन शैली और विश्लेषण पद्धति इसके मूल में है, जो हिन्दी के
वृत्तांत प्रेमी वितान और फेनिल भाषा के मोह में बंधे ‘प्रबुद्ध’
पाठक को अनजानी और अबूझ लगती है।
2
अपनी भाषा का मजाक उड़ाए जाने के
प्रति मेघ जी सजग थे। वे उसे खिलंदड़े भाव से ही लेते हैं। सन 2012 में हमने उनसे
हुई बातचीत में यह सवाल पूछा था। उन्होंने समाज विज्ञानों और पारिभाषिकों का जिक्र
करने के साथ-साथ यह भी कहा,
‘‘हमारे गंगा
प्रसाद विमल ने भी हमारा भट्ठा बिठाया है। एक चुटकुला मेरे बारे में बताया कि
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गंगा प्रसाद विमल से कहा कि विमल कुंतल की किताब आई है
जरा इसका हिंदी अनुवाद तो करके हमें पढ़ा दो। (समवेत ठहाका) यह मुहावरा बड़ा चल
गया। लेकिन कहते हैं न कि पहला बच्चा मां को बहुत प्यारा होता है तो विमल हमारे
बड़े प्रिय हैं।’’ (यह बातचीत इसी अंक में है)
इसी तरह पल प्रतिपल के
सितंबर-दिसंबर 2004 अंक में प्रकाशित अपने आत्मकथ्य में डॉ मेघ ने लिखा है, ‘‘हिन्दी की विशुद्धतावादी चौकड़ियों में गुपचुप गुमसुम मुझे दुरूह, विशृंखल, कन्फ्यूज्ड, असम्प्रेष्य
आदि घोषित करके खारिज किया जाता रहा है, आज तक।’’[i] उन्होंने गंगाप्रसाद विमल के फैलाए एक और
चुटकुले का भी जिक्र किया है, ‘‘जब प्रेस में कम्पोजीटर
मटरगश्ती या टालमटोल करते थे तो मैनेजर उन्हें डराते हुए यह कह कर सही रास्ते पर
लाता था कि कुंतल मेघ की पांडलिपि कम्पोज करने को दे देंगे, तो
सही हो जाओगे।’’[ii] मेघ इस तरह से
मजाक उड़ाए जाने या खारिज किए जाने से विचलित नहीं होते, ‘‘किंतु
मैं भाषा-चक्र में पुच्छल तारे की तरह बढ़ता चला आया। मैं अपने भावी संदर्भ को कतई
धु्ंधला या भटका हुआ नहीं करना चाहता हूं।’’[iii] स्वीकार
अस्वीकार से परे उन्होंने अपने काम से मतलब रखा। उनका कहना है, ‘‘विज्ञान के स्नातक के नाते मुझे तार्किकता का अच्छा अभ्यास रहा है जिससे
मेरी भाषा समीकरण सूत्रों-तर्क चक्रों जैसी होती चली है। प्रकारांतर से मैं
शनै:शनै: मार्क्सवादी व्यापकता तथा सांस्कृतिक प्रतिबद्धता के कारण सभी समाज
विज्ञानों के सटीक-सुनिश्चित पारिभाषिकों का भरपूर इस्तेमाल करने लगा ताकि साहित्य
में ‘आलोचना’, ‘कुएं के मेंढ़क के
दर्जे’, अथवा ‘बैलगाड़ी के नीचे लटकी
लालटेन के पीछे चलने वाले कुत्ते’ की अपेक्षा ज्ञानार्जुन के
रथ की पार्थसारथी हो जाए।’’[iv]
यहां मेघ जी की भाषा को समझने के दो सूत्र मिलते हैं।
वे बखान, वर्णन,
वृत्तांत से भरे निबंधपरक लेखन के बजाए समीकरणों, सूत्रों, तर्कों का सहारा लेते हैं, जिससे उनकी भाषा वस्तुपरक और विश्लेषणधर्मी होती है। दूसरे, उन्होंने अपनी आलोचना में समाज विज्ञानों का सहारा लिया है। इसके लिए
संबंधित विषय के पारिभाषिक का प्रयोग अनिवार्य है। हिन्दी साहित्य समाज प्राय:
समाज विज्ञानों को पढ़ता नहीं है, जो लोग पढ़ते भी हैं,
वे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ते हैं। मेघ जी पारिभाषिकों का हिन्दी
रूप बनाते हैं। प्राय: वे उसका अंग्रेजी रूप भी साथ दे देते हैं। फिर भी जो पाठक
पारिभाषिक से परिचित नहीं होगा, उसे विषय ठीक से समझ नहीं
आएगा और भाषा गरिष्ठ या दुरूह लगेगी। विनोद शाही मेघ जी के साथ बातचीत में कहते
हैं, ‘‘आपके पास हमेशा एक वैज्ञानिक व्यवस्था या पद्धति आपके
कार्य में मौजूद दिखाई देती रहती है। यह पद्धति इतनी नुमायां है कि ... इतना
अनुशासन, इतनी बारीक भेद-कोटियां, इतने
मामूली फर्कों को रेखांकित करते इतने सारे पारिभाषिक कि आपको मूलत: एक वैज्ञानिक
कहना चाहिए। परंतु जितना और जैसा मैं समझ पाया हूं ... उससे लगता है कि आप मूलत:
एक दार्शनिक हैं।’’[v] मेघ जी के ही
शब्दों में, ‘‘इस प्रसंग में विनय करूं कि हमारे जैसों की
भाषा एक ओर लटको-झटकों, ठुमकों-झुमकों वाली रसीली न होकर
तार्किक सीढ़ियों तथा तारतम्यपरक संरचना से संयुक्त होती है तथा दूसरी ओर विभिन्न
ज्ञानानुशासनों के शब्दभंडारों एवं पारिभाषिक कुलकों से मंडित। ... मुझे अपने लंबे
अनुभव से यही संबोध हुआ है कि (अपनी) भाषा वाक्य-रचना-विन्यास के कारण कतई दुर्बोध
नहीं होती, बल्कि शब्दावली तथा पारिभाषिकों के गुंफन से
क्लिष्ट उपमानित होती है।’’[vi]
सम्प्रेषण दुतरफा
प्रक्रिया है। अगर लेखक को पाठक के स्तर तक उतरना पड़ता है तो पाठक को भी लेखक के
स्तर तक उठने का प्रयास करना होता है। ‘‘अगर लेखक को
भी सामान्य तथा मार्मिक पाठक के बोध स्तरों पर अवरोहण करना श्रेयस्कर है तो पाठक
वर्ग को भी अपने लेखक या अन्य विषयों के प्रति अपना आरोहण करना वांछनीय है। यह
दुतरफा, किंतु एकतान, धारावाहिक
व्यापार है।’’[vii]
विनोद शाही से बातचीत
में मेघ जी पारिभाषिकों के उदाहरण देकर समझाते भी हैं कि अंग्रेजी जैसी बारीकी
हिन्दी में नहीं है। इसलिए शब्द बनाने ही पड़ेंगे। जैसे ‘इफेक्ट’, ‘अफेक्ट’, ‘इन्फ्लुएंस’
के लिए ‘प्रभाव’ शब्द से
काम नहीं चलता। जो लोग राजभाषा में अनुवाद कार्य और शब्दावली निर्माण कार्य से
जुड़े हैं, वे हिन्दी अंग्रेजी की इस समस्या से बखूबी वाफिफ
हैं। अंग्रेजों का उपनिवेश होने के कारण आज भी विधायिका, कार्यपालिका,
न्यायपालिका का काम अंग्रेजी में चलता है। राजभाषा के कानून का पालन
करने के लिए उसका अनुवाद किया जाता है। उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। वैज्ञानिक
शब्दावली आयोग टकसाल की तरह अंग्रेजी के हिन्दी पर्याय बनाता है। चूंकि वे शब्द
इस्तेमाल नहीं होते, उन पर रुरूह होने का लांछन लगा दिया
जाता है। मेघ जी अपने पक्ष को इस तरह स्पष्ट करते हैं, ‘‘मेरी
भाषा कठिन नहीं है, रुकावट पारिभाषिकों को लेकर ही है,
मैं ऐसा मानता हूं। मैं एक ऐसी भाषा का इस्तेमाल करता हूं जो स्टैप
बाई स्टैप चलती है – पाइथागोरस की थियोरम या थर्मोडायनैमिक्स की तरह। उसे समझना
कठिन नहीं है। पर सामान्य हिन्दी पाठक अंग्रेजी पर्यायों को अलग-अलग जानता हुआ भी
हिन्दी शब्दों को लेकर उलझ जाता है और दोष मेरे ऊपर आता है कि मेघ जी कनफ्यूज कर
रहे हैं या हो हो गए हैं।’’[viii] पारिभाषिकों
के निर्माण और शब्दकोशों के महत्व के बारे में मेघ जी कहते हैं, ‘‘बहुभाषी भारत में तो शब्दकोश समझदारी-साझेदारी के रामेश्वरम् सेतुबंध की
तरह होते हैं। इनके द्वारा ही एक दूसरे की भाषा तथा संस्कृति की आपसी भागीदारी तो
बढ़ती ही है, साथ-साथ अखिल भारतीय भाषिक संस्कृति के
वैश्वकों (यूनिवर्सल्स) के निर्माण को भी प्रोत्साहन मिलता है।’’[ix]
‘‘नए-नए
ज्ञान-विज्ञानों को अर्जित करने के लिए हजारों-लाखों पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्दों
को गढ़ना लाज़िमी हो गया है। यही हमारी ऐतिहासिक तथा राष्ट्रीय प्रारब्ध है।
केंद्र का विज्ञान और टेक्नालॉजी आयोग, विभिन्न राज्यों की
ग्रंथ तथा भाषा अकादमियां तथा यूनिवर्सिटियों के शोध-संस्थान अपने-अपने स्तर पर यह
काम कर रहे हैं।’’[x]
‘‘पारिभाषिक
शब्द की स्थिति विशिष्ट है। यह एक सचेत-सुनिश्चित-साधारणीकृत अभिव्यक्ति है। इसमें
अर्थ का एसाइनमेंट किया जाता है। पारिभाषिक शब्द की केंद्रीय समस्या
विभ्रांतिहीनता (अन-एंबिग्विटी) समानता (कामननेस) है।’’[xi]
भाषा लिपि के कारण
दृश्य है,
बोलने के कारण श्रव्य है। यह देश काल की एकता है। शब्दों के विशिष्ट
अर्थ, ध्वनियां और व्याकरणिक प्रकार होते हैं। ‘‘इस तरह यह (शब्द) परिभाषा और प्रयोग, नियम और
अभिव्यंजनाओं के चतुरंग पर भाषा-क्रीड़ा करता है। भाषा एक सामाजिक व्यवस्था के
साथ-साथ शब्दों का विज्ञान भी है। अतएव शब्दकोश (लेक्सिकन) तथा शब्द-प्रयोग (लेक्सिकोग्राफी)
समाज में विकास को भी प्रतिबिंबित-अनुचिंतित करते हैं। अत: कहा गया है कि सबसे
पहले शब्द का द्रष्टा ऋषि होता है।’’[xii]
3
रमेश कुंतल मेघ यह भी
मानते हैं कि, ‘‘साहित्य में
रचनात्मकता और दर्शन-चिंतन दोनों शामिल होते हैं।’’ लेकिन
हमारे यहां आलोचना में रचनाशीलता और दर्शन-चिंतन को वर्टिकल ढंग से अलग-अलग माना
जाता है। वे ‘चिंतनपरक’ लेखन को भी ‘रचनात्मकता’ की श्रेणी में रखते हैं।[xiii]
रमेश कुंतल मेघ अपने आलोचनात्मक लेखन में समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, मनोविज्ञान,
नृविज्ञान, इतिहास, दर्शन,
आदि अनुशासनों का अनुप्रयोग करते हैं। इसी क्रम में वे
सौंदर्यबोधशास्त्र के अध्ययन की ओर बढ़ते हैं। वे भारतीय और पाश्चात्य ऐस्थैटिक्स
को खोलते-खंगालते हुए अपने सौंदर्यबोध शास्त्र की रचना करते हैं। यह उनकी एक
प्रदीर्घ परियोजना रही है। ‘अथातो सौंदर्य जिज्ञासा’ सन 1977 में छपी थी और ‘साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक’ सन 1980 में। उसके बाद मेघ जी अपने अध्ययन क्रम में देह भाषा और मिथकों
की ओर बढ़ जाते हैं। मिथक अध्ययन में वे प्रागैतिहास में भी चले जाते हैं। कहने का अर्थ यह है कि
उनके चिंतन-मनन, प्रेक्षण-लेखन का दायरा व्यापक और गहन होता गया है। वे
एक दार्शनिक-चिंतक की तरह ‘कृति’ का अध्ययन-विश्लेषण करते हैं। एक साक्षात्कार में मेघ जी
ने कहा है, ‘‘मैं जो पहले लिखता था वो दूसरा था, फिर
मैंने साहित्य पर लिखा, फिर सौंदर्यबोध शास्त्र पर,
मिथकों पर लिखा, फिर देह भाषा पर आ गया। मुझमें परिवर्तन आया और मेरे
ज्ञान में भी परिवर्तन आया।[xiv]
4
भाषा
का संधान करने के लिए मेघ जी ने भारतीय काव्य की शास्त्रीय परंपरा में गहरी डुबकी
लगाई है। कलाशास्त्र का अध्ययन करते हुए वे पाणिनी, भरत, भट्टलोल्लट, कुंतक, दंडी
आदि आचार्यों से होकर ‘महाकलाभाषा’
की संकल्पना की ओर बढ़ते हैं। ‘‘हमारा
बोध आधुनिक है, हमारी यथार्थता आध्यात्मिक नहीं है, हमारी
रुचियां तथा मनोविज्ञान कुलीनता तथा संविद्विश्रांति पर आश्रित न होकर द्वंद्व
और संघर्ष पर आश्रित हैं। अत: हमारा भावलोक बदल गया है जिससे हमारी आधुनिक भाषा के
सौंदर्यतात्विक गुण भी भिन्न होंगे।[xv]
रमेश कुंतल मेघ दैनिक
व्यवहार,
जमीनी हकीकत तथा सामान्य सम्प्रेषण की सरल भाषा के बरक्स ‘समृद्ध भाषा’ की अपनी धारणा स्पष्ट करते हैं। उनके
मुताबिक समृद्ध भाषा में नवीनता, विविधता, बहुलता होगी तो
उसमें शास्त्रीयता और क्लिष्टता की भी संभावना है। ऐसा शुरु शुरु में होता है।
धीरे-धीरे जैसे-जैसे समाज भाषिकी (सोशियोलिंग्विस्ट) दबाव बढ़ते जाते हैं, बहुआयामी
ज्ञान सामाजिक शक्ति बन जाता है। तब ‘शब्द’ कर्मवाची और ‘अर्थ’ व्यवहारी होते जाते हैं। राहुल सांकृत्यायन ने
दर्शन-दिग्दर्शन, वासुदेव शरण अग्रवाल ने भाषिकी-नृतत्व (लिंग्विस्ट
एंथ्रोपोलोजी) तथा कलाओं, आचार्य शुक्ल ने ‘रस’ और ‘लोक’ को
शामिल किया। नए-नए अनुशासनों के शामिल होने पर हमेशा ही हलचल, उथल-पुथल, प्रेषणीयता
का संकट, व्याकरण का अतिक्रमण, ज्ञानानुशासनों
का घालमेल या घपला प्रतीत होता है। ... समृद्ध भाषा मानव समूह, समाज
तथा संस्कृति के उन्नयन एवं प्रगति का भी मानदंड हो जाती है।[xvi]
भाषा को समकालीन बनाना
ही होगा। विभिन्न अनुशासनों के शब्दों के समन्वय से ही ऐसा हो पाएगा। सूचना
प्रौद्योगिकी, प्रबंधन, इंजीनियरी,
डाक्टरी, तथा समाज विज्ञानों की दूरियां पाटनी
होंगी। शब्द भंडार व्यापक करना ही होगा।
इसके बरक्स मानविकी तथा
कला शास्त्रों में समृद्ध भाषा की कसौटी भावानुभूति तथा शोभाकारिता की होती है।
जैसे सृष्टि, समाज, मानव, सभी कुछ त्रिआयामी है। समृद्ध भाषा भी बहुआयामी है। ‘‘अत: आज समृद्ध भाषा को मानविकी, साहित्य एवं कलाओं
के साथ-साथ तथा आगे-आगे चिंतन, दर्शन, विचारधारा,
अनेकानेक समाजविज्ञानों के अनुशासनों से अवश्यंभावी संयुक्त होना ही
होगा।[xvii]
5
मेघ जी सौंदर्यबोधशास्त्र
की सैद्धांतिकी बनाने में बरसों लगे रहे हैं। इसकी बहुआयामी और सम्यक भाषा की खोज
में वे प्रागैतिहास में जाते हैं, शैलचित्रों को समझने की
कोशिश करते हैं। भाषा के संदर्भ में ‘मरुतों’ के मिथ को खोलते हैं। काव्यपुरुष, चित्रपुरुष,
और काव्यरमणी जैसे रूपकों की व्याख्या करते हैं। पाणिनी से वाचिक
भाषा और भरत से अवाचिक भाषा (दृश्य श्रव्य) की कुंजियां हासिल करते हैं। ‘‘हम नानाविध भाषा की प्रज्ञा के नव-नवीन अंगों की वैभवशाली राशि का
साक्षात्कार करते हैं जो शब्द-बिंब, रेखा-रंग, सुर-ताल, रस-राग, मुद्रा-भंगिमा
आदि की महाप्रभूत इकाइयों का नानाविध साहित्य तथा सौंदर्यबोधशास्त्र गढ़ती हैं।’’[xviii] वाचिक या
व्याकरणिक भाषा देश, काल, समाज अनुसार
बदलती रहती है।
गणित, भौतिकी, रसायनशास्त्र, अलजब्रा,
कंप्यूटर साइंस आदि में संकेत, सारणी, आकृतिमूलक भाषा का पर्याप्त प्रयोग होता है। नृत्य, संगीत,
अभिनय में अवाच्य सम्प्रेषण भी होता है। चित्रकला में रंग और रेखाएं, स्पेस और संयोजन बोलता है। अत: भाषा की सरलता की मांग उन्नत समाजों का
लक्षण नहीं है।
रमेश कुंतल मेघ मानते
हैं कि जब दो कलाओं (भाषिक कला – काव्य एवं नाटक या काव्य और चित्रकला या चित्रकला और संगीत) को मिलाते हैं तो
सौंदर्यबोध की स्थिति उत्पन्न होती है। अत: इसकी मूल प्रकृति तुलनात्मक है। इसके
आस्वाद और अन्वेषण के लिए नेत्र, कर्ण (पढ़ना देखना,
सुनना), ही नहीं, नासिका
(सूंघना), जिह्वा (स्वाद), त्वचा
(स्पर्श) की भी भूमिका होती है। भाव एवं दर्शन, संरचना एवं
पद्धति, सौंदर्य एवं कला, अभिरुचि एवं
अनुभव भी इसमें समाहित रहते हैं। इसमें काव्यशास्त्र, साहित्यशास्त्र
और कलाशास्त्र का समावेश है। ‘‘सौंदर्यबोधशास्त्र, और उसकी विलक्षण भाषा के बिना हममें सौंदर्यसांस्कृतिक बोध, दार्शनिक दृष्टिकोण तथा आधुनिक कला-साहित्य-संस्कार ही विकसित नहीं हो
सकता।’’[xix]
मेघ जी ने
सौंदर्यबोधशास्त्र की भाषा का व्याकरण बड़े तार्किक ढंग से बनाया है। इसमें कलाकार, अभिव्यक्ति और आशंसक की क्रियाओं-प्रक्रियाओं-प्रतिक्रियाओं
के कई पर्म्युटेशन और कम्बीनेशन बनाए हैं। इनमें रचना-प्रक्रिया, सम्प्रेषण, आशंसा, इतिहास,
दर्शन, वस्तुतत्व, रूपतत्व
जैसे सभी कलातत्व आ जाते हैं।[xx]
6
मेघ
जी अपनी आलोचना में वाचिक भाषा के अलावा अवाचिक भाषा जैसे रेखाचित्रों, सारणियों, आरेखों, छायाचित्रों
का भी
प्रयोग करते हैं। इसके पीछे उनकी तार्किक, मैथॅाडिकल कार्यपद्धति
काम करती है। चित्रकला या शिल्पकला के सौंदर्यबोधशास्त्रीय अध्ययन में तो जाहिर है
चित्र का प्रयोग होगा ही, लेकिन कला भाषा की सैद्धांतिक
व्याख्या भी उन्होंने सारणियों और आरेखों के जरिए की है। इसके अलावा साहित्यिक
कृतियों की समीक्षा-आलोचना में भी वे अपनी बात आरेखों के माध्यम से स्पष्ट करते
हैं। जैसे हजारीप्रसाद द्विवेदी के ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’
का संरचनात्मक (स्ट्रक्चरल) विश्लेषण करते हुए वे नियति तत्व के छह
चरणों का भूगोल के अक्ष में एक आरेख बनाते हैं, फिर उसकी
व्याख्या करते हैं।[xxi] इसी उपन्यास के पात्रों की
भौगोलिक यात्राओं को स्पष्ट करने के लिए नक्शे का चित्र देते हैं। वृंदावन लाल
वर्मा के उपन्यास ‘मृगनयनी’ में तो कई
पाई चार्ट और आरेख बनाए गए हैं। समृद्ध भाषा नामक लेख में भी छायाआकृति (सिलुऐट silhouette) दी गई है जिसमें एक नारी एक ऊंचे पाएदान से छलांग लगाने को उद्धत है।
दोनों बाहें मानो उड़ान भरने के लिए पंखों की तरह फैली हुई हैं। एड़ियां उचकी हुई
हैं। धड़ आगे को झुका है। समूची देह छलांग लगा देने के तनाव और उत्तेजना से अकड़ी
हुई है। इस चित्र का शीर्षक है – ‘समृद्ध भाषिक अंतर्उद्वेल’। समृद्ध भाषा के अपने तर्क को पुष्ट करने के लिए, उसे
अंगीकार करने का आह्वान करने के लिए यह शब्दातीत उद्बोधन है। अवाचिक भाषा का ऐसा
अनूठा प्रयोग रमेश कुंतल मेघ ही कर सकते हैं।
7
यहां मेघ जी की भाषा
में बेमालूम ढंग से अवतरित होने वाले पंजाबी भाषा के कतिपय शब्दों का उदाहरण देने
का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। ‘सोणा अते
निक्का इतिहास’, ‘सुतरां’, ‘होंद’,
‘प्रकटावा’, ‘मिलवर्तन’, ‘उसारा’।
अब निर्मल वर्मा के ‘वे दिन’ की भाषा पर मेघ जी की भाषा का एक उद्धरण-
‘‘यह भाषा –
सहसा जुगनू सी चमक उठती है, नदी सी गहरी और अंधेरी हो जाती
है, रायना के मफलर सी फहराती-उमड़ती चपल हो जाती है और अंतिम
क्षणों में आकर स्वयं एक सहचरी बन जाती है। इस उपन्यास में भाषा न तो केवल माध्यम
है, न ही केवल सांस्कृतिक उद्दीपन, बल्कि
भाषा पात्रों का ही मन है, भाषा शहर की सांस है और भाषा
स्वयं एक अदृश्य और सर्वप्रिय पात्र है। भाषा एक नई पहचान है। वह भाषा ही है जो
रायना के इर्द-गिर्द एक ओर प्राग का सांस्कृतिक भूगोल और प्राकृतिक लैंडस्केप
घुमाती है तो दूसरी ओर भावलोक में मरी युवती रायना के इर्द-गिर्द सारा ‘काव्य’ परिक्रमा करता है और रायना अतीत के युद्ध तथा
मृत्यु की अंधेरी और गहरी घाटी में छटपटाती है – डार्क एंड डीप।’’[xxii]
[i] आत्मकथ्य, रमेश
कुतल मेघ, पल प्रतिपल, वर्ष 19 अंक
69-70, सितंबर-दिसंबर 2004, चंडीगढ़
(संपादक : देश निर्मोही), पृष्ठ 23
[v] रमेश
कुतल मेघ से विनोद शाही की बातचीत, पल प्रतिपल, वर्ष 19 अंक 69-70, सितंबर-दिसंबर 2004, चंडीगढ़ (संपादक : देश निर्मोही), पृष्ठ 31
[vi] वाक्भाष-प्रोटो
भाषा-देह भाषा, समाज-संस्कृति तथा समाज-विज्ञान से समेकित
साहित्य, रमेश कुतल मेघ, अमन प्रकाशन,
कानपुर, 2016, पृष्ठ 15
[vii] समृद्ध
भाषा, आपकी खातिर मुनासिब कार्यवाहियां, रमेश कुंतल मेघ, अमन प्रकाशन, कानपुर,
2018, पृष्ठ 163
[viii] रमेश
कुतल मेघ से विनोद शाही की बातचीत, पल प्रतिपल, वर्ष 19 अंक 69-70, सितंबर-दिसंबर 2004, चंडीगढ़ (संपादक : देश निर्मोही), पृष्ठ 32
[ix] लेक्सिकन
और कोशकारी, समाज-संस्कृति तथा समाज-विज्ञान से समेकित
साहित्य, रमेश कुतल मेघ, अमन प्रकाशन, कानपुर,
2016, पृष्ठ 23
[x] शब्द-व्यवहार,
समाज-संस्कृति तथा समाज-विज्ञान से समेकित साहित्य, रमेश कुतल मेघ, अमन प्रकाशन, कानपुर,
2016, पृष्ठ 26
[xi] उपरोक्त,
पृष्ठ 28-29
[xiii] रमेश
कुतल मेघ से विनोद शाही की बातचीत, पल प्रतिपल, वर्ष 19 अंक 69-70, सितंबर-दिसंबर 2004, चंडीगढ़ (संपादक : देश निर्मोही), पृष्ठ 29
[xiv] लक्ष्मण
यादव द्वारा साक्षात्कार, समाज-संस्कृति तथा समाज-विज्ञान से
समेकित साहित्य, रमेश कुतल मेघ, अमन
प्रकाशन, कानपुर, 2016, पृष्ठ 76
[xv] रसवस्तु
तथा उक्तिरूपों की डायलैक्टिक्स और विचारदर्शन, कलाशास्त्र
और मध्यकालीन भाषिकी-क्रांतियां, रमेश कुंतल मेघ, गुरुनानक यूनिवर्सिटी, अमृतसर, 1975, पृष्ठ 11
[xvi] समृद्ध
भाषा, समाज-संस्कृति तथा समाज-विज्ञान से समेकित साहित्य,
रमेश कुतल मेघ, अमन प्रकाशन, कानपुर, 2016, पृष्ठ 36
[xviii] वाक् और
मरुत:भाषा के प्रति एक अव्याकरणिक संधान, हमारा लक्ष्य लाने
हैं लीलाकमल, रमेश कुंतल मेघ, किताबघर
प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृष्ठ 16
[xix] सौंदर्यबोधशास्त्र
और उसकी भाषा, आपकी खातिर मुनासिब कार्यवाहियां, रमेश कुंतल मेघ, अमन प्रकाशन, कानपुर,
2018, पृष्ठ 167
[xx] उपरोक्त,
प,ष्ठ 166 से 174
[xxi] प्रतीकवाद
और संरचनावाद:‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ का
संरचनात्मक विश्लेषण, क्योंकि समय एक शब्द है, रमेश कुंतल मेघ, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2020, पृष्ठ 196
[xxii] वे दिन,
क्योंकि समय एक शब्द है, रमेश कुंतल मेघ,
लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2020, पृष्ठ 307